छत्तीसगढ़ की सीमावर्ती पहाड़ियां उच्चता, प्राकृतिक संसाधनयुक्त रत्नगर्भा धरती सम्पन्नता, वन-कान्तार सघनता का परिचय देती हैं तो मैदानी भाग उदार विस्तार का परिचायक है। इस मैदानी हिस्से की जलराशि में सामुदायिक समन्वित संस्कृति के दर्शन होते हैं, जहां जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के वृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं।
अहिमन रानी और रेवा रानी की गाथा तालाब स्नान से आरंभ होती है। नौ लाख ओड़िया, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा में तालाब खुदता है और फुलबासन की गाथा में मायावी तालाब है। एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते का कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में खपरी, दुर्ग, मंदिर हसौद, पांडुका के पास, रतनपुर के पास करमा-बसहा, बलौदा के पास महुदा जैसे स्थानों में जीवन्त हैं।
गाया जाता है- 'राम कोड़ावय ताल सगुरिया, लछिमन बंधवाय पार।' खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा में प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में तथा बस्तर के लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी पारम्परिक मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है। रतनपुर का घी-कुडि़या तालाब राजा मोरध्वज के अश्वमेध यज्ञ आयोजन में घी से भरा गया था, माना जाता है। सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे और राजा बालंद, कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता, जहां-जहां रात बासा, वहीं तालाब। उक्ति है- ''सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा।'' विशेषकर पटना (कोरिया) में कहा जाता है- सातए कोरी, सातए आगर। तेकर उपर बूढ़ा सागर॥
तालाबों की बहुलता इतनी कि 'छै आगर छै कोरी', यानि 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, नवागढ़, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई गांवों के साथ सम्बद्ध है। सरगुजा के महेशपुर और पटना में तथा बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में 'सात आगर सात कोरी'- 147 तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्या में तालाब विद्यमान हैं। कहा जाता है कि दुर्गा देवी के आदेश से कुमडाकोटया राजा बड़े डोंगर में प्रतिदिन एक तालाब खुदवाते थे। इस तरह सात आगर सात कोड़ी यानि 147 तालाब, 147 दिनों में खुदवाए थे- 'सात कोड़ी, सात आगर। तीन बंधा, तीन सागर।' इनमें 147 तालाबों के अलावा बूढ़ा सागर, गंगा सागर और मांकदर सागर, ये तीन सागर हैं साथ ही संवसार बंधा, डंडई बंधा और पंडरा बंधा, से तीन बंधा हैं। 'लखनपुर में लाख पोखरा' यानि सरगुजा की लखनपुर जमींदारी में लाख तालाब कहे जाते थे, अब यह गिनती 360 तक पहुंचती है। छत्तीसगढ़ में छत्तीस से अधिक संख्या में परिखा युक्त मृत्तिका-दुर्ग यानि मिट्टी के किले या गढ़ जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है। रायपुर और सारंगढ़ के श्रृंखलाबद्ध तालाब और उनकी आपसी सम्बद्धता के अवशेष स्मृति में और मौके पर अब भी विद्यमान है।
भीमादेव, बस्तर और जनजातीय मान्यताओं में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी-कृषि के देवता हैं। जांजगीर और घिवरा ग्राम में भी भीमा नामक तालाब हैं। बस्तर में विवाह के कई नेग-चार पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर क्षेत्र में विवाह के अवसर पर वर-कन्या तालाब के सात भांवर घूमते हैं और परिवारजन सातों बार हल्दी चढ़ाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है।
यह रोचक है कि आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, भैना, लोनिया, मटकुड़ा, मटकुली, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही। छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी, संभवतः एग्रीकल्चर एंड हार्टिकल्चर सोसायटी आफ इंडिया के 19 वीं सदी के अंत में सचिव रहे जे. लेंकेस्टर, की पहल पर खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंख्य 'लंकेटर तालाब' अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।
छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिस अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यतः तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। लकड़ी के इन स्तंभों का स्थान अब सीमेंट लेने लगा है और सक्ती के महामाया तालाब में उल्लेखनीय लोहे का स्तंभ स्थापित है, स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है। किरारी, जांजगीर के हीराबंध तालाब से प्राप्त स्तंभ पर खुदे अक्षरों के आधार पर यह दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस प्राचीनतम काष्ठ उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है। कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए ऐसे तालाब का ही जल उपयोग में आता है।
बिलासपुर के पास बिरकोना का कपुरताल
सूखे तालाब में पुराने लकड़ी के स्तंभ का अंश तथा बाद में बना सीमेंट का स्तंभ |
तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है। तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुंचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं। घाट, सामान्यतः पुरुषों, महिलाओं के लिए अलग-अलग, धोबी घाट, मवेशी घाट (अब छठ घाट) और मरघट होता है। तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बांधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। अधिकतर ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के होते हैं।
तालाबों का नामकरण सामान्यतः उसके आकार, उपयोग और विशिष्टता पर होता है, जैसे पनपिया या पनखत्ती, निस्तारी और अपासी (आबपाशी) और खइया, नइया, पंवसरा, पंवसरी, गधियाही, सोलाही या सोलहा, पचरिहा, सतखंडा, अड़बंधा, छुइखदान, डोंगिया, गोबरहा, खदुअन, पुरेनहा, देउरहा, नवा तलाव, पथर्रा, टेढ़ी, कारी, पंर्री, दर्री, नंगसगरा, बघबुड़ा, गिधवा, केंवासी (केंवाची)। बरात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है। तालाब नामकरण उसके चरित्र-इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे- फुटहा, दोखही, भुतही, करबिन, काना भैरा, छुइहा, टोनही डबरी, सोनईताल, फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, रजबंधा, गोपिया आदि। जोड़ा नाम भी होते हैं, जैसे- भीमा-कीचक, सास-बहू, मामा-भांजा, सोनई-रूपई। 'पानी-पोखर' दिनचर्या का तो 'तलाव उछाल' जीवन-मरण का शब्द है।
रानी पोखर, डीपाडीह, सरगुजा |
पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची हैं और उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआं, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने हैं। उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद, मरौद, रहौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा, बिठलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं। सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर, लाखासर, खोंगसरा, अकलसरा, तेलसरा, बोड़सरा, सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा, भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी, धमतरी है। तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, जोरातराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उड़नताल, सरिसताल, अमरताल हैं। चुआं, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गांवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआं, बेहरचुआं, जामचुआं, लाटाबोड़, नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं। स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, हाड़ाबंद, बिल्लीबंद जैसे हैं। ऐसा ही एक नाम अब रायपुर का मुहल्ला टाटीबंद है। वैसे टाटा और टाटी ग्राम नाम भी छत्तीसगढ़ में हैं, जिसका अर्थ छिछला तालाब जान पड़ता है।
संदर्भवश, छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी है तो सरगुजा में महान नदी और यहीं एक मछली नदी भी है, इसी तरह मेढकी नदी कांकेर में है। सरगुजा में ही सूरजपुर-प्रतापपुर के गोविंदपुर के पास नदी 'रजमेलान' के एक तट-स्थान को पद्मश्री राजमोहिनी देवी की ज्ञान-प्राप्ति का स्थाान माना जाता है, रोचक यह कि रजमेलान, वस्तुतः नदी नहीं बल्कि 'रज' नामक नदी में एक छोटी जलधारा 'सत्' के मिलान यानि संगम का स्थान है। इसी अंचल की साफ पानी वाली बारहमासी पिंगला नदी ने तमोर पहाड़ी के साथ 'तमोर पिंगला' अभयारण्य को नाम दिया है। कांकेर में दूध नदी, फिंगेश्वर में सूखा नदी और बीजापुर में मरी नदी है तो एक जिला मुख्यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर बलौदा बाजार-पलारी का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का तालाब, समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है। बारसूर में चन्द्रादित्यसमुद्र नामक तालाब खुदवाए जाने के अभिलेखीय प्रमाण है। इसी तरह तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है। तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया, बंधवा, सागर, रानीसागर, डबरी, गुचकुलिया, कुंआ, बावली, पचरी, पंचधार, सरगबुंदिया, सेतगंगा, गंगाजल, नर्मदा और निपनिया भी हैं। जल-स्रोत या उससे हुए भराव को झिरिया कहा जाता है, इसके लिए झोड़ी या ढोढ़ी, डोल, दह, दहरा, दरहा और बहुअर्थी चितावर शब्द भी हैं।
कार्तिक-स्नान, ग्रहण-स्नान, भोजली, मृतक संस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना) और विसर्जन आदि के अलावा पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं। सावन अमावस्या पर हरेली की गेंड़ी, भाद्रपद अमावस्या पर पोरा के दिन, तालाब का तीन चक्कर लगाकर पउवा (पायदान) विसर्जन और चर्मरोग निदान के लिए तालाब-विशेष में स्नान, लोक विधान है। विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है। ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर, गांवजल्ला लद्दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। बरसात में, नदी-नाले का पुराना छूटा प्रवाह मार्ग-सरार, तालाब बन जाता है। गरमियों में पानी सूख जाने पर तालाब में पानी जमा करने के लिए छोटा गड्ढ़ा- झिरिया बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है। खातू (खाद) पालने के लिए सूखे तालाब का राब और कांपू मिट्टी निकालने की होड़ लग जाती है।
तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थितिकी-तंत्र के बिना अधूरी है जिसमें जलीय वनस्पति- गधिया, चीला, रतालू (कुमुदनी), खोखमा, उरई, कुस, खस, पसहर, पोखरा (कमल), पिकी, जलमोंगरा, ढेंस कांदा, कुकरी कांदा, सरपत, करमता, सुनसुनिया, कुथुआ, जलीय जन्तु सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिड़िया (ऐरी), उभयचर आदि और कभी-कभार ऊद व मगर भी होते हैं। मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात हैं- कतला, कोतरा-कोतरी, रोहू, मिरकल, सोढ़िहा या सोंढ़ुल, सिंगार, पढ़िना, भुंडी, सांवल, बामी, काराझिंया, बोलिया या लपची, केउ या रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, खोखसी या खेकसी, टेंगना, सवांगी, सलांगी या सरांगी, तेलपिया, ग्रासकाल। तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी जबान पर कटरंग, सिंगी-सिंघा-कटरा, कुसरा, कटही, केसरी, लुदू, झोरी, बंजू, भाखरी, भाकुर, गिवना, गुरदा, गुंगवारी, लुडुवा, डुडुंग, डंडवा-डंडिया, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, रुदवा, कोकिया, रोहिछा, रेछा, खेंसरा, गिनवा, भेंड़ो, मोहराली, घंसरा, अइछा, पथर्री, चंदैनी, भेर्री, चिल्हाटी, फलिया, बामर, बूंच, मलाज जैसे मछलियों के नाम भी होते हैं।
बड़े कछुए और मछलियों वाला सरोना का तालाब |
जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएं रायपुर के निकट ग्राम सरोना और कोटगढ़-अकलतरा के सतखंडा तालाब जैसे उदाहरणों में उसकी पारस्थितिकी, सत्ता की पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं। इसी तरह 'तरिया गोसांइन' और 'अंगारमोती' जैसे ग्राम देवता खास तालाबों के देवता हैं, जो ग्राम के जल-आवश्यकता की पूर्ति का ध्यान रखते है, जिन तालाबों में ऐसे देवता वास हो, उनके जल का शौच के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता, कोई अन्जाने में ऐसा कर बैठे तो देवता उसे माफ तो करता है, लेकिन सचेत करते हुए आभास करा देता है कि भविष्य में भूल न हो, और फिर भी तालाब के पारम्परिक नियमों की उपेक्षा या लापरवाही हो तो सजा मिलती है।
सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र- बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। बंधिया में अपाशी के लिए पानी रोका जाता है और सूख जाने पर उसका उपयोग चना, अलसी, मसूर, करायर उपजाने के लिए कर लिया जाता है। आम के पेड़ों की अमरइया, स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, देवी का स्थान- माताचौंरा या महामाया और शीतला या नीम के पेड़, अन्य वृक्षों में वट, पीपल (घंटहा पीपर) और आम के पेड़ों की अमरइया भी प्रमुख तालाबों के अभिन्न अंग हैं।
झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार, पूरी बरात तालाब में डूब जाना (नाउ बरात, बरतिया भांठा) या पथरा जाना जैसी मान्यता, तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है तो पत्थर की पचरी, मामा-भांजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में जलीय वनस्पति-चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य के इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।
दसेक साल पहले वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी डा. के.के.चक्रवर्ती जी से हुई चर्चा के बाद उनके निर्देश पर मेरे द्वारा तैयार मूल नोट के आधार पर, बाकी कुछ बातें और चित्र अगली पोस्ट 'तालाब परिशिष्ट' में।
अति ज्ञानवर्धक लेख।
ReplyDeleteग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर, गांवजल्ला लद्दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। पानी सूख जाने पर तालाब में पानी जमा करने के लिए छोटा गड्ढ़ा- झिरिया बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है।
आपका यह विवरण तो मुझे बचपन में अपने गाँ के तालाब का स्मरण दिलाता है। दुर्भाग्य से गाँवों में तालाब की महत्ता व रखरखाव में इधर भारी गिरावट आयी है।
इतनी जल्दी कुछ कह पाना उचित नहीं होगा चार बार पढ़ने दीजिये फिर बताता हूँ क्या लिखूं . बहुत कठिन है अभी कुछ खोज पाना आपके खोज में कमी खोज पाना .
ReplyDeleteआपके माध्यम से कुछ न कुछ पूर्ति होगी, आशा है. वैसे मेरी अगली पोस्ट 'तालाब परिशिष्ट' भी लगभग तैयार ही है.
Deleteसर जी कुछ एक तालाब थुहा, केकराही, लिमाही,के साथ किसी व्यक्ति के द्वारा खोदावाए जाने के कारन नाम गत तालाब फुल सिंह से फूलसागर , राम प्रसाद से रामसागर भी प्रचलन में हैं. ऐसी मान्यता है की रतालू और खोखमा की जड़ों में केवतिन डोमि अर्थात पानी का कोबरा वास करता है . ग्राम पोंडी के मुर्रा तालाब में मुर्गा की कलगियुक्त नाग है जिसके पानी के भीतर चलने से पानी में बजबजाहट होती है . ग्राम नरियरा का सागर ५२ एकड़ का तालाब और मुलमुला का बंधवा ४० एकड़ का तालाब के साथ ही जांजगीर स्थित भीमा तालाब अपनी विशालता के लिए प्रसिद्द हैं.
ReplyDeleteअच्छी जानकारी जोड़ दी है आपने. मैं स्वयं मानता हूं कि अभी इसमें बहुत काम बाकी है, यह तो बस एक प्रारंभिक नोट है, काम के प्रस्ताव जैसा. कहने का प्रयास है कि तालाबों का चरित्र हमारे सामुदायिक जीवन के अनुरूप होता है. आपका सादर आभार.
Deleteआपके इस सारगर्भित लेख ने अनुपम मिश्र की किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' की याद ताजा कर दी।
ReplyDeleteअपार बधाइयाँ इस आलेख के लिए । दीवाली के मौके पर घर में हूँ सो आत्मसात करने वाला पढ़ना अभी नहीं हुआ, पर गंभीर, सूचनाप्रद ललित लेखन है । यकी़नन अनुपमजी की तालाब-कृति याद न आती, सम्भव न था । इतिहास, भाषा, व्युत्पत्ति, परम्परा, संस्कृति हर आयाम को आपने इसमें समोया है । लम्बी मेहनत हुई है इसमें और इसे अभी जारी रहना है । इत्मीनान से पढ़ूँगा ।
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ प्राकृतिक सम्पदा समपन्न क्षेत्र है। सांईस एक्सप्रेस से पता चला कि वहां १९हज़ार किस्म के चावल पैदा होते हैं।
ReplyDeleteतालाब और जल का संग्रहण हमारी स्वस्थ परम्परा का हिस्सा रहा है, संस्कृतियों का अभिन्न अंग रहा है, समाज की जीवन्तता का प्रतीक भी रहा है। नल और बोतल में पानी समेट कर हम न कैसे आधुनिक बन गये, दुख होता है देखकर।
ReplyDeleteइमेल पर श्री जे आर मोहन जी-
ReplyDeleteDear Rahul
Read . it,s fantastic . The style of narration backed up by the topical research is par excellent.That is your forte.
Very well done.
Your note on Achanakmar is very good. I have gone by the same meaning in my story.
Best
Mohan.
कितनी अचरज भरी बात है कि धुर उत्तर, मेरे गांव के तालाब के बारे में किंवदंती है कि उसे पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान बनाया था ...
ReplyDeleteतालाब, यानी प्रकारान्तर से कोई भी जलस्रोत (नदी, तालाब, कुआँ, बावली आदि) के विषय में इतनी गहन जानकारी के बाद शायद ही कोई और जानकारी जानने को शेष रह जाती हो। मुझे नहीं लगता कि उसकी आवश्यकता रह जाती हो। तो भी यदि किसी को इस पोस्ट को बारम्बार पढ़ने की ज़रूरत हो तो अलग बात है। किन्तु मेरे दृष्टिकोण से यह बहुत ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण जानकारी सिद्ध होती है। यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि आपकी जानकारी और शोध इतनी गहराई लिये होते हैं कि उसमें संशय की कोई गुंजाइश खोजने पर भी नहीं मिलती। इसके लिये मेरा साधुवाद स्वीकारें। आपकी लेखनी सतत् ऊर्जावान और ज्ञानवर्धक बनी रहे, यही मंगल-कामना है। किसी जानकारी में मीन-मेख निकालना ही यदि हमारा साध्य हो, तो फिर इसके बारे में कुछ भी कहना बेमानी ही होगा।
ReplyDeleteआपकी दृष्टि और लेखनी का मैं तो कायल हूँ। बस! इतना ही।
आदरणीय राहुल सिंह जी,
ReplyDeleteमैंने अभी-अभी जो प्रतिक्रिया आपके पोस्ट पर दी है, उससे मेरा मन नहीं भरा। सचमुच! नहीं भरा, नहीं भरा, नहीं भरा। इसीलिये दुबारा प्रतिक्रिया दे रहा हूँ। जब कभी भी छत्तीसगढ़ का इतिहास लिखा जायेगा, आपका नाम उसमें निश्चित ही आपकी शोधात्मक प्रवृत्ति और उसमें बहुत हद तक आपकी सफलता के लिये दर्ज होगा ही। इसे आप ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के इतिहास के प्रति जिस किसी की भी थोड़ी-सी भी जिज्ञासा और उत्सुकता होगी, वे "नोट" कर लें। छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी सभ्यता-संस्कृति-पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में जो योगदान आप अपने पोस्ट के माध्यम से कर रहे हैं, उसे भुलाना किसी के भी लिये न केवल कठिन होगा बल्कि अक्षम्य भी होगा। बल्कि मैं तो कहूँगा कि ऐसा करना अहसान फरामोशी होगी आपके इस अभिनव और दुस्साध्य प्रयास के प्रति। अधिक कुछ कहूँगा तो प्रतिपक्ष नाराज हो जायेगा।................................................................
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Deleteजो बात आपने कही है, वही बात (बिलकुल वही बात) मैं, राहुलजी की पहली पोस्ट पढने के बाद से लगातार कहता चला आ रहा हूँ। मेरे बडे भाई साहब ने मेरे एक प्रयास को उल्लेखित करते हुए कुछ ऐसा लिखा था - 'स्व' को 'सर्व' में विसर्जित करने पर, 'सर्वस्व' पर स्वत: ही तुम्हारा अधिकार हो जाता है।
Deleteराहुलजी यही कर रहे हैं - 'स्व' का 'सर्व' में विसर्जन। जाहिर है, 'सर्वस्व' उनका होगा ही।
टिप्पणियों के बीच, आपकी बात को किन्हीं सज्जन ने 'भविष्यवाणी' कहा है। मुझे तो आपकी बात 'आगत का अनिवार्य घटनीय सत्य' लगी है।
अपने समाज को राहुलजी को मान-अभिमान और गर्व होना चाहिए।
मुझे तो है।
छत्तीसगढ़ के तालाबो के बारे में आपके द्वारा दी गयी जानकारी पढ़ी वास्तव में इस सारगर्भित लेख ने अनेक उपयोगी बाते बतलाई रोचक जानकारी के लिए बहुत बहुत बधाई ------
ReplyDeleteरमाकांत सिंह जी तो कमी निकालने के लिए चार बार पढेंगे पर हमें तो सिर्फ समझने के लिए पांच बार पढने की आवश्यकता है । आपके narrationं से लगा की एक फिल्म देख ली ।
ReplyDeleteलगता है गौरवजी निष्कर्ष निकालने में जल्दी कर गये, रमाकांत सिंह जी का आशय कमी निकालने वाला तो नहीं ही है।
Deleteबुद्धिजीवियो के बीच में बोलने से इसीलिए डर लगता है। Sense of humour की परिभाषा थोड़ी अलग होती है हम आम जनता से|खैर मैंने रमाकांत सर पर कोई अटैक या बहस करने के इरादे से यह नहीं लिखा था। लेकिन मैं क्षमाप्रार्थी भी नहीं। आपको जो ठीक लगे वो समझे।
Deleteअरे दादा!! sense of humor न समझ पाने के लिये हृदय से क्षमाप्रार्थी। ’बुद्धिजीवी’ कहा है तो sense of humor(or humour whatever it is) के चलते विरोध भी नहीं कर सकता कि ऐसा क्यूँ कहा:)
Deleteसीरियसली सॉरी गौरव जी, मुझे जल्दबाजी दिखाने पर क्षमाप्रार्थी होना ठीक लग रहा है।
achha laga baho sari jankari mili ... aapki jankariyo par yogesh ne ek drama improvise kiya tha vah yaad aa gaya .... aisi jankari "paath " ki tarah hai ...
ReplyDeletedhanyawad
मुझे इस पोस्ट पर भी(भी इसलिये लिखा कि पहले भी यही कहा था जिसे आपने सौजन्यतापूर्वक टाल दिया था) सिर्फ़ यही कहना है कि हरिहर वैष्णव जी की दूसरी टिप्पणी एक भविष्यवाणी है, जिसे सत्य होना ही है।
ReplyDeleteतालाबों के विषय में इतनी विस्तृत जानकारी पहली बार मिली.इतना महत्व हिया गया होता तो न भू-जल का इतना दोहन होता और न बनावटी पानी पर आज का जीवन निर्भर होता.
ReplyDeleteएक बात बहुत अच्छी लगी -विसर्जन के बाद उतनी मात्रा में लद्दी निकालने की बात ,लोगों में इतनी जागरूकता थी.उन्हें पता होता तोरासायनिक रंगों ,सिंथेटिक और प्रदूषणवाली चीज़ों के विसर्जन पर भी रोक लगा देते.कितने सजग थे वे लोग,
आभार आपका!
आपकी भावनाओं को ठेस लगी माफ़ी चाहता हूँ . श्री राहुल कुमार सिंह जी उंगली पकड़कर आज भी मैं ब्लॉग जगत में चलना सिखा रहा हूँ. आदरणीय संजय भैया ने कमेन्ट को शायद नहीं पूर्णतः समझ लिया . संजय अनेजा जी शुभ प्रभात संग प्रणाम स्वीकारें.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट का संकलन किताब के रूप में मिले तो बड़ा भला हो ...
ReplyDeleteबेहद ज्ञानवर्धक आलेख है यह। तालाबों का विवाह का होना/नाहोना बड़ा ही रोचक तथ्य है। कुछ नए शब्दों के मूल तक भी जाना हो गया। अंत में दिए स्पष्टीकरण से भी राहत मिली।
ReplyDeleteएक नम्बर पोस्ट हे गौ ......
ReplyDeleteजम्मो तरिया मन ला कुड़हो देव लान के......
राम राम
कमरछठ कथा में तालाब खुदाई का प्रसंग हर बार कमरछठ पर्व के आगमन के पूर्व याद आता है। तालाबों का विवाह होता है आपने बताया, यह भी जानने की इच्छा हो रही है कि उनके लिए वधु कहाँ से लाते हैं?
ReplyDeleteअनुपम मिश्र का आज भी खरे हैं तालाब याद आया .....आपकी शोध दृष्टि और परिश्रम हमेशा ही श्लाघनीय रहा है ,
ReplyDeleteआश्चर्य है अफ्रीकी मूल की टिलैपिया का हिन्दी नामकरण भी अब तेलपिया हो गया है, आगे भी यह शब्द कैसी यात्रा तय करता है देखना मजेदार होगा .... मछलियों की तो एक भरी पूरी लिस्ट ही थमा दी है आपने -ऑंखें गड़ा गड़ा कर देख पढ़ रहा हूँ ....... :-)
आज तो दुर्दिन है इन ताल तालाबों के ....
आपकी यह पोस्ट यहॉं पढता, उससे पहले, आज आए कल के 'जनसत्ता' में पढ ली। पोस्ट तो अपनी जगह लेकिन अब तो आप खुद हम सबके िलए पोस्ट का विषय बनते जा रहे हैं।
ReplyDeleteहरहिरजी वैष्णव की टिप्पणी पर मैंने अपनी बात लिख ही दी है। मेरे उस 'थोडे लिखे' को 'बहुत' समझा जाए।
Excellent Article.Once my father told me that the name "tatibandh" is due to the fact that there was a "tatiya dhaam" which specialized in treating sick people by giving them "tatiya" which was a syrup made by rice.May be you can throw more light on this.
ReplyDeleteअद्भुत . पहले की टीप गायब हो गयी है।
ReplyDeleteआदरनीय सिंह साहब इतिहास ,भूगोल ,लोकगाथा ,जनजातीय चित्रण सब कुछ एक साथ इस आलेख में आपने कुशलता से पिरो दिया है |आभार
ReplyDeleteतालाब के बीच में खूंटा गडा हुआ मैंने छत्तीसगढ़ में ही देखा है। उस समय यही अनुमान था कि तालाब में पानी की मात्रा को ज्ञात करने के लिए यह प्रयोजन है। कभी नहीं जाना था कि तालाबों के विवाह की भी परंपरा रही है। सचमुच आनंदित हुआ हूँ।
ReplyDeleteछत्तीस गढ के तालाबों का इतना विस्त़त वर्णन और उनका इतिहास भूगोल, नाम करण रखरखाव और ुनसे जुडी प्रथायें और कहानियां भी सब कुछ तो है आपके इस शोध-लेख में ।
ReplyDeleteतलाव मन के बारे म पढ के आउ जान के , मन- प्राण भींज गे । मोरो गॉंव , 'कोसला'
ReplyDeleteम अब्बड कन तलाव हावय । गॉंव के चारों मुडा तलाव हावय अउ बीच म गॉंव हावय , ए
तलाव मन के " यथा नाम तथा गुण " नाव हावय । कुडिया , मान सरोवर , अँधरी .
बंधवा , बावा डबरी , दहरी , पोखरी , सोल डबरी , खइया आदि । आदरणीय राहुल जी
हर कतेक बढिया जानकारी, हमर संस्कृति ले जोर के , देहे हॉंवैं । हरिहर वैष्णव अऊ
विष्णु वैरागी के विचार ह घलाव नीक लागिस हे ।
आपने सूक्ष्मता से तालाबों की ऐतिहासिकता और महत्व का अध्ययन कर लोगों तक पहुंचाया है दुलर्भ है। इसकी जानकारी युवाओं के जिज्ञासा को जहां शांत करेगा, वहीं उन्हें नए रिसर्च में सहायक होगा। तालाबों के घटते अस्तित्व को बचाने में भी मार्गदर्शक के रूप में सहायक होगा।
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