सूरज के आते भोर हुआ, लाठी लेझिम का शोर हुआ।
यह नागपंचमी झम्मक-झम,यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम।
मल्लों की जब टोली निकली, यह चर्चा फैली गली-गली।
दंगल हो रहा अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥
सुन समाचार दुनिया धाई, थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में, लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए,अटपट चलते उद्भट आए
उतरेंगे आज अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे गौर सलोने रंग लिये, अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से, मूछों पर ताव जमाते से।
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में, लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए,अटपट चलते उद्भट आए
उतरेंगे आज अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे गौर सलोने रंग लिये, अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से, मूछों पर ताव जमाते से।
मस्ती का मान घटाते-से अलबेले भाव जगाते-से।
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष, वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष।
जब मांसपेशियां बल खातीं, तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥
थी भारी भीड़ अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥
तालें ठोकीं, हुंकार उठी अजगर जैसी फुंकार उठी।
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल दो बबर शेर जुट गए सबल।
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था भिड़ता बांके से बांका था ।
यों बल से बल था टकराता था लगता दांव, उखड़ जाता।
जब मारा कलाजंघ कस कर सब दंग, कि वह निकला बच कर।
बगली उसने मारी डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
दो उतरे मल्ल अखाड़े में चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की, यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर, ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी, बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥
पहलवान, कक्षा-3, पाठ-17
इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
कमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी उठे अजब शान है, अरे ये पहलवान है।
सफ़ेद लाल या हरा, लंगोट कस झुके ज़रा
अजब की आन बान है, अरे ये पहलवान हैं
अजब की आन बान है, अरे ये पहलवान हैं
कक्षा-4, पाठ-25 (आखिरी पाठ)
लल्ला तू बाहर जा न कहीं
तू खेल यहीं रमना न कहीं
डायन लख पाएगी
लाड़ले नजर लग जाएगी
अम्मां ये नभ के तारे हैं
किस मां के राजदुलारे हैं
ये बिल्कुल खड़े उघारे हैं
क्या इनको नजर नहीं लगती
बेटा डायन है क्रूर बहुत
लेकिन तारे हैं दूर बहुत
सो इनको नजर नहीं लगती।
कक्षा-4, पाठ-14
मैं अभी गया था जबलपुर, सब जिसे जानते दूर-दूर।
इस जबलपुर से कुछ हटकर, है भेड़ाघाट बना सुंदर।
नर्मदा जहां गिरती अपार, वह जगह कहाती धुंआधार।
कल कल छल छल, यूं धुंआधार में बहता जल।
तफसील :
पुरानी पोस्ट देखते-दुहराते लगा कि नागपंचमी और बालभारती पर एक बार लौटा जाए। मेरी पोस्ट बालभारती पर टिप्पणी करते हुए रवि रतलामी जी ने 'नागपंचमी' का जिक्र किया था। अतुल शर्मा जी की टिप्पणी में और आगे बढ़ने का संदेश था, उन्होंने नागपंचमी शीर्षक से स्वयं भी पोस्ट लिखी है, जिसमें नागपंचमी कविता संबंधी, विष्णु बैरागी जी और यूनुस जी का लिंक भी दिया है। इस सिलसिले को यहां आगे बढ़ा रहा हूं। पहलवान वाली एक कविता भी लगा रहा हूं, जो कई बार नागपंचमी के साथ गड्ड- मड्ड होती है।
हां ! बताता चलूं कि बालभारती पोस्ट से ऐसी प्रतिष्ठा बनी कि फोन आते रहे और लोग अपनी याद ताजा करते रहे। इस बीच एक परिचित को जबलपुर जाना था और शायद कुछ भाषण देना था। देर रात फोन आया, जबलपुर कविता ... जल्दी...। मैंने एकाध पंक्तियां, जो याद थीं, दुहराईं। उन्होंने कहा और भेड़ाघाट ..., तब मैंने उनसे वक्त लिया और दूसरे दिन फोन कर उनकी फरमाइश पूरी की। इस सब के साथ लल्ला कविता वाला एक और प्रिय पाठ याद आया, इसलिए वह भी यहां है।
रवीन्द्र सिसौदिया |
अब आएं राज की बात पर। आपका परिचय कराऊं रवीन्द्र सिसौदिया जी से, जिनकी याददाश्त के बदौलत यह पोस्ट बनी है। वैसे मुझे अपनी स्मृति पर भी भरोसा कम नहीं, लेकिन वह उस माशूका जैसी है, जो साथ कम और दगा ज्यादा देती है, फिर भी होती प्रिय है।
मैं बात कर रहा था राज की। अगर आपको नौबत आए 'फोन अ फ्रेन्ड ...' ये करोड़पति बीच में आ ही जाता है, आजकल। धन्य हैं केबीसी और फेसबुक, जिन्होंने सब रिश्ते समेट कर पूरी दुनिया को मैत्री के सूत्र में बांधने का मानों जिम्मा ले रखा है। केबीसी की महिला प्रतिभागी के फ्रेन्ड, उनके ससुर को फोन किया जाता है या फेसबुक, जिस पर 8 साल का भतीजा सवाल कर रहा है, मुझे उसकी मैत्री, फ्रेन्डशिप स्वीकार है। यह रिश्ते को घोलने का आग्रह है या संपर्क सूत्र जोड़ने का, उस बच्चे से तो पूछ नहीं सकता। वैसे चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, अपरिचित (जिसे बन्दा न कह सकें) सब 'अंकल' में पहले ही घुल चुके हैं, अब भाई-भतीजे घुलकर, पीढ़ियां फ्रेन्ड बन जाएं, उनमें मैत्री स्थापित हो जाए तो हर्ज क्या, लेकिन इस भाईचारा और जनरेशन गैप में घाल-मेल न हो, बस। (क्या करें, वय वानप्रस्थ दृष्टि वाली मेरी पीढ़ी, चिंता करने के लिए कोई न कोई मुद्दा खोज ही लेती है।)
बार-बार पटरी बदलते अब आ गया टर्मिनल, बस आखिरी पंक्ति। आपको ऐसी किसी जानकारी की जरूरत आन पड़े तो आजमा कर देखें बिना गूगलिंग हमारे गंवई गूगल सर्च, रवीन्द्र सिसौदिया जी को, रिश्ते में पितामह, इस फ्रेन्ड का फोन नं. +919406393377 है।
पुनश्च-
आशुतोष वर्मा जी ने जानकारी दी है कि जबलपुर के कवि, नर्मदा प्रसाद खरे (उनके नानाजी) ने 1950 के दशक मे यह कविता लिखी थी। इस कविता को सबसे पहले 1960 के दशक में मध्यप्रदेश की प्राथमिक शिक्षा के लिए कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था।
वाह भैया चुन चुन के प्रसंग के चयन कर थस गा।
ReplyDeleteबाल भारती में चंदन चाचा के अखाड़े के एक पहलवान हम भी थे। चार आना आठ आना की कुश्तियाँ कई जीती। लेकिन आपकी इस पोस्ट ने चित्त कर दिया।
टर्मिनल से आगे भी गाड़ी चलती रहेगी। रविन्द्र सिसोदिया जी को प्रणाम।
पुन: बचपन में ले जाने के लिये आपको सादर नमन। एक कविता मुझे भी याद आ गई है:-
Deleteअम्मा
बडी भली है अम्मा मेरी
ताजा दूध पिलाती है|
मीठे मीठे फल लेकर
मुझको रोज खिलाती है|
कपड़े भी पहनाती अच्छे
मीठे गीत सुनाती है|
रोज सुनाती नई कहानी
मेरा दिल बहलाती है|
रोज घुमाने ले जाती है
मेरा मन बहलाती है|
मेरा राजा बच्चा कहकर
मुझको सदा बुलाती है|
कभी ज़रा बीमार पड़ते
झटपट दवा पिलाती है|
बड़ी भली है अम्मा मेरी
मुझको बहुत ही भाती है|
मैंने भी अपने समय में पड़ा है 🙏😌
Deleteऔर एक कविता यह कदंब का पेड़
Deleteसुभद्रा कुमारी चौहान रचित
Deleteनागपंचमी के रूप में सुंदर प्रसाद मिला। आभार।
ReplyDelete---------
मिलिए तंत्र मंत्र वाले गुरूजी से।
भेदभाव करते हैं वे ही जिनकी पूजा कम है।
आपकी स्मृति पर तो हमें भी भरोसा हो चला है अब :)
ReplyDeleteआपा धापी के युग में पीछे लौटना इतना सहज भी नहीं होता पर आप हर बार कामयाब हैं ! और हाँ रिश्तों पर आपकी सोच के साथ !
और
Deleteबधाई हो, रोचक और सॉफ्ट पोस्ट जारी है
ReplyDeleteनागपंचमी के बहाना उम्दा पोस्ट (दूध) :) परोस के प्रकृति अउ आपके लेख,अघ्घन म सावन के सुरता करा दे भईया, आज के संयोग बाहिर म सावन कस बादर गरजत हे, पानी बरसत, हे बिजली कड्कत हे अउ ये बेरा ये ननपन के सुरता देवावत पाठ सुघ्घर लेख मजा आगे सच में स्वादिष्ट :)
ReplyDeleteयह कदंब का पेड़
Deleteरोचक पोस्ट ...
ReplyDeleteगंवई गूगल सर्च, रवीन्द्र सिसौदिया का नं. +919406393377 नम्बर लॉक (नोट) कर लिया जाय
चार साल पहले पचमढ़ी जाना हुआ था। चौड़ागढ़ मंदिर गये तो मन में एक बात आई थी कि कभी नागपंचमी पर यहां जरूर आयेगे। जाना है जरूर और नागपंचमी पर आपकी कविता याद करके जायेंगे। आपकी माशूका, सॉरी स्मृति की जितनी तारीफ़ की जाये कम है:)
ReplyDeleteअब भी बचपन की पाठ्यपुस्तकों से कुछ चीजें याद आ जाती हैं और कभी मौका मिले तो जरूर उन्हें पढ़ने, याद करने की कोशिश करते हैं, ’रण बीच चौकड़ी भर भर कर’ अपनी प्रिय कविता है और ’आराम करो आराम करो’ भी।
आपके लेखन के हम मुरीद होते जाते हैं राहुल जी, प्रवाह गज़ब का रहता है आपकी पोस्ट में।
’रवीन्द्र सिसौदिया’ जी काफ़ी व्यस्त रहने वाले हैं अब:)
कवितायें बहुत अच्छी लगीं...पहलवान छाप.. :)
ReplyDeleteसाधारण सी बातों को लेकर इतना अच्छा और प्रभावशाली कैसे लिख लेते हो भैया....फेसबुक तो मैत्री व रिश्ते समेटने के प्रयास में लगी है लेकिन आप भी इस विधा से बहुतों को बहुत कुछ दे रहे हो, जोड रहे हो,समेट रहे हो।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद 'गल्प' का आनन्द मिला जिसमें 'कथा' पर 'कहन' भारी पडा। आनन्द आया।
ReplyDeleteमुझ अकिंचन का उल्लेख कर आपने मुझे अतिरिक्त महत्व प्रदान करने की अनुकम्पा की की। आभारी हूँ।
बचपन मे जब पढाई से मन घबराता था वह किताबे जब अब हाथ लगती है तो पढने मे आंनद आता है
ReplyDeleteMAZAA AA GAYA. BACHAPAN KE PARHEY GAYE PAATH FIR SE PARHANE KO MILE TO LAGAA BACHAPAN LAUT AAYAA HAI. DHANYVAAD. SUNDAR POST.....
ReplyDeleteRang biranga desh gajab, reet aur riwaz ajab,
ReplyDeletetyohar yani umang ka charamotkarsh,
mail bhula kar jhume sab,
manate hi ho awsar jab,
kare zikr khush hokar sab,
kitaben ho ya ho akhbar bhul na paye hum tyohar,
kisse kahani se kari shuruaat
BLOG bhi na achhuta ab........
.......Sir Ji,
vidyalay ki sugandh aa gayi.
आनंद आ गया. "लेकिन वह उस माशूका जैसी है, जो साथ कम और दगा ज्यादा देती है, फिर भी होती प्रिय है।" बिलकुल सदाही कहा है. सिसोदिया जी से परिचित कराने का आभार.
ReplyDeleteराहुल जी यह नागपंचमी वाली कविता हमने भी खोजने की कोशिश की थी और अतुल जी को भी कुछ सलाह दी थी। चलिए आपने आखिर खोज ही निकाली।
ReplyDeleteबाल भारती की और भी कविताएं हैं जो याद आती हैं। पहली की किताब में मां खादी की चादर दे दे मैं गांधी बन जाऊंगा,राजा की टोपी से मेरी टोपी अच्छी,सवा लाख की साड़ी मेरी..., या फिर दूसरी या तीसरी की कविता ठंडी ठंडी हवा चल रही अभी नहीं सोएगा कोई नींद किसे है आती। इसी तरह कहानियां भी । जो एक मुझे याद है वह अबदू और गबदू की कहानी,जिन्होंने जूतों का आविष्कार किया।
इस सुंदर खोज के लिए आपको और रवीन्द्र जी को बधाई।
mujhe jabalpur ka mera buniydi school aur guruji yad a gaye.
ReplyDeleteकईयों को लपेटा है बढियां समेटा है
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteएक रचना जिसके मिलने की उम्मीद खत्म ही हो गई थी
वो आपकी वजह से मिल गयी।
बहुत बहुत शुक्रिया।
यूनुस
पहलवान वाली कविता तो गज़ब की है...नाग पंचमी भी बहुत अच्छी लगी. मुझे भी बचपन की बहुत सी कवितायेँ याद आ गयी.
ReplyDeleteवाह राहुल जी! प्रायमरी स्कूल के दिनों की याद दिला दी। बालभारती में तो हमने भी इन कविताओं को पढ़ा था लगभग 50-51 साल पहले।
ReplyDeleteहम जब प्रायमरी स्कूल में पढ़ते थे तब यही बाल भारती पाठ्यक्रम में थी। उस समय ये सारे गीत कण्ठाग्र थे। आज आपने इन गीतों को यहां देकर बचपन की याद दिला दी। सिंह साहब, बहुत-बहुत आभार आपका।
ReplyDeleteआज लग रहा है ब्लागिंग में कूदना सार्थक हो गया।
नागपंचमी याद आते ही अकलतरा में दल्हा पहाड़ की तलहटी में लगने वाला मेला याद आ जाता है इस साल तो उत्साहजनक यह था कि अपनी अब तक कि उम्र में इतने लोगों को दल्हा जाते हुए मैं कभी नहीं देखा ऐसा लगा जैसे सारा इलाका ही प्रकृति की उस अनुपम छटा को निहारने को उत्सुक था इससे एक आस मन में जगी कि शायद हम अपने पारंपरिक त्यौहारों उत्सवों की तरफ फिर से कदम बढ़ा रहें हैं. रवि भैया कि बात ही और है सही में वे बिना गूगलिंग के गूगल है पुरानी यादों को ताजा करदेने वाले उम्दा पोस्ट के लिए हार्दिक बधाइयाँ
ReplyDeleteसुन्दर कवितायें।
ReplyDeleteयुनूस जी ने इसकी फरमाइश काफी पहले की थी, तब सारा नेट और आसपास खंगाला था लेकिन यह नहीं मिली थी। अब आपने उपलब्ध करवा दिया। काफी कुछ याद आया इन्हें पढ़कर
ReplyDeleteपहली बार आपका ब्लाग देखा सुखद अनुभूति हुयी। कवितायें बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।
ReplyDeleteसिसोदिया जी के इस परिचय के लिये आभार । हमे तो " कमीज़ को उतार कर पचास दंड मारकर " बस इतना ही याद है ।
ReplyDeleteपहली बार शायद आपके ब्लॉग पर आना हुआ और बहुत ही सुखद रहा , पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी !!
ReplyDeletePurani yaad taza ho gayi
ReplyDeleteBhare bhare SE gaal he, tani
ReplyDeleteHui Si chal he kahi Jo chot kha Gaye to muskura Ke bhul Gaye ye sher Ke samaan he are ye pahalwan he
ReplyDeleteसूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली।
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
- सुधीर त्यागी
बहुत खोज के बाद ये कविता मिली,बहुत अच्छी लगी,कुश्ती के दाँवपेंच जहन में तरोताज़ा हो गये क्योंकि गांव में अक्सर कुश्ती लड़ते रहते थे।शुक्रगुजार हूँ आप सभी का।
ReplyDeleteपुरानी यांदे ताजा हो गई।इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
Deleteकमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी उठे अजब शान है, अरे ये पहलवान है।
*यह कविता पूर्ण भेजने का कष्ट करें
मैरे बचपन की कशिता। पहलवान वाली।धन्यवाद। पूरी कविता भैजने का कष्ट करें।
ReplyDeleteLalla tu bahar ja na kahi kavita poori post karen plz
ReplyDeleteजय जय भैया ,,,नमस्कार,,,,रविन्द्र मामा को नमस्कार
ReplyDeleteमेरी बेतुकी याददाश्त की चर्चा कर आपने मेरा जख्म कुरेद दिया है । मैं जरूरी और गैर जरूरी में अब भी फर्क नहीं कर पाता ।
ReplyDeleteआम तौर पर व्यवहारिक जगत में ये सब कुछ दिमाग में भरा रखना , लगता है दिमाग को over crowded कर देता होगा पर ये जहन से चिपकी हुई हैं ।
शायद मुन्नाभाई वाला केमिकल लोचा जैसा कुछ है ।आप इतना जानते हैं ,बतायें कुछ ऐसा ही तो नहीं है ।
इतने स्नेह से स्मरण के लिये आभार ।