किस चक्की का पिसा आटा? वाला सवाल, समय के साथ अधिक प्रासंगिक होने लगा है, जब ‘शक्तिवर्धक‘ पैकेटबंद ने हर आम-खास की रसोई में अपनी जगह पक्की कर ली है। आटा, सब्जी, फल, दूध जैसे सभी खाद्य-पदार्थ को खराब होने से बचाए रखने के क्रम में वह कीड़ों के खाने लायक सुरक्षित नहीं रह जाता, हमें खुशी-खुशी अपने लिए उपयुक्त लगता है। जबकि रोजमर्रा के खाद्य पदार्थों में नमक के सिवा सभी कुछ जैविक या जैव-उत्पाद हैं, और इसलिए खाद्य होने की उसकी आयु और स्थिति की सीमा है, इसमें परिवर्तन-प्रासेस, जिसमें स्थानांतरण, हस्तांतरण, परिवहन शामिल, जितना सीमित हो, उतना बेहतर। यह खाने-पीने की शुद्ध-स्वास्थ्यकर सामग्री से ले कर स्वावलंबन तक के लिए सहायक है।
प्रसंगवश, ‘धर्मो रक्षति रक्षितः‘ के तर्ज पर ‘जीवो रक्षति रक्षितः’ कहा जाता है, जिसका सामान्य अर्थ होगा- अन्योन्याश्रय या जीवों की रक्षा करने पर, रक्षित जीव, रक्षक की रक्षा करते हैं। खाद्य के रूप में जीव भोजन बन कर हमारी जीव-रक्षा करते हैं मगर उन्हें भोज्य बनाने के लिए, हमेें अच्छी तरह अधिकतर उनका जीव हरना पड़ता है। साथ ही ध्यान रहे कि सिर्फ मानवता के लिए नहीं, बल्कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए भी जीव-रक्षा आवश्यक है।
भोजन के लिए, उगाना, संग्रहण-भंडारण, कूटना-पीसना और पकाने (सरलतम, भूनना, सेंकना, उबालना) में लगने वाला समय और तरीका स्वावलंबन और स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त, पर्यावरण के अनुकूल था। अब चावल- पालिश्ड से फोर्टिफाइड होने लगा, दाल सुंदर चमकदार पालिश्ड मिलेगा, तेल रिफाइंड, दूध पाश्चराइज्ड, पानी प्यूरीफाइड फिल्टर्ड, और नमक आयोडाइज्ड। सभी, मूल्य और प्रक्रिया संवर्धित। फास्ट फूड दौर के बाद भविष्य कि ‘व्यस्त और सावधान‘ पीढ़ी को रोटी-चावल के बदले कैप्सूल का विकल्प मिल जाए, तो वह उसे राजी-खुशी स्वीकार करने को तैयार होगी।
पुस्तक ‘समय के सवाल‘ समाज के साफ माथे पर गहराती चिंता की लकीरें हैं। यहां भावुक पर्यावरणीय चिंता नहीं हैं, बल्कि तथ्यपूर्ण वैचारिक स्थितियों को रेखांकित किया गया है, जो हम सभी की नजरों के सामने, मगर नजरअंदाज-से हैं। समस्याओं के प्रकटन-विवेचन के साथ-साथ उसके व्यावहारिक निदान की ओर भी ध्यान दिलाया गया है। पुस्तक में हमारी सांस्कृतिक जीवन पद्धति में प्रकृति से सामंजस्य बनाते पर्यावरण के साथ दोस्ताना के बदलते जाने को जिस शिद्दत के साथ अनुपम मिश्र ने दर्ज किया था, माथे पर उभरी वे लकीरें लगातार गहराती जा रही हैं, और समाज ऐसी हर समस्या का तात्कालिक निदान पा कर निश्चिंत-सा है, जबकि सबको खबर है कि कहां, क्या और क्यों गड़बड़ हो रही है। बाजार ने उसे ‘मैं हूं ना‘ समझाते, ‘आश्वस्त‘ कर रखा है। ऐसी हर स्थिति पर सबसे सजग नजर और चुस्त तैयारी बाजार की है। ऐसे मुद्दों की यह पुस्तक, ‘पर्यावरण, धरती, शहरीकरण, खेती, जंगल और जल है तो कल है‘, शीर्षकों के छह भाग में 53 लेखों का संग्रह है।
भाग-1 ‘पर्यावरण‘ और भाग-2 ‘धरती‘ में कोयला बनाम परमाणु उर्जा तथा यूरेनियम के खनन, प्रसंस्करण और परीक्षण या विस्फोट से जुड़ी त्रासदी और जीव-जंतु और वनस्पतियों की तस्करी की ओर तथ्यों सहित ध्यान दिलाया है। साफ शब्दों में आगाह किया गया है- ‘ध्यान रहे, हर बात में अदालतों व कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्था जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है और अब हर बात डंडे के जोर से मनवाने का दौर आ गया है। इससे कानून तो बच सकता है, लेकिन पर्यावरण नहीं।‘
ग्लोबल वार्मिंग के तकनीकी पक्षों को आसान रूप में स्पष्ट किया गया है। पत्तों, खर-पतवार को जलाना, नष्ट करने की समस्या का भयावह रूप है वहीं पुस्तक में हिसाब निकाल कर दिखाया गया है कि रात्रिकालीन एक क्रिकेट मैच के आयोजन में लगने वाली बिजली की खपत, एक गांव के 200 दिन के बिजली खपत के बराबर होगा। खदान, बंजर-कृषि भूमि, मरुस्थल, ग्लेशियर, बर्फीले इलाकों को भी शामिल करते हुए बीहड़ में बदलती जमीन को आंकड़ों से स्पष्ट किया गया है कि गत 30 वर्षों के दौरान इसमें 36 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
भाग- 3 व 4 में ‘शहरीकरण‘ और ‘खेती‘ शीषकों के अंतर्गत दिखाया गया है कि एक तरफ महानगर हैं तो उसके साथ अनियोजित शहरी विकास भी। दिल्ली के भिखारियों के बारे में दिल्ली वालों को भी शायद ही पता हो, कि यहां ‘एक लाख से अधिक लोगों का ‘‘पेशा‘‘ भीख मांगना है। और कई अनधिकृत बस्तियों में बच्चों को भीख मांगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। यहीं विकलांग, दुधमुंहे बच्चे, कुष्ठरोगी आदि विशेष मांग पर ‘सप्लाई‘ किए जाते हैं।‘ इसी तरह महानगरीय अपसंस्कृति की देन- अपराध की विवेचना है। जल-निकास, भराव और नदी-तालाबों की स्थिति के साथ एक तरफ जानलेवा जाम है तो दूसरी और फ्लाईओवर से उपजी समस्याएं हैं। सफाई के संकल्प और हकीकत में कचरे और उसके निपटान के चिंताजनक हालात का विवरण है। रेल लाइन के किनारे का कचरा, ई-कचरा और स्वच्छ भारत अभियान की भी विवेचना है। जैसा कि कहा गया है- ‘कचरे को कम करना, निबटान का प्रबंधन आदि के लिए दीर्घकालीन योजना और शिक्षा उतनी ही जरूरी है, जितनी बिजली, पानी और स्वास्थ्य के बारे में सोचना।‘
चाय बागानों से जूट, दाल, कपास की खेती की समस्याएं हैं वहीं भविष्य का सपना देखते, अपनी सुविधा का सामान जुटाते, प्लास्टिक, ई-कचरा, यूज एंड थ्रो, डिस्पोजेबल या नये-पुराने मॉडल का बदलाव, की सच्चाई कि यह कुछ और आगे के भविष्य का कचरा भी है, की ओर ध्यान शायद जाता है। सारा दोष प्लास्टिक-पॉलीथिन के सिर मढ़ते हुए, यह नजरअंदाज हो जाता है कि इससे इतर वस्तुएं भी उत्पादन की प्रक्रिया पूरी होते तक पर्यावरण के लिए कितनी प्रतिकूल हैं। पुस्तक में चौंकाने और चितिंत करने वाला आंकड़ा है कि बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कंपनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट अवैध हैं। बोतलबंद पानी की खपत दो अरब लीटर पार कर गया है।
भाग-5, जंगल में वन और वन्य प्राणियों मुख्यतः असम में गैंडा, देश के विभिन्न राज्यों में हाथी, शुतुरमुर्ग के पालन और विक्रय, शिकार और संरक्षण की विसंगतियों का चित्रण है। कहा गया है- भूमंडलीकरण के दौर में पुरानी कहावत के जायज, ‘प्यार और जंग‘ में अब ‘व्यापार‘ भी जुड़ गया है। सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों की हकीकत, ‘सफेद हाथी‘ बन गया सोन चिरैया प्रोजेक्ट, ग्वालियर के घाटीगांव और करेरा-शिवपुरी इलाके के गांवों को उजाड़ कर चिड़िया को बसाने का शिगूफा छोड़ा जा रहा है और वह भी तब, जब चिड़िया फुर्र हो चुकी है। सन 1993 में इस अभ्यारण्य क्षेत्र में 5 पक्षी देखे गए, उसके बाद कई साल संख्या शून्य रही, लेकिन सरकारी खर्च होता रहा।
अंतिम भाग-6 ‘जल है तो कल है‘ में जहरीला होते भूजल के विभिन्न मामले, फ्लोराइडग्रस्तता, जल स्रोतों नदी-नालों के प्रभावित होने के बाद ‘सभ्यता‘ की चपेट में आ रहा समुद्र, दिल्ली के पास यमुना में समाहित होने वाली नदी हिंडन, जो लालच और लापरवाही के चलते ‘हिडन‘ बन गई है, का विवरण है। बताया गया है केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक भारत की कुल 445 नदियों में से आधी नदियों का पानी पीने योग्य नहीं है। प्रमुख नदियों गंगा, यमुना और कावेरी के प्रदूषण और अन्य समस्याओं का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है।
प्रकृति निर्भर आखेटजीवी-खाद्य संग्राहक यायावर, समय के साथ आत्मनिर्भर, स्वावलंबी गोप-कृषक हुआ। सभ्यता की यह इकाई मानव, औद्योगिक विकास से गुजरते हुए एआई दौर में आ कर वह कर्ता-निमित्त के बाद मैन पावर या मानव-संसाधन, बेजान पुर्जा बनता जा रहा है। जैसा कहा जाता है कि ‘गुलामी की कसौटी कठिन श्रम नहीं या किसी की आज्ञा पालन नहीं। गुलामी की कसौटी है अपने को गैर के हाथों में मशीन बनाकर सिपुर्द कर देने में।‘ हरबर्ट मारक्यूज के जुमले के सहारे- ‘भौतिक समृद्धि के नर्क‘ में छलांग लगाने को उद्यत सभ्यता के वर्तमान में, उसके भविष्य की साफ तस्वीर झलक रही है।
समाज का बड़ा तबका, यहां तक सक्षम जिम्मेदार ओहदाधारियों की मानसिकता भी ‘रोज कमाओ, रोज खाओ’ जैसी गरीबी रेखा के नीचे वाली हो गई है। मानों पूरी सभ्यता ‘एक लालटेन के सहारे‘ सरक रही है, उसे बस अगला कदम दिखता है, लेकिन यह नहीं कि आगे खड्ड, जहां से लौटना संभव नहीं होगा, कितना करीब आ गया है। प्रकृति अपने घाव खुद भरती है, किंतु घाव जो उसके अपने नहीं, ‘सभ्यता‘ ने दिए हैं और बहुत गहरे हैं, शायद वह भी भर जाएं, मगर उसके लिए जितना समय लगेगा, तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी, यों सभ्यता ने इन घावों को अपने हाल पर भी नहीं छोड़ा है, किसी 'झोला छाप डाक्टर वाली समझ और योग्यता' के साथ उसे रोजाना छेड़ने को उत्सुक और जाने-अनजाने उद्यत है। भगवान सिंह के शब्दों में- ‘सचाई यह है कि हमने बहुत बड़ी कीमत देकर बहुत कम पाया है। जिन सुविधाओं पर हमें गर्व है, उनकी यह कीमत कि नदियॉं गंदी हो जाएँ, धरती के नीचे का जल जहरीला हो जाए, अंतरिक्ष कलुषित हो जाए, मोनो ऑक्साइड से ओजोन मंडल फट जाए, और अब तक के ज्ञात ब्रह्मांड की सबसे विलक्षण और सुंदर धरती नरकलोक में बदलती चली जाए।‘
सन 2018 में प्रकाशित इस पुस्तक के समर्पण में ‘जल-जंगल-जमीन‘ के साथ जन और जानवर को भी जोड़ा गया है। लेखक पंकज चतुर्वेदी अपने स्वाभाविक और स्थायी सत्यान्वेषी पत्रकार-तेवर के साथ हैं, मगर जिम्मेदार नागरिक की तरह उपायों की चर्चा भी करते चलते हैं। इस दौर में जब प्रत्येक सत्य-विचार और वक्तव्य, दलगत पक्ष-प्रतिपक्ष से अधिक, समर्थक-विरोधी, राजनीतिक-सापेक्ष होने लगा है, तब नेता, अफसर, व्यापारी और हरेक जिम्मेदार को कटघरे में खड़ा करना उल्लेखनीय है, खासकर इसलिए भी कि इसका प्रकाशन भारत सरकार के ‘वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग‘ और ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी‘ द्वारा किया गया है।
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