आगरा स्टेशन। पिछले दिनों उत्कल एक्सप्रेस से सफर में विदेशी नजारा देख रहे थे और फोटू पर फोटू खींचे या उतारे जा रहे थे। हम उड़न तश्तरी की तरह (लेकिन हाइवे पर नहीं पलेटफारम पर) नजारे का नजारा देख रहे थे। माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था हमारे। हम सोच रहे थे कि किस देश के अनाड़ी हैं, क्या इनके देश में रेलगाड़ी नहीं होती। फिर लगा सोचना समझना बाद में घर पहुंचकर कर लेंगे, अभी तो अनुकरण पद्धति अपनाते हुए हम भी चमका दें, अपना भी तो है, भारी-भरकम न सही, मोबाइल वाला। घर आकर भूल गए कि कब क्या जमा कर लिया है। मोबाइल की गैलरी में फोटो देखते हुए समझ में नहीं आया तो स्क्रीन पर बड़ा करके देखा। पहले फोटू में तो भजिया-पकौड़ी का मिरची और केचप सहित कुछ मामला दिखा। कैद की तरह सलाखों से हाथ बाहर निकल रहे हैं। ये खिड़की ... ओह ... शीशा निकल गया है, तो अब टॉयलेट काम का तो रहा नहीं, चलो, लोगों ने बेकार नहीं छोड़ा, काम में ले लिया, अपने लिए जगह बना ली।
दूसरे चित्र में भी कुछ यही चल रहा है, लेकिन यहां बंदूक वाले खाकी वरदी की भी दखल है, याद आया वह भी कुछ लेन-देन कर रहा था, शायद भजिया या कुछ और पता नहीं, लेकिन फोटो में दाहिने खाकी वरदी में उसके जिस सहयोगी की झलक है, वह पहले भोक्ता को टकटकी लगाए दृष्टा की तरह सारे कार्य-व्यापार पर नजर रखे है। 'द्वा सुपर्णा ... ' चलिए, चलिए बहुत हो गया, आपको आंखों देखी बताने के चक्कर में हमारी ट्रेन न छूट जाए। लेकिन ये फिरंगी बेकार में कैमरा क्यों चमकाते हैं जी, आप ही बताइये।
इसी सफर के एक फेरे में हमराही थे, कोलकाता मुख्यालय वाले 'भारत सेवाश्रम संघ' के 80 पार कर चुके स्वामी जी। बच्चों सी कोमल-चपलता लेकिन सजग, मोबाइल पर फोन सुनते, भक्तों सहित सहयात्रियों का लगातार ख्याल रखते हुए। रेलगाड़ी के एसी डिब्बे में उनके असबाब में हाथ-पंखा, बाने के साथ उनका अभिन्न हिस्सा लगता था, आप भी देखिए फोटू में ऐसा लगता है क्या।
पुछल्लाः
पत्रकारनुमा एक ब्लॉगर मित्र का कहना था कि क्या गरिष्ठ पोस्ट लगाते रहते हो, कुछ तो हो पढ़ने लायक। फिर उदारतापूर्वक उन्होंने समझाया कि ''कहीं जाते-आते हो, राह चलते मोबाइल का कैमरा चटकाते रहो, घर पर आराम से बैठ कर सब फाटुओं को देखो, एक से एक बढि़या पोस्ट बनेगी। अरे हमारे साथी तो इस टेकनीक से एक्सक्लूसिव खबरें बना लेते हैं, पोस्ट क्या चीज है।'' मित्र, निरपेक्ष किस्म के सर्व-शुभचिंतक हैं, उन पर भरोसा भी है, इसलिए उनके सुझाव और टेकनीक का पालन करते हुए यह पोस्ट-जैसा तैयार किया है। हे मित्र ! यह आपको समर्पित करते हुए निवेदन कि आपके निर्देशनुमा सुझाव का उचित पालन हुआ हो तो टिप्पणी में आकर कृपया इसे स्वीकार करें।
(रश्मि रविजा जी का मेल है 14 नवम्बर, बाल दिवस के लिए संस्मरण लिख भेजने का, इसीसे शायद वह भी सध जाए।)
देखिये, नजारे का नजारा देखने का फायदा हुआ न..क्या चित्रमय बेहतरीन पोस्ट निकल आई.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया. :)
"सब फाटुओं को देखो, एक से एक बढि़या पोस्ट बनेगी।" हाँ ऐसा भी होता है.
ReplyDeleteआपके स्तर का लेख नहीं लगा जनाब
ReplyDeleteआप बधाई के पात्र हैं अपनी सहजता के लिए .
ReplyDeleteकिस खूबसूरती से आप ने बयां किया साहब कि
विदेशियों को कैमरा फ्लेश चमकाते देख लगा
कि अपना भी चमका लें.कुछ करते रहना अच्छा है,
अच्छा हो भी जाता है.अगर आप प्रयास कर रहे हों.
आपके पत्रकारनुमा दोस्त के निर्देशनुमा अनुपालन में जो पोस्टनुमा आपने लिखा है, उसपर हमें अपने कमेंटनुमा ये कहना है कि हम भारतीय optimum utilization of almost everything करने वाले प्राणी हैं। ये फ़िरंगी जलते हैं जी हमसे, अभी फ़ोटो खींच कर ले गये, अपने वतन में जाकर इस स्टाईल का पेटेंट करवा लेंगे।
ReplyDeleteस्वामी जी का हाथ पंखा स्वावलंबन का द्योतक लगता है हमें तो।
हमने तो आज अपने मोबाईल से दूज के चांद की फ़ोटो खींचने की कोशिश की, सब आ गया फ़ोटो में बस्स चांद ही नहीं आया।
हमें तो पोस्ट पसंद आई जी, कभी कभी लिख दिया करें ऐसा हल्का फ़ुल्का।
दीवाली के बाद वैसे भी गरिष्ठ पदार्थों से बचना चाहिए।
ReplyDeleteसुपाच्य ग्रहण करना चाहिए।
और बिना फ़्लेश चमकाए फ़ोटो लेना चाहिए।
achchhi post,written from the right side (intuition) of the brain,emerging like a flash,with little or no preparation. seems meaningless yet full of meaning and full of freshness. billu bhaiya se sahmat nahi. may not appeal to logical and calculative mind, but definitely appealing to imaginative, romantic, poetic and platonic mind- badhiya aur nissandeh kam garisth post- BALMUKUND
ReplyDeleteविदेशों में रेलगाड़ी भले ही होती हो...ये चाय-समोसे वाले नज़ारे कहाँ से मिलेंगे...:)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर बन गयी ये चित्रमयी पोस्ट...फोटो तो खासकर बड़े अच्छे लग रहें हैं.
अब तो आपने यहाँ लिख दिया....इंतज़ार रहेगा...आपके संस्मरण का...वरना सबलोग याद दिलाते रहेंगे :)
बहुत बढ़िया आलेख !
ReplyDeleteपोस्ट पर टीप से पहले :
ReplyDeleteसबसे पहले उस पत्रकारनुमा ब्लॉगर दोस्त को प्रणाम कि पोस्ट डालने का गुर भी बताया और बिल्लू भैया बन के निपटा भी दिया ! अब चूंकि आपके निमंत्रण के बावजूद वे अपने ओरिजनल में आके टिपियाये नहीं , तो लगता ये है कि वे बिल्लू भैय्या ही होंगे :)
रश्मि जी ने इस संस्मरण के छप जाने के कारण नया संस्मरण चाहा है तो बची हुई फोटो से उनका हिसाब भी चुकता कीजिये :)
पोस्ट पर टीप :
चित्र क्रमांक एक देख कर प्रथम दृष्टया ख्याल ये कि खाद्य सामग्री के साथ उड़न तश्तरी का ज़िक्र भला क्यों :)
फिरंगी सोचते होंगे कि सांवले सलोने लोगों की फोटो अच्छी ना आयेगी सो फ्लेश चमका कर खींचते हैं शायद :) ...और हां दूसरे चित्र से ये पता नहीं चलता कि पुलिस वाला क्या सोच रहा है :)
तीसरे चित्र वाले स्वामी जी में गज़ब का आत्मविश्वास है इतना तो मुझे अपनी खुद की टीप के स्तरीय होने पर भी नहीं है :)
[ सिंह साहब नव प्रयोग ज़ारी रखियेगा कई बार पोस्ट से ब्लागर की उम्र की ताजगी का लेवल पता चलता है :) ]
राहुल भैया, नमस्कार. आपको बहुत दिनों बाद ढूंढ सका. अपेक्षा है अब नियमित रूप से आपसे विमर्श के साथ आपको पढ़ सकूंगा.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना . धन्यवाद !
ReplyDelete'उड़नतश्तरी' के लिंक से शुरू करके मित्र के बताई टेकनीक तक पहुँचते-पहुँचते रंग पक्का हो चुका था. स्वामी जी का पंखा वातानुकूलन में बढ़िया कंट्रास्ट दे रहा है. विदेशियों के मार्फ़त गढ़ा हुआ विनोद शौचालय में यात्रा कर रहे लोगों और "भजिया-पकौड़ी का मिरची और केचप" के सन्दर्भ से जोड़ते ही Black Humour में बदल गया. आप का ये 'गैर गरिष्ठ' पोस्ट भी गहरे आयामों से अछूता नहीं है. पर सोचना समझना बाद में घर पहुच कर ही किया जाए इस बार................
ReplyDeleteमज़ा आ गया सर.
आगरा स्टेगशनमहल का सचित्र नजारा पैखाने से खाने की जुगाड़ में
ReplyDeleteखा खा खा खा खाकी वरदी और बन्दूक की आड़ में
जल्दी खाके अन्दूर जाते क्यों खड़े रह गए किवाड़ में
आखिर फंस गए ना भैया की गिद्ध्दृष्टि की ताड़ में
रोचक यात्रा संस्मरण -फोटू भी कुछ कह रहे हैं !
ReplyDeleteरोचक संस्मरण, पढ़कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteवाह वाह राहुल जी एकदम खालिस बलॉगरनुमा पोस्ट है ..क्या तस्वीरें हैं और क्या उसके पास आपने तानाबाना बुना है ..बहुत खूब
ReplyDeleteराहुल जी, गरिष्ठ पोस्टों के बाद यह हल्की फुल्की संस्मरण टाइप पढकर अच्छा लगा। अपने मित्र को मेरी ओर से भी धन्यवाद दीजिएगा।
ReplyDeletechitramay..behatreen post...sansamaran padhakar bahut achhaa lagaa.
ReplyDeleteSir Ji post me Tasveerein char chand laga rahi hain....
ReplyDeleteरेल पर पोस्ट लिखी है, किराया अतिरिक्त पड़ जायेगा।:)
ReplyDeleteरेलवे प्लेटफार्म को एक बहुत बड़ा सा मुहल्ला मानता हूँ मैं, पता नहीं जीवन के कितने रूप दिख जाते हैं वहाँ पर।
गरिष्ठ लेखन से कोई गुरेज नहीं होना चाहिये। लेकिन यह आपने जो लिखा है, विशुद्ध स्तरीय ब्लॉगरी है। हम तो इसी प्रकार के लेखन पर जिन्दा हैं। :)
ReplyDeleteभविष्य में जब आप कभी अपने ब्लॉग का अवलोकन करेंगे तो इस प्रकार की पोस्टें अधिक मनभावन निकलेंगी।
आपका मोबाइल कैमरा जिन्दाबाद!
सच में हम लोगों के लिए रेलगाड़ी का सफ़र एक अनुभव ही होता है शायद इन्ही अनुभवों से प्रेरित होकर हमारी कुछ फिल्मों में कई गीत भी लिखे गएँ हैं सच ही है की अनायास ही बेकार सी खिची गई फोटो कभी कभी आदमी को सोचने पर मजबूर कर ही देती है सुन्दर पोस्ट के लिए बधाई
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख है :)
ReplyDeleteप्रवीण जी के बातों से भी सहमत :)
(इमेल पर प्राप्त)
ReplyDeleteआदरणीय भाई साहब ,
आपके ब्लॉग पर अक्सर जाता हूँ. छत्तीसगढ़ राज्य की मांग से सम्बंधित पोस्ट ऐतिहासिक महत्त्व का है , कृतग्य हूँ की आपने इसे उपलब्ध कराया . रेल यात्रा वाली पोस्ट हलके फुल्के अंदाज़ में लिखी गई है तो भी आपके एक व्यंग्य लेखक के रूप में पारी शुरू करने का संकेत सा देती है . फिल्म से सम्बंधित पोस्ट भी उपयोगी है बशर्ते इस क्षेत्र के शोधार्थी उसे आधार बना कर कुछ गंभीर काम करें . कई बार ब्लॉग पर कमेन्ट करने में दिक्कत आ रही थी इस लिए अलग से मेल कर रहा हूँ .
रामकुमार तिवारी भैया की कहानी कथादेश नवंबर अंक में आई है . मुझे पसंद आई.
बहरहाल बधाई और शुभकामनायें की आप ऐसे ही उर्जावान बने रहें.
महेश
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mahesh verma
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बहोत अच्छा एबम रोचक आलेख हे.बहोत बहोत धन्यवाद.
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