छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे नये जिले बलौदाबाजार के एक गांव में 'गेदुरपारा' यानि गेदुर मुहल्ला सुन कर इस शब्द 'गेदुर' के बारे में जानना चाहा, अर्थ बताया गया चमगादड़ या चमगीदड़ (चेहरा, गीदड़ की तरह होने के कारण? चम+गीदड़)। यह 'उड़ने वाली, लेकिन चिडि़या नहीं' स्तनधारी आम बोलचाल की छत्तीसगढ़ी में चमगिदरी, चमगेदरी या चमरगिदरी भी कही जाती है, तो स्पष्ट किया गया कि छोटे आकार की, जो आमतौर पर पुराने भवनों में रहती है वह चमगिदरी (या धनगिदरी भी, जिसे शुभ माना जाता है) और बड़े आकार की, जो पेड़ों पर उल्टे लटकती है, जिसके पीठ पर भूरे-सुनहरे रोएं होते हैं वह गेदुर है। आगे चर्चा में पता लगा कि छत्तीसगढ़ के मध्य-मैदानी क्षेत्र के लोग, अच्छे जानकार भी इस शब्द से एकदम अनभिज्ञ हैं, लेकिन बस्तर का हल्बी और उससे प्रभावित क्षेत्र, जशपुर सादरी क्षेत्र, पेन्ड्रा बघेली प्रभावित क्षेत्र (रीवां अंचल में गेदुरहट नामक गांव है) और जनजातीय समुदाय के लिए यह शब्द अपरिचित नहीं है। पट्ट (ठेठ) मैदानी छत्तीसगढ़ में 'गेदुर' शब्द से अनजान व्यक्ति इस शब्द को दुहराए तो कहेगा 'गेन्दुर'।
मंगत रवीन्द्र की छत्तीसगढ़ी कहानी अगोरा के आरंभ में- ''थुहा अउ पपरेल के बारी भीतर चर-चर ठन बिही के पेड़ ..... गेदुर तलक ल चाटन नई देय'' गेदुर शब्द इस तरह, बिही (अमरूद) के साथ प्रयुक्त हुआ है। इसका प्रिय खाद्य अमरूद और शरीफा है। आम मान्यता है कि इसके शरीर में मल-उत्सर्जन छिद्र नहीं होता और यह (शापग्रस्त होने के कारण) उत्सर्जन क्रिया मुंह के रास्ते करती है, 'गुह-गादर' इस तरह भी शब्द प्रयोग प्रचलित है। संभवतः ऐसी मान्यता के पीछे कारण यह है कि यह फल खाने के बाद रस चूसकर ठीक उसी तरह उगल देती है, जैसा हम गन्ने के लिए करते हैं। छत्तीसगढ़ी में अशुचिता, गलीचपन के लिए गिदरा-गिदरी शब्द प्रयुक्त होता है, स्वयं गंदा और गंदगी फैलाने वाला जैसा तात्पर्य होता है। यहां शब्द और अर्थ साम्य देखा जा सकता है। माना जाता है कि पेड़ से गिरे गेदुर को खाने वाले की आयु लंबी होती है और ऐसे व्यक्ति की जबान से निकली बात फलीभूत होती है। दमा, श्वास-रोगियों को भी गेदुर खिलाया जाता है साथ ही कुछ अन्य गुह्य उपयोग और मान्यताएं गेदुर के साथ जुड़ी हैं।
गेदुर शब्द के साथ मिलते-जुलते शब्द इंदूर और उंदुर यानि चूहा का ध्यान (बस तुक मिलाने को दादुर, मेढक सहित) आता है और बंदर शब्द भी अधिक दूर नहीं। प्रसंगवश, बानरो और उंदरा को जोड़ी बना कर 'बांदरो-उंदरो' बोल दिया जाता है। स्तनधारियों में सबसे छोटे, 2 ग्राम तक के जीव चमगादड़ों में ही होते हैं। गादर और गेदुर के चमड़े के डैने के कारण गादड़ में 'चम' जुड़ कर सीधा रिश्ता बनता दिखता है, लेकिन क्या यह बंदर (वानर, वा+नर में नर का अभिप्राय पुरुष नहीं, मानव है, जो चूहा या चमगादड़ की तरह स्तनधारी है) तक भी जाता है?
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बिलासपुर से अमरकंटक के रास्ते में है- 'अचानकमार'। इस शब्द के लिए पहले जितनी बातें सुनी थीं, उनसे खास अलग कुछ पता नहीं लगा। मुझे यह संतोषजनक नहीं लगता क्योंकि यह शब्द मूलतः छत्तीसगढ़ी, बइगानी या अन्य किसी जनजातीय जबान में इस्तेमाल होने की जानकारी नहीं मिलती फिर अचानक का अर्थ उसी तरह लिया जाय, जैसी हमारी रोजमर्रा की भाषा में हैं, तब मानना होगा कि यह नाम काफी बाद में आया है, और किसी पुराने नाम पर आरोपित हो गया है, यदि ऐसा हो तो इस नाम का अधिक महत्व नहीं रह जाता।
अचानकमार शब्द स्पष्टतः 'अचानक' और 'मार', इन दो शब्दों से मिल कर बना है। अचानक के साथ पुर जुड़कर छत्तीसगढ़ में जंगली इलाकों में ग्राम नाम बनते हैं- अचानकपुर। ऐसा ग्राम नाम कसडोल, सिरपुर और बलौदा के पास याद आता है। ध्यान देने योग्य है कि पुर शब्द भी यहां पुराने प्रचलन का नहीं है। अब दूसरे शब्द 'मार' के बारे में सोचें। मार या इससे जुड़े एकदम करीब के शब्द हैं- सुअरमार या सुअरमाल, बाघमड़ा, भालूमाड़ा, अबुझमाड़ (अबुझ भी अचानक की तरह ही अजनबी सा शब्द लगता है), जोगीमारा (सरगुजा), प्राचीन स्थल माड़ा (सीधी-सिंगरौली में कोरिया जिले की सीमा के पास)। इन पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि 'मार' या इसके करीब के शब्द पहाड़, पहाड़ी गुफा, स्थान (जिसे ठांव, ठांह या ठिहां भी कहा जाता है) जैसा कुछ अर्थ होगा, मरने-मारने से खास कुछ लेना-देना नहीं है इस शब्द का। यह भी विचारणीय होगा कि कुछ लोग इसका उच्चारण अचान-कमार करते हैं लेकिन अचान शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता और कमार (गरियाबंद वाली जनजाति) का इस क्षेत्र से कोई सीधा तालमेल नहीं है।
भाषा विज्ञान की मदद लें तो र-ल-ळ-ड़-ड-द आसपास की ध्वनियां हैं। इस दृष्टि से 'शेर की मांद' और मराठी, तमिल-तेलुगु का मलै या माला (मराठी में फ्लोर या मंजिल के लिए माला शब्द या दक्षिण भारत में अन्नामलई, तिरुमलई) इसी तरह का अर्थ देने वाले शब्द हैं। माड़ना, मंडित करना, मड़ई जैसे शब्द भी इसके करीब जान पड़ते हैं। संभव है कि भाषा विज्ञान में इतनी खींचतान मंजूर न हो, लेकिन सहज बुद्धि, भटकती तब रास्ता पाती है।
इन शब्दों के लिए 'शब्द चर्चा' का विचार आया फिर अजीत वडनेरकर जी से फोन पर बात हुई, लगा कि भाषाई जोड़-तोड़ में आजमाया हाथ, पोस्ट क्यों न कर दिया जाय।
नारायणपुर के पास एक गाँव है नेलवाड़, मैंने स्थानीय लोगों से सुना है कि वहाँ हजारों की संख्या में गेदुर रहते हैं। अचानकमार शब्द के बारे में इससे पहले कभी ध्यान नहीं गया लेकिन यह नाम हमेशा से रोचक जरूर लगता रहा।
ReplyDeleteशब्दों का भी अपना इतिहास होता है...अर्थ कभी कभी पर्तों में छिप जाता है।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ।
ReplyDeleteशुभकामनाये पर्व-मालिका की ।
जय गणेश देवा
जय श्री लक्ष्मी ।।
जय माँ सरस्वती ।।
जय श्री राम -
अच्छी रही यह शब्द चर्चा, हमें कुछ और जानकारी तो मिली। खासतौर से अचानकमार शब्द के बारे में। शुक्रिया भैया।
ReplyDeleteयह हमारा सौभाग्य है कि गेदुर अर्थात चमगादड़ का निवास मेरे गृह ग्राम मुलमुला में बंधवा नामक तालाब जो करीब ४० एकड़ है के चारों ओर स्थित पेड़ों में लटकते पाए जाते हैं . एक और संजोग मेरे मामा घर सिउंड जांजगीर चाम्पा में भी हजारों कि सख्या में हैं . एक मान्यता है कि जिस गाँव में चमगादड़ बसते है वहां हैजा नहीं आता और हैजा के पूर्व चमगादड़ गाँव से उड़ जाते हैं.... साथ ही गाँव में टी .बी.के बीमारी के इलाज में इसका मांस औषधि के रूप में प्रयुक्त किया जाता है
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हर स्थान के नाम के पीछे एक भरापूरा इतिहास होता है... अच्छी लगी यह शब्द चर्चा...
आभार!
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"शब्द-चर्चा" से आनन्द आ गया।
ReplyDelete"मार" शब्द का अर्थ बस्तर के पूर्वी और ओड़िशा के पश्चिमी हिस्से में जहाँ हल्बी-भतरी-छत्तीसगढ़ी का सम्मिश्रित रूप बोल-चाल में है, के साथ ही गोंडी परिवेश में भी "जंगल-झाड़ी से युक्त पहाड़" लगाया जाता है। "माड़" इसी "मार" अथवा "मारी" का ही एक रूप है। अबुझमाड़ नाम इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है : "वह जंगल-झाड़ी से युक्त पहाड़ी इलाका जो अब तक बूझा नहीं गया है"।
बस्तर के कई लोक गीतों में यह "मारी" शब्द इसी अर्थ में आया है। उदाहरण के लिये, "कुरलू खाउक रे नवँदल जावाँ बे, कुरलू खाउक रे नवँदल जावाँ बे। कोन "मारी" रे नवँदल जावाँ बे, कोन मारी रे नवँदल जावाँ बे (हे प्रिय! हम कुरलू नामक फल खाने के लिये जायेंगे। हे प्रिय! हम किस जंगल में जायेंगे?)" बस्तर के इन्हीं हिस्सों में कुछ पहाड़ियों के नाम भी इसी तरह हैं जैसे बावनीमारी, आदनमारी, आँवरामारी आदि।
"गेदुर" को "गादुर" भी उच्चारित किया जाता है। बस्तर के हल्बी-भतरी परिवेश में प्रचलित एक लोक कथा के अनुसार पहले इस पक्षी का नाम "सारदुल" हुआ करता था और यह बहुत ही शुभ माना जाता था। किन्तु इस पक्षी द्वारा किसी एक प्रकरण में भगवान से झूठ बोलने के कारण इसे भगवान ने शाप दिया कि चूँकि इसने सब-कुछ जानते हुए भी झूठ बोला इसीलिये यह न तो दिन में देख पायेगा और न सीधे रह पायेगा। उल्टा लटकता रहेगा और जिस मुँह से खायेगा उसी मुँह से मल-त्याग भी करेगा। इतना ही नहीं बल्कि इसे अब "सारदुल" की बजाय "गेदुर (गादुर)" के नाम से जाना जायेगा।
"शब्द-चर्चा" से आनन्द आ गया।
ReplyDelete"मार" शब्द का अर्थ बस्तर के पूर्वी और ओड़िशा के पश्चिमी हिस्से में जहाँ हल्बी-भतरी-छत्तीसगढ़ी का सम्मिश्रित रूप बोल-चाल में है, के साथ ही गोंडी परिवेश में भी "जंगल-झाड़ी से युक्त पहाड़" लगाया जाता है। "माड़" इसी "मार" अथवा "मारी" का ही एक रूप है। अबुझमाड़ नाम इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है : "वह जंगल-झाड़ी से युक्त पहाड़ी इलाका जो अब तक बूझा नहीं गया है"।
बस्तर के कई लोक गीतों में यह "मारी" शब्द इसी अर्थ में आया है। उदाहरण के लिये, "कुरलू खाउक रे नवँदल जावाँ बे, कुरलू खाउक रे नवँदल जावाँ बे। कोन "मारी" रे नवँदल जावाँ बे, कोन मारी रे नवँदल जावाँ बे (हे प्रिय! हम कुरलू नामक फल खाने के लिये जायेंगे। हे प्रिय! हम किस जंगल में जायेंगे?)" बस्तर के इन्हीं हिस्सों में कुछ पहाड़ियों के नाम भी इसी तरह हैं जैसे बावनीमारी, आदनमारी, आँवरामारी आदि।
"गेदुर" को "गादुर" भी उच्चारित किया जाता है। बस्तर के हल्बी-भतरी परिवेश में प्रचलित एक लोक कथा के अनुसार पहले इस पक्षी का नाम "सारदुल" हुआ करता था और यह बहुत ही शुभ माना जाता था। किन्तु इस पक्षी द्वारा किसी एक प्रकरण में भगवान से झूठ बोलने के कारण इसे भगवान ने शाप दिया कि चूँकि इसने सब-कुछ जानते हुए भी झूठ बोला इसीलिये यह न तो दिन में देख पायेगा और न सीधे रह पायेगा। उल्टा लटकता रहेगा और जिस मुँह से खायेगा उसी मुँह से मल-त्याग भी करेगा। इतना ही नहीं बल्कि इसे अब "सारदुल" की बजाय "गेदुर (गादुर)" के नाम से जाना जायेगा।
बहुत अच्छी जानकारी दी है सर। शब्दों के रूप, अर्थ आदि समय के साथ इतने परिवर्तित हो जाते हैं कि फिर उनका मूल निकाल पाना बड़ा कठिन होता है। उस पर भी यदि वह कोई क्षेत्रीय भाषा हो तो कठिनाई कई गुना बढ़ जाती है।
ReplyDeleteहाथ आजमाई बढ़िया रही। हरिहर वैष्णव जी की टिप्पणी भी शानदार लगी।
ReplyDeleteअबुझमाड़, अचनकमार जैसे नाम ध्यान तो एकदम खींचते हैं।
बोलचाल में गढ़वाल में भी 'बांदरो-उंदरो' को 'बान्दर- वान्दर' प्रयोग किया जाता है।
ReplyDeleteइस आलेख पर पहले भी आ चुका हूँ परन्तु टिप्पणी नहीं दे पाया . मांड, माडिया ,मलई आदि शब्द समूहों का उद्भव कदाचित एक ही स्रोत रहा होगा।
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