यह उन दिनों की बात है, जब हमारा जेल आना-जाना लगा रहता था। खुलासा यों कि तब जेल विभाग के नाम में ‘सुधारात्मक सेवाएं‘ नहीं जुड़ा था, मगर उसकी पृष्ठभूमि बन रही थी। दहेज प्रताड़ना, बहू जलने-जलाने की घटनाओं के साथ बाल-बच्चेदार युवा ननद-जेठानियों का जेल जाना आम था। ऐसी महिलाओं के साथ उनके छोटे बव्वे भी होते थे, मां के साथ रहने के कारण इन मासूमों को जेल काटना होता था।
बिलासपुर जेल के अधीक्षक और स्थानीय स्वयंसेवी संस्था ने जेल के साथ एक झूलाघर की योजना बनाई और यह सफलतापूर्वक संचालित होती रही, ऐसी गतिविधियों में रुचि होना पहला कारण बना। दूसरा कारण कि माखनलाल चतुर्वेदी और ‘पुष्प की अभिलाषा‘ कविता की रचना-भूमि के साथ बिलासपुर जेल में कैद रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जानकारी, प्राथमिक स्रोत से एकत्र करने की धुन लगी। इसी सिलसिले में तीसरी बात पता लगी कि बिलासपुर जेल-अमले में भी कोई जेबकट है। यह अधिकारी और कोई नहीं, स्वयं जेल-अधीक्षक डॉ. कृष्ण कुमार गुप्ता थे, जो मामूली जेबकट नहीं, इस विधा के पारंगत और डॉक्टरेट उपाधिधारी विद्वान थे।
बाद में 8 जून 2010 को जेल प्रहरी प्रशिक्षण के एक सत्र में व्याख्यान के लिए मुझे रायपुर केन्द्रीय जेल का ‘आमंत्रण‘ मिला। इसके लिए जो कुछ बातें सोची-पढ़ी-कही थीं- आमतौर पर हम उसके बारे में नहीं सोचते, जिससे सीधा ताल्लुक न हो। आपकी यह संस्था ‘जेल’ मेरे लिए इसी तरह है। यों जेल से कुछ-कुछ नाता रहा है लेकिन बाहर-बाहर वाला। मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूं कि आमंत्रण पाकर मैं जेल के भीतर पहुंचने की बात के साथ, जेल के बारे में शायद ऐसा पहली बार सोचा और फिर क्या-क्या विचार आया यही आपसे बताना चाह रहा हूं।
मैंने याद करने की कोशिश की कि बचपन में कब और क्या बदमाशी करने पर मुझे कमरे में बंद किया गया था और अब किस स्थिति में और क्यों मैं ऐसा बच्चों के साथ करने की सोचता हूं। कमरे में बंद किया गया- सजा पाया बच्चा अपराधी नहीं होता और अगर उसने गलती की है तो आशा की जाती है कि उसे कुछ देर कैद कर देने पर उसे अपनी गलती का अहसास होगा और आगे वह ऐसी गलती नहीं दुहराएगा।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पंडित सुंदरलाल शर्मा की हस्तलिखित जेल पत्रिका ‘श्री कृष्ण जन्म स्थान‘ और मेरी टायलर की पुस्तक सहित अन्य जेल साहित्य को भी याद किया। अण्डमान निकोबार का विश्वदाय स्मारक, काला पानी जेल याद आया। अस्थायी जेल, राजनैतिक बंदी, विचाराधीन और सजायाफ्ता। कोट लखपत, माण्डले। बंदी-प्रत्यक्षीकरण और मैग्ना कार्टा। निर्वासन, वन गमन, अज्ञातवास, नजरबंद, सामाजिक बहिष्कार, जात बाहर, जिला बदर। औरंगजेब-शाहजहां का आगरा कैद आदि के साथ कहीं पढ़ा हुआ कि बौद्ध धर्म में जेल के भी एक देवता हैं। राजिम के प्रसिद्ध कथावाचक संत कवि पवन दीवान राजनीति में ‘पवन नहीं यह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है‘ जैसे नारे के साथ राजनीति में आए, मध्यप्रदेश में मंत्री रहे। कहते मंत्री बन जाने पर लोग अपेक्षा ले कर आते, वे जवाब देते, जिसका मंत्री हूं, वही तो दे सकता हूं, उन्हें जेल विभाग मिला था।
वापस जेबकट जेलर डॉ कृष्ण कुमार गुप्ता पर, जिनसे इस विधा के रहस्य सुनते-जानते समझ में आया कि जेबकटी या जेबकतरा कहने से बात पूरी नहीं बनती, क्योंकि इसमें कुछ कट करते हैं और कुछ पिक, इसलिए ‘पाकेटमार‘। उस्ताद या वस्ताज वे कहे जाते हैं, जो दोनों में माहिर होते हैं, गुप्ता जी ऐसे ही उस्ताद हैं। सागर, मध्यप्रदेश निवासी, वहीं अपराध शास्त्र में स्नातकोत्तर के बाद ‘पाकेटमारी‘ पर न सिर्फ शोध किया, पुस्तक Pickpockets - The Mysterious Species (1987) भी लिखी और शासकीय सेवा में आए।
गुप्ता जी ने जेबकटी में ब्लेड के टुकड़े का इस्तेमाल, मुंह में ब्लेड छुपाकर रखना और मुश्किल आन पड़े तो चबाकर चूरा बना कर निगल जाना जैसे कई कमाल कर के दिखाए। मुंह में ब्लेड का टुकड़ा लिए, पानी पिया, साथ चाय-बिस्किट लिया, तब तक हम भूल चुके थे कि ब्लेड का टुकड़ा तो उन्होंने निकाला नहीं था, क्या निगल गए? पूछने पर सही-सलामत वापस मुंह से निकालकर टेबल पर रख दिया। बताया कि उस्ताद का दरजा यों ही नहीं मिल जाता, इसके लिए कई तरह के अभ्यास और उनमें माहिर होना पड़ता है, जिनमें से एक मार खाना है। दोनों हाथों से कान को ढकते हुए हाथ बांधकर सिर पर रख लेना और बैठ कर चेहरे को दोनों घुटनों के बीच छुपा लेना, इसके बाद कितने भी लात-घूंसे बरसे, सह लेना। इस विद्या के अपने कूट-शब्द हैं, जिनमें उंगलियों से जेब साफ करना ‘सलाई‘ है और ब्लेड का टुकड़ा ‘ताश‘। इन दोनों के इस्तेमाल- कट और पिक दोनों में समान महारत तो होनी ही चाहिए।
जानना चाहा कि हम जो निशाने पर आ जाते हैं, उनके लिए क्या नसीहत होगी, बताया- लोग अक्सर बेखयाली में उस समय सब से अधिक गुम होते हैं, जब उनका ध्यान किसी अनावश्यक, निरर्थक दृश्य की ओर होता है। पाकेटमारों के लिए भीड़-भाड़, ट्रेन-बस, मेले-ठेले की भीड़ तो अच्छा मौका है ही, सबसे आसान शिकार वह होता है जो रेलवे स्टेशन के डिस्प्ले बोर्ड पर अपनी गाड़ी की स्थिति देख लेने के बाद भी गाड़ियों की सूचनाएं देखता रहता है। सावधानी क्या रखी जाए, के जवाब में बताया कि जिस जेब में पर्स है उसके साथ जेब में कुछ रेजगारी भी रखें, इसका अनुमान हो जाने पर कट की संभावना कम हो जाती है।
जेल में एक कैदी से मुलाकात हुई, जिसके बारे में पता चला कि वह जेबकट है, पूछने पर कि क्या उसे मालूम है कि जेलर साहब भी तुम्हारे पेशे वाले हैं? उसने कहा कि सुना है, मगर उन्हें तो सरकार ने लाइसेंस दिया है। गुप्ता जी से लाइसेंस की बात पूछने पर असलियत मालूम हुई कि शोध के दौरान वे जेबकतरों की राजधानी बंबई गए। इसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालय से अपने शोधार्थी होने और फील्ड वर्क के लिए बंबई में रह कर अध्ययन करने का पत्र लिया था, जिसके आधार पर बंबई पुलिस ने उन्हें सहयोग करने का पत्र जारी किया था, इसलिए थानों में, पुलिस को या कभी अप्रिय स्थिति बनने पर यह पत्र-'लाइसेंस' दिखाना होता था।
1997 का दौर। तब राज्य की राजधानी भोपाल के पत्रकारों से मेल-मुलाकात होती रहती थी। भोपाल जाने पर जनसंपर्क के बाबूदा‘ यानि नंदकिशोर तिवारी, राजकुमार केसवानी, रामअधीर, माध्यम के कमल तिवारी और अन्य साथियों में भरत देसाई होते, गोष्ठियां होतीं। भरत तब इंडिया टुडे में थे, मिसाल-बेमिसाल की योजना बनी और वे बिलासपुर आए। साथ एक उम्दा इंसान, फोटोग्राफर दिलीप बनर्जी भी थे, जिन्होंने बिलासपुर जेल में रह रही महिला, जिनके निरपराध बच्चे उनके साथ जेल में हैं, पर एक फोटो फीचर भी किया था। भरत देसाई की यह कहानी इंडिया टुडे के 27 अगस्त 1997 में छपी। इस कहानी के साथ, गुप्ता जी से ढेरों बातें हुईं, इस दौरान यहां लोगों की उपस्थिति में उन्हें ‘करतब‘ दिखाने का आग्रह किया गया, इस पर उन्होंने मुझे शिकार बनाया। मेरे बगल से गुजरे, दिलीप जी ने फोटो ले ली, वही पत्रिका में छपी। हम सब आश्वस्त कि सफल न हो सके, गुप्ता जी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, मगर फिर अगले मिनट मुस्कुराते हुए मेरा बटुआ मुझे लौटा दिया। आगे पत्रिका के पेज का चित्र और वह कहानी-
अभी भी खुजाती उंगलियां
बिलासपुर जेल के वर्तमान अधीक्षक एक समय ‘लाइसेंसधारी‘ पॉकेटमार हुआ करते थे
मध्य प्रदेश की बिलासपुर जेल के अधीक्षक डॉ कृष्ण कुमार गुप्ता जब आसपास हों तो सतर्क रहने की जरूरत है. आखिर वे सात साल तक पॉकेटमार रहे हैं और इस धंधे के गुरों से बखूबी वाकिफ हैं. वे कई दिनों तक, यहां तक की खाते हुए भी, मुंह में ब्लेड रख सकते हैं और फिर मिनटों में उसे दांतों से चकनाचूर कर सकते हैं.
गुप्ता की जिंदगी में यह खास मोड़ 1983 में आया जब सागर विश्वविद्यालय में अपराध-विज्ञान के छात्र के रूप में वे शोध का विषय नहीं तय कर पा रहे थे. तभी उनके संकाय अध्यक्ष की जेब कट गई. गुप्ता याद करते हैं, ‘‘पूरे परिसर में लोग जेबकतरों के बारे में किस्से गढ़कर सुनाते रहे लेकिन इस पेशे के बारे में प्रमाणिक जानकारी का अभाव देखकर मैं चकित रह गया.‘‘ बस, शोध का विषय तभी तय हो गया.
पर एक समस्या अभी बाकी थी. बकौल गुप्ता, ‘‘पॉकेटमारों का विश्वास जीतने का एक ही तरीका था कि मैं उन्हीं की जमात में शामिल हो जाऊं‘‘ सो वे कुख्यात पॉकेटमार मनोहर उस्ताद से मिले जिसने वादा किया, ‘‘जिस दिन तुम मुझे रंगे हाथ पकड़ लोगे, मैं तुम्हें शिष्य बनाने लायक समझूंगा‘‘ तीन महीने तक परछाई की तरह पीछा करने के बाद गुप्ता ने मनोहर को एक किसान की जेब साफ करते पकड़ ही लिया फिर बिलासपुर के इस शातिर जेबकतरे ने अपना वादा बखूबी निभाया. गुप्ता कहते हैं, ‘‘मैं गिरोह के लोगों के साथ ही उठता-बैठता और उन्हीं के साथ खाता-पीता.‘‘ इससे मध्य प्रदेश में सागर शहर के संपन्न तंबाकू व्यापारी उनके पिता बेहद परेशान हो गए. पर गुप्ता के शोध निदेशक समरेंद्र सराफ ने उन्हें भरोसा दिलाया कि उनके बेटे ने किसी खास उद्देश्य से ही असामाजिक रास्ता अख्तियार किया है.
धीरे-धीरे अभ्यास रंग लाया. गुप्ता गर्व से बताते है, ‘‘उन दिनों मध्य प्रदेश में उच्च श्रेणी के जेबकतरों में मनोहर उस्ताद के बाद मेरी गिनती होने लगी थी.‘‘ फिर दो साल तक मुंबई में सक्रिय रहने के दौरान उन्हें चौंका देने वाले अनुभव हुए. ‘‘सागर में रोजाना 200 से 500 रु. कमाई होती थी, पर मुंबई के जेबकतरे रोज 5,000 रु. तक कमाते थे.‘‘ पैसे से भी ज्यादा गुप्ता को जेबकतरों में आपसी संवाद के लिए प्रयुक्त भाषावली की समानता ने चकित किया. सागर और मुंबई दोनों जगह इस धंधे में ब्लेड को पान, रेलवे स्टेशन को चरखी, रेलवे टिकट निरीक्षक को मामा और सिपाही को ऊंचा कहा जाता है. उन्होंने जल्द ही ऐसे 1,000 कूट शब्दों को ढूंढ़ निकाला.
लेकिन यह आसान काम नहीं था. गुप्ता सागर में कई बार पकड़े गए और पिटे भी. पर शोध छात्र के रूप में पहचान के चलते वे गिरफ्तारी से बचते रहे. वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मैं एक तरह से लाइसेंसधारी पॉकेटमार था.‘‘ दर्जनों पॉकेटों से मारी गई रकम गिरोह के साथ मौज मस्ती में उड़ा दी जाती कभी-कभी वे पुलिस को खबर कर दिया करते थे कि आज वे फलां इलाके में सक्रिय हैं. फिर शाम को थाने जाकर कोई शिकायतकर्ता हुआ तो वे उसके पैसे लौटा दिया करते थे.
इस पेशे के गुर सीखते सीखते गुप्ता पॉकेटमारी में निपुण हो गए, उन्होंने सीखा कि सिक्के भरी जेब पर कभी हाथ साफ मत करो क्योंकि उनकी खनक से भंडाफोड़ हो सकता है. एक बार गुप्ता ने देखा कि चांदी की चार चूड़ियां खरीदकर निकले एक किसान के पीछे लगे मनोहर ने सफाई से दो चूड़ियां उड़ा लीं. बाद में मनोहर ने समझाया, ‘‘अगर मैं चारों चूड़ियां उड़ाता तो उसे अचानक वजन कम होने का एहसास हो जाता. यह सारे बेशकीमती सबक गुप्ता की थीसिस ‘डायनामिक्स ऑफ पिकपॉकेटिंग एज ए कैरियर क्राइम‘ में दर्ज हैं इसके लिए सबसे ऊपर आभार व्यक्त किए जाने वालों में मनोहर का नाम है. इस अध्ययन को देश भर में अपराध विज्ञान के अंतर्गत बेहतरीन शोधों में गिना जाता है और इसी के आधार पर गुप्ता को जेल अधीक्षक पद मिला.
आज अपराधी उनके साथ सहज महसूस करते हैं. पॉकेटमार रमेश सोनकर का कहना है, ‘‘वे हमारी बिरादरी में से ही हैं‘‘ मनोहर उस्ताद को जब पता चला कि उससे धंधे के गुर धोखे से उगलवाए हैं तो शुरू उसे बड़ा गुस्सा आया, पर अब गुप्ता को उच्च पद पर देखकर उसे बेहद गर्व होता है. अपराध जगत से किनारा कर लेने के सात साल बाद गुप्ता मानते हैं कि उनकी उंगलियां अब भी जेब काटने को मचलती हैं. वे पूछते हैं, ‘‘क्या कोई बंदर उछल-कूद छोड़ सकता है?‘‘ और शरारत से मुस्कुराते हुए इस संवाददाता को उसका पर्स लौटा देते हैं.
बहुत रोचक आलेख राहुल जी, जेबकतरे गुप्ता जी किसी फ़िल्म के या किसी उपन्यास के हीरो जैसे लगे। धन्यवाद
ReplyDeleteएक तो करेला और नीम चढ़ा। जेबकतरा और फिर जेलर। ऱोचक जानकारी है।
ReplyDeleteInteresting Facts........Sir ✍✍✍✍
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