'जय शंकर', हबीब जी के नया थियेटर का अभिवादन-संबोधन रहा है। 'पीपली लाइव' के पात्र इसका अनुकरण करते हैं तब लगता है कि हम नया थियेटर के किसी वर्कशाप में उपस्थित हैं। फिल्म आरंभ होती है हबीब तनवीर और नया थियेटर को धन्यवाद देते हुए। निर्माता आमिर खान हबीब जी से जुड़े रहे हैं तो फिल्म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और महमूद फारूकी (सह-निर्देशक) हबीब जी के करीबी रहे हैं। इस सिलसिले के चलते फिल्म के नायक 'नत्था' यानि ओंकार दास मानिकपुरी के साथ छत्तीसगढ़वासी (नया थियेटर के) कलाकारों का लगभग पूरा समूह, चैतराम यादव, उदयराम श्रीवास, रविलाल सांगड़े, रामशरण वैष्णव, मनहरण गंधर्व, और लता खापर्डे फिल्म में हैं। पात्र शैल सिंह- अनूप रंजन पांडे के पोस्टर और नारों की झलक फिल्म में जगह-जगह है। शुरुआती एक दृश्य में नत्था, लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी ददरिया 'आमा ल टोरेंव...' की पंक्तियां गाते, जाता दिखाया गया है।
फिल्म में 'महंगाई डायन' के अलावा गीत है 'चोला माटी के हे राम'। लता मंगेशकर ने आमिर खान को शुभकामनाएं दीं- ''आपने लोक गीत गायकों से इतने अलग ढंग का गाना रिकॉर्ड कराया। आप हमेशा कुछ नया और अलग प्रयोग करते हैं।'' मानों इस ट्वीट में वे गीत को बरबस गुनगुना भी रही हैं।
वैसे लता जी, ऊषा मंगेशकर के साथ सन 2005 में छत्तीसगढ़ी फिल्म 'भकला' के लिए गीत 'छुट जाही अंगना...' गा चुकी हैं। संयोगवश इस गीत की पृष्ठभूमि विवाह (सास-बहू) और विछोह यानि राग-विराग का द्वंद ही है। 'चोला माटी के ...' प्रायोगिक लोक गीत ही है, जो अब इस फिल्म के गीत के रूप में जाना जाने लगा। काफी पहले से सुनते आए इस गीत की पंक्तियां यहां नगीन तनवीर के ही गाये हबीब जी के जीवन-काल में रिकॉर्ड हो चुके गीतों की सीडी से ली गई है। दोनों में कोई खास फर्क नहीं है। गीत के बोल हैं -
छत्तीसगढ़ी गीत गाने की तैयारी में लता जी, संगीतकार कल्याण सेन के साथ |
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा, चोला माटी के हे रे।
द्रोणा जइसे गुरू चले गे, करन जइसे दानी
संगी करन जइसे दानी
बाली जइसे बीर चले गे, रावन कस अभिमानी
चोला माटी के .....
कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी
एक दिन आही सब के पारी
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के .....
भव से पार लगे बर हे तैं हरि के नाम सुमर ले संगी
हरि के नाम सुमर ले
ए दुनिया माया के रे पगला जीवन मुक्ती कर ले
चोला माटी के .....
फिल्म की म्यूजिक लांचिंग से लौटे कोल्हियापुरी, राजनांदगांव निवासी अमरदास मानिकपुरी ने बताया कि शुरुआती दौर में 'चोला माटी के' गीत को टोली के फिदाबाई, मालाबाई, भुलवाराम, बृजलाल आदि गाया करते थे लेकिन तब से लेकर फिल्म के लिए हुई रिकार्डिंग और म्यूजिक लांचिंग के लाइव शो में भी मांदर की थाप उन्हीं की है।
इंटरनेट पर उपलब्ध इस गीत के फिल्मी संस्करण के बोल अंगरेजी-रोमन में हैं (हिन्दी फिल्मों का कारोबार इसी तरह चलता है) और जाहिर है कि किसी छत्तीसगढ़ी जानने वाले की मदद नहीं ली गई है, इसलिए यहां बोल में, भरोसा, दानी व अभिमानी के बदले क्रमशः बरोसा, दाहिक व बीमाही जैसी कई भूलें हैं। गीत के गायक और संगीतकार का नाम नगीन तनवीर और गीतकार, गंगाराम सखेत अंकित है। फिल्म में एक कदम आगे बढ़कर स्पष्ट किया गया है कि गीत की धुन मध्यप्रदेश के गोंड़ों की है और गीतकार छत्तीसगढ़ के लोक कवि हैं।
गीत के संदर्भ और पृष्ठभूमि की बात आगे बढ़ाएं। यह गीत छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती मंडलाही झूमर करमा धुन में है, जिसका भाव छत्तीसगढ़ के पारम्परिक कायाखंडी भजन (निर्गुण की भांति) अथवा पंथी गीत की तरह (देवदास बंजारे का प्रसिद्ध पंथी गीत- माटी के काया, माटी के चोला, कै दिन रहिबे, बता ना मो ला) है। इसी तरह का यह गीत देखें -
हाय रे हाय रे चंदा चार घरी के नाबादर मं छुप जाही चंदा चार घरी के ना
जस पानी कस फोटका संगी
जस घाम अउ छइंहा
एहू चोला मं का धरे हे
रटहा हे तोर बइंहा, रे संगी चार घरी के ना।
अगर हवाला न हो कि यह गीत खटोला, अकलतरा के एक अन्जान से गायक-कवि दूजराम यादव की, लगभग सन 1990 की रचना है तो ('पानी कस फोटका' का साम्य गुलजार के 'बुलबुला है पानी का' से याद करते हुए) यह झूमर करमा का पारंपरिक लोक गीत मान लिया जावेगा। यह चर्चा का एक अलग विषय है, जिसके साथ पारंपरिक पंक्तियों को लेकर नये गीत रचे जाने के ढेरों उदाहरण हैं।
परम्परा की तलाश में एक और तह पर चलें- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का एक बड़ा भाग प्राचीन महापाषाणीय (मेगालिथिक) शवाधान संस्कृति के प्रमाण युक्त है। यहां सोरर-चिरचारी गांव में 'बहादुर कलारिन की माची' नाम से प्रसिद्ध स्थल है और इस लोक नायिका की कथा प्रचलित है। शवाधान क्षेत्र की संरचना अवशेष को बहादुर कलारिन की माची मानना और इस पृष्ठभूमि पर तैयार नाटक में शरीर की नश्वरता का गीत 'चोला माटी के...' के संयोग में तो काव्य सी तरलता भी है। हबीब जी ने इसे आधार बनाकर 'बहादुर कलारिन' नाटक रचा, जिसमें प्रमुख भूमिका फिदाबाई (अपने साथियों में फीताबाई भी पुकारी जाती थीं।) निभाया करती थीं।
फिदाबाई मरकाम की प्रतिभा को छत्तीसगढ़ी लोकमंचों के पुरोधा दाऊ मंदराजी ने पहचाना था। छत्तीसगढ़ी नाचा में नजरिया या परी भी पुरुष ही होते थे लेकिन नाचा में महिला कलाकार की पहली-पहल उल्लेखनीय उपस्थिति फिदाबाई की ही थी। वह हबीब जी के नया थियेटर से जुड़ कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुंचीं। तुलसी सम्मान, संगीत नाटक अकादेमी सम्मान प्राप्त यह कलाकार चरनदास चोर की रानी के रूप में अधिक पहचानी गईं। फिदाबाई के पुत्र मुरली का विवाह धनवाही, मंडला की श्यामाबाई से हुआ था। पारंपरिक गीत 'चोला माटी के हे राम' का मुखड़ा हबीब जी ने श्यामाबाई की टोली से सुना और इसका आधार लेकर उनके मार्गदर्शन में गंगाराम शिवारे (जिन्हें लोग गंगाराम सिकेत भी और हबीब जी सकेत पुकारा करते थे) द्वारा सन 1978 में तैयार हुआ। यह गीत पारागांव, महासमुंद के 'बहादुर कलारिन' वर्कशाप में नाटक का हिस्सा बना। जैसे 'सास गारी देवे' पारंपरिक ददरिया सन 1973 में हबीब जी के रायपुर नाचा वर्कशाप में रचे नाटक 'मोर नांव दमांद, गांव के नांव ससुरार' में गीत बन कर शामिल हुआ था।
'दिल्ली 6' का गीत 'सास गारी देवे' गीत थोड़े फर्क से छत्तीसगढ़ी फिल्म 'मया दे दे मयारू' में भी आया है, लेकिन मूलतः रिकार्डेड हबीब तनवीर जी की टोली के गाये इस गीत के बोल हैं -
सास गारी देवे, ननंद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर।
संइया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल।
केरा बारी में डेरा देबो चले के बेरा हो॥
आए बेपारी गाड़ी म चढ़िके।
तो ल आरती उतारव थारी म धरिके हो॥ करार...
टिकली रे पइसा ल बीनी लेइतेंव।
मोर सइकिल के चढ़इया ल चिन्ही लेइतेंव ग॥ करार...
राम धरे बरछी लखन धरे बान।
सीता माई के खोजन बर निकलगे हनुमान ग॥ करार...
पहिरे ल पनही खाये ल बीरा पान।
मोर रइपुर के रहइया चल दिस पाकिस्तान ग॥ करार...
लगभग 35 साल पुराना रिकार्ड, जिसके 'ए' साइड में 'तो ल जोगी जानेंव रे भाई, तो ल साधु जानेंव ग' था और 'बी' साइड में यह गीत 'सास गारी देवे' था, जिसके समूह स्वर में हबीब जी की आवाज साफ पहचानी जा सकती है, किंतु पूरे महत्व के साथ भुलवाराम यादव, बृजलाल लेंझवार, लालूराम और बरसन बाई, चम्पा जैसे नामों का उल्लेख जरूरी है, जिनके स्वर में यह गीत रिकार्ड हुआ था। बताया जाता है कि यह गीत रघुवीर यादव से होकर एआर रहमान तक पहुंचा और अब इस पारंपरिक धुन वाले गीत के संगीतकार के रूप में उनका नाम है। गीत के फिल्मी संस्करण के गीतकार प्रसून जोशी तथा गायिकाएं रेखा भारद्वाज, श्रद्धा पंडित और सुजाता मजुमदार हैं, इसके बोल हैं-
सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवे, देवर समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का अंगना, भावे डेरा पिया का हो, सास गारी ...
सैंया है व्यापारी, चले है परदेस सुरतिया निहारूं,
जियरा भारी होवे, ससुराल ...
बुश्शर्ट पहिने, खाई के बीड़ा पान पूरे रायपुर से अलग है,
सैंया जी की शान, ससुराल ...
इस पारंपरिक ददरिया के मूल बोल और धुन, लोक की थाती है। ददरिया में पारंपरिक पंक्तियों को लेकर सवाल-जवाब किस्म की आशु तुकबंदियां गाते-गाते ही, राउत नाच के दोहों, बस्तर में नाट, जगार आदि के चाखना और सरगुजा के बायर पदों की तरह, गढ़ ली जाती हैं, यानि गायक-गीतकार का फर्क लगभग नहीं होता, इसलिए गाने के साथ जोड़-घटाव, परिवर्तन आसानी से संभव होता है और परम्परा में यह हर गाने वाले के साथ अपना हो जाता है।
इन दोनों गीतों की चर्चा के साथ छत्तीसगढ़ के फिल्मी रिश्तों को याद कर लेना प्रासंगिक होगा। सन 1948/1953 में आई फिल्मिस्तान की दिलीप कुमार और कामिनी कौशल अभिनीत 'नदिया के पार' से, फिल्मों में छत्तीसगढ़ी गीतों का प्रवेश माना जाता है, इसके शुरुआती हिस्से में मल्लाहों के (किशोर साहू के लिखे) संवाद में तो छत्तीसगढ़ी का पुट है लेकिन गीतकार मोती के 'मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार' गीत सहित फिल्म में कोई छत्तीसगढ़ी गीत नहीं है। इसी प्रकार 1960 की फिल्म 'माया मछिन्दर', जिसमें मनहर देसाई ने मछेन्द्रनाथ और (छोटे) राजकुमार ने गोरखनाथ की भूमिका निभाई थी, की चर्चा फिल्म में शामिल किसी छत्तीसगढ़ी गीत के लिए की जाती है, साथ ही पुरानी बस्ती, रायपुर निवासी बहुमुखी प्रतिभा के धनी पहलवान-कवि-गायक मोहनी पोद्दार (सोनी) का ददरिया जैसा ही गीत 'दाई मोर बर मछरी ले दे' रंजीत मूवीटोन की किसी फिल्म में शामिल, पहला छत्तीसगढ़ी गीत बताया जाता है, किंतु इनकी पुष्टि मेरे स्तर पर अब तक संभव नहीं हुई।
सन 1920 में खड़गवां, कोरिया में राजदान मैनेजर बन कर आए, 1943 वाली फिल्म रामराज्य के राम, प्रेम अदीब की बहन इसी परिवार में ब्याही थीं, इसके चलते प्रेम अदीब के बचपन के उन्नीस सौ तीसादि दशक के कुछ साल यहां बीते और प्राथमिक शिक्षा हुई। इसी तरह ऋत्विक घटक के मामा के के राय, कोरिया स्टेट में अभियंता थे और तब उन्नीस सौ चालीसादि दशक में ऋत्विक घटक उनके साथ रहते हुए स्कूल की कुछ कक्षाएं यहां पढ़े तो 1959-60 में अपूर संसार का कुछ हिस्सा फिल्माने सत्यजित राय चिरमिरी-बैकुंठपुर आए। लगभग 1964 में सुलक्षणा पंडित ने प्राइमरी स्कूली पढ़ाई का एक साल जांजगीर जिले के उसी नरियरा में बिताया, जिस गांव का उल्लेख अमृता प्रीतम की कहानी गांजे की कली में है।
16 अप्रैल, 1965 को प्रदर्शित लेखक, निर्माता, निर्देशक मनु नायक की 'कहि देबे संदेस' वस्तुतः पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म है, जिसके संगीतकार मलय चक्रवर्ती और गीतकार डॉ. हनुमंत नायडू (राजदीप) हैं। इसके बाद निर्माता विजय कुमार पाण्डेय और लेखक-दिगदर्शक निरंजन तिवारी की 1971 में रिलीज 'घर द्वार', जिसके संगीतकार जमाल सेन और गीतकार हरि ठाकुर थे। अब तक छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, महेन्द्र कपूर, साधना सरगम, कुमार शानू, अनूप जलोटा, विनोद राठौर, उदित नारायण, सुदेश भोंसले, कविता कृष्णमूर्ति, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरषोत्तम, मन्ना डे, बाबा सहगल, अनुराधा पौडवाल, सोनू निगम, अभिजीत, बाबुल सुप्रियो और सुरेश वाडकर आदि भी अपना स्वर दे चुके हैं।
कुछ और संदर्भों का स्मरण। सन 1957 में बनी अर्न सक्सडॉर्फ की स्वीडिश फिल्म के प्रदर्शन से बस्तर, गढ़ बेंगाल निवासी दस वर्षीय बालक चेन्दरू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुआ। फिल्म का नाम 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') था। फिल्म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। यह कान फिल्म फेस्टिवल 1958 में प्रदर्शित फिल्मों की सूची में रही है। उसी दौरान चेन्दरू और शेर के साथ उसकी दोस्ती पर किताब भी प्रकाशित हुई। सन 1998 में अधेड़ हुए चेन्दरू और इस पूरे सिलसिले को नीलिमा और प्रमोद माथुर ने अपनी फिल्म 'जंगल ड्रीम्स' का विषय बनाया। चेन्दरू, इन दिनों अपने गांव में 'गैर-फिल्मी' दिनचर्या बसर कर रहा है, किन्तु रूपहले परदे का पहला छत्तीसगढ़ी सुपर स्टार वही है।
फिदाबाई ने भी विदेशी फिल्मों में काम किया है। हार्वे क्रासलैंड निर्देशित सन 1993 में बनी भारत-कनाडाई फिल्म 'द बर्निंग सीजन' के लिए भुलवाराम ने गीत गाया है, जिस छत्तीसगढ़ी गीत की शुरुआत हिन्दी जैसी है-
कोई नहीं है साथी अरे मन तेरा कोई नहीं साथीभाई बइठे, भतीजा बइठे, बइठे बेटा नाती
इनके आगे में जीव निकलगे, पथरा के कर लिन्ह छाती
कोई नहीं है साथी.....
इस क्रम में छत्तीसगढ़ के निर्माता-निर्देशक कांतिलाल राठोड़ की 'कंकु' को 1970 का श्रेष्ठ गुजराती फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और यह इसी साल अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह, शिकागो में भी पुरस्कृत हुई। 1980 की मिथुन-स्मिता की कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण हिन्दी फिल्म 'द नक्सलाइट्स' के लिए निर्माता-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास जगदलपुर में रहे, फिल्म का कुछ भाग कुरंदी (कोटपाड़) गांव में फिल्माया गया। मणि कौल ने सन 1980 में मुक्तिबोध के 'सतह से उठता आदमी' पर नीला अहमद (नीलू मेघ) की मुख्य भूमिका वाली तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार और पं. सुंदरलाल शर्मा सम्मान प्राप्त विनोद कुमार शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास 'नौकर की कमीज' पर सन 2000 में पंकज मिश्रा अभिनीत फिल्म बनाई। सन 1981 में सत्यजित राय की प्रेमचंद की कहानी पर, छत्तीसगढ़ में फिल्माई टेली फिल्म 'सद्गति' है, जिसमें भैयालाल हेड़उ मुख्य भूमिका में तथा बाल कलाकार ऋचा मिश्रा (अब डॉ. ऋचा ठाकुर) हैं। प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना वासंती वैष्णव, सन 1993 में बनी फिल्म 'अनुकंपन' में अपनी भूमिका की चर्चा करती हैं। सरगुजा में हाथियों की पृष्ठभूमि पर सन 1994 में बनी माइक पांडे की फिल्म 'द लास्ट माइग्रेशन', चर्चित और पुरस्कृत हुई। सन 2005 में बनी बाल चित्र समिति की फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ रायगढ़ के ग्राम भेलवाटिकरा के आसपास फिल्माई गई और इस फिल्म में वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल कालेले के अलावा इप्टा, रायगढ़ के कलाकारों सहित सरपंच के रूप में अजय आठले की मुख्य भूमिका थी।
श्याम बेनेगल की चरनदास चोर में नाचा कलाकार लालूराम, मदन निषाद ने और सन 1999 में बनी उनकी फिल्म 'समर' में राजकमल नायक ने अभिनय किया है। बस्तर पर बेनेगल ने वृत्त चित्र बनाया ही, सन 1980 में 'कस्तूरी' नामक फीचर फिल्म भी बनी, बिमल दत्त की इस फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती, नूतन, श्रीराम लागू, अरविंद देशपांडे जैसे अभिनेता हैं। फिल्म की अन्य विधाओं व अभिनय में पं. सत्यदेव दुबे, अशोक मिश्र, अनुराग बसु, सूरज (जाफर अली) फरिश्ता, गोपाल (जी.एम.) भटनागर, संदीप श्रीवास्तव, जयंत देशमुख, संजय बत्रा, शंकर सचदेव, सोमेश अग्रवाल, प्रसिद्ध वामन कलाकार राजनांदगांव के श्रीराम नत्थू दादा, 'फंस गए रे ओबामा' वाले बस्तर के दिनेश नाग और रायगढ़ के स्वप्निल कोत्रीवार हैं। छत्तीसगढ़ के निर्माता निशांत त्रिपाठी-अभिषेक मिश्रा और निर्देशक मनीष मानिकपुरी की हिन्दी फिल्म 'आलाप' इसी साल मार्च में प्रदर्शित होने वाली है, फिल्म में अमित पुरोहित के साथ रघुवीर यादव-ओंकारदास मानिकपुरी जोड़ी ने भी (यहां जीजा-साला) अभिनय किया है।
भुलाए-से इन गीत-प्रसंगों में छत्तीसगढ़ी रुपहले ख्वाबों और सुर-संवाहकों के बहाने अपनी परम्परा-स्मृति को खंगालने और ताजी कर लेने का यह वक्त है। लोक परम्परा की सीमा लांघते हुए छत्तीसगढ़ के पहचान का परिशिष्ट जुड़ रहा है तो यह मौका है अपनी इकहरी होती याद को संदर्भ के साथ व्यापक करने का, आत्म सम्मान को परम्परा के सम्मान में समाहित करने का। यही लोक-संगीत, परम्परा का सूत्र बनकर संस्कृति को संबल देगा।
मेरी पोस्ट क्रमशः दिल्ली-6, सास गारी देवे, पीपली में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी फिल्म में तथा पत्रिकाओं बिलासपुर की 'मड़ई' 2010, रायपुर की 'दशहरा', रायगढ़ की 'रंगकर्म' 2011 और हरिभूमि अखबार के चौपाल 6 अक्टूबर 2011 में प्रस्तुत मेरे लेखों की जानकारी को एक साथ और अद्यतन कर यहां प्रस्तुत किया गया है।
शानदार आलेख ! यह आपके ही वश की बात है !
ReplyDeleteअब एक आग्रह...क्या आप धमतरी जिले वाले महापाषाणीय शवाधान पर कोई आलेख प्रकाशित करने का कष्ट कर सकेंगे ?
दो वर्तमान गीतों ने छत्तीसगढ़ की लोकगीत परंपरा को फिल्मों की मुख्यधारा में जोड़ दिया है...विस्तृत और रोचक वर्णन...
ReplyDeleteलोककलओं की यही असली ताक़त है कि दूसरे माध्यम भी उनके भरोसे चल निकलते हैं
ReplyDeleteलोकगीतों का अपना ही रस है ! दुःख इस बात का है कि नई पीढ़ी इस सबसे अनजान है !
ReplyDeleteआपके इस लेख से जो जानकारियां मिलीं,वह बताती हैं कि हम कितने भी विकसित होते जाएं,हमारी जड़ें तो आखिर हमारी लोकसंस्कृति में ही हैं। ये नई तकनीक केवल एक माध्यम है उन्हें आगे ले जाने का।
ReplyDeleteआपके लेख से मुझे एक और चीज पता चली, वह यह कि दिल्ली 6 के गाने में पंक्ति है-ससुराल गेंदा फूल है। मैं इसे अभी तक सुसरा गेंदा फूल समझता रहा हूं।
Bahut rochak aalekh. Lokgeet bade achhe hain.
ReplyDeleteलोकगीतों, लोककथाओं के बारे में शायद प्रामाणिक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता कि अमुक गीत या कथा कि रचना किसने की थी, और यही इनकी निरंतरता और सार्वभौमिकता का कारण भी हैं। कई गीत\कथायें अलग अलग अंचल में थोड़े हेरफ़ेर के साथ सुने गुने जाते हैं।
ReplyDeleteहबीब तनवीर जी तो एक लीजेंड रहे ही हैं, लेकिन इतना बारीकी से नहीं जानते थे। आपके माध्यम से बहुत से अनजाने लेकिन रोचक तथ्यों से परिचय हो रहा है, जो शायद अन्यथा कभी न जान पाते।
ऐसा लगने लगा है कि छत्तीसगढ़ की समृद्ध लोक संगीत की परम्परा को जानने-समझने के लिए रविशंकर, ए.आर.रहमान, मंगेशकर बहनें, प्रसून जोशी, नगीन तनवीर, आमिर खान, रेखा भारद्वाज को पहले जानना जरूरी हो गया है !
ReplyDeleteकैसी विडंबना है।
सुंदरलाल शर्मा,
द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, कोदूराम दलित, फिदा बाई, बसंती देवार, भुरवाराम, बैतलराम, केदार यादव, लक्ष्मण मस्तुरिहा, खुमान साव, रामचंद्र देशमुख, महासिंह चंद्राकर, विनय कुमार पाठक, कुलेश्वर ताम्रकार, साधना, जयंती, डा. नरेंद्र देव वर्मा, भैया लाल हेड़ाउ, अनुराग ठाकुर, छाया चंद्राकर, कविता वासनिक जैसे अनेक संस्कृतिसेवियों को भी हम चाहें तो सेलिब्रिटी बना सकते हैं।
हम छत्तीसगढि़यों को शायद दूर के ढोल कुछ ज्यादा ही सुहावने लगते हैं।
फिर भी, आप कुछ तो कर रहे हैं, कुछ नहीं करने वालों से तो बेहतर है यह।
@ श्री महेन्द्र वर्मा जी,
ReplyDeleteआपका आशय स्प्ष्ट नहीं हुआ, क्या बड़े नाम छत्तीसगढ़ से जुड़े हों तो भी उनके नाम से परहेज किया जाए और फिर शायद आपका ध्यान संबंधित लिंक्स पर नहीं गया. यह भी निवेदन है कि यहां संस्कृति सेवियों की सूची बनाने का प्रयास भी नहीं है, न ही नाम लेने-छोड़ने का खेल है, और यहां फिदाबाई पर तो पर्याप्त विस्तार से चर्चा है. भुरवाराम से आपका आशय भुलवाराम तो नहीं. बाकी सभी नाम जिनका जिक्र आपने किया है, श्रद्धेय हैं, संभव हुआ तो इनके बारे में अपनी जानकारियां सामने लाने का प्रयास करूंगा, आप इन नामों पर कुछ लिखें, स्वागत रहेगा. और अंत में यह दूर के ढोल नहीं, देश-विदेश में बजने वाला छत्तीसगढ़ का डंका है.
लोकसंस्कृति लोककलाकार और लोकगीतों के सिलसिलेवार
ReplyDeleteसुन्दर ज्ञान के लिए आपका आभार .
छात्तिसगड़ की माटी ने सदा बड़े कलाकारों का स्वागत किया है .और अपनी चमक और खुशबु को बिखेरा है .आपने
उन्हें नाम धरकर याद किया .धन्यवाद
लोकसंस्कृति लोककलाकार और लोकगीतों के सिलसिलेवार
ReplyDeleteसुन्दर ज्ञान के लिए आपका आभार .
छात्तिसगड़ की माटी ने सदा बड़े कलाकारों का स्वागत किया है .और अपनी चमक और खुशबु को बिखेरा है .आपने
उन्हें नाम धरकर याद किया .धन्यवाद
राहुल जी, जब भी यहां आती हूं हमारी संस्कृति के किसी न किसी पक्ष की प्रामाणिक जानकारी ले के ही जाती हूं. आज तो वैसे भी आपकी पोस्ट लोक-संस्कृति पर है, जो मेरा प्रिय विषय है. छत्तीसगढ में अभी लोक-संस्कृति जीवित है, जबकि मध्य-प्रदेश से इसका लोप होता जा रहा है. पहले खजुराहो नृत्य समारोह के दौरान लोक-रंजन कार्यक्रम का आयोजन होता था, जिसमें भारत के विभिन्न प्रदेशों के लोग नृत्य और नाटिकाएं प्रदर्शित की जाती थीं, लेकिन अब यह कार्यक्रम जिलेवार होने लगा है, लिहाजा इसे न तो उतने दर्शक मिल पाते हैं, न ही कार्यक्रम अपनी गरिमा कायम रख पाया है. बहुत शानदार पोस्ट है आभार.
ReplyDeleteसमाज प्रगति करता है मेहनत से। समाज उत्कर्ष पाता है अपनी कलाओं-लोककलाओं को सम्मान देने से।
ReplyDeleteलिखा बहुत बढ़िया है।
राहुल सर, जितनी तारीफ करुं, उतनी कम। छत्तीसगढ़ और वहां की लोक परंपरा और फिल्मों तीनों को आपने जिस तरह कनेक्ट किया है उस पर आधे घंटे की शानदार डॉक्युमेंट्री बन सकती है। वाह।
ReplyDeleteरोचक विवरण है, आपको पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है... जारी रखा जाए.//
ReplyDeleteबढिया जानकारी भरा लेख।
ReplyDeleteआभार...
छत्तीसगढ़ की to baat ही niraali है ... कभी -कभी नक्सलियों के कारण बदनाम हो जाता है
ReplyDeleteलोकसंस्कृति के सुंदर रंग ....कितना कुछ समेटे विस्तृत आलेख प्रस्तुत किया आपने ..... आभार
ReplyDeleteUpyogi jankari pradan karta lekh.
ReplyDeleteसुंदर,विस्तृत आलेख प्रस्तुत किया आपने, आभार
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया लिख रहे है. अब तो हर पोस्ट के बाद फरमाइश भी आ रही है. देखिएगा ब्लॉग, ब्लॉग ही रहे. विविध भारती का फरमाइशी नगमो का प्रोग्राम न बन जाये.
ReplyDelete@ महेंद्र वर्मा जी ,
ReplyDeleteआंचलिकता अपनी जगह सर्वश्रेष्ठ है और बहिर जगत अपनी जगह ! इन दोनों में राग द्वेष की गुंजायश नहीं है क्योंकि बहिर जगत आंचलिकता पोषित ही माना जाएगा ! मुझे नहीं लगता कि राहुल सिंह जी ने आंचलिकता की अनदेखी की है ! वे तो आंचलिकता की महती भूमिका को और भी धारदार तरीके से रेखांकित कर रहे हैं ! तुलनात्मकता और संबंधों में पारस्परिक अन्योआश्रितता को उजागर किये बिना दोनों में से किसी एक की गुज़र संभव नहीं है !
छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक थाती / अस्मिता ने बहिर जगत को समृद्ध किया है अतः बहिर जगत को काट कर इस गौरवशाली गाथा का कोई बखान अधूरा ही माना जाएगा !
एक बात जो मुझे खटक रही है कि आपकी टिप्पणी में अनचाही तुर्शी के संकेत क्यों हैं ! आशा करता हूं कि आप लेखक के मंतव्य को समुचित अर्थों में ही ग्रहण करेंगे !
एक बात यह भी कहना चाहूँगा कि जो अपेक्षा आप राहुल सिंह जी से कर रहे हैं उसका क्रियान्वयन कभी अपने स्वयं के ब्लॉग में किया हो तो ज़रूर बताइयेगा :)
आदरणीय अग्रज राहुल सिंह जी सादर अभिवादन |बहुत ही उपयोगी जानकारी से भरी सार्थक पोस्ट |
ReplyDeleteएक और संग्रहणीय पोस्ट...लौकिकता अलौकिकता को ग्रहण कर कैसे कालजयी हो जाती है यह पोस्ट इस पहलू को सामने रखती है -चोला माटी क रे ..में अद्भुत सम्प्रेषणनीयता है .....गदगद हूँ पोस्ट पढ़ कर !
ReplyDeleteकमाल है! गिरिजेश जी ने भोजपुरी लोक संगीत/गीत पर एक श्रृंखला शुरू की है और अभी आपकी पोस्ट पर छतीसगढ के लोक कलाकारों का फिल्मों में प्रयोग देखने को मिला.. माटी की महँक फैल रही है!!
ReplyDelete@चला बिहारी...
ReplyDelete'चोला माटी के' और 'सास गारी देवे' के साथ हो रहे विवादों में तथ्य अनदेखे न रह जाएं, खासकर इसी वजह से यह जानकारियां इकट्ठी कर प्रस्तुत किया है.
आजकल लोकगीत गुम होते जा रहे हैं, लोकगीतों के प्रति बचपन से ही आकर्षण रहा, आज लोकगीतों पर इतना विस्तार से पढ़कर मन झूम उठा।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट .विस्तृत कवरेज समीक्षित विषय वस्तु.का .
ReplyDeleteभुलाए-से इन गीत-प्रसंगों में छत्तीसगढ़ी रुपहले ख्वाबों और सुर-संवाहकों के बहाने अपनी परम्परा-स्मृति को खंगालने और ताजी कर लेने का यह वक्त है। ...sunder jankari ke liye aabhar aapka..
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ी संस्कृति पर सम्पूर्णता से प्रकाश डालती यह पोस्ट इतिहास के पन्नों को संवारेगी. पहली बार पढने के बाद टिपण्णी दर्ज नहीं कर पाया. बहुत कुछ लिखा था अब याद नहीं. वाई फाई गड़बड़ कर रहा था.कांचीपुरम से लौटकर आया तो चित्रों को सकेलने में लग गया. अली सय्यद का वर्मा जी को दिया प्रत्युत्तर सटीक रहा.
ReplyDeleteटीप हर बार बस हाजिरी की सूचना भर होती है, मैं तो सहेजने आता हूँ ज्ञान।
ReplyDeleteVery nice sir. Simply amazing. You are a running encyclopedia of Chhattisgarh. These are the things which people should know because such information helps a community to feel that they are second to none.
ReplyDeleteGreat job.
Regards
G. Manjusainath
बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय...... शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteIt enabled me in understanding the Cg films and other cultural aspects related to communication here in the state..Thanks to Rahul Sir.
ReplyDeleteSir, I m just learning hard to read ur blog. Its very precious for atleast some of budding communicators. thanks and congrats once again.
Bikash