ए.ई. नेल्सन संपादित 1909 के रायपुर गजेटियर के इतिहास खंड में सोनाखान, जो बिलासपुर से रायपुर जिले में स्थानांतरित किया गया था, के जमींदार नारायण सिंह और उनकी गिरफ्तारी का ब्यौरा है, जो सी.बी.एल. स्मिथ, स्थानापन्न असिस्टेंट कमिश्नर के पत्र क्रमांक 657, दिनांक 9 दिसंबर 1857 पर आधारित है। स्मिथ ने यह पत्र रायपुर के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट सी. इलियट को लिखा था।
शंभूदयाल गुरु, हरि ठाकुर और प्रभुलाल मिश्र जैसे विद्वानों ने मूल स्रोतों के आधार पर वीर नारायण सिंह से संबंधित इतिहास लेखन किया। सोनाखान के इस परिवार का माखन साव परिवार, कसडोल के मिश्र परिवार तथा पड़ोसी जमींदारियों के साथ विवाद की जानकारी मिलती है। 1835 की घटना का उल्लेख मिलता है, जिसमें नारायण सिंह पर कसडोल के देवनाथ मिश्र की हत्या का आरोप लगा था। प्रसंगवश हरि ठाकुर का खंड काव्य ‘शहीद वीर नारायण सिंह‘ उल्लेखनीय है, जिसका सन 2014 संस्करण, छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसी क्रम में हरि ठाकुर की परंपरा के संवाहक उनके सुयोग्य पुत्र ने ‘1857 सोनाखान‘ की रचना की है, जो इसी वर्ष 2022 में ‘हरि ठाकुर स्मारक संस्थान‘ से प्रकाशित हुई है। खंड काव्य के उक्त संस्करण की भूमिका डॉ. बलदेव ने लिखी है, जिसमें उन्हें संबोधित रामविलास शर्मा के 23.2.90 के पत्र का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि ‘मेरी जानकारी में सन सत्तावन पर हिन्दी में खण्डकाव्य नहीं लिखा गया है।‘
उक्त खंड काव्य का आरंभ होता है, ‘ये महानदी के घाटी। ये छत्तिसगढ़ के माटी‘। यह पद आचार्य डॉ. रमेंन्द्रनाथ मिश्र का न सिर्फ तकिया कलाम जैसा हो गया, उन्होंने वीर नारायण सिंह संबंधी विभिन्न प्रकाशन कराए। सन 1998 में मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने उनके द्वारा संपादित ‘वीर नारायण सिंह‘ का प्रकाशन किया। एक अन्य पुस्तिका 10 मई 2008 को संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन के सौजन्य से प्रकाशित हुई, जिसके संपादक आचार्य रमेंद्र नाथ मिश्र,और लेखक डॉ. श्रीमती सुनीत मिश्र हैं। पुस्तिका का शीर्षक ‘छत्तीसगढ़ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम-1857‘, ‘सोनाखान के जमींदार क्रांतिवीर नारायण सिंह‘ है। इस बीच डॉ. रमेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ. श्रीमती सुनीत मिश्र की पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह‘ का प्रकाशन तथा इसी शीर्षक से पुनर्प्रकाशन हुआ, जिसमें लेखक का नाम नहीं है। इतिहासकार आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र द्वारा तैयार की गई, किंतु ‘छत्तीसगढ़ जनसंपर्क‘ द्वारा मुद्रित कराई गई इतिहास संबंधी इन पुस्तिकाओं में प्रकाशन तिथि/वर्ष का उल्लेख नहीं है। पुस्तिकाओं में मुख्यमंत्री अजीत जोगी का संदेश है तथा मंत्री माधव सिंह ध्रुव के संदेश में ‘नवनिर्मित छत्तीसगढ़‘ उल्लेख है, इससे अनुमान होता है कि उक्त पुस्तिकाओं का प्रकाशन सन 2000 में हुआ है।
पुस्तिका के मुखपृष्ठ में अंकित है- ‘रायपुर का जयस्तंभ जहां पर वीर नारायण सिंह को फांसी पर लटकाया गया।‘ बैक कवर पर बताया गया है कि ‘सम्प्रति वीर नारायण सिंह का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, रायपुर जेल, संबलपुर, नागपुर, भोपाल, दिल्ली एवं सोनाखान में उनके परिजनों से भी जानकारी ली गई किंतु कोई अधिकृत चित्र उपलब्ध नहीं हो सका। उनके पारिवारिक जनों से प्राप्त जानकारियों के आधार पर चित्र बनाया गया जो कल्पित है, परन्तु वर्णित व्यक्तित्व के अनुरूप है।‘ साथ ही परिकल्पना- डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र और चित्रांकन- अरूण काठोटे का नामोल्लेख है। जबकि 10 मई 2008 को प्रकाशित पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर तलवारधारी घुड़सवार का चित्र है, जिसमें आवरण: अजय देशकर, नामोल्लेख है।
इस तारतम्य में शहीद वीर नारायण सिंह की फांसी, फांसी-स्थल, चित्र आदि के बारे में पूछ-परख होती रहती है और बार-बार कई भ्रामक जानकारियां आती रहती हैं। इसलिए यहां कुछ मुख्य तथ्यों और दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जा रहा है। माना जाता है कि शहीद वीर नारायण सिंह, गुरु बाबा घासीदास और पं. सुंदरलाल शर्मा की चर्चा 1980 के बाद अधिक होने लगी। पी. साईनाथ की सोनाखान मौके की, टाइम्स ऑफ इंडिया में 1997 में प्रकाशित रपट भी खासी चर्चा में रही थी।
वीर नारायण सिंह से संबंधित तथ्यों का परीक्षण करते हुए प्राप्त दस्तावेजों, चित्रों की प्रति और इस संबंध में मेरी टिप्पणी-
मध्यप्रदेश अभिलेखागार में वीर नारायण सिंह से संबंधित कम से कम तीन महत्वपूर्ण दस्तावेज होने की जानकारी मिलती है। |
वीर नारायण सिंह की गिरफ्तारी (मिलान/पुष्टि के लिए साथ मूल की प्रति भी लगाई गई है।) |
फांसी की जानकारी वाले पत्र की प्रति और यथासंभव पाठ |
लेखक और प्रकाशन वर्ष उल्लेख रहित, सूचना तथा प्रकाशन संचालनालय, भोपाल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका का मुखपृष्ठ, जिस पर रमेंन्द्रनाथ मिश्र जी के हस्ताक्षर के साथ तिथि 24.12.83? है। इस पुस्तिका में उल्लेख है कि ‘दिनांक 10 दिसम्बर 1957 को नारायण सिंह को रायपुर के एक प्रमुख चौराहे पर लाया गया, वहां सेना और भारी जनता के सामने क्रान्ति वीर को तोप के गोले से उड़ा दिया गया। वीर नारायण सिंह ने जहां शहादत पाई थी, रायपुर के उस स्थान को आज जय स्तंभ चौक कहते हैं।साथ के अखबार की कतरन में डा. रमेंद्रनाथ मिश्र के हवाले से उल्लेख आया है कि ‘फांसी की सजा के बाद 6 दिन तक शव को फंदे पर ही लटकाए रखा।‘, मगर इस बात का अन्यत्र कोई अधिकृत स्रोत मुझे प्राप्त नहीं हुआ है।
राजवर्द्धिनी संगीता की पुस्तक ‘क्रांति वीर नारायण सिंह‘, सन 2014 में आई। पुस्तक पर ‘संस्कृति विभाग‘ छत्तीसगढ़ शासन के सहयोग से प्रकाशित, छपा है। लेखिका ने मार्गदर्शन के लिए डॉ. र(ा?)मेन्द्रनाथ मिश्रा का शुक्रिया किया है। इस पुस्तक में उल्लेख है- ‘दिनांक 09 दिसम्बर 1857 को इलियट ने रायपुर स्थित तीसरी भारतीय पदाति सेना के कमांडर को सूचित किया कि नारायण सिंह को अगले दिन उषाकाल में फांसी पर लटकाया जाएगा। अतः इलियट ने निवेदन किया कि कमांडर इस कार्यवाही को देखने और जरूरत पर व्यवस्था बनाए रखने के लिए उनकी कमांड में जो रेजीमेंट है उसको जेल के निकट परेड कराये।‘ (पेज-131) तथा ‘आखिरी सांस लेने वाले नारायण सिंह को पकड़कर फांसी के फन्दे तक लाया गया और जबरदस्ती उनको फांसी पर लटकाया गया।‘ (पेज-133)
इस पुस्तक में असंगत जानकारी वाला हस्तलिखित लेखी प्रकाशित है (पेज-156-157), जिसका मजमून शब्दशः पत्र के चित्र के नीचे दिया जा रहा है। साथ ही अगले पेज पर वंशावली दी गई है, जिसके अनुसार पिता-पुत्र क्रम इस प्रकार है-
रामराय - नारायण सिंह - गोविन्द सिंह - भगवान सिंह - बैजल सिंह - रजपाल सिंह - कंवल सिंह - राजेन्द्र सिंह।
मैं दिवान राजेन्द्र सिंह प्रपौत्र स्व शहिद वीर नारायण सिंह अपने पूर्वजों से किंवदन्ती के अनुसार प्रमाणित करता हूं कि -
स्व. शहीद वीर नारायण सिंह को फांसी के पहले अन्तीम इच्छा पुछा गया- विर नारायण सिंह ने अपना राजकिय पोषाक मांगा एवं सिर से लेकर पैर तक दिखने वाला दर्पण की मांग की .
पस्चात् अपने हाथों, शिशा तोड़कर अपना गला काट लिया- जिनके मृत्यूपरान्त फांसी में लटका कर तोप से उड़ाया गया।
श्री रामराय पहले टूड्रा में रहते थे-
माखन द्वारा- (अनाज बंटवाने सम्बन्ध में) विर नारायण सिंह का पुतला एवं जिराबाई का पुतला बनाकर रोज सुबह शाम मारा जाता रहा जब इस घटना का पता चला तो नारायण सिंह द्वारा माखन परिवार का सफाया किया गया.
महाराज साय को मारने गोविन्द सिंह के साथ सम्बलपुर से कुछ सैनिक आये थे। जो वापसी में रास्ता भूल जाने के कारण देवरी वालों द्वारा उनकी देवी र्भे बली चढ़ा दिय गया -
वीर नारायण सिंह जी को ठाकुर-महाराज से सम्बोधित किया जाता था एवं गोविन्द सिंह को- बाबु की उपाधि से सम्बोधित करते थे।
अतः उपरोक्त कथन मैंने अपने पूर्वजों के मुंह से सुना था जो कि मेरी जानकारी में सत्य एवं सही है।
इस लेखी में आदमकद दर्पण में स्वयं की राजकीय (पागा, पिछौरी, पनही वाली) छवि देखना और शीशा तोड़कर गला काट लेना तथ्य नहीं माना जा सकता, मगर इसका आशय प्रतीत होता है कि शीशे को तोड़ कर उसमें बनी अपनी छवि को खंडित करते स्वयं के अस्तित्व को भी उसी तरह बिखर कर नष्ट हो जाने देना है। इस ‘कथन‘ को पूर्वजों के मुंह से सुना बताया गया है। निसंदेह कोई परिवार अपने पितृपुरुषों के स्मरण में उनके प्रति सम्मान और वंश-गौरव का ध्यान अधिक रखता है न कि दस्तावेजी इतिहास का। इस दृष्टि से यह भी इतिहास के उस पार्श्व को प्रकाशित करता है जिससे रासो-प्रशस्ति-स्तुति साहित्य रचा जाता है, अतः मेरे लिए यह इतिहास पूरक, एक कविता की तरह पढ़ा जाने वाला अभिकथन है।
इस बीच प्रधानमंत्री-युवा पुस्तकमाला में बलौदा बाजार निवासी इंदु वर्मा की पुस्तक ‘सोनाखान के सपूत शहीद वीर नारायण सिंह‘ आई है। युवा लेखक का प्रयास, विशेषकर पुस्तक की संदर्भ सूची उल्लेखनीय है। पुस्तक के पेज 66-67 पर वीर नारायण सिंह की फांसी के स्थल के संबंध में इतिहासकारों के दो मत की चर्चा है, मगर फांसी आदेश का चित्र देवनागरी-हिंदी में है, यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह मूल आदेश का अनुवाद है। कुछ अन्य बिंदु जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, वीर नारायण सिंह के डाक टिकट को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 1987 में जारी किया गया बताया है, जबकि डाक टिकट भारत सरकार जारी करती है और तब छत्तीसगढ़ पृथक राज्य भी नहीं था। इसी तरह पेज 24 पर माखनलाल बनिए का गोदाम कसडोल में बताया जाना भ्रामक है।
छत्तीसगढ़ के इतिहास से संबंधित ऐसे कई तथ्य हैं, जो उपेक्षित हैं, नजर-अंदाज हैं या सुविधापूर्ण व्याख्या के साथ, भ्रामक रूप में धड़ल्ले से प्रचलित हैं। आवश्यकता है कि अपने इतिहास के गौरवशाली पन्नों को तथ्य, मूल-प्राथमिक स्रोत और आधार के सहारे सार्वजनिक और स्थापित किया जाय। इतिहास संशोधन के लिए अपने पसंद का इतिहास नहीं, बल्कि प्रयास कर तथ्यात्मक जानकारियों वाला विश्वसनीय इतिहास तैयार करना आवश्यक होता है।
प्रसंगवश, वीर नारायण सिंह वाले माखन साव की जानकारी सामान्यतः नाममात्र को मिलती है। माखन साव कहां के निवासी थे, उनकी धान की कोठी कहां थी, उनका परिवार-वंशज अब कहां है? आदि की चर्चा नहीं होती। इसे इतिहास अध्ययन की दृष्टि से एकांगी माना जाएगा। वीर नारायण सिंह की शहादत का सम्मान और महत्व उन जानकारियों के सामने आने से कम नहीं हो जाता। इसके बावजूद माखन को लगभग सभी लेखन में जमाखोर बनिया बताते हुए अनावश्यक ही खलनायक की तरह उभारा गया है। इस प्रसंग में स्पष्ट करना आवश्यक है कि चर्चित धान की कोठी (ढाबा) ग्राम हसुवा में थी, जो माखन साव के भाई गोपाल साव की देखरेख में थी। माखन साव, शिवरीनारायण का प्रतिष्ठित समाजसेवी, साहित्यप्रेमी परिवार रहा है, जिसका उल्लेख पं. शुकलाल पांडेय की कविता में आया है साथ ही ठाकुर जगमोहन सिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उन्हें शामिल किया है। इस केशरवानी परिवार के एक कुल दीपक डॉ अश्विनी केशरवानी का कथन यहां उद्धरण योग्य है- ‘जमाखोर वास्तव में माखन कौन थे, उसे अंधकार में रखकर प्राध्यापकों ने शोध कार्य किया है जो किसी भी मायने में उचित नहीं है।‘ माखन साव से संबंधित विस्तृत जानकारी ‘माखन वंश‘ में उपलब्ध है।
पुनश्च-
इस पोस्ट पर सुधिजन की टिप्पणियां आईं, जिसमें पीयूष कुमार ने ध्यान आकृष्ट कराया कि इंटरनेट पर वीर नारायण सिंह के नाम पर किस तरह की जानकारियां हैं-
स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर हम किस प्रकार का ‘भारत माता मंदिर‘ संग्रहालय बनाने जा रहे हैं! इस भ्रामक और आपत्तिजनक सामग्री पर मेरी टिप्पणी। |
Seems to be a truly big task demanding comprehensive coordination of different segments of prevalent technical skills...
ReplyDeletesir.
ReplyDeleteसादर प्रणाम आपको ---
Deleteसाथ ही सोनाखान जमीदारी के समय के देवरी ,कटगी लवन बिलाईगढ़ आदि जमीदारी के भी शायद पर्याप्त जानकारी नही मिलती !
ReplyDeleteनिश्चित रूप से छत्तीसगढ़ के इतिहास खासकर वीर नारायण सिंह से संबंधित तथ्यों को जो संभवतया एक पक्षीय है उसे सही विश्लेषण के साथ पेश किया जाना चाहिए। माखन कौन है जिसे सूदखोर बताया गया है, वास्तव में उनकी क्या स्थिति है, उसे लिखा जाना चाहिए।
ReplyDeleteराहुल भैया से शत-प्रतिशत सहमत
ReplyDeleteजय हो
ReplyDelete" नारायण सिंह बिंझवार " छत्तीसगढ़ के आदिवासी विद्रोही नेता पर केंद्रित अपने पीएच.डी. का सारांश दिनांक 07.12.1990 को दैनिक नवभारत समाचार पत्र में वक्तब्य जारी कर जनमानस को अपनी भावनाओं से मैंने अवगत कराया था !
ReplyDeleteकभी उन्हें तोप से उड़ाते हुए "19 दिसम्बर 1987 को डाक टिकिट जारी कर 19 दिसम्बर1857 को उनकी शहादत तिथि घोषित कर दी गई थी! जबकि उन्हें फाँसी की सजा दी गई थी ! जिसे साक्ष्य प्रस्तुत कर "10 दिसम्बर 1857"का मूल आदेश पोस्ट किया हूँ ! जिसमें उन्हें फांसी देने का उल्लेख है ! आज उनके शहादत दिवस पर उन्हें नमन करता हूँ !
यद्यपि मेरे प्रयत्नपूर्वक किये गए शोध पर छत्तीसगढ़ सरकार ने आज तक मुझे विस्मृत ही कर रखा है ! इसका मुझे दुख जरूर है ! मैंने अपनी पीढ़ी को साहस पूर्वक अपने पुरखों के गौरव का स्मरण समय समय पर कराया है और आगे भी अपना प्रयास जारी रखूँगा !
मेरे अनुसार उन्हें वर्तमान मोतीबाग चौक में फाँसी दी गई थी ! चूँकि उस समय जेल वहीं पर था ! वर्तमान का जेल 1857 के बाद बनाया गया था ! जयस्तम्भ चौक पर उनकी शहादत की बातें ऐतिहासिक तथ्य के साथ मजाक है !
Thank you.
ReplyDeleteThank you
ReplyDeleteThank you
ReplyDeleteमाखन साव नही कसडोल के मिश्र परिवार से अनाज धान उधार लिये थे।अकाल होने पर अपने सैनिको की रसद पूर्ति हेतु लेकिन लगातार अकालके कारण दसरा अंग्रेजो से संघर्ष केकारण समय बीतनेसे भी होसकता ह।एकबारसोनाखान सेएक आदमी कसडोल अपने रिस्तेदार केयहाकसडोल आया शाम केसमय रिस्तेदार उसे कसडोल मिश्र परिवार मालगुजार के यहा घुमाने ले गया ।मिश्र परिवार के उस समय चौरासी गावबताये जाते है ।वहा देखा कि एक पतले को जूते से पीटाजा रहै यह कहकर कि बहुय सय बीत जाने के बादभी धानवपस नही कर रहा।येसब देखकर जब वापस सोनाखान जाकर जमीदार से ये बात कही तो अपमान से क्रोधित होकर सेना लेकर कसडोल आकर उसघर के सभी सदस्यो की हत्या कर दी।लेकिन एक बालक को लेकर नौकरानी घर से निकलने पर पछा गया तो नौकरानी ने उसे अपना पुत्र बताया तो जाने दिये। वह महिला उसे लेकर केरा आ गयी उस बालक को केरा मे छोडकर वापस चली गयी।अंति मिश्र कुलदीपक मामा घर केरा मे रह रहाहै।गुप्तचरो केद्वारा यह जानकर सेना के साथ केरा आ धमका केरा मे इसकी जानकारी समय रहते मिल जाने के कारण अंकोल पेड के नीचे स्थापित चंडीदेवी की मूरति के पीछे बालक को छिपा दिये।सेना से कहा गया कि वह बालक यहा नही आया चाहो कही भी गावघर मे खोज सकते हो।य सेना केसाथ ढुढने सेभी नही मिला ब वहसेना लेकर वापस चला गया ।जाते समय उसे कहा गया कि इस तरह बिना सूचना के आगये भलेही कोई शुक्लपरिवार को कोई नुकसान नही पहुचाया था।फिर भी कहागया कि जबभी इस तरह आक्मणके लिये आना चाहोगेतो पहले सूचनादेना।हममेभी साहस होतोसामनाकरेगे ।कुछ दिनबाद गुप्तचरो से पता चला कि बालक वही है यो केरामेफिर से सूचना भेजी कि अमुक दिनयैयार रहना हम सेना लेकर आ ते है। यहा केरा मे मालगुजार ने भीसभी आसपास के किसानो को इकट्ठा करके सबको शस्त्रो केसाथ जिनके पास हथियार नही थे वे कृषि औजार कुल्हाडी रापा आदि शस्त्रके रूपमे और मशाल के साथ चंण्डीदेवी का स्मरण करके देवरीसंगम से लेकर सिघुलयट तक शाम के समय डट गये।महानदी के उस पार सोनाखान की सेना थी उनके साथ बैगा पहले अपने देव कुर्रूपाठ का सौमिरनपूजन कर जमीदार से कहा कि सेना नदी मे मत उतारिये केरा की देवी हमारे देवसेबडी है उस पार बहुय लबी सेना नदी किनारे दिख रहहै ।बैगा के कहने के बादभी सोनाखान राजा सेना नदी मे उतरने का आलेश कर दिया जैसे ही सेना नदी मे उतरी सबके पाव फूलगये और सेना वापस हो गयी।
ReplyDeleteबाद मे यहखबर अंग्रेज सरकार ने सुनी तो केरा मे जितने भी हथियार वंदूक बरेला तलवारभाला बरछी जप्त कर ले गये।
परिवार और गावके बुजुर्गो से सुनी हुयी लिखी