छत्तीसगढ़ी लोक अस्मिता और उसकी पहचान को लेकर जितने सवाल और विचार 'दिल्ली-6' के इस गीत सिलसिले में उठे, उनमें स्मृति की गहराई तो थी, व्यापक संदर्भों की चर्चा भी हुई लेकिन पूरे मामले में उल्लेख का इकहरापन ही नजर आया, यानि ज्यादातर हवाले और संदर्भ खुद को जोड़कर देखे जाते रहे। इस पूरे दौर में नये पुराने-नाम आते रहे, लेकिन वह नदारद रहा, जो अधिक जरूरी था, वह यह कि इस बहाने हम शोध का गंभीर नजरिया अपनाते हुए, अपने लोकगीतों की परम्परा में उनकी याद दुहराते, जो इस और इस तरह के अन्य गीतों के माध्यम से छत्तीसगढ़ी लोक सुर संसार के संवाहक रहे।
दिल्ली-6 के गीत 'सास गारी देवै' की बात की जाए तो इस संदर्भ में हबीब तनवीर को तो याद किया ही जाएगा, लेकिन पूरे महत्व के साथ भुलवाराम यादव, बृजलाल लेंझवार, लालूराम और बरसन बाई, चम्पा जैसे नामों का बार-बार उल्लेख जरूरी है। इन दोनों समूहों की अलग-अलग जानकारी मिल रही है, जिनके स्वर में यह गीत रिकार्ड हुआ है, तो यह वक्त है, इस गीत और उसके गायकों के बहाने अपनी परम्परा को खंगालने-टटोलने का।
ददरिया गीत की यह पारंपरिक कृति, लोक की थाती है। ददरिया में सवाल-जवाब किस्म की आशु तुकबंदियां होती है, और इसलिए गायक के साथ जोड़-घटाव और परिवर्तन आसानी से संभव होता है और परम्परा में यह हर गाने वाले के साथ अपना हो जाता है। ददरिया, श्रम-श्रृंगार गीत कहा जा सकता है, जिसका श्रम 'मैन पावर' का 'लेबर' नहीं, बल्कि जीवन में समाहित सुर-ताल है। ऐसा श्रम, जिसका पसीना सौंदर्य का रस है।
इस ददरिया गीत 'सास गारी देवै' का एक सिलसिला हबीब तनवीर तक पहुंचा और कोई 40 साल पहले रिकार्ड बनकर आकाशवाणी से गूंजता रहा और दूसरा रघुवीर यादव से होकर ए आर रहमान तक गया, भूले जा चुके से इस गीत की प्रासंगिकता फिर से बनी। जब निजता और मौलिकता की सीमा लांघते हुए इस गीत को अलग पहचान मिली है तो यह मौका, अपनी इकहरी होती याद को संदर्भ के साथ व्यापक करने का, आत्म सम्मान को परम्परा के सम्मान में समाहित करने का और लोक-संगीत में जीवन का लय पाकर संकीर्ण स्व से निकलकर अपनी समष्टि की ओर दृष्टिपात का है, जो लोक-परम्परा बनकर संस्कृति को संबल देता है।
आपकी मेल से आपके ब्लॉग का पता चला | बढ़िया लिखा है आपने अपने ब्लॉग पर | आशा है आप नियमित लिखते रहेंगे |
ReplyDeleteआपने बहुत संवेदनशील लिखा है, अगर आप अपने को नया ब्लोगर मानते हैं तो यकीन जानिए कि आपके ब्लॉग पर आने से सबका भला ही हुआ है. मैंने तीनों पोस्ट देखी हैं भाषा बेहद सुंदर है और विचार उत्तम हैं. दिल्ली ६ के इस गीत के बारे में चौकसे साहब को भी याद करना चाहिए कि इसकी रिकार्डिंग आकाशवाणी के स्टूडियो में लोक गीत के तौर पर हुई थी और तीन बहनों ने इसे गाया था. कृपया लिखते रहें.
ReplyDeleteरोचक जानकारी दी । यद्यपि यह तो ज्ञात था कि यह एक छत्तीसगढ़ी लोकगीत पर आधारित है ।
ReplyDeleteयह गीत तो लाजवाब है. इसी पर एक पोस्ट मैंने भी करीब एक साल पहले लिखी थी.
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली में दम है. भाषा पर पकड भी जानदार है.
मेरी शुभकामनाएं.
पिछले कमेन्ट की भाषा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी लगती है. लिखते समय पता नहीं चला बाद में पढ़ा तो थोड़ा अटपटा लगा. दरअसल कमेन्ट लिखते समय आपका प्रोफाइल नहीं देखा था.
ReplyDeleteआप मुझसे बहुत बड़े और अनुभवी हैं. अन्यथा न लेंगे.
ददरिया गीत-उम्दा जानकारी -एक संभावनाशील ब्लॉगर -पूत के पाँव पालने में !
ReplyDeleteहमारे लिये यह बिल्कुल नई जानकारी है। बधाई आपको
ReplyDeleteMy congrats to you on a markeble step in as blogger .Keep writing more on culture of Chhattisgarh , specially pl. focus on traditional folk music of Chhattisgarh .
ReplyDeleteDilip Verma
इस गीत के लोकत्व में इतनी मधुरता और शब्दों की सरलता है कि दिल झूम उठता है।
ReplyDeleteजानकारी के लिए आभार।
बड़ा प्यारा लोकगीत है ये। छत्तिसगढ़ी लोक संस्कृति के बारे में आपकी इस पोस्ट में गीत के परिपेक्ष्य कुछ और जानकारी मिली। अपनी वार्षिक संगीतमाला में शामिल करते वक़्त इस गीत के बारे में मैंने भी एक लेख यहाँ लिखा था
ReplyDeleterahul bhaiya
ReplyDeleteaapka yeh alekh bahut acchcha hai.
dadriya par ek photo chhahiye tha
aapke paas mile to blog mein post kar dein.
thank you
sudhir sharma
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