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इस दौर में 1 जुलाई खास तारीख हुआ करती थी। यह शिक्षा सत्रारंभ की स्थिर निर्धारित तिथि होती। स्कूल दाखिले के लिए आयु छः वर्ष होती। पैमाना होता था, सिर के ऊपर से घुमाकर दाहिने हाथ से बायां कान पकड़ लेना। कान न पकड़ पाने, लेकिन छू लेने पर भी रियायत सहित आयु छः वर्ष मान ली जाती थी। कम ही अभिभावक बच्चे की जन्मतिथि बता पाते, लेकिन भरती प्रक्रिया के अनिवार्य हिस्से की तरह उनका भी यह 'टेस्ट' होता। 'टेस्ट' में सफल अन्य बच्चों की जन्मतिथि गुरुजी को तय करनी होती और तब जन्म वर्ष के लिए भरती के साल को बच्चे का छठवां साल पूरा मानकर, जन्मतिथि 1 जुलाई दर्ज कर दी जाती इसलिए इस जन्मतिथि वाले आमतौर पर मिल जाते हैं।
इसके पहले तक पुकारने का, घर का नाम ही चलता था। दूसरा 'स्कूल वाला नाम' होता और भरती को 'स्कूल में नाम लिखाना' कहा जाता था। (आजकल कहा जाता है- बच्चे को अच्छे स्कूल में 'डाला' है या हमने तो हॉस्टल में 'डाल' दिया है, मानों घर में पड़ी कोई अनुपयोगी-अवांछित वस्तु को ठिकाने लगा दिया गया हो। इसी तरह कहा जाता है कि बस्तर में या जंगलों में आदिवासी पाए जाते हैं, न कि रहते हैं या निवास करते हैं, मानों आदिवासी वन्य जीव अथवा खनिज पदार्थ हों।) कई बार स्कूल पहुंचकर ही बच्चे का नाम तय होता था। कई-एक नामकरण भी गुरुजी किया करते थे। इस तरह यह बच्चों के नामकरण संस्कार के दिन जैसा भी होता था।
वापस 'बाल-भारती' की कुछ बातें। इस पुस्तक का पूरा नाम है- 'मध्यप्रदेश बाल-भारती प्रवेशिका' और पुस्तक की जिस प्रति से याद ताजा कर रहा हूं वह ''मध्यप्रदेश शासन द्वारा निर्मित और प्रकाशित (चित्रकार श्री समर दे) 1970 की पंचदश आवृत्ति'' है, जिसका मूल्य 30 पैसे अंकित है। कवर के अतिरिक्त 32 पेज की पुस्तक में कुल 25 पाठ हैं। पहले 5 पाठों का कोई शीर्षक नहीं है, लेकिन इस पुस्तक को पहले पाठ 'अमर घर चल' से भी याद किया जाता है। कुछ और पाठ याद कीजिए- 'आजा आ राजा। मामा ला बाजा।', 'तरला तरला तितली आई', 'पानी आया रिमझिम रिमझिम', 'अंधा और लंगड़ा', 'हरे रंग का है यह तोता', 'शिक्षक जब कक्षा में आए' क्ष, त्र, ज्ञ प्रयोग का पाठ और अंतिम पाठ 'गिनती का गीत' था।
पुस्तक के कवर पेज के भीतरी हिस्से में छपा होता- 'यह पुस्तक --------------/ ---------------- की है।' अपनी पहली पुस्तक का यह खाली स्थान, लिखना सीख लेने पर भी अक्सर दो कारणों से छूटा रह जाता था। एक तो किताब पर कुछ लिखना अच्छा नहीं समझा जाता था और दूसरा कि अगले साल यही पुस्तक किसी और के काम आती थी।
'बाल-भारती' का हिसाब लगाते हुए एक गड़बड़ यह हो रही थी कि 1970 में पंद्रहवां संस्करण आया और प्रतिवर्ष नया संस्करण छपता रहा तो पहले संस्करण का सन, 1956 होना चाहिए फिर ध्यान आया कि उन दिनों बड़े पहिली और छोटे पहिली या छुछु (शिशु) पहिली होती थी। छोटे पहिली, जिसे प्री-पहिली कह सकते हैं, की पढ़ाई कभी स्कूल में नियमित दाखिले के पहले और अक्सर पहिली कक्षा की शुरूआत में होती थी। यह 'बाल-भारती' छोटे पहिली के लिए होती थी, लेकिन बाद में शायद 1956 में पहली बार छोटे पहिली और बड़े पहिली की दो अलग पुस्तकों को मिलाकर एक पुस्तक बनाया गया, जिस स्वरूप का संस्करण साल-दर-साल होता रहा।
इस सिलसिले में कुछ बातें छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी की। बाल पहेली में संकलित 1906 में लिखा श्री शुकलाल प्रसाद पांडे का वर्णमाला पद्य स्मरणीय है- 'क के कका कमलपुर जाही। ख खरिखा ले दूध मंगाही॥' इसी तरह श्री राकेश तिवारी (मो.+919425510768) ने जस धुन में वर्णमाला का साक्षरता गीत रचा है- 'क से कसेली, ख से खपरा, ग से गरूवा होथे। पढ़थे तेन होथे हुसियार, अपढ़ मुड़ धर रोथे॥' और धमतरी के श्री निशीथ कुमार पाण्डे (मो.+919826209726) ने पिछले दिनों वर्णमाला पद्य रचना कर उसे मजेदार नाम दिया है-'चुटरुस चालीसा', उसका नमूना है- 'क कराही संग मं झारा, जइसे कुची संग तारा, रुख मं चघ के जोरत, मितानी पान अउ डारा।' कोरबा के श्री रामाधीन गोंड ने तो छत्तीसगढ़ी की लिपि भी बना डाली है।
एक बात और। पिछले दिनों राजेश कोछर की पुस्तक 'द वैदिक पीपुल' का 2009 का संस्करण देखा।
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हमने 'छ' छतरी का पढ़ा है, लेकिन इस अंगरेजी पुस्तक में संस्कृत वर्णमाला के 'छ' अक्षर का उच्चारण जैसे 'छत्तीसगढ़' में बताया है। यानि पुस्तक के लेखक (ध्यातव्य को'छ'र) ने 'छत्तीसगढ़' को 'छ' अक्षर वाला, सर्वसामान्य ज्ञात शब्द और इसमें 'छ' की ध्वनि को उच्चारण में सबसे वाजिब पाया, इसके औचित्य पर भाषाशास्त्री और ध्वनिविज्ञानी सहमत हों या न हों, लेकिन 'छत्तीसगढ़' के 'छ' जैसा कर्णप्रिय और कोई उच्चारण नहीं होता। तो आइये इस 1 जुलाई का मधुर पाठ पढ़ें- 'छ' 'छत्तीसगढ़' का।
और यह भी। तीन साल का होते-होते एक बच्चे ने स्कूल जाना शुरू किया। इस रूटीन और स्कूल में लिखने से उसे ऊब होने लगी। इसी बीच अभिभावकों ने ट्यूशन भी तय करा दिया। स्कूल से ऊबने वाला बच्चा खुशी-खुशी ट्यूशन के लिए तैयार हो गया, अभिभावकों को भी तसल्ली हुई। लेकिन ट्यूशन से वापस आकर बच्चे ने सूचित किया- 'ओ हर ट्यूशन नो हय पापा, ओ तो स्कुल ए।'
टीप - 'बाल-भारती' की यह प्रति मो. शब्बीर कुरैशी, शिक्षक, भिलाई खुर्द, कोरबा ने श्री रमाकांत सिंह (शिक्षक, पठियापाली, कोरबा, मो.+919827883541) को समर्पित की है, जिनसे यह मुझ तक आई। श्री रविन्द्र बैस (मो.+919329292907) और श्री रीतेश शर्मा (मो.+919755822908) और अन्य परिचितों ने 'बाल-भारती' की जानकारी जुटाने में मदद की। श्री रवीन्द्र सिसौदिया जी (मो.+919406393377) से ऐसे हर मामले में टेलीफोनिक त्वरित संदर्भ, पूरक जानकारी सहित सहज सुलभ हो जाती है, उनकी पक्की याददाश्त के आधार पर 'बाल-भारती' के लिए लिख सकने का भरोसा बना। पुस्तक 'द वैदिक पीपुल' की प्रति डॉ. चन्द्रशेखर रहालकर जी से देखने को मिली। ट्यूशन का वाकिया श्री किशोर साहू (मो.+919826150086) ने सुनाया।