संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत का संविधान पारित किए जाने के अवसर पर अपने भाषण में अनुवादकों का उल्लेख करते हुए, माननीय श्री जी.एस. गुप्त (घनश्याम सिंह गुप्त) की अध्यक्षता वाली अनुवाद समिति का विशेष रूप से उल्लेख किया था कि उनके द्वारा संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी के समानार्थी हिंदी शब्द तलाशने का कठिन कार्य किया गया है। जानकारी मिलती है कि 1947 में ही घनश्याम सिंह गुप्त की अध्यक्षता में संविधान के हिंदी अनुवाद के लिए समिति गठित की गई थी। पुनरीक्षण के लिए 15 मार्च 1949 को विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति हुई थी, जिसमें श्री राहुल सांकृत्यायन, श्री सुनीति कुमार चटर्जी, श्री एम. सत्यनारायण, श्री जयचन्द्र विद्यालंकार तथा श्री दांते जैसे देश के विभिन्न प्रांतों के जानकार थे।
संविधान सभा की बैठकों के दौरान घनश्याम सिंह गुप्त ने 9 नवंबर 1948 को ‘हिंदुस्तानी‘ भाषा पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि सरल हिंदुस्तानी जैसी कोई चीज नहीं थी, उर्दू, उर्दू और हिंदी हिंदी थी। उन्होंने गणित से संबंधित उर्दू और हिंदी के शब्दों के उदाहरण भी दिए। भाषा पर उनके वक्तव्यों के अलावा एक अन्य उल्लेखनीय प्रसंग 24 मई 1949 का है, जिसमें गुप्तजी ने सभा की बैठक में 11 मिनट विलंब होने के कारण समयनिष्ठता पर सवाल किया था। इस सवाल पर अध्यक्ष महोदय ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बताया कि वे स्वयं पिछले बीस मिनट से अपने कक्ष में प्रतीक्षा कर रहे थे। और आशा व्यक्त की कि कल से हम सदैव ठीक समय पर यहां होंगे।
संविधान के उर्दू और हिंदुस्तानी अनुवाद के संबंध में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा घनश्याम सिंह गुप्त को, उनके 23-6-48 के पत्र के संदर्भ में 29 जून 1948 को लिखे गए पत्र की जानकारी मिलती है। इसी तरह घनश्याम सिंह गुप्त द्वारा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को 25 अगस्त 1951 को लिखे पत्र की जानकारी मिलती है, जिसमें उन्होंने सरदारजी के चले जाने और पं. जवाहरलालजी और टंडनजी के विवाद का उल्लेख किया है।
घनश्याम सिंह गुप्त द्वारा बहैसियत स्पीकर, सी.पी. एंड बरार लेजिसलेटिव असेंबली, नागपुर, (दिनांक, 7 अक्टूबर 1948) ‘कांस्टीट्यूशनल टर्म्स‘ की पुस्तिका प्रकाशित कराई गई थी। पुस्तिका के आरंभ में अंग्रेजी में ‘फोरवर्ड‘ है साथ ही हिंदी में ‘प्राक्कथन‘, जो यहां प्रस्तुत है।
जो माला हम प्रकाशित कर रहे हैं उसकी यह तीसरी कड़ी है. वास्तव में यह तो, हिन्दी संविधान के प्रारूप की, तथा कुछ अन्य संवैधानिक शब्दों की शब्दावली ही है. अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय बनाने के लिये हमारा मुख्य आधार संस्कृत है. संस्कृत को आधार बनाने का कारण मैंने पहिले पुष्ण के प्राक्कथन में दिया है और उसको मैं यहां दुहराना नहीं चाहता. परन्तु मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि सर्वोच्च राष्ट्रीयता की मांग यही है कि हमारे शब्द जिनकी कोई पारिभाषिक स्थिति है, संस्कृत के आधार से ही बनें. यही भारतीय भाषाओं की एकता का मार्ग है. यदि वाक्य रचना की नहीं तो कम से कम शब्द रचना की ही सही. और विशिष्ट विषयों में तो शब्दावली एक बहुत बड़ी चीज होती है. इससे विपरीत का मार्ग एकता का बाधक और अव्यवस्था लाने वाला है. कोई भी अनुमान कर सकता है कि यदि जिसे अंग्रेजी में ‘हारबरिंग‘ (यथा हारबरिंग एन अफेडर) कहते हैं उस विचार को व्यक्त करने के लिये बंगाल की विधान सभा के अधिनियम (एक्ट) में ‘आश्रय‘ और केन्द्र की विधान सभा (संसद्) अधिनियम में “पनाह” हो तो क्या अवस्था होगी. एक और उदाहरण लीजिये ‘ट्रान्सपोर्टेशन फार लाइफ‘ के भाव को सूचित करने के लिये यदि बंगाल अधिनियम में “यावज्जीवन द्वीपान्तर प्रेरण‘ हो और केन्द्रीय अधिनियम में ‘हब्स दवाम बउबूरे दर्याय शोर‘ हो तो कैसा गोलमाल होगा. हजारों शब्द की तरह ये दोनों शब्द हमारे दंडविधान के साधारण शब्द है. और दंडविधान संवर्ती सूची (कांकरंट लिस्ट) में होने के कारण, केन्द्र और प्रान्तों दोनों का विषय है. जब तक अंग्रेजी राज्य था या यों कहिये जब तक विधान की अधिकृत भाषा अंग्रेजी थी और बंगला या हिन्दी दंड संग्रह, अंग्रेजी दंड संग्रह का केवल साधारण अनुवाद था, तब तक तो बात दूसरी थी. क्योंकि कानूनी विवाद के प्रसंग में मूल अंग्रेजी ही प्रमाण मानी जाती रही. परंतु जब हमें अपने मूल अधिनियम ही हिन्दी व बंगला में बनाने होंगे तब तो यह अनिवार्य हो जाता है कि हमारी शब्दावली एक ही हो. विभिन्न शब्दावली का जो बुरा परिणाम होगा उसका अनुमान करना कठिन है.
यदि हम अपनी ‘हिन्दुस्तानी‘ को ‘बंगाली‘, ‘मराठी‘ आदि के गले में जबरदस्ती उतारना नहीं चाहते हैं तब तो हमारी सब भाषाओं के लिये (अथवा अधिक से अधिक भाषाओं के लिये) समान शब्दावली का आधार संस्कृत ही हो सकता है.
एक और बात हमें स्मरण रखना है. एक ही विचार को बताने के लिये संस्कृतजन्य शब्द भी एक से अधिक हो सकते हैं. कोई किसी एक शब्द को पसन्द करता है, कोई दूसरे को. कोई ‘मिनिस्टर‘ के लिये ‘मंत्री‘ और ‘सेक्रेटरी‘ के लिये ‘सचिव‘ कहना चाहेगा तो दूसरा ‘मिनिस्टर‘ के लिये ‘सचिव‘ और ‘सेक्रेटरी‘ के लिये ‘मंत्री‘ कहना चाहेगा. इससे भी अव्यवस्था हो सकती है. जिसे हमें हटाना होगा. वह समय शीघ्र आ रहा है जब कि हमें अपने सारे प्रयत्नों का, अखिल भारतीय आधार पर, समन्वय करना ही होगा.
इस शब्दावली के लिये डॉ. रघुवीर को कृतज्ञता प्रगट किये बिना मैं इस अपने प्राक्कथन को समाप्त नहीं कर सकता. उन्होंने अंग्रेजी में एक सुन्दर छोटी भूमिका लिखी है. उसके लिये भी वे धन्यवाद के पात्र हैं. मेरी विधान सभा के कार्य कर्ताओं ने भी, विशेषकर श्री बेनीमाधव जी कोकस ने इस कार्य में सहायता दी है. भारतीय संविधान के प्रारूप से और शब्द निर्माण में जो हमारे कई प्रकार के प्रयत्न हुए जिनके परिणामस्वरूप कई जगहों में हमने टिप्पणी की थी, उन सब से शब्दों की श्रृंखला बनाने का जो कार्य उनने किया उस के लिये धन्यवाद के पात्र हैं.
इसी प्रकार एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय वक्तव्य पं. रविशंकर शुक्ल का है, जो 13 सितंबर 1949 को संविधान सभा में दिया गया था। पं. शुक्ल ने ‘हिंदी राजभाषा: उसका दायित्व‘ विषय पर विचार प्रकट करते हुए शिक्षा का माध्यम, प्रांत और भाषा का व्यवहार, न्यायालयों में अंग्रेजी, अंग्रेजी प्रावधान, आयरलैंड का उदाहरण, अंकों का प्रश्न, शब्दों का प्रयोग, राष्ट्रभाषा सबकी सहमति से, भाषा का निर्माण जनता द्वारा, जैसे बिंदुओं पर ध्यान आकृष्ट कराया था, जिसका आरंभिक और अंतिम अंश इस प्रकार है-
अभी हमने, सदन के अनेक प्रमुख सम्माननीय सदस्यों के भाषण सुने। अपने देश के ऐसे प्रख्यात व्यक्तियों का विरोध करने में कभी कभी परेशानी होती है किंतु राष्ट्रों के इतिहास में ऐसे अवसर आते हैं जबकि अपनी बात कह देने के अतिरिक्त, हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं बचता। मैं केवल विरोध के लिये विरोध नहीं कर रहा हूं। इस ऐतिहासिक अवसर पर मैं अपना मत प्रस्तुत करने के लिये उपस्थित हुआ हूं।
इस प्रश्न के संबंध में दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टि उनकी है जो यह चाहते हैं कि इस देश में अंग्रेजी भाषा, जितने अधिक समय और जितनी दूरी तक संभव हो, जारी रहे; और दूसरा दृष्टिकोण उनका है जो चाहते हैं कि जितनी जल्दी संभव हो अंग्रेजी के स्थान पर एक भारतीय भाषा का उपयोग हो। माननीय श्री गोपालस्वामी आयंगार द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव पर हम इन दो दृष्टिकोणों से विचार करते हैं। मेरे द्वारा प्रस्तुत समस्त संशोधन, द्वितीय दृष्टिकोण से ही प्रस्तुत किये गये हैं। यदि मैं यह पाता कि अध्याय १४-अ में समावेष्टित अनुच्छेद इस प्रकार के हैं जो हमारे उद्देश्य को क्षति नहीं पहुंचाते हैं, तो मैं यहां बोलने के लिये कभी नहीं आता। यह ठीक है कि हमने हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को एक उच्चासन पर प्रतिष्ठित कर दिया है। अंकों के संबंध में, मैं बाद में बोलूंगा।
इतना कहने के बाद मैं इस अध्याय के प्रवर्ती भाग पर आता हूं ...
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इस सदन के हम सब सदस्य जो कांग्रेस के भी सदस्य हैं, कांग्रेस का ही अनुसरण करते आये हैं। कांग्रेस ने निर्णय किया है कि हमें १५ वर्ष की अवधि से आगे जाने की आवश्यकता नहीं है। अतः हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि पन्द्रह वर्षों के बाद क्या होगा। हम अब पीढियों के लिये प्रावधान न करें और उन्हें किसी बन्धन में न बांधें। वर्षों बाद जब हमारे प्रतिनिधि मिलेंगे तब वे निर्णय करेंगे कि उन्हें क्या करना चाहिये। जहां तक हमारा सम्बन्ध है हम पन्द्रह वर्षों के लिये निर्णय करते हैं। कांग्रेस ने हिन्दी के अधिकाधिक प्रयोग का आदेश दिया है और मेरे द्वारा प्रस्तुत संशोधनों से इसे सम्भव बनाया जा सकता है तथा पन्द्रह वर्षों के अन्दर ही हम इसे कर सकते हैं। मेरा प्रस्ताव है कि दस वर्षों के अन्दर हम आयोगों और समितियों का सारा कार्य समाप्त कर दें। संसद इस बात का निर्णय करेगी कि पन्द्रह वर्षों की अवधि के अन्दर ही किन साधनों और उपायों से हिन्दी को अपनाया जा सकता है। कांग्रेस कार्य समिति के प्रस्ताव की भाषा के ठीक-ठीक अनुरूप ही मैंने अपने संशोधनों का निर्माण किया है तथा आशा है कि सदन उन्हें स्वीकार करेगा। जहां तक कांग्रेस कार्यकारिणी के प्रस्ताव का सम्बन्ध है मैं नहीं समझता कि ‘हिन्दुस्तानी‘ शब्द का उसमें प्रयोग किया गया है। उसमें कहा गया है कि देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी भाषा ही हमारी शासकीय हो।’
पुनः दुहरा दूं कि संविधान और छत्तीसगढ़ संबंधी दोनों पोस्ट, मेरे स्वयं की जिज्ञासा-पूर्ति के दौरान गत वर्षों में प्राप्त जानकारियों का संयोजन है, जिसमें आए तथ्यों के प्रति यथासंभव सावधानी बरती गई है। इस संबंध में अन्य जानकारी किसी अधिकृत स्रोत से उपलब्ध होने पर, यहां प्रस्तुत जानकारी में संशोधन/परिवर्धन कर दिया जावेगा।
सारगर्भित और अनुकरणीय
ReplyDeleteवाह
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