Thursday, September 1, 2022

दानीपारा शिलालेख-2006

छत्तीसगढ़ के प्रमुख नगर रायपुर की पहचान व्यापारिक, प्रशासनिक केंद्र के रूप में रही है। छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी बनकर इसके नगर रूप में निरंतर तेजी से विकास हो रहा है। इसके समानांतर नगर के धरोहर की चर्चा होने पर संकोच सा होता है। नगर में ऐसे भवन, स्मारक, स्थल कम रहे हैं, जो रहे हैं उनका स्वरूप बदल गया या अस्तित्व ही नहीं रहा। शहर और आबादी का दबाव होता ही है, दैनंदिन जीवन की आपाधापी के बीच कई बार हमारे धरोहर उपेक्षित, नजरअंदाज रह जाते हैं। यों रायपुर अपने में सुखी-सा शहर है, मगर जब कोई मेहमान आता है और शहर में देखने लायक क्या है, कुछ दिखाने की बात आती है तो हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि उसे शहर में क्या दिखाएं, कहां ले जाएं और आमतौर पर बात मॉल से शुरू और मॉल पर ही पूरी हो जाती है, जिससे कोई भी शहरी आगंतुक अपने शहर में देखा-उबा होता है।

इन्टैक, रायपुर की योजना, जिसमें पुरानी बस्ती के स्थल, स्मारक-स्थलों का भ्रमण ‘हेरिटेज वाक‘ होता था, स्मार्ट सिटी परियोजना में नगर के इन धरोहर को साजने-संवारने का प्रयास किया गया, किंतु संभवतः वित्तीय लक्ष्य और भौतिक लक्ष्य तो प्राप्त कर लिया गया, वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाई। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि देश के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक, रायपुर के महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में विशिष्ट पुरावशेष, विशेषकर अभिलेख, सिक्के तथा कांस्य प्रतिमाओं का संग्रह है, जिसका प्रदर्शन आकर्षण का विषय हो सकता है। इस क्रम में पुरानी बस्ती, दानीपारा के शिलालेख की चर्चा प्रसंगानुकूल होगी। निजी भवन में होने के कारण सामान्य रूप से इसका देखा-दिखाया जाना संभव नहीं होता और जिस पर निगाहें न हों, उसका ध्यान से उतरना कितना स्वाभाविक होता है, out of sight, out of mind का यह उदाहरण है।

इस शिलालेख का महत्व इसलिए भी है कि छत्तीसगढ़ में कलचुरि शासक रत्नदेव तृतीय और प्रतापमल्ल के बाद वाहरसाय, ब्रह्मदेव और अमरसिंहदेव के अभिलेख मिलते हैं। इस काल के सीमित अभिलेख होने के कारण साथ ही इस मायने में कि किसी राजसत्ता, राजपुरुष का नहीं है, यह विशिष्ट हो जाता है।

इस क्षेत्र में रुचि लेने वाले कुछेक की ही जानकारी में यह है, इसका अध्ययन और इतिहास के इस महत्वपूर्ण पक्ष पर ध्यान भी इक्का-दुक्का ने ही दिया है, इनमें डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम, तत्कालीन आचार्य एवं अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व अध्ययन शाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय, रायपुर हैं, जिन्होंने तत्कालीन सहयेगी अतिथि आचार्य, डॉ. चन्द्रशेखर गुप्त तथा शोध छात्र तकनीकी सहायक, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर प्रभात कुमार सिंह के साथ इस शिलालेख पर शोधपत्र तैयार किया था। यह शोध पत्र श्री कावेरी शोध संस्थान, उज्जैन की शोध-पत्रिका, वाल्यूम 15, 1-2 (अप्रैल-जुलाई, 2006-जुलाई-सितंबर, 2006) में पृष्ठ-16 से 21 पर प्रकाशित हुआ था। हमारी धरोहर का गौरवशाली यह पक्ष सर्वसुलभ और सहज उपलब्ध रहे, अतएव इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

दानीपारा, रायपुर (छत्तीसगढ़) शिलालेख पर नया प्रकाश

रायपुर (छत्तीसगढ़ की राजधानी का नगर) ईस्वी पन्द्रहवीं शताब्दी में कलचुरियों की एक शाखा की राजधानी के रूप में अस्तित्व में आया। रतनपुर के कलचुरियों में प्रतापमल्ल अंतिम प्रतापी नरेश था, जिसके निर्बल आठ-दस उत्तराधिकारियों ने मराठों के हाथों पराजित होने व पहले सत्ता संभाले रखी। प्रतापमल्ल की कुछ पीढ़ियों पश्चात् लक्ष्मीदेव और उसका पुत्र सिंहण राजा हुए। सिंहण के दो पुत्र थे- डंघीर तथा रामचन्द्र। रामचन्द्र ने रायपुर बसा कर अपनी राजधानी स्थापित की।1 इसके पूर्व राजधानी खल्वाटिका (आधुनिक खलारी, जिला महासमुन्द)2 में थी जहाँ से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि रामचन्द्र ने फणि (नाग) वंशी भोणिंगदेव को जीता था। उसके पुत्र ब्रह्मदेव के काल के (विक्रम संवत 1458) ई. स. 1402 तथा 1470 (ई. स. 1415) दो शिलालेख रायपुर तथा खलारी से प्राप्त हुए हैं जिनसे इन स्थानों में क्रमशः नायक हाजिराज द्वारा हाटकेश्वर3 तथा मोची देवपाल द्वारा नारायण4 मंदिरों के निर्माण का उल्लेख है। ये दोनों अभिलेख सम्प्रति महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिये गये हैं।

रायपुर के दानीपारा नामक मोहल्ले के प्रतिष्ठित दानी परिवार के घर में एक शिलालेख मुनि कांतिसागर ने देखा था, किंतु मात्र उल्लेख के5 उन्होंने और कोई जानकारी नहीं दी। मध्यप्रदेश पुरातत्त्व तथा संग्रहालय विभाग के सेवानिवृत्त उपसंचालक, श्री बालचन्द्र जैन ने इस शिलालेख का सर्वप्रथम वाचन कर इसके महत्त्व पर प्रकाश डाला और छायाचित्र सहित इसका प्रकाशन किया था।6 पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व अध्ययनशाला द्वारा राजिम विषयक अध्ययन के दौरान इस अभिलेख का महत्त्व उद्घाटित हुआ कि इस अभिलेख में श्री पीलाराय के पुत्रों द्वारा रायपुर, आरंग (आरंग नाम से उल्लिखित)7 तथा राजिम (राजिव-नयन नाम से चर्चित जो राजिवलोचन का पर्यायवाची है) में बनवाये गये तालाब तथा मंदिरों की चर्चा है। अतः इस लेख का पुनरअध्ययन किया गया। इस उद्देश्य से शोध छात्र श्री प्रभात कुमार सिंह ने श्री दानी के घर जाकर लेख की एक छाप ली। दुर्भाग्यवश लेख दीवार में जड़े जाने के कारण और सीमेंट की छपाई के कारण कुछ स्थानों पर दुर्वाच्य हो गया है और अंतिम पंक्ति अब पूर्णतः छिप गयी है। फिर भी कुछ भाग का वाचन कर लेख का पुनर्सम्पादन किया जा रहा है जिसके दो कारण हैं। पहला श्री जैन का लेख अंग्रेजी में होने के कारण सभी को ज्ञात नहीं है और इसका समुचित उपयोग नहीं हुआ है, अतः हिन्दी में प्रकाशन की आवश्यकता थी। दूसरे इस लेख में वर्णित स्थलों तथा निर्माणों की यद्यपि श्री जैन ने चर्चा की है, तथापि वह अत्यंत संक्षिप्त थी। 

यह अभिलेख 45 सेमी.X35 सेमी.8 नाप की एक आयताकार शिला पर उत्कीर्ण है। पहली दो तथा अंतिम पंक्तियों के कई अक्षर अस्पष्ट और अवाच्य है। यह लेख चौदह पंक्तियों में ईस्वी पन्द्रहवीं शताब्दी की नागरी लिपि में उत्कीर्ण है। लेखक कोई दक्ष या कुशल लिपिक नहीं जान पड़ता। उसने ‘ब‘ स्थान पर हर बार ‘व‘ का प्रयोग किया है (उदाहरणतः ब्रह्म, व भूव, ब्राह्मण आदि); एक जगह ‘आ‘ (ा) की मात्रा छूट गयी है (महरज- पं. 9)। लेख का रचनाकार महेश्वर अवश्य अच्छी कोटि का साहित्यिक था। उसकी भाषा दोषमुक्त और प्रभावी है। प्रारम्भिक मंगलाचरण को छोड़ शेष माग पद्यबद्ध है। यह कुल दस श्लोकों में (क्रं. 1 तथा 3 से 8 अनुष्टुप छंद में तथा क्रमांक 2, 9 और 10 शार्दूलविक्रीडित छंद में) निबद्ध हैं। श्लोक क्रमांक 3 के स्थान. पर 2 लिखा गया है जो लेखक की भूल प्रतीत होती है। इस श्लोक के छह पाद हैं, जो खंड या महाकाव्य में प्रयुक्त किये जाते हैं। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि ब्रह्मदेव के काल के रायपुर शिलालेख में भी एक श्लोक (क्र. 13) इसी भाँति छह पादों से युक्त है।9

लेख में प्रस्तुत अभिलेख को प्रशस्ति कहा गया है (पं. 12, श्लोक क्र. 9-प्रशस्ति भरिवले), जो विषयवस्तु को देखते हुए सही जान पड़ती है। लेख गणेश तथा सरस्वती के नमन से प्रारम्भ होता है।10 आगे शिवदास का तथा उसके दो पुत्रों पीलाराय तथा श्री प्राणनाथ का उल्लेख हुआ है। पीलाराय के चार पुत्र थे - दरियाव, तेजिराज, महाराज और मधुसूदन। बड़े पुत्र दरियाव ने ‘गोठाली‘ नामक तालाब, ‘चन्द्रशेखर‘ नामक शिव मंदिर तथा सुंदर उद्यान (आराम) बनवाये थे। उसी ने रायपुर में रामभक्त मारुती का मंदिर मी बनवाया था। पीलाराय के दूसरे पुत्र तेजिराम ने ‘पाटी‘ नामक सुविख्यात और स्वच्छ जलयुक्त एक सुंदर सरोवर बनवाया था (श्लोक क्र. 6 पाटी नाम्ना सुविख्यातं स्वच्छं चारु सरोवरम्)। महाराज नामक तीसरे पुत्र ने राजीवनयन में जगन्नाथ तथा शंभु का मंदिर सुदृढ़ किया था मंदिर सुदृढ बनवाया11 तथा आरंग (आरिंग) में कमल पुष्पों से युक्त सरोवर और महामाया मंदिर का निर्माण कराया।12 अंतिम पुत्र मधुसुदन ने कुछ निर्माण करवाया था, जो स्पष्ट नहीं है। सम्भवतः इसके द्वारा राजिम में ही रामभक्त यात्रियों के विश्राम हेतु कुछ धर्मशाला जैसा निर्माण किया गया था। यह प्रशस्ति महेश्वर नामक कवि की रचना थी। मधुसूदन को देव तथा ब्राह्मणों का सेवक कहा गया है। 

यह प्रशस्ति किसी काल-गणना का उल्लेख नहीं करती किन्तु पुराभिलेख की लिपि ईस्वी पन्द्रहवीं शताब्दी की होने के कारण तथा रायपुर के इसी काल में विशाल नगर के रूप में विकसित किये जाने के आधार पर माना जा सकता है कि शिवदास और उसके वंशजों ने यहाँ और समीपवर्ती आरंग और राजिम में निर्माण कार्य करवाए होंगे। प्रतीत होता है यह वंश वर्तमान हामी परिवार से सम्बद्ध था और ये उन्हीं के वंशज हैं। इस अनुमान का आधार मुख्यतः यह है कि यह न केवल परम्परा से पुष्ट ही है, वरन शिलालेख पीढ़ियों से उनके पुश्तैनी घर में ही पाया गया है।13 दानीपारा पुरानी बस्ती है और ‘दानी‘ शासकीय रसद पूर्ति करने वाले व्यापारी समाज की उपाधि थी।

लेख में उल्लिखित ‘गोठली‘ तथा ‘पाटी‘ नामक तालाबों की पहचान तो निश्चित रूप में अब संभव नहीं है। हाँ, कुछ अनुमान लगाये जा सकते हैं कि ‘गोठली‘ तथा ‘पाटी‘ यह क्रमशः वर्तमान कंकाली तथा बूढ़ा तालाब हो सकते हैं। ‘बूढ़ा‘ शब्द प्राचीनता का प्रतीक है।14 और जब तक कोई निश्चित अभिलेख नहीं मिल जाता, यह समीकरण स्वीकार किया जा सकता है। रायपुर में 120 तालाबों की उपस्थिति बतायी जाती हैं। बस्ती बसाने के क्रम में अधिकांश तालाब पटते गये और अब बहुत कम बचे हैं। इसमें मुख्य हैं - कंकाली तालाब, तेलीबांधा तालाब, खो-खो तालाब बंधवा तालाब, महराजबंद तालाब, नैया तालाब तथा बूढ़ा तालाब। इन्हीं में ‘पाटी सरोवर‘ तेजीराज द्वारा बनवाया गया होगा।

दरियाव द्वारा निर्मित हनुमान (मारुती) मंदिर का भी अभिज्ञान नहीं है। रायपुर के महामाया मंदिर में हनुमान की एक मूर्ति15 है, जो इसी काल की प्रतीत होती है। कंकाली तालाब के मध्य एक शिव मंदिर है जो लेख में चर्चित चन्द्रशेखर मंदिर का प्रतिनिधि हो सकता है। इसके निर्माण का श्रेय गोस्वामी पंथ के साथ कृपालगिरि को दिया जाता है; किन्तु अधिक संभावना इस बात की है कि उन्होंने इस मंदिर का जीर्णाेद्धार करवाया होगा। गोस्वामी पंथ मुख्यतः वैष्णव मतावलम्बी है, अतः मंदिर निर्माण की बात संदिग्ध प्रतीत होती है।16 

पीलासाव के तीसरे पुत्र महाराज द्वारा राजीवनयन स्थान में जगन्नाथ तथा शुभ मंदिर बनवाये गये थे जिनका समीकरण डॉ. जैन द्वारा राजिम के जगन्नाथ तथा कुलेश्वर मंदिर से किया गया है। यह सर्वथा उचित है। राजीवनयन वर्तमान राजीवलोचन का पर्याय है पर यह स्थान नाम के रूप में उल्लिखित होने से महत्वपूर्ण है। राजिम के नामकरण के विषय में जो विविध दंतकथाएँ मिलती हैं उनमें से एक ‘लोचन‘ नाम से भी सम्बद्ध है। राजीवनयन उल्लेख उसकी प्राचीनता तथा प्रामाणिकता का खंडन करता है। कुलेश्वर मंदिर चर्चित लेख के काल से प्राचीन है यह उसके स्थापत्य, शिल्प तथा वहाँ के अभिलेख की लिपि से स्पष्ट है। यहाँ मंदिर निर्माण का उल्लेख न होकर उसके सुदृढीकरण (पं. 9-10 सुदृद शंभु मंदिर) की बात कही गयी है। हाल तक इस टापू के हर बार बाढ़ में कटाव होने के कारण चबूतरे की बारंबार निर्मिति होती रही है। अतः इस कार्य सुदृढीकरण की चर्चा यहाँ अभीष्ट है तथा मंदिर के जीणोद्वार की बात भी इसमें निहित है। 

(यहां उद्देश्य इस महत्वपूर्ण लेख से परिचित कराना मात्र है, अतः शोधपत्र में आए लेख का मूल पाठ यहां नहीं दिया जा रहा है। शोध-रुचि के व्यक्ति, मूल स्रोत अथवा लेखकों से संपर्क कर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।) 

संदर्भ तथा टिप्पणियाँ 

1. - रतनपुर तथा रायपुर के कलचुरियों की संयुक्त वंशावली इस प्रकार हैं. 

लक्ष्मीदेव 
 । 
सिंघ (सिंहण) 
 -----------------------------             
                                     
डंधीर                        (प्रथम) रामचंद्र
                                        
(द्वितीय) रामचन्द्र         ब्रह्मदेव 
 रतनसेन - गुडायी 
 ।
 बाहर 

2 खलारि पहले से बसा स्थान होने के कारण आरंभ में राजधानी यहीं स्थापित की गयी होगी। सुदेवराज के महासमुंद ताम्रपट्ट द्वारा तीसरे राज्यवर्ष में दिया गया खलपद्रक नामक गाँव खलारी से अभिन्न माना जा सकता है। इंडोलॉजिकल रिसर्च इन इण्डिया (सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ प्रो. के. डी. बाजपेयी), ईस्टर्न बुक प्रिंटर्स, दिल्ली 2003, पृ. 283।

3 उत्कीर्ण लेख बालचन्द्र जैन, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, सूची पत्र क्र. 6, रायपुर, 1961, पृ. 29, 143-148।

4. पूर्वाेक्त, 148 151

5. खंडहरों का वैभव, ज्ञानपीठ, काशी

6. विष्णुसिंह ठाकुर ने अपनी पुस्तक राजिम (मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी), भोपाल, 1972, पृ. 13, पादटीप 1) में श्री बालचन्द्र जैन द्वारा इस शिलालेख का संक्षिप्त प्रकाशन राष्ट्रबन्धु साप्ताहिक के दीपावली विशेषांक में किये जाने का उल्लेख किया गया है। ‘रायपुर स्टोन इंस्क्रिप्शन ऑफ पीताराय एण्ड हिस संस, ‘जर्नल ऑफ मध्यप्रदेश इतिहास परिषद्, सं. कृ.द. बाजपेयी, भोपाल 1969, पृ. 55-57 यहाँ शीर्षक में गलती से ‘पीलाराय‘ के स्थान पर ‘पीताराय‘ छप गया है।

7. उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में नागपुर के रेसीडेंट रिचर्ड जेनकिंस के शीघ्र-सहायक श्री विनायक राव औरंगाबादकर ने भोंसला राज्य का दौरा कर पुरावशेषों पर एक प्रतिवेदन तैयार किया था जो अब लंदन के इंडिया ऑफिस लायब्रेरी में सुरक्षित है। इस प्रतिवेदन में भी ‘आरिंग‘ नाम प्राप्त होता है- एपिग्राफिया इंडिका, खण्ड 23, पृ. 116 117, खण्ड 26, पृ. 227। यह उल्लेखनीय है कि स्थानीय लोग आरिंग नाम का ही प्रयोग करते हैं।

8 श्री जैन ने शिला को 55X45 सेमी. तथा अभिलेख 43X29 सेंमी. नाप का बताया है।

9. जैन, पूर्वाेद्धृत, पृ. 55

10. अन्य नामों के साथ आदरार्थी ‘श्री‘ की योजना न होने के कारण यह नाम का हिस्सा मानना अधिक उपयुक्त है। अतः यहाँ नाम श्रीप्राणनाथ होगा, श्री प्राणनाथ नहीं।

11. मंदिर आदि की रचना दृढ़ स्वरूप की ही की जाती है कि वह अधिक से अधिक दिन (आचन्द्रादित्य काल तक टिकने की कामना की जाती है) स्थिर रहे। यहाँ सुदृढ़ीकरण का संकेत कुलेश्वर मंदिर के चबूतरे के संदर्भ में प्रतीत होता है, जो हर साल बाढ़ में क्षतिग्रस्त हो जाता था।

12, आरंग के महामाया मंदिर तथा तालांब का यह पहला अभिलेखीय उल्लेख है। आरंग, ताम्रपत्रादि अभिलेखों तथा सिक्कों की प्राप्ति के आधार पर महाजनपदकालीन से बसा प्रमाणित होता है- बालचन्द्र जैन, पूर्वाेद्घृत, पृ. 4-5, चित्र 3, चन्द्रशेखर गुप्त, ‘आरंग से प्राप्त ब्राह्मी अभिलेख, मेधा, अं. 7, भा 1 - 2, (1969-70, 1970-7), शा. दू. श्री वै. संस्कृत महाविद्यालय, रायपुर, 41-47. 

13. यह शिलालेख निर्माण किये स्थलों में से कहीं लगाया न जा कर घर की दीवार में क्यों लगाया गया है, यह विचारणीय है। यह संभव है कि वर्तमान दानीपारा में तत्कालीन बस्ती न होकर ताल या उद्यान (आराम) आदि के निर्माण में कहीं यह लगा था तथा बाद में यहाँ बस्ती बस गयी हो। यह भी संभव है कि तत्कालीन राजा का उल्लेख नहीं होने से सार्वजनिक स्थान पर लगाने अनुमति नहीं दी गयी हो, अतः इसे घर में ही सीमित कर दिया गया हो।

14. बूढ़ा आदिवासी देवता बूढ़ादेव से संबंधित हो सकता है- रायपुर दर्शन, भारतीय सांस्कृतिक निधि, छत्तीसगढ़ अध्याय, रायपुर द्वारा प्रकाशित पत्रक

15. उपरोक्त

16. इसकी पुष्टि पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर की प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व अध्ययन शाला में कार्यरत श्री ढेलऊराम की साक्ष्य से होती है जिन्होंने कंकाली तालाब का पानी निकाल जीर्णाेद्धार होते देखा है। उनके अनुसार लगभग चालीस वर्ष पूर्व यह कार्य किया गया था और मंदिर में जमा मिट्टी खोद कर शिवलिंग, जो गहरायी में स्थापित है, उद्घाटित किया गया था। तैर कर या नाव से यहॉं पहुंच जा सकता है। चर्चित शिलालेख में जिस गोठाली सरोवर और चन्द्रशेखर मंदिर का उल्लेख है वह इसी कंकाली तालाब तथा शिव मंदिर से अभिन्न हो सकते हैं। गोठाली का कंकाली में परिवतित होना सहज संभव है। गोठाली नाम संभवत कुछ विशेष महत्व रखता था। रतनपुर के कलचुरि नरेश द्वितीय पृथ्वीदेव के कलचुरि संवत 915 (1163-64 ईस्वी) के रतनपुर शिलालेख में भी एक गोठाली नामक ग्राम तथा वहाँ के सर (तालाब) का उल्लेख मिलता है। यह सरोवर द्वितीय पृथ्वीदेव के सामंत ब्रह्मदेव ने बनवाया था। इस का वर्णन इस प्रकार किया गया है -

गोठाली नामीन ग्रामे चकार सरसीं शुभाम्।
अनिमेष दृशां वृन्दैदिवमध्यासितामिव।।32।।
(गोठाली नामक गाँव मे शुभ तालाब) ब्रह्मदेव ने बनाया, जो महिलाओं से ऐसा भरा हुआ है जैसे स्वर्ग (देवों से)।

- बालचन्द्र जैन, उत्कीर्ण लेख, पृ. 115, पं. 27-28, पृ. 118
यहाँ देवों के स्थान पर अप्सराएँ अधिक उपयुक्त अभिप्राय होगा, क्योंकि यहाँ स्त्रियों का उल्लेख है, पुरुषों का नहीं और स्वर्ग अप्सराओं के लिए विख्यात है।

यहां आए राष्ट्रबंधु साप्ताहिक में प्रकाशित लेख से संबंधित पोस्ट दानीपारा शिलालेख-1969शीर्षक पर लिंक है।

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