छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के आरंभिक साहित्यकार पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय का जन्म शिवरीनारायण में 19 जुलाई 1885 (कहीं 1886 मिलता है), आषाढ़ शुक्ल अष्टमी संवत 1942, रविवार को तथा मृत्यु रायगढ़ में 2 जनवरी 1951 को हुई। उनकी प्रमुख प्रकाशित रचनाएं 'मैथिली मंगल', 'छत्तीसगढ़ गौरव' और सन 1918 में प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया' है, जो शेक्सपियर के 'कॉमेडी ऑफ एरर्स' को आंचलिक परिवेश में ढाल कर किया गया पद्यानुवाद है, और यह छत्तीसगढ़ी साहित्य की पहली अनूदित रचना मानी गई है। पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय जी पर रायगढ़ के शत्रुघ्न साहू, भाटापारा के राममोहन त्रिपाठी और बेमेतरा के शत्रुघ्न पांडेय ने शोध किया है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय - पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय - रमेश पांडेय जी |
यहां पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय द्वारा छत्तीसगढ़ के पुराविद-साहित्यकार पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को संबोधित पत्र की प्रस्तुति है। इस पत्र की प्रति शुकलाल जी के पौत्र वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रमेश पांडेय जी ने उपलब्ध कराई है।
श्री रामः।
स्वजन-चकोरानन्द-रजनीश-धवल, विधि-कमण्डल-निस्सरित सरितवत विमल, स्वदेशोद्यान-स्थित-प्रभूत-परिमल घृत चन्दन, महितल-विरा-जित-सुकवि-मंडली-मंडन; विश्व-मंदिर-शोभित-दिव्य दीप, निगमाधिक-ग्राम-दाम-अवनीप; धर्म-धुर-न्धर, भूमि-पुरन्दर; अखिल-गुण-गण-मंडित, सकल काव्य-शास्त्र-पंडित; प्रचुर प्रज्ञावन्त, कविता-कामिनी-कंत; यश-धाम, चरित-ललाम; महा महिमा-धृत-पूज्यपाद, श्री र्छ पं. लोचनप्रसाद जी पाण्डेय के त्रि-विध ताप नाशक, सुन्दर-सुशीतल-अमल-कमल-तुल्य शांति-विधायक चरणों में; दीनातिदीन, बुद्धि-विद्या विहीन; पाद-पंकज-मधुकर, दासानुदास; अनुचर; ग्रसित-दुःख-उन्माद, द्विज शुकलाल प्रसाद; भक्ति भरित हृदय-धाम, श्रद्धा-पुष्पांजलि ले ललाम, करता है अनेक अनेकशः दण्डवत-प्रणाम।
देव!
अनेक आधि-व्याधि और उपाधियों के कारण चिरकाल से आपके विपुल विदुषजन-अर्चित, यश-परिमल-पंकचर्चित चारुचरणों में, मैं अपने कुशल-मंगल की मृदुल-मंजुल-पूजा-कुसुमांजलि समर्पित न कर सका। एतदर्थ मुझे बड़ा परिताप है। पर यह सर्वथा सत्य है कि आप के स्मरण-सरोज के अमल आमोद दाम परिमल-प्रवा-ह से मेरा चित्त-चंचरीक यदा कदा आनन्दानु-भव करता ही रहता है। दुर्भाग्य के निकट में इतना सौभाग्य भी बड़ा गर्व मूलक है।
बहुत दिनों से आपलोगों के दर्शनों की हृदय में अतीव लालसा है। प्रजावत्सल महामान्य-वर रायगढ़-नरेश के मंगलमय उद्वाह-कार्य में सम्मिलित हो पूज्यपाद पं. बलदेव प्रसाद जी मिश्र, पूज्यचरण पं. पुरुषोत्तम प्रसाद जी पाण्डेय, श्रद्धास्पद पं. मुकुटधर जी, तथा मनोहरमूर्ति
मनोहरलाल जी सारंगढ़ पधारे थे। दुभार्ग्य से मैं उन दिनों ज्वर ग्रस्त हो शैयाशायी था। अतः उपरोक्त महानुभावों के दर्शनार्थ सारंगढ़ न जा सका। ''मन की मनहीं माहिँ रही।''
मैं आजकल मैथिली-मंगल नामक काव्य का विरचन कर रहा हूँ। दो सर्ग अभी तक बन सके हैं। इसे आपलोगों को दिखा कर कुछ उपदेश ग्रहण करने की मन में बड़ी इच्छा है; पर आपकी अनुमति पाये बिना इसे आप लोगों के पास भेजने से एक प्रकार की असभ्यता होगी, यही सोच मैं इस कार्य से हाथ खींचे बैठा हूं। यदि अवकाश हो, तो कृपया आज्ञा दीजिये।
बद्ध-मुष्ठि रायपुरी काउंसिल शिक्षकों की वेतन-वृद्धि में अनुदारता का प्रयोग चिरकाल से करती आ रही है। मुझे यहाँ ४०/ मासिक मिलता है। बहु कुटुम्बी आश्रम में इतने में जीवन निर्वाह
भली भाँति नहीं हो रहा है। मन सदा उद्विग्न और चिंतित रहता है। अधिक क्या, निम्नलि-खित पद्य मेरी दशा के उज्वल चित्र हैं :-
''मिलता पगार प्रभागार तभी पूर्णिमा है,ले-दे हुए रिक्त अमावस भय दानी है।
आजतक वेतन के रुपये हजारों मिले;
झोपड़ी बनी न पेट-दरी ही अघानी है॥
पास है न पैसा एक कफन मिलेगा क्या न?
शुकलाल ताक रही मृत्यु महारानी है।
जड़ लेखनी भी रो रही है काले आंसुओं से;
मेरी दुखसानी ऐसी करुण कहानी है॥''
(२)
शिक्षक ने एक रोज पूछा निज बल्लभा से-
''वेतन है अल्प, निरवाह कैसे कीजिये?
अश्रु-ओस-शोभित हो बोली यों कमलमुखी-
''नाथ! मुझे मेरे मायके में भेज दीजिये।
''और इन बालकों को?''(हाय! छाती फट जा तू);
जा अनाथ-आलय को शीघ्र सौंप दीजिये।
कूए में न कूदिएगा चूड़ी मेरी राखिएगा,
बीस दिन खा के शेष दिन व्रत कीजिये।
मैंने सुना है कि हाई स्कूल रायगढ़ में हिन्दी पढ़ाने वाले अध्यापक का स्थान रिक्त है, अथवा उस पद पर किसी अच्छे अध्यापक की नियुक्ति के लिये उस शिक्षा-संस्था के महानुभाव सदस्यगण चिन्ताशील हैं।
मैं नार्मल परीक्षोत्तीर्ण और री-ट्रेंड-टीचर हूं। मेरी सर्विस २२ वर्ष की है। मैं हिन्दी की मध्यमा- परीक्षा में भी उत्तीर्ण हूं। अतः मैं इन्ट्रेन्स कक्षाओं में हिन्दी पढ़ाने का कार्य भलीभाँति कर सकता हूं।
यदि उपरोक्त समाचार सत्य है और यदि वहां मैं सफलता पा अपना हित साधन कर सकूं और आप भी यदि उचित समझें तो रायगढ़ के शिक्षा विभाग के मुख्याधिकारी महोदय से
मेरी सिफारिश कर मुझे अपनी अतुलनीया अनुकम्पा से कृतार्थ कीजिएगा।
आशा है, नहीं २, दृढ़ विश्वास है कि मेरी यह विनय-पत्रिका आपके कमनीय कर-क-मलों में समर्पित हो मुझे सफल-मनोरथ कराने में अवश्य सफलता प्राप्त करेगी।
''भिक्षामोघा वर मधि गुणे नाधमे लब्ध कामा।''
विनयाऽवनत
शुकलाल प्रसाद पाण्डेय,
हे.मा. मिडिल स्कूल
भटगांव
आश्विन शुक्ल द्वादशी८६
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हिन्दी व्याख्याता पद के लिए मुक्तिबोध जी ने दिनांक 10-5-58 को अंगरेजी में आवेदन किया था, यह भी एक पृथक पोस्ट बना कर प्रकाशित करना चाहता था, किन्तु अपनी सीमाओं के कारण अब तक वह मूल पत्र या उसकी प्रति नहीं देख पाया। विभिन्न स्रोतों से पुष्टि हुई कि यह पत्र टाइप किया हुआ है। यहां इस्तेमाल प्रति, सन 1957 में स्थापित शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव के 1982 में प्रकाशित रजत जयंतिका अंक से ली गई है। पत्र में मुक्तिबोध अपने तेवर सहित हैं।
पत्र के कुछ खास हिस्से का हिन्दी अनुवाद इस तरह होगा- ''मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकतावादी रुझान का अगुवा रहा हूं। ... ... ... मैंने प्राचीन साहित्यिक मूल्यों का पुनर्विवेचन आरंभ किया और कतिपय नये सौंदर्यबोध की अवधारणा सृजित कर इसे व्यष्टि एवं समष्टि की नवीन परिवर्तनशील जीवन शैली से जोड़ा। ... .... ... अब मेरी साहित्यिक प्रतिष्ठा है। प्रायः हिंदी कविता के आलेखों में मेरे उद्धरण लिये जाते हैं।
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छत्तीसगढ़ से मेरा लगाव सिर्फ इसलिए नहीं कि यह मेरी जन्मभूमि है, यहां गौरव उपादान पग-पग 'जिन खोजा' नहीं 'बिन खोजा' भी पाइयां हैं।
निःशब्द कराती स्मृतियों के साथ नित नवीन आपके खजाने का एक और मनका हमारी झोली में टपका .आपके इस चिर युवा अन्वेषण की प्रवृत्ति के लिए चरण स्पर्श स्वीकारें .. एक शिक्षक के मार्मिक पत्र के प्रकाशन का पुन्य मित्र दिवस पर आपकी मंगल कमाना के साथ ....
ReplyDeleteपत्र इस तरह भी लिखे जाते थे।
ReplyDeleteवाह! श्री शुकदेव पाण्डेय जी की हिन्दी पढकर लग रहा है कि हम हिन्दी में निरक्षर ही हैं... :) मुक्तिबोध जी की अंग्रेजी भी इतनी समृद्ध थी यह भी पता चला.
ReplyDeleteलेकिन यह जानकार अजीब लग रहा है है कि ऐसे ज्ञानियों को भी स्कूल-कॉलेज के शिक्षक जैसे पदों के लिए इतनी मिन्नत करनी पड़ती थी.. लगता है विद्वानों की क़द्र शुरू से ही नहीं अपने देश में...
विद्वानों के पत्र लेखन के अन्दाज़ भी अनूठे ही हैं, आभार!
ReplyDeleteKya gazab ka bhasha prabhutv hai!
ReplyDeleteएक स्तरीय संवाद पढ़वाने का आभार..अभिव्यक्ति का उदाहरण।
ReplyDeleteअब ऐसी हिन्दी पढने को भी नहीं मिलती जिसमें पांडित्य का ऐसा दर्शन हो ......
ReplyDeleteमगर साहित्यकार का चिर दारिद्र्य भी दिखता है........
मैथलीशरण गुप्त की परम्परा याद दिला दी शुक देव पाण्डेय जी ने .इस एहम इतिहासिक पोस्ट के लिए आपको बधाई .
ReplyDeleteसरस्वती और लक्ष्मी में दूरी|
ReplyDeletebahut sundar prastuti...badhai
ReplyDeleteपंडित शुकलाल प्रसाद पांडेय जी के बारे में जाना. अच्छा लगा. डा. अरविन्द जी की बात से सहमत हूँ. लगता है वे रायगढ़ के पांडे परिवार से सम्बंधित रहे होंगे. सन १९१० के लगभग ४०/- रुपये की पगार पर्याप्त होनी चाहिए थी. कुछ पुराने अभिलेखों में ४ रुपये प्रति माह में बाबू भर्ती होते थे. उनका बहुत बड़ा परिवार रहा होगा. संदर्भवश पंडित मुकुट धर पांडे जी के परिवार से मेरे भी कुछ सम्बन्ध रहे हैं. संयोग से उनके पुत्र कोलेज में मेरे सहपाठी रहे हैं बाद में गुरु भी बन गए.
ReplyDeleteहम लोग अपने समय पर नाराज होते हैं कि इसमें प्रतिभाशाली लोगों की कद्र नहीं है लेकिन इन पत्रों को देखें तो रूह काँप जाती है। इतने प्रतिभाशाली लोग इतनी तकलीफ में।
ReplyDeleteमुक्तिबोध जी का तो जवाब ही नहीं, उन्होंने आवेदन में भी अपने साहित्यिक रंग दिखा दिए। बिन खोजे तिन पाइयां, यह पोस्ट छत्तीसगढ़ के संबंध में मुक्तिबोध जी के गहरे आदर को भी दिखाती है।
साहित्यकारों की इस आर्थिक दुर्दशा के कारण ही साहित्य की यह हालत है, आज भी हम केवल साहित्यकारों के नाम लेते हैं, लोगों को तो उनकी कृतियों के नाम भी पता नहीं होते हैं। आज की पीढ़ी को तो इन कवियों के नाम भी पता नहीं हैं।
ReplyDeleteदोनों पाती पढ़कर आत्मा प्रसन्न हो गई, पर आंग्लभाषा में लिखे पत्र में बहुत सारे वाक्य जो कि अंग्रेजों ने भारतीयों को दिये, जबकि कि वे खुद उन वाक्यों का उपयोग नहीं करते हैं, इन वाक्यों को पढ़कर मन्न खिन्न है ।
ये गरीबी के मारे
ReplyDeleteसरस्वती के साधक
आराधक बेचारे .....
सचमुच यह पत्र सहेजने योग्य हैं।
ReplyDeleteआपके द्वारा प्रस्तुत ये दोनों पत्र, पत्र-साहित्य के अतिविशिष्ट उदाहरण हैं ।
ReplyDeleteएक अन्य संदर्भ के अनुसार पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने ‘कामेडी आफ एरर‘ का गंगा प्रसाद पाण्डेय द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद का छत्तीसगढ़ी भवानुवाद किया था जो सन् 1919 में ‘पुरू-झुरू‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। -छत्तीसगढ़ी साहित्य - दशा और दिशा, पृ. 13.
बेमेतरा के शत्रुघ्न प्रसाद पाण्डेय ने केवल पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय पर नहीं वरन् छत्तीसगढ़ के सभी गद्यकारों पर शोध किया था। उनके शोध प्रबंध का शीर्षक है- ‘हिंदी गद्य साहित्य को छत्तीसगढ़ की देन‘।
हिंदी व्याख्याता पद के लिए मुक्तिबोध द्वारा अंग्रेजी में आवेदन किया जाना चकित करता है।
इससे एक बात याद आ गई- बेमेतरा के स्थानीय हिंदी साहित्यकारों द्वारा गठित 'हिंदी साहित्य परिषद' के अध्यक्ष ने अपने दरवाजे पर इस तरह का बोर्ड लगा रखा था- PRESIDENT H.S.P.
आपके द्वारा प्रस्तुत ये दोनों पत्र, पत्र-साहित्य के अतिविशिष्ट उदाहरण हैं ।
ReplyDeleteएक अन्य संदर्भ के अनुसार पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने ‘कामेडी आफ एरर‘ का गंगा प्रसाद पाण्डेय द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद का छत्तीसगढ़ी भवानुवाद किया था जो सन् 1919 में ‘पुरू-झुरू‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। -छत्तीसगढ़ी साहित्य - दशा और दिशा, पृ. 13.
बेमेतरा के शत्रुघ्न प्रसाद पाण्डेय ने केवल पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय पर नहीं वरन् छत्तीसगढ़ के सभी गद्यकारों पर शोध किया था। उनके शोध प्रबंध का शीर्षक है- ‘हिंदी गद्य साहित्य को छत्तीसगढ़ की देन‘।
हिंदी व्याख्याता पद के लिए मुक्तिबोध द्वारा अंग्रेजी में आवेदन किया जाना चकित करता है।
इससे एक बात याद आ गई- बेमेतरा के स्थानीय हिंदी साहित्यकारों द्वारा गठित 'हिंदी साहित्य परिषद' के अध्यक्ष ने अपने दरवाजे पर इस तरह का बोर्ड लगा रखा था- PRESIDENT H.S.P.
पुरु झुरु नाम मुझे भी मिला इस दौरान, थोड़ी और तफ्तीश करता हूं, आवश्यक हुआ तो संशोधन कर लूंगा. शत्रुघ्न प्रसाद पाण्डेय जी की पुस्तक देखने को मिली है, गंभीर शोध दृष्टि युक्त अध्ययन है उनका. उपयोगी पक्षों का उल्लेख कर ध्यान दिलाया आपने, आभार.
Deleteसच में संग्रहणीय !
ReplyDeleteइतने विशेषण अगर संबोधन में हो तो श्रोता का क्या होगा?
ReplyDeleteएकबार ऐसे ही बहुत सारे विशेषण लगाकर कविता लिखने की कोशिश की थी, सफल सा हो भी गया था।
पोस्ट की विषय वस्तु से इतर, पत्र लेखन की लुप्त होती जा रही परम्परा, सुन्दर लेखन, शुध्द लेखन, शब्द सम्पदा, अतिशय विनम्रता जैसे कारको पर अनायास ही ध्यानाकर्षित होता है। प्रेरणा तो मिलती ही है, अकुलाहट भी होती है। अपने शब्दजीवियों का समुचित सम्मान, समुचित चिन्ता, रक्षा न करना और उनकी उपेक्षा करना हमारी सांस्कृतिक विरासत जैसा लगने लगा।
ReplyDeleteमन व्याकुल हो गया आज सुबह-सुबह ही।
मुक्तिबोध का यह पत्र उप्लब्धि ही है। इसके लिये आभारी हूं। इसे फेसबुक पर शेयर कर रहा हूं, प्रविष्टि-संदर्भ के साथ।
ReplyDeleteपत्र पढ़े। दुख हुआ कि हमारे साहित्यकार ऐसी स्थिति में जिये।
ReplyDeleteपोस्ट के लिए हार्दिक आभार....
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