किस्सा कोताह 55 साल पहले शुरू हुआ। सन 1955 से 1987, यानि डेढ़ पीढ़ी (एक पीढ़ी 20-25 साल की मानी जाती है) तक मध्यप्रदेश में पढ़ाई की शुरुआत करने वालों के लिए, जिनमें मैं भी हूं, पहली कक्षा की 'बाल-भारती' पहली-पहल पुस्तक है।
इस दौर में 1 जुलाई खास तारीख हुआ करती थी। यह शिक्षा सत्रारंभ की स्थिर निर्धारित तिथि होती। स्कूल दाखिले के लिए आयु छः वर्ष होती। पैमाना होता था, सिर के ऊपर से घुमाकर दाहिने हाथ से बायां कान पकड़ लेना। कान न पकड़ पाने, लेकिन छू लेने पर भी रियायत सहित आयु छः वर्ष मान ली जाती थी। कम ही अभिभावक बच्चे की जन्मतिथि बता पाते, लेकिन भरती प्रक्रिया के अनिवार्य हिस्से की तरह उनका भी यह 'टेस्ट' होता। 'टेस्ट' में सफल अन्य बच्चों की जन्मतिथि गुरुजी को तय करनी होती और तब जन्म वर्ष के लिए भरती के साल को बच्चे का छठवां साल पूरा मानकर, जन्मतिथि 1 जुलाई दर्ज कर दी जाती इसलिए इस जन्मतिथि वाले आमतौर पर मिल जाते हैं।
इसके पहले तक पुकारने का, घर का नाम ही चलता था। दूसरा 'स्कूल वाला नाम' होता और भरती को 'स्कूल में नाम लिखाना' कहा जाता था। (आजकल कहा जाता है- बच्चे को अच्छे स्कूल में 'डाला' है या हमने तो हॉस्टल में 'डाल' दिया है, मानों घर में पड़ी कोई अनुपयोगी-अवांछित वस्तु को ठिकाने लगा दिया गया हो। इसी तरह कहा जाता है कि बस्तर में या जंगलों में आदिवासी पाए जाते हैं, न कि रहते हैं या निवास करते हैं, मानों आदिवासी वन्य जीव अथवा खनिज पदार्थ हों।) कई बार स्कूल पहुंचकर ही बच्चे का नाम तय होता था। कई-एक नामकरण भी गुरुजी किया करते थे। इस तरह यह बच्चों के नामकरण संस्कार के दिन जैसा भी होता था।
वापस 'बाल-भारती' की कुछ बातें। इस पुस्तक का पूरा नाम है- 'मध्यप्रदेश बाल-भारती प्रवेशिका' और पुस्तक की जिस प्रति से याद ताजा कर रहा हूं वह ''मध्यप्रदेश शासन द्वारा निर्मित और प्रकाशित (चित्रकार श्री समर दे) 1970 की पंचदश आवृत्ति'' है, जिसका मूल्य 30 पैसे अंकित है। कवर के अतिरिक्त 32 पेज की पुस्तक में कुल 25 पाठ हैं। पहले 5 पाठों का कोई शीर्षक नहीं है, लेकिन इस पुस्तक को पहले पाठ 'अमर घर चल' से भी याद किया जाता है। कुछ और पाठ याद कीजिए- 'आजा आ राजा। मामा ला बाजा।', 'तरला तरला तितली आई', 'पानी आया रिमझिम रिमझिम', 'अंधा और लंगड़ा', 'हरे रंग का है यह तोता', 'शिक्षक जब कक्षा में आए' क्ष, त्र, ज्ञ प्रयोग का पाठ और अंतिम पाठ 'गिनती का गीत' था।
पुस्तक के कवर पेज के भीतरी हिस्से में छपा होता- 'यह पुस्तक --------------/ ---------------- की है।' अपनी पहली पुस्तक का यह खाली स्थान, लिखना सीख लेने पर भी अक्सर दो कारणों से छूटा रह जाता था। एक तो किताब पर कुछ लिखना अच्छा नहीं समझा जाता था और दूसरा कि अगले साल यही पुस्तक किसी और के काम आती थी।
'बाल-भारती' का हिसाब लगाते हुए एक गड़बड़ यह हो रही थी कि 1970 में पंद्रहवां संस्करण आया और प्रतिवर्ष नया संस्करण छपता रहा तो पहले संस्करण का सन, 1956 होना चाहिए फिर ध्यान आया कि उन दिनों बड़े पहिली और छोटे पहिली या छुछु (शिशु) पहिली होती थी। छोटे पहिली, जिसे प्री-पहिली कह सकते हैं, की पढ़ाई कभी स्कूल में नियमित दाखिले के पहले और अक्सर पहिली कक्षा की शुरूआत में होती थी। यह 'बाल-भारती' छोटे पहिली के लिए होती थी, लेकिन बाद में शायद 1956 में पहली बार छोटे पहिली और बड़े पहिली की दो अलग पुस्तकों को मिलाकर एक पुस्तक बनाया गया, जिस स्वरूप का संस्करण साल-दर-साल होता रहा।
इस सिलसिले में कुछ बातें छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी की। बाल पहेली में संकलित 1906 में लिखा श्री शुकलाल प्रसाद पांडे का वर्णमाला पद्य स्मरणीय है- 'क के कका कमलपुर जाही। ख खरिखा ले दूध मंगाही॥' इसी तरह श्री राकेश तिवारी (मो.+919425510768) ने जस धुन में वर्णमाला का साक्षरता गीत रचा है- 'क से कसेली, ख से खपरा, ग से गरूवा होथे। पढ़थे तेन होथे हुसियार, अपढ़ मुड़ धर रोथे॥' और धमतरी के श्री निशीथ कुमार पाण्डे (मो.+919826209726) ने पिछले दिनों वर्णमाला पद्य रचना कर उसे मजेदार नाम दिया है-'चुटरुस चालीसा', उसका नमूना है- 'क कराही संग मं झारा, जइसे कुची संग तारा, रुख मं चघ के जोरत, मितानी पान अउ डारा।' कोरबा के श्री रामाधीन गोंड ने तो छत्तीसगढ़ी की लिपि भी बना डाली है।
एक बात और। पिछले दिनों राजेश कोछर की पुस्तक 'द वैदिक पीपुल' का 2009 का संस्करण देखा।
हमने 'छ' छतरी का पढ़ा है, लेकिन इस अंगरेजी पुस्तक में संस्कृत वर्णमाला के 'छ' अक्षर का उच्चारण जैसे 'छत्तीसगढ़' में बताया है। यानि पुस्तक के लेखक (ध्यातव्य को'छ'र) ने 'छत्तीसगढ़' को 'छ' अक्षर वाला, सर्वसामान्य ज्ञात शब्द और इसमें 'छ' की ध्वनि को उच्चारण में सबसे वाजिब पाया, इसके औचित्य पर भाषाशास्त्री और ध्वनिविज्ञानी सहमत हों या न हों, लेकिन 'छत्तीसगढ़' के 'छ' जैसा कर्णप्रिय और कोई उच्चारण नहीं होता। तो आइये इस 1 जुलाई का मधुर पाठ पढ़ें- 'छ' 'छत्तीसगढ़' का।
और यह भी। तीन साल का होते-होते एक बच्चे ने स्कूल जाना शुरू किया। इस रूटीन और स्कूल में लिखने से उसे ऊब होने लगी। इसी बीच अभिभावकों ने ट्यूशन भी तय करा दिया। स्कूल से ऊबने वाला बच्चा खुशी-खुशी ट्यूशन के लिए तैयार हो गया, अभिभावकों को भी तसल्ली हुई। लेकिन ट्यूशन से वापस आकर बच्चे ने सूचित किया- 'ओ हर ट्यूशन नो हय पापा, ओ तो स्कुल ए।'
टीप - 'बाल-भारती' की यह प्रति मो. शब्बीर कुरैशी, शिक्षक, भिलाई खुर्द, कोरबा ने श्री रमाकांत सिंह (शिक्षक, पठियापाली, कोरबा, मो.+919827883541) को समर्पित की है, जिनसे यह मुझ तक आई। श्री रविन्द्र बैस (मो.+919329292907) और श्री रीतेश शर्मा (मो.+919755822908) और अन्य परिचितों ने 'बाल-भारती' की जानकारी जुटाने में मदद की। श्री रवीन्द्र सिसौदिया जी (मो.+919406393377) से ऐसे हर मामले में टेलीफोनिक त्वरित संदर्भ, पूरक जानकारी सहित सहज सुलभ हो जाती है, उनकी पक्की याददाश्त के आधार पर 'बाल-भारती' के लिए लिख सकने का भरोसा बना। पुस्तक 'द वैदिक पीपुल' की प्रति डॉ. चन्द्रशेखर रहालकर जी से देखने को मिली। ट्यूशन का वाकिया श्री किशोर साहू (मो.+919826150086) ने सुनाया।
Tuesday, June 29, 2010
Thursday, June 10, 2010
सास गारी देवे
दिल्ली-6 पर मिली टिप्पणियों के बाद 'सास गारी ... ' पारंपरिक छत्तीसगढ़ी लोक गीत का मूलतः रिकार्डेड 'ऑडियो' और 'टेक्स्ट' देना जरूरी लगा, इसी दौरान एक छत्तीसगढ़ी फिल्म में फिर से यह गीत आया है। हबीब तनवीर जी की टीम द्वारा गाये इस गीत के बोल हैं -
सास गारी देवे, ननंद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर।
संइया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल।
केरा बारी में डेरा देबो चले के बेरा हो॥
आए बेपारी गाड़ी म चढ़िके।
तो ल आरती उतारव थारी म धरिके हो॥ करार...
टिकली रे पइसा ल बीनी लेइतेंव।
मोर सइकिल के चढ़इया ल चिन्ही लेइतेंव ग॥ करार...
राम धरे बरछी लखन धरे बान।
सीता माई के खोजन बर निकलगे हनुमान ग॥ करार...
पहिरे ल पनही खाये ल बीरा पान।
मोर रइपुर के रहइया चल दिस पाकिस्तान ग॥ करार...
इस सिलसिले में बात करते हुए सर्वश्री लाल रामकुमार सिंह, मिर्जा मसूद, दीपक हटवार, महेश वर्मा, अनूप रंजन पांडे, राकेश तिवारी, अनुज शर्मा, अनुमोद राजवैद्य आदि ने और भी कई जानकारियां दीं। जैसे - आज से लगभग 50 साल पहले छत्तीसगढ़ी का पहला 78 आरपीएम (तवा) रिकार्ड बना, जिसके 'ए' साइड में श्री अमृतलाल परमार का गाया गीत 'हाय रे डुमर खोला, छतिया ल बान मारय, तरसत हे चोला' तथा 'बी' साइड में 'नरवा तीर म मोर कारी संवरेंगी संवर पंडरी, टोरथे भाजी नरवा तीर म' गीत था।
लगभग 40 साल पुराने रिकार्ड के 'ए' साइड में 'तो ल जोगी जानेंव रे भाई, तो ल साधु जानेंव ग' था, जिसके 'बी' साइड में यह गीत 'सास गारी देवे' था, इस गीत के समूह स्वर में हबीब जी की आवाज साफ पहचानी जा सकती है।
पूरे क्रम में इस गीत के गीतकार रूप में श्री गंगाराम शिवारे अथवा गायिकाओं के रूप में जोशी बहनों का एकदम सीधा कोई ताल्लुक नहीं जुड़ सका। श्री शिवारे के गीतों और जोशी बहनों की गायकी, विशेषकर सुश्री रमादत्त, जो गायकी के साथ लोक कलाकार कल्याण में भी अत्यंत सक्रिय हैं, की सराहना आमतौर पर सभी ने की।
फौरी जरूरत नहीं हुई इसलिए व्यक्तिगत तौर पर किसी जानकारी की मैंने स्वयं पुष्टि नहीं की है। बहरहाल अब, जब कम से कम 50 छत्तीसगढ़ी फिल्में बन चुकी हैं और छत्तीसगढ़ी गीतों के रिकार्ड बनने का 50 साल का इतिहास है तब जरूरत बनने लगी है कि इस पर कोई गंभीर, अधिकृत अध्ययन हो।
Tuesday, June 1, 2010
पर्यावरण
सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा, (छत्तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा' काटना मुहावरा है, बनारस के बनकटी महाबीरजी और खासकर गोरखपुर में 'बनकटा' ग्राम नाम, जिनका उच्चारण 'बनक्टा' होता है, जैसे उदाहरण कईएक हैं) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ। तात्पर्य यह कि पर्यावरण की स्थिति, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से नहीं बल्कि दोहन से असंतुलित होती है। छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर को कृष्ण-मोरध्वज की कथा-भूमि माना जाता है। कथा में राजा द्वारा स्वेच्छापूर्वक आरे से आधा काट कर शरीर दान का प्रसंग है। स्थान नाम आरंग की व्युत्पति को भी आरे और इस कथा से संबद्ध किया जाता है। बहरहाल यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरणीय चेतना बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।
कथा का असर, इतिहास में डेढ़ सौ साल पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ के निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे के प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर 'अरकंसहा' को निकट अतीत तक महत्व मिलने के बाद भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था।
पर्यावरण का संरक्षण नीति और योजना मात्र से नहीं होगा, पर्यावरण को जीवन का समवाय महसूस करते रहना होगा। अन्यथा यह सब 'रस्मी' और पर्यावरण संरक्षण 'नारा' बनकर रह जाएगा। यदि पेड़ छाया के लिए और तालाब का निस्तारी इस्तेमाल नहीं रहा तो उन्हें सिर्फ पर्यावरण की दुहाई देकर बचाने का प्रयास संदिग्ध बना रहेगा। पीढ़ियों से इस्तेमाल हो रहे कुओं का नियमित उपयोग बंद होते ही उसके कूड़ादान बनते देर नहीं लगती। विश्व पर्यावरण दिवस का उत्साह कार्तिक स्नान और अक्षय नवमी, वट सावित्री, भोजली पर भी बना रहना जरूरी है। बसंत में टेसू, पलाश और आम के बौर देखने और कोयल की कूक सुनने की ललक रहे तो पर्यावरण रक्षा की उम्मीद बनी रहेगी। ज्यों माना जाता है कि शेर से जंगल की और जंगल से शेर की रक्षा होती है वैसे ही पर्यावरणीय उपादान, समुदाय की दिनचर्या के केन्द्र में हों, तभी उनका बचा रहना संभव होगा।
पर्यावरण की चर्चा करते और सुनते हुए 'डरपोक मन' में यह आशंका भी बनी रहती है कि बाजारवाद के इस दौर में पर्यावरण की रक्षा करने के लिए कोई ऐसी मशीन न ईजाद हो जाए, जिसका उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियां करने लगे और वैश्विक स्तर पर हर घर के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाए।
ईश्वरीय न्याय की व्याख्या आसान नहीं लेकिन उससे न्याय की अपेक्षा करते हुए उसकी कृपा, उसके अनुग्रह की चाह सबको होती है। न्याय करते हुए फरियादी की व्यक्तिगत परिस्थितियों का ध्यान ईश्वर रखेगा (मेरा पक्ष लेगा), ऐसी कामना, यह विश्वास बना रहता है। लेकिन प्रकृति का न्याय पूरी तरह तटस्थ और पक्षरहित होता है, जिसमें पहले-पहल गलती होने के कारण 'रियायत' और बार-बार गलती की 'अधिक सजा' नहीं होती तो अच्छे कामों का पुरस्कार अनिवार्यतः, 'श्योर शाट गिफ्ट स्कीम' जैसा मिलता ही है। इसलिए प्रकृति के न्याय पर भरोसा रखें और पर्यावरण को विचार और चर्चा के विषय के साथ-साथ दैनंदिन जीवन से अभिन्न बने रहने की संभावना और प्रयास को बलवती करें। स्वामी विवेकानंद होते तो शायद कहते कि 'उठो, भगवान के भरोसे मत बैठे रहो, इसके लिए तुम्हें ही आगे आना होगा, हम सबको मिलकर बीड़ा उठाना होगा।
टीप - पिछले विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून 2009) पर सुभाष स्टेडियम कान्फ्रेंस हाल, रायपुर में नगर पालिक निगम एवं सिटी टेक्नीकल एडवायजरी ग्रुप के तत्वावधान में पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी आयोजित थी। कार्यक्रम के पहले अंधड़ और गरज-चमक के साथ बारिश हुई। बिजली गुल हो गई। कार्यक्रम मोमबत्ती जलाकर पूरा किया गया। उस दिन उत्पन्न व्यवधान आज प्रकृति की नसीहत जैसा लगता है। वैसे भी हमारी परम्परा में प्रकृति की विषमता को अनिवार्यतः विपक्ष के बजाय मददगार मानने की उदार सोच है। कालिदास पूर्वमेघ में उज्जयिनी पहुंचे मेघ से कहते हैं कि रमण हेतु जाती नायिका को बिजली चमका कर राह दिखाना, गरज-बरस कर डराना नहीं। एक गीत अनुवाद में यह भी जुड़ गया है कि चमक कर उसकी चोरी न खोल देना। पर्यावरण संरक्षण के लिए, प्रकृति अनुकूलन की ऐसी सोच को, इसमें निहित पूरी परम्परा को कायम रखने की जरूरत है।
यह पोस्ट 14 अगस्त 2010 को 'देशबंधु', रायपुर के पृष्ठ-6 पर ''पर्यावरण के साथ परंपरा का निर्वाह'' शीर्षक से प्रकाशित।
Subscribe to:
Posts (Atom)