सन 2003, अप्रैल की पहली तारीख, बिलासपुर में अपनी पुस्तक ''इंडिया इन स्लो मोशन'' पर व्याख्यान में मार्क तुली ने मापी-तुली, लेकिन जरा मजाकिया ढंग से बातें कहीं, सवाल-जवाब भी हुए। कार्यक्रम के बाद चाय पर चर्चा के लिए कुलपति गिरिजेश पंत जी ने मुझे रोक लिया। बातचीत के दौरान अपने शहर आए मेहमान के लिए मेजबान बनते हुए मैंने अगले दिन का कार्यक्रम जानना चाहा, पता चला कि दोपहर भोजन के बाद अमरकंटक के लिए रवानगी होगी। सुबह के खाली समय में 'ताला' देख लेना तय हुआ और यह जिम्मेदारी स्वाभाविक ही मुझ पर आई।
अगली सुबह बातें होती रहीं। आपरेशन ब्लू स्टार, अयोध्या विवाद, भोपाल गैस त्रासदी जैसे नाजुक मौकों पर और खास कर आपातकाल के दौरान बीबीसी ट्यून करने की याद अधिक आती। किस तरह हमारे लिए मार्क तुली का नाम बीबीसी का पर्याय रहा। 1977 के विधानसभा चुनावों में बिलासपुर जिले के 19 सीटों में से 13 पर कांग्रेस और 6 पर जनता पार्टी के प्रत्याशी विजयी हुए थे, इस पर बीबीसी की टिप्पणी थी- ''मध्यप्रदेश का बिलासपुर अनूठा जिला है जिसने पूरे देश से अलग फैसला दिया है। मैंने यह भी याद दिलाया कि इसी चुनाव में यहां एक ऐसे प्रत्याशी जीते, जो परचा भरने के पहले से परिणाम आने के बाद तक इलाज के लिए बंबई के अस्पताल में भरती रहे, अकलतरा क्षेत्र से राजेन्द्र कुमार सिंह जी।
आगे बातों में जेनकिन्स, एग्न्यू, टेम्पल, चीजम, नेलसन, डि-ब्रेट, कनिंघम, बेग्लर, वी बॉल और फॉरसिथ, रसेल आदि ब्रिटिश अधिकारियों की रिपोर्ट्स-पुस्तकें के साथ विलियम डेलरिम्पल के लेखन से उनके लिखे की तुलना होती रही, किसमें कितनी समझ, आत्मीयता और गहराई है। कौन तथ्यपूर्ण है, किसका विश्लेषण और किसकी व्याख्या कितनी सटीक मानी जा सकती है, आदि। इस दौरान उनकी सह-लेखिका मित्र जिलियन राइट भी साथ थीं, पता चला कि वे न सिर्फ हिन्दी बोल-लिख पाती हैं, बल्कि आंचलिक उपन्यासों का गहराई से अध्ययन और प्रसिद्ध 'राग दरबारी' का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। हम ताला पहुंच गए, रूद्र शिव प्रतिमा के सामने।
भारतीय कला के डेढ़ हजार साल पुराने इस अनूठे कला केन्द्र की रूद्रशिव कही जाने वाली रौद्रभाव की यह भारी-भरकम प्रतिमा ढाई मीटर से अधिक ऊंची है। इसे महाशिव, परमशिव या पशुपतिनाथ भी कहा गया है। सिर पर नागयुग्म की भारी पगड़ी है। जीव-जन्तुओं से रूपान्तरित चेहरे के विभिन्न अवयवों के साथ वक्ष पर दो, उदर पर एक तथा जांघ पर चार मानव मुखों के अतिरिक्त दोनों घुटनों पर सिंह मुख अंकित हैं। ठुड्ढी-दाढ़ी पर केकड़ा, मूंछ के स्थान पर दो मछलियां तथा नाक व भौंह का रूप गिरगिट का है। आंख की पलकें मेढक या सिंह का मुखविवर और नेत्र गोलक अंडे हैं। कान के स्थान पर मोर, कंधे मकर मुख, भुजाएं हाथी के सूंढ सदृश और हाथों की उंगलियों पर सर्पमुख हैं। शिव के स्वधिष्ठित संयमी पुरूष, पशुपति रूपांकन में कछुए के गर्दन और सिर को उर्द्धरेतस और अंडकोष को घंटी सदृश लटके हुए जोंक आकार दिया गया है।
मार्क तुली ने छत्तीसगढ़ डायरी शीर्षक से 21 अप्रैल 2003 के आउटलुक में लिखा।
ताला और इस मूर्ति पर जिलियन राइट ने अपनी टिप्पणी का आरंभ हिन्दी से किया और मार्क तुली ने लिखा-
We were delighted to be shown this unique image. Neither of us have ever seen anything similar to it. There is also so much else to see here. Being a remote site and on the banks of a perennial river Tala still retain a peacefulness a tranquility, denied to better known sites. It may be rather selfish to say this, I personally can't help hoping it never makes it to tourist map.
We were particularly privileged to be shown the site by Shri Rahul Kumar Singh who has such a deep knowledge of all that there is to see.
Mark TullyWe were particularly privileged to be shown the site by Shri Rahul Kumar Singh who has such a deep knowledge of all that there is to see.
2/4/2003
संयोग ही था कि कागजात खोजते हुए यह मिल गया। आखिरी वाक्य- 'पंच लाइन', पर ध्यान गया तो सहेजना और सार्वजनिक करना जरूरी लगा, वैसे भी सर मार्क तुली जैसे पत्रकार के लिखे को प्रकाशित करने का अवसर जो मिल रहा है।
इस एक प्रतिमा पर पूरी पुस्तक भी छपी है, ताला के कुछ अच्छे फोटोग्राफ्स और जानकारियां यहां हैं।
"....Shri Rahul Kumar Singh who has such a deep knowledge of all that there is to see."
ReplyDeleteसत्यवचन!
तुली जैसे पारखी को रत्न पहचानना आता है।
अति सुन्दर संस्मरण!
एकदम सही कहा अवधिया जी ने.
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteमार्क तुली साहब ने आपके लिए जो कहा वो गलत नहीं है...अद्भुत मूर्ती की व्याख्या की है आपने...शुक्रिया
नीरज
अवधिया जी ने तो हमारे कहने के लिये कुछ छोड़ा ही नही । और आपकी लेखनी के तो हम प्रशंसक है ही।
ReplyDeleteमार्क तुली ने पत्रकारिता में अलग मुकाम कायम किया था.आज भी उन्हें हिंदुस्तान भाता है,यहीं रहते हैं और कई मुद्दों पर अपनी राय दिया करते हैं.
ReplyDeleteआपसे उनकी मुलाक़ात हो पाई,इस मामले में आप भाग्यशाली रहे !
मार्क तुली के साथ के संस्मरण अनमोल |
ReplyDeleteधन्यवाद है आपको, तथ्य रखें सब खोल ||
हम गदगद हो गए. अपनों की प्रशस्ति/कीर्ति अपनी सी ही लगती है.
ReplyDeleteताला का रहस्य उजागर कराने के लिये अतिशय आभार, माध्यम तुली साहब रहे।
ReplyDeleteताला स्थित देवरानी जेठानी मंदिर में रूद्र शिव प्रतिमा का
ReplyDeleteदर्शन का शौभाग्य मिला आपके सौजन्य से आभार अब मार्क तुली जी के संग बिताये आपके अन्तरग छनों के याद ने एक बार फिर
यात्रा को सुखद बना दिया और जीवंत कर दिया .सुन्दर संस्मरण के लिए बधाई
मार्क टुली भारत में बीबीसी के पर्याय बन गए थे। एतिहासिक दस्तावेजों के संग्रहण में आपका कोई सानी नहीं है। मार्क टुली ने आपके विषय में सही कमेंट किया है……… शुभकामनाएं
ReplyDelete1977 के चुनाव का अनोखा संस्मरण आप ने वर्णित किया है . अवगत नहीं था .
ReplyDelete19 ---फिर 13 --- फिर 1.
बीमारी और डाक्टर तथा अस्पताल के विषय में भी बताते .आप तो घटना से सीधे तौर पर जुड़े हैं ..
जानकारियॉं समृध्द करनेवाला आत्मीय संस्मरण। अभी से तैयार हो जाइएगा - हम भी पंच लाइन देने की तैयारी में हैं कि हमारी पोस्टों पर राहलु सिंहजी भी टिप्पणियॉं अंकित करते थे।
ReplyDeleteमुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि इस पोस्ट में प्रकाशित यह चित्र मैं पहले ही, आपकी ही किसी पोस्ट पर देख चुका हूँ?
पंच लाईन देने की स्थिति में तो नहीं हैं लेकिन अपने प्रोफ़ाईल में हम भी ऐसा लिखने की सोच रहे हैं:)
Deleteमार्क टुली साहब ने आज से नौ साल पहले ऐसा कहा था, ये हमने आज जाना। उनकी बात को अपनी सोच का एंडोर्समेंट मानें या अपनी सोच को उनकी बात का एंडोर्समेंट, अपन कन्फ़्यूज़्ड हैं:)
ReplyDeleteअच्छा, बहुत अच्छा, बहुत बहुत अच्छा लगा।
आपके आलेख हमारे लिए इतिहास का नया द्वार खोलते हैं.. मार्क तुली और रस्किन बौंड जैसे नाम उतने ही भारतीय हैं जितने पुष्पेश पन्त और आर.के.नारायण...
ReplyDeleteसचमुच आपके नाम का उल्लेख वास्तव में एक ऐक्नौलेज्मेंट है मार्क तुली द्वारा!!
मार्क तुली चाहे टुली!
ReplyDeleteबढिया!
मार्क टली!!!
Deleteसर, ताला के सम्बन्ध में आपकी बातों को आज मै पहले से कुछ बेहतर समझ पा रहा हूँ.
ReplyDeleteबीते शनिवार एक ही झोंके में ताला, मदकू, सरगांव और बिल्हा के पास एक और प्राचीन शिव मंदिर( गाँव का नाम याद नहीं आ रहा) देख आया.
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है।
ReplyDeleteचर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं....
आपकी एक टिप्पिणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......
आपको पढ़ना ही सुखद होता है ! रोचक जानकारी सहित अनूठी प्रस्तुति .. उम्मीद है कभी हम भी प्रिविलेज्ड होंगें :)
ReplyDeleteIntriguing post. I want to visit Tala, went there when i was too young.
ReplyDeleteआप के द्वारा उद्घाटित इस प्रकार की अनोखी जानकारियाँ अपनी संस्क़ति में पैठ बढ़ाती हैं . शिव की 'पशुपति'संज्ञा को रूपायित करती यह मूर्ति कितनी अद्भुत है !
ReplyDeleteआभार!!
मार्क तुली जाना पहचाना नाम है ! उनका लिखा पढना सुखद रहा !
ReplyDeleteराहुल जी,
ReplyDeleteइस प्रतिमा का शब्दों में खूबसूरत वर्णन आप ने किया है। पर इस प्रतिमा को यह स्वरूप देने का अर्थ क्या हो सकता है? इस पर और प्रकाश डाला होता।
चित्रों वाला लिंक जोड़ कर आप ने सब की जानकारी में वृद्धि कर दी है।
ReplyDeleteमैं भी स्तंभित हूँ....और आप महाराज तो प्रशस्त अतीत की धनी हैं !
ReplyDeleteपहले तो मुझे काल भैरव की श्रृंगार छवि लगी .मगर पशुपतिनाथ के उद्बोधन से पर्दा साफ़ है -यह शिव ही हैं ..
क्योकि अन्य किसी का ऐसा पशु सामीप्य तो है नहीं -दत्तात्रेय भी नहीं लगते ...
तंत्र साधना से भी अगर कोई सम्बन्ध है तो भी उदगम शिव ही है ...
चलिए राहुल सिंह साहब की बात मान लेते हैं ये पशुपतिनाथ ही हैं
और कोई बात समझ नहीं आ रही ?
अब मार्क तुली के आगे हम सब को मत छोड़ दीजियेगा?
तुली का टीप बिल्कुल सही....हम सब के लिए गौरव............
ReplyDeleteमेरे लिए बहुत ही रोचक जानकारी, मैंने पहले कभी सुना नहीं था . चित्र भी बहुत खुबसूरत और बहुत कुछ सोचने पे मजबूर करने वाले हैं.
ReplyDeleteबहुत खूब,
महत्वपूर्ण व रोचक संस्मरण..
ReplyDeleteआपकी व्याख्या सदा की भांति विश्वसनीय और उत्कृष्ट है. यह प्रतिमा या उसकी प्रतिकृति मैंने बरसों पहले भोपाल के राजकीय संग्रहालय में देखी थी.
ReplyDeleteतुली साब को हिंदी में बातें करते देखना बड़ा भाता है. अब तो वे कहीं नदारद से हो गए हैं.
मार्क टुली का कथन गौरवान्वित करने वाला है...
ReplyDeleteआपके दस्तावेजी आलेख घरोहर हैं सर....
सादर बधाई...
बहुत अच्छा लगा यह पोस्ट पढ़कर।
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी .....
ReplyDeleteराहुल भैया ब्लॉग पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि एक जगह जो निश्चित ही मुझे देखनी चाहिए छुट रही है ताला की रूद्र शिव प्रतिमा के बारे में पढ़ा जरुर है निकट भविष्य में देखने का भी अवसर आएगा ऐसा लगता है किन्तु आप जैसा जानकर कंहाँ होगा उम्दा ब्लॉग
ReplyDeleteउज्जवल दीपक जी का ईमेल-
ReplyDeleteVery interesting to get this enriching information about Tala. It must have been a privilege to be with Mark Tully!!
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ReplyDeleteरोचक जानकारी !
बढिया प्रस्तुति !
बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार !!
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ReplyDelete♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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*चैत्र नवरात्रि और नव संवत २०६९ की हार्दिक बधाई !*
*शुभकामनाएं !*
*मंगलकामनाएं !*
आभार, धन्यवाद जैसे शब्द कितने जीर्ण हो सकते हैं यही आकर जान पाता हूँ।
ReplyDeleteमुग्ध हूँ राहुल जी!
आप तो छत्तीसगढ के विशेषज्ञ हैं कहां कहां से खोजते हैं ये स्थल । रुद्रशिव की ये अनोखी प्रतिमा को देख कर और पढ कर विस्मित रह गई । तूली साहब ने जो आपके बारे में कह सच है एकदम ।
ReplyDeleteवाह ! मार्क तुली की तो २-३ पुस्तकें पढ़ी है.
ReplyDeleteताला के बारे में जानकारी नहीं थी :)
Bahut khub.. rahul ji apke blog jiwan me rochakta la dete hai.. behtarin jankari ke liye abhar..
ReplyDeleteमार्क तुली ने तो अपना अलग स्थान बनाया ही है, हमारे लिये तो आप भी कोई कम नही हैं। मूर्ति एकदम अलग सी है।
ReplyDeleteपिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ............!!!
ReplyDeleteबहुत ही रोचक जानकारी, मैंने पहले कभी नहीं सुना खुबसूरत चित्र महत्वपूर्ण व रोचक संस्मरण......आभार राहुल जी
" पशुपतिनाथ " की प्रतिमा जब मैं देखी थी , उस समय मुझे कुछ समझ में नहीं आया था । आज इस पोस्ट को पढ कर , मेरे मन में जो जिज्ञासा थी , उसका समाधान हुआ है । वस्तुतः इस स्थान को मैं बचपन से " देवरानी-जेठानी " के नाम से जानती हूँ , यह हमारे गॉव 'करही ' के निकट है । ग्रहण-स्नान के लिए हम वहॉ बैलगाडी से जाते थे और चौमास में पैदल भी जाते थे । छत्तीसगढ की धरोहर को सुरक्षित रखना , हम सभी का दायित्व है ,पर हम सोचते हैं कि यह पुरात्तत्ववेत्ता और पर्यावरण विद् का ही दायित्व है यह उचित नहीं है । राहुल जी अपने दायित्व के प्रति सचेत हैं ईश्वर उन्हें लम्बी उमर दे , आरोग्य दे ।
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