छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात इस अंचल से संबंधित विभिन्न प्रकाशन हुए हैं, किन्तु प्राचीन इतिहास पर केन्द्रित किसी विस्तृत ग्रंथ का प्रकाशन लंबे समय से प्रतीक्षित था। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर स्तरीय शोध-कार्य और प्रकाशनों की जानकारी आम पाठक तक नहीं पहुंच पाती, ऐसी स्थिति में अंचल के इतिहास के प्रसंग में कई अनहोनी स्थापना व व्याख्या भी कर दी गई हैं। इस पृष्ठभूमि में वरिष्ठ इतिहासकार डा. प्रभुलाल मिश्रा द्वारा तैयार की गई पुस्तक 'दक्षिण कोसल का प्राचीन इतिहास' जैसा प्रकाशन, समय की आवश्यकता और लेखक के गहन अकादमिक अनुभवों के अनुरूप है।
पुस्तक में छत्तीसगढ़ के सामान्य परिचय के साथ-साथ, साहित्यिक स्रोतों में आए दक्षिण कोसल के उल्लेख से परिचित कराया गया है, मूल पुस्तक, ईसा पूर्व से लगभग दसवीं सदी ईस्वी तक के अभिलेखों और सिक्कों से ज्ञात इतिहास पर केन्द्रित है। पुस्तक का एक उल्लेखनीय पक्ष, अंचल के वृहत्तर ऐतिहासिक आकार की प्रबल लेखकीय पक्षधरता है, जिससे छत्तीसगढ़ से संलग्न उड़ीसा के महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश भी पुस्तक में हो गया है। छत्तीसगढ़ और कोसल पर डॉ. मिश्रा के विचारों पर मत-मतान्तर हो सकता है, किन्तु पड़ोसी अंचल के प्रति, भले ही प्रशासनिक-राजनैतिक दृष्टि से वह अब पृथक हो, लेखक द्वारा महसूस की गई आत्मीयता से संभवतः कोई भी असहमत नहीं हो सकता।
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण नवंबर 2000 के पहले पखवाड़े में संस्कृति विभाग के एक महत्वपूर्ण आयोजन में डॉ. मिश्रा ने मराठा-ब्रिटिशकालीन छत्तीसगढ़ पर एक विस्तृत व्याख्यान बिलासपुर में दिया था और तब से समय-समय पर उनकी इस कार्य-योजना पर विचार-विमर्श का अवसर मुझे मिलता रहा, किन्तु इसका कलेवर इतना बड़ा बनेगा, यह अनुमान नहीं था। पुस्तक की कुछ कमियां भी मेरे लिए अप्रत्याशित हैं, लेखक ने इनका उल्लेख करने की अनुमति दी है, यह उनकी उदारता है।
दक्षिण कोसल और छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न शब्दों के संक्षिप्त रूप (दक्षिण कोसल तथा छत्तीसगढ़ को क्रमशः द.को. तथा छ.ग., महाशिवगुप्त बालार्जुन के लिए म.शि.गु.बा. आदि) का प्रयोग अखरने वाला है। ताला की इमारत के ध्वस्त होने का कारण नौसिखियों ने उत्खनन किया, कहना लेखक की जानकारियों का अभाव दर्शाता है। सिरपुर के प्रति लेखक का विशेष आकर्षण दिखाई पड़ता है, क्योंकि बार-बार बिना ठोस तर्क-प्रमाणों के सिरपुर मंदिर को प्राचीनतम स्थापित करने का प्रयास किया गया है। पृष्ठ 251 पर बिलासपुर जिले में पाली के 'ईंटों के मंदिर' का उल्लेख, लेखक की मैदानी जानकारियों का अभाव और संदर्भों के उपयोग में हुई असावधानी का द्योतक है। पृष्ठ 255 पर रामगढ़ को नल वंश से सम्बद्ध करना भी अप्रत्याशित चूक है। डॉ. मिश्रा अंग्रेजी के अभ्यस्त हैं और महाराष्ट्र में उनका लम्बा समय बीता है, पुस्तक में वर्तनी और भाषा की असंख्य भूलें संभवतः इसी वजह से हैं। इस सबके बावजूद ग्रंथ महत्वपूर्ण है, विशेषकर परिशिष्ट-4 में दी गई अभिलेख, सिक्कों की तालिका अत्यंत उपयोगी है।
छत्तीसगढ़ के इतिहास के प्रमुख संदर्भ ग्रंथ, जो अधिकतर अंग्रेजी में हैं, को आधार बनाकर तैयार की गई यह पुस्तक शोधार्थियों और सामान्य जिज्ञासु का मार्गदर्शन कर सकने में समान रूप से समर्थ है। 'मनोगत' से पता लगता है कि ''70 वर्ष की आयु में स्थल सर्वेक्षण का कार्य जितना अवसर मिला, उतना लेखक ने किया है।'' इस कार्य हेतु परिश्रम की दृष्टि से डॉ. मिश्र की जितनी प्रशंसा की जाय वह कम है। पुस्तक की प्रकाशक श्रीमती सरला मिश्र, 266, समता कालोनी, रायपुर हैं। अंत में पुस्तक के मूल्य पर अवश्य प्रश्न हो सकता है कि रू. 900/- मूल्य अंकित इस पुस्तक का ग्राहक-पाठक कौन होगा?
24 जून 2003 को पुस्तक के विमोचन अवसर के लिए डॉ. मिश्र ने इस पर मुझसे प्रतिक्रिया देने को कहा, कार्यक्रम में स्वयं व्यक्तिशः उपस्थित न हो पाने तथा कुछ बिंदुओं पर असहमति, आलोचना के बावजूद भी उनका स्नेह-औदार्य कि पुस्तक पर इस टीप का न सिर्फ तब स्वागत किया, बल्कि अब पुनः इसे ब्लाग पर लगाने की सहर्ष अनुमति भी प्रदान की।
डॉ. प्रभुलाल मिश्र, सन 1978 में प्रकाशित The Political History of Chhattisgarh जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक के रूप में जाने गए, बाद में उन्होंने अपने इस शोध प्रबंध का संशोधित संस्करण 'मराठाकालीन छत्तीसगढ़' प्रकाशित किया। राज्य प्रशासन व्यवसाय प्रशिक्षण संस्थान, मुंबई के संचालक तथा एलफिंस्टन कालेज, मुंबई व राजाराम कालेज, कोल्हापुर के प्राचार्य रहे सतत सृजन सक्रिय डॉ. मिश्र मूलतः छत्तीसगढ़ निवासी हैं।
ताला की इमारत के ध्वस्त होने के कारणों पर आपके लेख की प्रतीक्षा रहेगी.
ReplyDeleteआदरणीय मिश्र जी को प्रणाम आपके संग जिन्होंने छत्तिस्गड़
ReplyDeleteको मान दिया .पुस्तक को पढ़ने की इक्षा जगी .
मिश्र जी को भेट करवाने के लिए धन्यवाद
बढिया समीक्षा की आपने, पुस्तक के कथ्य से परिचित कराया। 900 रुपए मुल्य अधिक है आम पाठक के लिए ।
ReplyDeleteइसे छत्तीसगढ़ शासन की ओर से विषय/भाषा के अन्य जानकारो से त्रुटी हीन करवा कर छपवाया जाता तो बेहतर होता। छत्तीसगढ़ी उप राष्ट्रीयता और उसके सम्मान के उत्थान के लिये पुष्ट गौरवशाली इतिहास नीव की तरह है।
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के बारे में विस्तृत जानकारी होगी इस पुस्तक में !!
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा !
Nice to know a book on the history of Chhattisgarh, I was looking for such a book from long time. Now the question is how can i get this book, is it possible to contact some publisher or author who can send this book to Bangalore?
ReplyDeleteइस प्रकार के शोधों में श्रम बहुत लगता है, क्षेत्र से सम्बन्धित कार्य श्रमसाध्य होते हैं, श्रेय निश्चय ही श्री मिश्र जी को जाता है।
ReplyDeleteयह पोस्ट, मात्र एक पोस्ट नहीं, उससे अगल हटकर और उससे आगे बढकर काफी-कुछ और भी लगी मुझे तो। असहमति को विनम्रतापूर्वक किन्तु दृढतापूर्वक कैसे प्रकट/प्रस्तुत की जाए और लेखक तथा समीक्षक की परस्पर असहमति का सम्मान कैसे किया जाए - ये दो बातें भी इस पोस्ट में बखूबी उजागर हो रही हैं।
ReplyDeleteइस पोस्ट में दोनों (लेखक और समीक्षक) का 'बडापन' भी है और'बडप्पन' भी।
सुन्दर समालोचना!
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर ग्रंथ प्रकाशन की शुरुवात हर्ष की बात है। किन्तु ग्रंथ की जो कीमत आपने बताई है उससे नहीं लगता कि ग्रंथ की सामग्री आमजन तक पहुँच पाएगी। प्रयास यह होना चाहिए कि ज्ञान की बातें जन-जन तक पहुँचे।
हमारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteउत्सुकता जगाती समीक्षा...
ReplyDeleteमूल्य के सम्बन्ध में ललित जी सहमत
पढ़ना है.............अच्छी जानकारी...............
ReplyDeleteराहुल सिंह जी ,
ReplyDelete(१)यह विषय ऐसा है जिसमें मतभिन्नता की गुंजायश सदैव बनी रहेगी ! पहले हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार अभिव्यक्त हो जाये और फिर उस पर सार्थक / तर्कपूर्ण बहस के उपरान्त कथ्य को संशोधित रूप में प्रकाशित किया जाये तो बेहतर हो वर्ना इतिहास के सभी छात्र आपके जैसे नहीं होते इसलिए पीढ़ी के भ्रमित इतिहासज्ञ होने का खतरा बना रहेगा ! प्रूफ रीडिंग और संबोधनात्मक शब्द संक्षिप्तीकरण को पुस्तक के मूल्य की तुलना में प्रकाशन का कृष्ण पक्ष माना जाये ! पुस्तक प्रकाशन हेतु लेखक को कोटिशः शुभकामनायें ! अच्छी समीक्षा हेतु आपको भी अनेकों मंगल कामनायें !
(२)मेरे ख्याल से लोक सेवा आयोग भी ऐसी ही विषयगत विशेषज्ञता और तद्जन्य छात्रों की अध्ययनशीलता के चलते न्यायालयीन प्रकरणों से जूझता रहता है :)
1. प्रकाशन से पहले ही सार्थक बहस और शंका-निर्मूलन, सत्यांवेषण के बारे में अली जी के सुझाव के पक्ष में हूँ।
Deleteएक महत्वपूर्ण पुस्तक की निष्पक्ष समीक्षा पढ़ने के उपरांत इस पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता जगी है।
ReplyDeleteसन्1991 ई. में स्व. हरि ठाकुर का एक निबंध पढ़ने को मिला था। निबंध का शीर्षक था - ‘‘उत्तर कोसल बनाम दक्षिण कोसल : मूल कोसल की खोज‘‘ । इस निबंध में स्व. हरि ठाकुर ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि छत्तीसगरू़ ही मूल कोसल देश है। उन्हें छत्तीसगढ़ को दक्षिण कोसल कहे जाने पर आपत्ति है।
एक स्थानीय आयोजन में मैंने इस निबंध की समीक्षा प्रस्तुत की थी। समीक्षा में मैंने यह सिद्ध किया है कि राजा राम के कोसल देश का विस्तार हिमालय से विन्ध्याचल तथा मथुरा से बंग देश तक था। वर्तमान छत्तीसगढ़ इस महाकोसल देश का दक्षिणी भाग था जिसका शासन राजा राम ने अपने छोटे पुत्र कुश को सौंपा था।
समीक्ष्य पुस्तक का शीर्षक देखा तो यह प्रसंग याद आ गया।
मज़बूत कलम और बेहतरीन समीक्षा ...
ReplyDeleteशुभकामनायें भाई जी !
जानकारी के लिए आभार आपका...
ReplyDeleteबलवती एक जिज्ञासा मन में ही रह गयी, कृपया समाधान करेंगे..??
रामायण में जिस कोशल राज्य, जहाँ की राजकुमारी कौशल्या थीं, का उल्लेख है, वह वस्तुतः वर्तमान में किस नाम से जाना जाता है और कहाँ अवस्थित है..?
उत्तम समीक्षा. केवल यह जाननेकी लालसा थी कि मघ वंश का उल्लेख क्या किया गया है
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के इतिहास संस्कृति और पुरातत्व की जानकारी रखने वाले एक सजग समीक्षक की पैनी नज़र का कमाल लगती है यह समीक्षा।अच्छी समीक्षा पढ़ने का सुअसर प्रदान करने के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteडा. प्रभुलाल मिश्रा की ऐतिहासिक कृति से परिचय का आभार!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत जानकारी ज्ञानवर्धक पोस्ट |
ReplyDeletenice post.
ReplyDeleteहमेशा की तरह ज्ञानवर्धक, विष्णु जी से सहमति है।
ReplyDeleteइस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.
Deleteकृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर पधार कर अपनी राय प्रदान करें.