अथवा
शुक और मृतक स्मारकों का वृहत्तर परिप्रेक्ष्य
कहानी में राजा की जान तोते में होती है, अक्सर ऐसा (राक्षस, दैत्यरूपी) राजा क्रूर और आततायी होता है मगर जालिम राजा की कोई कमजोरी होती है, जिसमें उसके ‘प्राण बसते हैं‘, यहां कहानी इससे अलग है। ऐसा राजा, जिसने अपने तोते के कारण, अपनी बात रखने के कारण अपनी जान दे दी। यह राजा प्रतापी, दयावान और लोकोपकारी भी था- गोवा का कदंबवंशी जयकेशी-प्रथम, जिसने अपनी जान दी प्रिय पालतू तोते के पीछे। जयकेशी की आकस्मिक मृत्यु की तिथि सन 1078, उनके पुत्र गुवालदेव के 1079 के अभिलेख के आधार पर अनुमानित है तथा प्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ में तोते वाली कहानी का उल्लेख है। वर्द्धमान, काठियावाड़ के आचार्य मेरुतुंग के 1306 में रचित संस्कृत ग्रंथ ‘प्रबन्धचिन्तामणि‘, जिसका हिन्दी अनुवाद 1932 में शांतिनिकेतन में रहते हुए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने, तथा सम्पादन जिन विजय मुनि ने किया। सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता द्वारा सन 1940 में प्रकाशित कराया गया। यद्यपि C H Tawney द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद ‘Wishing-Stone Of Narratives‘, 1901 में प्रकाशित हो चुका था।
धारवाड़ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पुराशास्त्री शदाक्षरी सेत्तार ने मृत्यु के विभिन्न पक्षों- जैन-मृत्यु ‘सल्लेखना-कायोत्सर्ग-संथारा‘ और जैन ग्रंथ 'भगवती सूत्र' के 'मरण' जैसे विषयों पर गंभीर शोधपूर्ण लेखन किया है। विचारणीय कि जैन स्रोतों में विभिन्न प्रकार के मरण बताए गए हैं, यथा- अवीचिमरण, तद्भवमरण, अवधिमरण, आदिअंतिममरण, बालमरण, पंडितमरण, ओसण्णमरण, बालपडिण्तमरण, सशल्यमरण, बालाकामरण, वोसट्टमरण, विप्पाणसमरण, गिद्धपुट्ठमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, प्रायोपगमनमरण, इंगिनीमरण, केवलिमरण। सेत्तार की पुस्तकों का शीर्षक है- Inviting Death (1989) तथा Pursuing Death (1990)। इसी क्रम की आरंभिक पुस्तक 1982 में ‘Memorial Stones‘ उनके सह-संपादन में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में C V Rangaswami का लेख ‘Memorials for Pets, Animals and Heros‘ है, जिसके अंत में तोते और उससे किए गए वादे की स्मारक शिला स्थापित किए जाने का उल्लेख है। लेख के अंत में R N Gurav के शोध प्रबंध का संदर्भ दिया गया है। इसी संग्रह में R N Gurav का लेख ‘Hero-stones of the Kadambas of Goa‘ शीर्षक से है, किंतु इसमें जयकेशी-तोते वाले किसी स्मारक खंड- हीरो-स्टोन का उल्लेख नहीं है। R N Gurav का शोध, कर्नाटक विश्वविद्यालय में ‘The Kadambas of Goa and their inscriptions‘ पर 1969 में किया गया है, उनके शोध प्रबंध के अध्याय-5 में जयकेशी प्रथम की चर्चा है। यहां भी ‘प्रबंधचिंतामणि‘ का संदर्भ तो है, मगर तोते-जयकेशी के किसी स्मारक शिला का नहीं। इसी ‘Memorial Stones‘ पुस्तक में एक अन्य महत्वपूर्ण लेख On the Memorials to the Dead in the Tribal Area of Central India है, जिसमें बस्तर के मृतक-स्तंभों पर विस्तार से चर्चा है। बस्तर अंचल के मृतक स्तंभ, उरसगट्टा और उरसकल आम है साथ ही, छत्तीसगढ़ के मुख्यतः धमतरी-बालोद क्षेत्र के गांवों में बड़ी संख्या में और अन्य स्थलों में भी लौहयुग के महापाषाणीय शवाधान स्थल हैं।
यहां एक कहानी, जो 3500 साल से भी अधिक पुरानी है, उसके बाद न जाने कब से कही जा रही है। पहली बार दर्ज हुई 1873-74 में, जब पुरातत्व सर्वेक्षण के जे.डी. बेगलर छत्तीसगढ़ आए। बेगलर ने बालोद से गुरूर-धमतरी के रास्ते में नवापारा से मुजगहन तक शिल्प और पाषाण खंडों का फैलाव देखा, जिसका हाल ‘सोरर‘ शीर्षक से बयान किया है। वहां उसने मद्य-विक्रेता कलाल और उसकी ज्यादतियों की कहानी सुनी। अवशेषों को किला होने की संभावना और सती-पाषाण खंड का उल्लेख किया। एक संरचना, संभवतः वही ‘बहादुर कलारिन की माची‘ कहा जाने लगा, का विवरण भी उन्होंने दिया है। 1933-34 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इन अवशेषों को 'स्टोन एज सिमिट्री?' कहा, इनके काल और प्रयोजन की जानकारी न होने तथा अब तक उत्खनन न होने की बात कही, इन्हें संरक्षित स्मारक घोषित करने का उल्लेख करते हुए स्थल पर कोई दंतकथा, लेख, उकेरन न होना भी बताया।
1956-57 में डॉ. एम.जी. दीक्षित द्वारा धनोरा ग्राम में संक्षिप्त उत्खनन कराया गया था। इस क्रम में विभिन्न प्रकार के लगभग 500 महापाषाणीय स्मारक चिह्नित किए गए थे। उत्खनन से कंकाल अवशेष, मनके, कांच की चूड़ियां, खंडित ताम्रकलश आदि मिले थे। इस तरह स्थल की पहचान लौहयुगीन महापाषाणीय स्मारक स्थल के रूप में सुनिश्चित हुई और आगे काम की आवश्यकता रेखांकित हुई। अगले चरण में विस्तृत उत्खनन करकाभाट में ए.के. शर्मा ने 1990-91 में कराया। स्थल पर मेनहिर, कैर्न, पिट सर्किल, सिस्ट, डोलमेन, कैपस्टोन शवाधान पहचाने गए, जिनके उत्खनन से लौहयुगीन अवशेष पर्याप्त मात्रा में मिले। इस क्षेत्र में सोरर, धनोरा और करकाभाट के आसपास कुछ अन्य ग्रामों टेंगना, नवापारा, करहीभदर, चिरचारी, मुजगहन, कन्नेवाड़ा, बरही, बरपारा, कपरमेटा, धोबनपुरी, भरदा तक तथा धमतरी के लीलर और भंवरमाड़ा, बसना के पास बरतिया भांठा जैसे स्थलों में भी महापाषाणीय पुरावशेष होने की जानकारी मिलती है।
हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर‘ का चर्चित नाटक है ‘बहादुर कलारिन‘, 2004 में इसी शीर्षक से प्रकाशित नाटक-पुस्तक में उन्होंने बताया है कि 1975-76 में वे इस सोरर क्षेत्र में गए और बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘दुर्ग परिचय‘ (इस नाम की किसी पुस्तक का पता नहीं चलता, संभवतः दुर्ग दर्पण या छत्तीसगढ़ परिचय) में शामिल बहादुर कलारिन का मिथक पढ़ा, दुबारा गए, इलाके में फैले पुरावशेष देखे और लोगों द्वारा जमीन खोदते मूर्तियां और सोने के टुकड़े मिल जाने की बात सुनी तो यह नाटक लिखने और खेलने का मन बना लिया। नाटक बना, खेला गया, नाटक का अंत छत्तीसगढ़ी पारंपरिक सुआ गीत के तर्ज पर होता है- ‘जइसने तैं खाबे रे सुआ वइसने तोला देहूं रे, जीयत भर ले सुआ नाव ला तोर लेइहौं, नाव ल बताबे सोरर गांव के, जा जा रे सुआ कहि देबे पेड़ के संदेस ...‘।
यहां बात से निकली बात के बहाव की कुछ मौज और- दुर्ग जिला का पहला गजेटियर अंग्रेजी में 1910 में प्रकाशित हुआ, इसके आधार पर गोकुल प्रसाद द्वारा बनाया हिंदी ‘दुर्ग-दर्पण‘ 1921 में प्रकाशित हुआ। दुर्ग दर्पण का सोरर लगभग अंग्रेजी गजेटियर के सोरर का अनुवाद है, जिसमें कलारिन, राजा का शिकारी पक्षी-बाज, कलारिन महिला, उनके पुत्र छछान-छाड़ू, उसकी 160 पत्नियां, चावल कूटने के गड्ढे (खलबट्टे), छछान की लंपटता, मां द्वारा छछान को कुएं में ढकेल कर मार दिया जाना और स्वयं खंजर मारकर मर जाना, आया है। छछान छाड़ू की पूजा, सोरा-सोलह मुहल्लों या सरहरागढ़ के आधार पर सोरर नामकरण का उल्लेख है। स्वतंत्र भारत में दुर्ग जिला गजेटियर 1972 में प्रकाशित हुआ, इसमें आए सोरर का विवरण बेगलर रिपोर्ट पर आधारित है, जिसमें कलाल राजा, धान कूटने की ढेंकी के पत्थर पर बने छिद्र, वहां से गुजरने वाले प्रत्येक से बलपूर्वक ढेंकी में धान कूटने का बेगार कराने के साथ कलार जाति की महिला और राजपूत राजा की जनश्रुति का भी उल्लेख है, जो मुख्यतः 1910 के गजेटियर के अनुरूप है।
1925 में प्रकाशित ‘रायपुर रश्मि‘ में एक किंवदंती का उल्लेख है, जिससे कलार-राजपूत की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है, इसमें बताया गया है कि कलचुरियों ने अपने वंशज भंडारी-कल्यपाल को सोरर का राज दे दिया, ये भंडारी राजप्रासाद में कल्य अर्थात् कलेऊ बना कर दिया करते थे, जो प्रचंड सैनिक निकले, कल्यपाल कलवार से कलार हो गया और दंड-सेना से डडसेना या डनसेना, जो इस अंचल में अब भी बड़ी संख्या में हैं। 1926 में राय बहादुर हीरालाल ने वाघराज के गुरूर शिलालेख के पाठ के साथ उल्लेख किया है कि गुरूर, कुछ समय पहले तक कांकेर राजाओं के अधीन था। इससे सोरर क्षेत्र के अवशेषों और जनश्रुतियों में सीमा-विवाद के युद्ध और उसके प्रभाव की संभावना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
पुराने संस्कृत और बौद्ध साहित्य में भाण्डागारिक राजकीय पदनाम आता है, किरारी के काष्ठस्तंभ में भी यह शब्द आया है। ये राजकीय व्यवस्था में भंडार-कोष के प्रभारी होते थे। युद्ध के दौरान लाव-लश्कर वाली पूरी फौज के लिए खान-पान, भंडार का इंतजाम जरूरी होता था, इसके लिए सेना के साथ ऐसे भंडारी हुआ करते होंगे, जो सैनिक-योद्धा भी हों। पानीपत की दूसरी लड़ाई वाले हेमू का स्मरण करें, जो पहले नमक और रसद आपूर्ति करता था, भाण्डागारिक-कल्यपाल होते हुए (कलार भी शराब के अलावा नमक का व्यापार करते थे। यों हेमू की जाति को ले कर मतभेद है, कुछ इतिहासकार उसे ब्राह्मण तो कूुछ तेली मानते हैं, मगर उसका जन्मना नहीं तो कर्मणा इस तरह कलार वाला है।) दुर्घर्ष योद्धा-सेनापति बना, विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। बनिया-व्यापारी की तरह जाति-चरित्र बताने के लिए प्रचलित जोड़ा शब्द बनिया-बक्काल है। बक्काल यानि राशन विक्रेता और हेमू को मुस्लिम इतिहासकार-लेखक ‘हेमू बक्काल‘ लिखते हैं।
बस्तर में सुंडी-कलार समाज के लोग पद-उपनाम ‘सेठिया‘ लिखते हैं। 2003 में प्रकाशित ‘बस्तर की प्राचीन राजधानी बड़े डोंगर‘ पुस्तिका के लेखक बस्तर लोक-इतिहास के अध्येता बहीगांव निवासी घनश्याम सिंह नाग स्वयं कलार हैं, लिखते हैं कि ग्राम पावड़ा के पास बारदा नदी बहती है। नदी की सात धाराएं हाड़ दरहा (अस्थि-विसर्जन स्थल) में आ कर मिल जाती हैं। किंवदंती का उल्लेख करते हैं कि यहां छचान चोढीन बहादुर कलारीन की शराब भट्ठी हुआ करती थी, इसलिए चट्टान को भाटी पखना कहते हैं। चट्टान में बने गोल-गोल गड्ढे बहादुर कलारीन की 'पांस-हांडी' है। शराब बनाने के पहले महुए को हांडी में डुबो कर रखा जाता है जब महुआ शराब बनाने योग्य हो जाना, 'पांस आना' है। बहादुर कलारीन सात आगर सात कोड़ी (एक सौ सैतालिस) हांडी पांस का मंद (शराब) बनाती थी, जिसे खरदूषण अकेला पी जाता था। यहीं खरदूसन रक्सा का आसन ‘खरदूषण पीढ़ा‘ और बहादुर कलारीन का खजाना ‘हांडा पखना‘ की किंवदंती भी है।
एक और कहानी की चर्चा कर लें, जिसका उल्लेख रसेल-हीरालाल 1916 में करते हैं। इस कहानी में एक कलार बालक, बालोद के राजपूत राजकुमार का महाप्रसाद (अनुष्ठानपूर्वक मित्र) था। राजा का लड़का, कलार की बहन के प्रति आकर्षित हो कर उस पर बुरी नजर रखता था। कलार अपने महाप्रसाद के पिता-फूलबबा, राजा के पास शिकायत ले कर गया कि एक कुत्ता हमारे घर को गंदा कर रहा है, उसका क्या करना चाहिए। राजा कहता है कुत्ते को मार देना चाहिए। राजा से जबान लेने के बाद कि इसके लिए उसे दंडित नहीं किया जाएगा, अगले दिन अपने ‘महाप्रसाद‘-प्रिय मित्र को मार डालता है। इसके बाद हुई लड़ाई की परिस्थितियों के चलते कलारों ने बालोद छोड़ दिया यह लड़ाई डंडे से लड़ने के कारण कलार, ‘डंड-सेना‘ कहलाए और आज भी डंडसेना-कलार, बालोद का पानी नहीं पीते। उल्लेखनीय कि यहां आए दो नाम दुर्ग-दर्पण वाले गोकुल प्रसाद, हीरालाल के अनुज, कलार थे। गोकुल प्रसाद की पुत्री श्रीमती पार्वती बाई राय अपने पूर्वजों के लिए लिखती हैं- ‘यद्यपि कलार हैहय वंशियों की शाखा कलचुरि से उत्पन्न है ...।‘
हजारी प्रसाद द्विवेदी के गांव की बात भी याद की जा सकती है। वे अपने निबंध ‘मेरी जन्मभूमि‘ में लिखते हैं- ‘हमारे गांव से कलवार या प्राचीन ‘कल्यपाल‘ लोगों की बस्ती थी, जो एकदम भूल गए हैं कि उनके पूर्वज कभी राजपूत सैनिक थे और सेना के पिछले हिस्से में रह कर ‘कल्यवर्त‘ या ‘कलेऊ‘ की रक्षा करते थे।‘ माना जाता है कि इनमें जायस, अमेठी, उत्तरप्रदेश निवासी जायसवाल कहलाए, शिवहरे को सोम-हरे के व्युत्पन्न माना गया है। राय-कलार, राज-काज से संबंधित होने को रेखांकित करने के लिए कहे जाते हैं। मेरे गांव अकलतरा में कुछ उत्कृष्ट और भरोसेमंद हिसाब-किताब रखने वाले प्रशासकीय और वित्तीय नियंत्रण-कुशल मुनीम-मुख्तियार (जमीन-जायदाद का हिसाब किताब रखने वाले राजस्व-अमले के सदस्य भी) कलार-जायसवाल रहे हैं। दूर की कौड़ी सही, मगर क्या छछान छाड़ू का धान कुटवाना, भंडार और रसद के प्रबंध से संबंधित है? इस क्षेत्र और बालोद के बीच बहने वाली नदी तांदुला है। धान कूट कर चावल बनाना और नदी का नाम तांदुला (तंडुल-चावल) में कोई सूत्र-संकेत हो या महज संयोग, उल्लेखनीय अवश्य है। तथा कलार और छछान का संबंध उस श्येन-बाज पक्षी से भी हो सकता है जो वैदिक साहित्य में मुंजवत् पर्वत से सोम ले कर आता है। जनश्रुतियों की विविधता और यह विवरण, शोधार्थियों के लिए उपयोगी हो सकता है।
हबीब तनवीर इस दौर में सोरर क्षेत्र में हुए-हो रहे पुरावशेषों के नुकसान का उल्लेख तो करते हैं, मगर यहां कराए उत्खनन और राज्य शासन द्वारा संरक्षित स्मारक-स्थल करकाभाट, करहीभदर, धनोरा, कुलिया, मुजगहन साथ ही इनमें प्रमुख स्मारक चिरचारी स्थित ‘बहादुर कलारिन की माची‘, जो लगभग 15-16 वीं सदी ईस्वी में निर्मित किसी मंदिर का अवशिष्ट मंडप भाग जान पड़ता है, का उल्लेख नहीं करते। संभवतः वे इससे अवगत नहीं हुए या इसका जिक्र करना आवश्यक नहीं माना। उन्होंने बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘दुर्ग परिचय‘ का उल्लेख इस कथा के संदर्भ में किया है, संभव है उक्त पुस्तक में कथा भिन्न प्रकार से आई हो मगर बलदेव प्रसाद मिश्र की प्रचलित पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ के 1960 में प्रकाशित चौथे संस्करण में ‘सोरर‘ शीर्षक से कहानी है, जिसमें सोरर में कटार लिए हुए नारी मूर्ति (संभवतः योद्धा-सती स्मारक शिला) का उल्लेख है, यहां भी छछानछाड़ू है, जिसे उसकी माता ही धक्का मारकर कुंए में गिरा देती है और कटार से आत्महत्या (स्वेच्छा मृत्यु वरण) कर लेती है, मगर इसमें ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ जैसा कुछ नहीं है, जो हबीब तनवीर के नाटक में प्रमुखता से आया है। स्थानीय लोगों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में ऐसा संकेत-मात्र है।
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी कथा-गीत‘ में ग्राम सोरर के नागरिकों अंतूराम कान्डेय और पुनीत पटेल का दिनांक 25/07/2009 का साक्षात्कार प्रकाशित है, जिसमें जानकारी है कि अंतूराम जी ने भी बहादुर कलारिन की कथा पर नाटक लिखा है। इनके अलावा सोरर के गोस्वामी, कुंभज परिवार के सदस्य ‘बहादुर कलारिन‘ नाटक के इस संस्करण से जुड़े रहे हैं, बताते हैं कि हबीब तनवीर के नाटक के ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ से असहमति के कारण यह नाटक 1984 में तैयार किया गया, जिसकी 50 से अधिक प्रस्तुतियां दो-तीन साल में हुईं। इस नाटक में 160 या छै आगर छै कोरी यानि 126 के बजाय 147 यानि सात आगर सात कोरी ओखलियां बताई गई हैं। पुनीत राम बताते हैं कि ‘हमारी मान्यता है कि छछानपुत्र की माता को एक गलतफहमी हुई थी। बहादुर कलारिन बेटे से कहती है कि तुम इतनी स्त्रियों का अपहरण कर उन्हें ले आये हो तो जो पसंद है उससे शादी करो। बेटा कहता है कि तुम्हारी जैसी सुदर और गुणवती कोई नहीं- यही बात गलतफहमी का कारण बनती है।‘ तथा यहां छछानछाड़ू का मंदिर है, उसे देवता के रूप में पूजा जाता है और बहादुर कलारिन का भी मंदिर बन रहा है, ... आसपास के गांव के लोग भी उसे देवी मानते हैं। विभिन्न प्रसंगों में देखा जा सकता है कि मृत्यु का वीरोचित स्वैच्छिक वरण या ‘इहलीला समाप्त करना‘, समाधि लेना आदि महिमामंडित होकर सम्मानित और पूजित होने लगता है। इसे आत्महत्या की तरह कायराना नहीं माना जाता था। प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ में बहादुर कलारिन की तरह दसमत ओड़निन, बिलासा केंवटिन, राजिम तेलिन, न्यौता धोबनिन, गंगा-चंदा ग्वालिन, गुजरी गहिरिन और सुसकी, लोहारिन, कोहारिन जैसी विभिन्न नारियों के नाम और शौर्यगाथा/महिमा, त्याग और उत्सर्ग लोक की स्मृति में हैं।
छत्तीसगढ़ के मल्हार (बिलासपुर), आतुरगांव (कांकेर) और छातागढ़ (दुर्ग) से ईसा की आरंभिक सदी के अभिलिखित पाषाण-खंड प्राप्त हुए हैं, जो स्मृति लेख हैं। इन्हें स्मरण-स्तंभ/शिला कहना उपयुक्त होगा, ‘स्मरण‘ में स्मृति भी है और मरण भी। दुर्ग-राजनांदगांव अंचल में योद्धा और सती-स्मारक पाषाण बड़ी संख्या में हैं। बालोद के कपिलेश्वर मंदिर समूह से संलग्न परिसर में ऐसे पुरावशेष एकत्रित कर प्रदर्शित किए गए हैं, इनमें से कुछ अभिलिखित हैं। यहां प्राप्त एक सती स्तंभ पर के तीन पंक्तियों वाले अभिलेख का काल प्रिंसेप ने दूसरी सदी ईस्वी ठहराया, ऐसा स्वीकृत हो तो यह सबसे पुराना सती-स्तंभलेख होगा। अन्य अभिलेख लिपि और उकेरन के आधार पर ये गोंडकालीन इतिहास से संबंधित अर्थात् सोलहवीं सदी ईस्वी तक प्राचीन, अनुमान होता है। ऐसे कुछ पाषाण खंड परवर्ती काल के भी हैं।
कवर्धा से लगभग 25 किलोमीटर दूर संकरी नदी के बाए तट के ग्राम गुढ़ा के 14-15 वीं सदी इस्वी के सती स्तम्भ (चित्र सौजन्य- श्री अजय चंद्रवंशी) |
प्रसंगवश, महाभारत, वनपर्व 190/67 में संभवतः बौद्ध स्तूपों और मृतक-समाधियों के लिए कहा गया है कि युगांतकाल में देवस्थानों, चैत्यों और नागस्थानों में हड्डी जड़ी दीवारों के चिह्न होंगे ...‘। एक अन्य उल्लेखनीय संदर्भ, हूणों से युद्ध में मारे गए गोपराज (जिसके नाना शरभ, संभवतः वही जो दक्षिण कोसल के प्रसिद्ध शरभपुरीय राजवंश के संस्थापक थे) की पत्नी के सती होना, आरंभिक ज्ञात अभिलिखित स्पष्ट उल्लेख 510 ईस्वी के भानुगुप्त के एरण (सागर, मध्यप्रदेश) शिलालेख में आया है। 1829 में सती प्रथा उन्मूलन के पश्चात नागपुर के अधीन छत्तीसगढ़ में सितंबर 1931 में सती प्रथा पर कानूनी रोक लगाए जाने की जानकारी मिलती है। नीचे छातागढ़ से प्राप्त, वर्तमान में महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में प्रदर्शित अभिलिखित दो शिलाओं के चित्र। स्थल का नाम ‘छातागढ़‘ ध्यातव्य है, क्योंकि छत्र, छाया, छाता आदि जैसे शब्द-भाव मृतक-शिलाओं के लिए प्रयुक्त होते थे।
निस छाया/सिधनेगमसरह घरनिय समि-निका छाया |
‘प्रबंधचिंतामणि‘ का परिचय मेरे लिए कुछ इस तरह का- बारहवीं सदी के ग्रंथ कल्हण की राजतरंगिणी इतिहास-दृष्टि से रचित आरंभिक कृति माना गया है, जिसमें प्राचीन अभिलेखों- शिलालेख, ताम्रपत्र, तालपत्र, भूर्जपत्र, दानपत्र, ग्रंथों, किवदंतियों, जनश्रुतियों जैसे सभी स्रोतों का इस्तेमाल है और इस ग्रंथ की तैयारी में देशाटन कर भूगोल की जानकारी सहित समकालीन परिस्थितियों से भी वे परिचित हुए। विक्रमांकदेवचरित, गौड़वहो, पृथ्वीराज दिग्विजय और कीर्तिकौमुदी जैसी कृतियों को इसी परंपरा का मान मिला है। इसके साथ इतिहास अध्ययन के तौर-तरीके और स्रोत-सामग्री पर विचार करते चलें। पुरातात्विक वस्तुएं व्याख्या निर्भर होती हैं। साहित्यिक स्रोतों में कल्पना, रूपक और प्रतीकों, लक्षणा-व्यंजना होती है। विश्वसनीय माने जाने वाले अभिलेखों में तिथि अंकित न होना, अतिशयोक्ति आदि के कारण उनकी भी तथ्यात्मक विश्वसनीयता कम हो जाती है। कई बार ऐसे भिन्न स्रोतों को मिलाने पर वंशक्रम, पूर्वज-वंशज, उत्तराधिकारियों की जानकारी में भी विसंगति होती है। ऐसी स्थिति में जिस काल से संबंधित राजवंशों, घटनाओं, समाज और लोगों के पर्याप्त इतिहास का अभाव हो, वहां कोई भी पूरक और समानांतर सूचना का स्रोत महत्वपूर्ण हो जाता है, बल्कि विश्वसनीय इतिहास-घटनाओं का परीक्षण और उससे जुड़ी स्थितियों की जानकारियों के लिए भी सहायक होता है। इस प्रकार का इतिहास लेखन-शोध कुछ-कुछ ललित निबंधों पूर्वज जैसा हो जाता है।
आधुनिक इतिहास अध्ययन में कई विद्वान किसी स्थल, स्मारक अथवा पुरावशेष पर शोध-लेखन करते हुए, उससे संबंधित देश-काल, परिवेश और अन्य संबंधित रोचक संदर्भों की चर्चा को शामिल किया करते थे, जो न सिर्फ ऐसे अध्ययन के पूरे परिप्रेक्ष्य के लिए, बल्कि अन्य पक्षों की ओर खोज के लिए राह सुझाता है। यथा- हीरानंद शास्त्री का Brahmi Inscription on a Wooden Pillar from Kirari, राय बहादुर हीरालाल के The Birth Place of the Physician Sushena और Why Kewat Women are Black, पं. लोचन प्रसाद पांडेय के The Ramayana of Valmiki Mentions two Kosalas, Mahanadi - The Famous River of Mahakosala और Six Lacs and Ninety-Six Villages of Kosala जैसे लेख और बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ इसके उदाहरण हैं। इस दृष्टि से जैन आस्था के इस ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ को इतिहास-लेखन की पूर्वज शैली के महत्व सहित देखा जा सकता है।
इसके ग्रंथकार मेरुतुंग सूरि स्वयं स्पष्ट करते हैं- ‘बार-बार सुनी जाने के कारण पुरानी कथाएं बुद्धिमानों के मन को वैसा प्रसन्न नहीं कर पातीं। इसलिए मैं निकटवर्ती सत्पुरुषों के वृत्तांत से इस ग्रंथ की रचना कर रहा हूं।‘ तथा वे यह भी कहते हैं कि ‘बहुश्रुत और गुणवान ऐसे वृद्धजनों की प्राप्ति प्रायः दुर्लभ हो रही है और शिष्यों में भी प्रतिभा का वैसा योग न होने से शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं। इस कारण से तथा भावी बुद्धिमानों को उपकारक हो ऐसी परम इच्छा से, सुधासत्र के जैसा, सत्पुरुषों के प्रबंधों का संघटन रूप यह ग्रंथ मैंने बनाया है।‘ और यह भी कि ‘यद्यपि विद्वानों द्वारा अपनी बुद्धि से कहे गए प्रबंध भिन्न भिन्न भावों वाले अवश्य होते हैं, तथापि इस ग्रंथ की रचना सुसंप्रदाय के आधार पर की गई है, इसलिए चतुर जनों को वैसी चर्चा न करनी चाहिए।‘
किसी कृति के सम्मान के साथ उसके सम्यक मूल्यांकन की जिम्मेदारी निर्वाह का एक उल्लेख इस ग्रंथ के संपादन संबंधी ‘प्रास्ताविक वक्तव्य‘ से स्पष्ट किया जा सकता है, जहां एक ओर इस ग्रंथ के महत्व पर जोर दिया गया है, वहीं कहा गया है- ‘... न मालूम मेरुतुंग सूरि ने किस आधार पर, ऐसा भ्रान्तिपूर्ण यह वर्णन अपने इस महत्व के ग्रन्थ में ग्रंथित कर डाला है, सो समझ में नहीं आता।' बहरहाल इस ग्रंथ में जैनधर्म, गुजरात के राष्ट्रीय इतिहास की कथाओं, श्लेष, रूपक-उपमा वाले अनमोल शब्दों और कहन के उदाहरण तथा उनका मोल बारंबार आया है।
जयकेशी प्रसंग की पृष्ठभूमि में उनके पिता शुभकेशी और जयकेशी की पुत्री मयणल्ला देवी का उल्लेख आवश्यक है। ‘प्रबंधचिंतामणि‘ से पता चलता है कि- ‘इधर, शुभकेशी नामक कर्नाट देश का राजा घोड़े से (जिसको अपने काबू में न रख सकने के कारण) उड़ाया जाकर किसी घने जंगल में जा पड़ा। वहां पत्र फलों से भरे भरे किसी वृक्ष की छाया का उसने आश्रय लिया। उसके पास ही दावाग्नि लगी। जिस वृक्ष ने (अपनी छाया में) विश्राम देकर उपकार किया था उसे, कृतज्ञता के कारण छोड़कर चले जाने की उसकी इच्छा न हुई। और इसलिए, उसी के साथ दावानल में उसने अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसके बाद, मंत्रियों ने उसके पुत्र जयकेशी को राजपद पर अभिषिक्त किया। क्रमशः उसके एक मयणल्ला देवी नाम की पुत्री पैदा हुई। ... श्री कर्ण ने उससे विवाह कर लिया।‘
इस क्रम में आगे ‘मयणल्लादेवी के पिता की मृत्युवार्ता‘ आती है, जिसमें कथा इस प्रकार आई है-
‘किसी समय, कर्णाट देश से आये हुए सन्धिविग्रहिक से मयणल्ला देवी ने अपने पिता जयकेशी का कुशल समाचार पूछा तो उसने अश्रुपूर्ण आंखों से कहा कि- ‘स्वामिनि, प्रख्यातनामा महाराज श्री जयकेशी भोजन के समय पिंजरे में तोते को बुला रहे थे। उसके ‘मार्जार‘ (बिल्ली) बैठी है, ऐसी आशंका व्यक्त करने पर, राजा ने चारों ओर देख कर-किंतु अपने भोजन के पात्र के (चौकी के), नीचे छिपे हुए मार्जारको न देख कर प्रतिज्ञा पूर्वक बोल उठे कि- ‘यदि बिल्ली के हाथ तुम्हारी मृत्यु होगी तो मैं भी तुम्हारे ही साथ मरूंगा‘। वह तोता ज्यों ही पिंजडे से उड़ कर उस सोने के थाल पर आ कर बैठा त्यों ही उस बिल्ली ने (लपक कर) भेड़िये जैसे दाँतों से उसे मार डाला। राजा ने उसे मरा देख कर भोजन का ग्रास छोड़ दिया, और उक्ति-प्रत्युक्ति जानने वाले राजपुरुषों के (बहुत कुछ) निषेध करने पर भी कहा-
‘राज्यं यातु श्रियो यान्तु प्राणा अपि क्षणात्।
या मया स्वयमेवोक्ता वाचा मा यातु शाश्वती।।‘
‘राज्य चला जाय, श्री चली जाय, और क्षणभर में प्राण भी भले ही चले जांय, किन्तु जो बात मैंने स्वयं कही है वह शाश्वती वाणी न जाय।‘
इस प्रकार इष्ट देवता की भाँति इसी वाणी का जाप करता हुआ, काष्ठ की चिता बनवा कर, उस तोते को साथ ले, उसमें प्रवेश कर गया। इस वाक्य को सुन कर मयणल्ला देवी शोकसागर में डूब गई। विद्वज्जनों ने विशेष प्रकार के धर्मोपदेशरूपी हस्तावलंबन दे कर उसका उद्धार किया।‘
‘प्राण जाए पर वचन न जाई‘ और ‘तोता-राजा सहगमन‘ (सहगमन- सामान्यतः जीवनसाथी, पति के साथ पत्नी का सती हो कर 'परलोक गमन?' के लिए प्रयुक्त होता है।) के इस प्रसंग का विवरण कुछ अन्य स्रोतों में लगभग इन शब्दों में मिलता है-
गोवा कदंब राजवंश के राजा जयकेशी द्वारा एक तोते के लिए आत्मदाह का एक अनोखा उदाहरण मिलता है। जिन परिस्थितियों के कारण राजा की मृत्यु हुई वे इस प्रकार थीं- जब राजा जयकेशी भोजन करते थे तो तोते का प्रतिदिन उनके साथ देता था। एक दिन, तोते ने राज सिंहासन के नीचे एक बिल्ली को बैठे देखा। राजा के बार-बार पुकारने, स्नेह और धमकी के बावजूद, तोता खाने में साथ देने के लिए पिंजरे से बाहर नहीं आया और अपने आसन्न प्राण-संकट का संकेत देता रहा। अंत में, राजा ने कहा कि यदि तोते को किसी भी घातक स्थिति का सामना करना पड़ा तो वह अपनी जान भी जोखिम में डाल देगा। जाहिर तौर पर उन्होंने यह आश्वासन अपने आसन के नीचे बिल्ली की मौजूदगी को न जानते हुए दिया था। तोता राजा की बात पर, पिंजरे से बाहर आया, तो बिल्ली ने उस पर झपट्टा मारा और उसे मार डाला। दुखी राजा ने तोते के दुःख से, अपने वादे को पूरा करते हुए, तोते के साथ जलकर मर गया। किसी पालतू जीव से किए गए वादे की खातिर जान देने का यह एक दुर्लभ मामला है।
और कुछ बातें तोता, सुआ या मिट्ठू पर- ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक सूत-रोमहर्षण या लोमहर्षण (अपनी वक्तृत्व शैली से मंत्रमुग्ध कर रोमांचित करने वाले) और कुशीलव कथा रचने-गढ़ने और सुनाने वाले जबकि शुकदेव, कथा वाचक यानि कथा बांचने-दुहराने वाले होते थे, इसी से 'तोता रटंत' कथन चल पड़ा। तोते को बोलना सिखाया जाता है, ‘तपत्कुरु‘, पं. दानेश्वर शर्मा का प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी गीत है- 'तपत कुरु भइ तपत कुरु, बोल रे मिट्ठू तपत कुरु‘। ऐसा जान पड़ता है कि गुरुकुल-आश्रमों में तोते रखे जाते थे, जिनको तपत्कुरु सिखाया जाता था कि वे दुहराते-रटते रहें ‘तप करो, तप करो‘। ऐसे ही तोता रटंत का प्रसंग मंडन मिश्र वाला है। मंडन मिश्र का शास्त्र-ज्ञान किताबी था, शंकराचार्य की तरह अनुभूत नहीं था फिर मंडन मिश्र की पत्नी भारती के सामने ‘अनुभूत‘ के सवाल पर ही शंकराचार्य लाजवाब होते हैं। ‘शुक सप्तति‘ बारहवीं सदी ईस्वी का ग्रंथ माना जाता है। जैन हेमचंद्र इस ग्रंथ के दो पाठों- एक संभवतः चिंतामणि भट्ट का और दूसरा श्वेतांबर जैन से परिचित थे। ए.बी कीथ के अनुसार भी इसका एक संस्करण, श्वेतांबर जैन की रचना प्रतीत होती है। इसकी कहानी अब भी किस्सा तोता-मैना प्रचलित और लोकप्रिय है। देह पिंजर (पसली) में जान (आत्मा) कैद होती है, जैसे पिंजरे में तोता, इंतकाल में प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं। एक कहावत में बन्दर, जोगी, अगिन, जल, सूजी जैसे दस में सुआ को भी गिना जाता है, जो कभी अपने नहीं होते। तोता-चश्म की तरह निरपेक्ष आत्मा, शरीर को छोड़कर प्रयाण कर जाती है। जयकेशी की मृत्यु-कथा, क्या ऐसा ही कोई रूपक है?
चलते-चलते, ‘प्रबंधचिंतामणि‘ के कुछ रोचक उल्लेख और उद्धरण-
कालिदास, भारवि और दंडिन के साथ कहा जाता है- ‘माघे सन्ति त्रयो गुणाः‘ या 'माघे मेघे गतं वयः‘ या ‘काव्येषु माघः ...‘, ऐसे ‘उपमा, अर्थगौरव और पदलालित्य‘ संपन्न महाकवि माघ की भौतिक समृद्धि और ऐश्चर्य से भी भरपूर होने का भी ‘प्रबंध‘ यहां है, जिसमें बताया गया है कि माघ, किस तरह राजा भोज के वैभवपूर्ण आतिथ्य से संतुष्ट नहीं होते। दूसरी तरफ राजा भोज माघ का वैभव देखने श्रीमालनगर जाते हैं और माघ द्वारा की गई अगवानी और अप्रत्याशित समृद्ध सत्कार से चकित होते हैं।
'तुम्हारे जीवित रहते बलि, कर्ण और दधीचि जीते हैं और हमारे जीवित रहते दारिद्र्य जीता है। हे जगदेव! हम नहीं जानते कि किसका हाथ थक जाएगा- दरिद्रों को रचते-रचते ब्रह्मा का या कृतार्थ करते करते तुम्हारा।'
'सौगत (बौद्ध) धर्म है सो तो सुनने लायक है (अर्थात् उसके सिद्धान्त सुनने में अच्छे हैं), और आर्हत (जैन) धर्म है सो करने लायक है। व्यवहार में वैदिक धर्म का अनुसरण करना योग्य है और परम पद की प्राप्ति के लिए शिव का ध्यान धरना उचित है।'
'यद्यपि कटे हुए ब्रह्मशिर को वह धारण करता है, यद्यपि प्रेतों से उसकी मित्रता है, यद्यपि रक्ताक्ष हो कर मातृकाओं के साथ वह क्रीड़ा करता है, यद्यपि स्मशान में वह प्रीति रखता है और यद्यपि सृष्टि करके वह उसका संहार कर देता है, तो भी, मैं उसमें मन लगा कर भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। क्योंकि त्रिलोक शून्य है और वह जगत का एकमात्र ईश्वर है।'
'जिसे विष्णु दो आँखों से, शिव तीन से, ब्रह्मा आठ से, कार्तिकेय बारह से, रावण बीस से, इंद्र दस सौ से ओर जनता असंख्य नेत्रों से भी नहीं देख पाती, बुद्धिमान पुरुष उसी को एक प्रज्ञा (बुद्धि) रूपी नेत्र से स्पष्ट देख लेता है।'
'ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।'
टीप-
*मेरे लिए विभिन्न संदर्भों में प्रवेश और उन तक पहुंच, सामान्यतः बरास्ते छत्तीसगढ़ होता है।
*भारतीय चिंतन परंपरा पर विचार करें तो एक हिंदू या सनातन, दूसरा बौद्ध और तीसरा जैन, इन तीनों में शंकर के वेदांत के बाद दर्शन-चिंतन में टीका ही मिलती है, कुछ पुराणों का भी काल इसी दौर (आठवीं-नवीं सदी ईस्वी से अंगरेजों के आते तक) का ठहरता है, साहित्य में वीरगाथा, भक्ति, रीति हावी है। बौद्ध परंपरा में जेन आदि अन्य देशों में विकसित हुआ, भारतीय परंपरा में बौद्धों में सूनापन ही जान पड़ता है। जैनों में खासकर कर्नाटक और मरु-गुर्जर प्रदेश में रची और सहेजी जिन कृतियों की जानकारी मिलती है, उनसे लगता है कि भारत में जैन शास्त्रीय चिंतन परंपरा के अलग-अलग आयाम बराबर उद्घाटित होते रहे हैं, मगर धार्मिक या पंथ-विशेष से संबंधित मानकर नजरअंदाज हुए हैं।
बड़े दिलचस्प तरह से लिखा और आख़िरी चलते चलते तो सोचने समझने जीने के लिए प्रेरित कर देता है
ReplyDeleteज्ञानवर्धक जानकारी आभार
ReplyDeleteअच्छी कहानी है।
ReplyDelete🙏
ReplyDeleteलोक नाटक अपने लचीलेपन के लिए हमेशा से विख्यात रहे हैं अपने लेख में बहादुर कलारिन की दन्तकथा के संबंध में आपने कहा कि "...मगर इसमें ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ जैसा कुछ नहीं है" फिर आपने यह भी स्वीकार किया है कि "...जो हबीब तनवीर के नाटक में प्रमुखता से आया है और निसंदेह स्थानीय लोगों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में भी कहा जाता है।..." यानी इडिपस वाली घटना का कुछ तो इशारा बहादुर कलारिन नाटक बनाने की प्रेरणा के लिए हबीब तनवीर को मिला था। आप भी जानते ही होंगे कि किसी भी दन्तकथा के प्रस्तुतिकरण के लिए सबसे अधिक उसके किसी पात्र के विशिष्ट मनोवृत्ति को नाटक में प्रतिनिधि रूप में उभारने की होती है। बहादुर कलारिन नाटक में भी ऐसे दो किरदारों की दो मनोवृत्तियां उभर कर दर्शकों के सम्मुख आती हैं।
ReplyDeleteमेरी निगाह में बहादुर कलारिन केवल एक विशुद्ध नाटक है। यह नाटक छत्तीसगढ़ की एक विशिष्ट समाजिक स्थिति की ओर इशारा करता है। नाटककार और इतिहासकार में जो कुछ अन्तर है वही बहादुर कलारिन नाटक में और छत्तीसगढ़ में प्रचलित किंवदंती में दिखाई देता है।
किसी किंवदन्ती, किसी जनश्रुति का अपना एक रचना विधान होता है और किंवदन्ती व नाटक का अपना। झीने यथार्थ को नैतिकता से रंजित कर अपनी कल्पना की सहायता से पुनरुज्जीवित कर जब कोई नाटककार एक दन्तकथा को नाटक में परिवर्तित कर लोगों के देखने लायक बनाता है। तब उसमें उस दन्तकथा की इससे ज्यादा क्या अहमियत होनी चाहिए कि ऐसी कोई घटना हुई तो थी। अब हम उसे किस तरह लेते हैं यह हमारी समझ की स्थिति पर निर्भर करता है।
मेरी निगाह में नाटक सिर्फ नाटक होता है। उसे ऐतिहासिक, पौराणिक, या सामाजिक कहना तक मैं बेमानी मानता हूँ। हाँ किसी भी नाटक या सिनेमा की सामग्री यानी कच्चा माल मसाला इतिहास पुराण या समाज की पूर्व व समसामयिक जीवन स्थितियों से बटोरा गया हो सकता है। लेकिन किसी नाटक का सीधा सम्बन्ध इनसे नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
हबीब तनवीर ने इस किताब के आरम्भ में कहीं यह जिक्र किया भी है कि उन्हें भी यह नाटक बनाते समय यह संदेह था कि लोग यह स्थिति स्वीकार कर पायेंगे कि भारत में भी इडिपस सिंड्रोम की घटनाएं होती रही हैं। उन्होंने अपनी मंडली के लोगों से जब पूछा तो अनेक ऐसी घटनाएं लोगों की जानकारी में थीं। वे लोग अपने आस पड़ोस गाँव घर के नजदीकी संबंधियों के बीच गोपनीय नजदीकियों के किस्से सुनते रहे थे। मंडली ने कहा ऐसी बातें लोग कहते सुनते तो हैं। छत्तीसगढ़ के लोक मानस में ऐसी स्थितियों की चर्चाएं तो उन्होंने भी सुनीं थीं। फिर जो समाज में बहु प्रचलित माँ की गाली है वह भी नाटक की विशिष्ट स्थिति को फुसफुसाती है कि इडिपस सिंड्रोम एक मनोवृत्ति तो है भले लोग जाहिर तौर पर स्वीकार्य करें या न करें। इस संबंध में ओशो अपने एक व्याख्यान में कुछ ऐसे सुनाई देते हैं कि पुरूषों का स्त्री के वक्ष स्थल की तरफ का आकर्षण माँ के वक्षस्थल से उनके प्रथम साक्षात्कार की वजह से है।
खैर..
समाज में प्रचलित कोई दन्तकथा क्या है और कैसी है, इससे ज्यादा महत्त्व की बात यह है कि हम उसे किस तरह लेते हैं, क्योंकि तभी हम अपनी जाँच-पड़ताल कर सकते हैं। जाहिर है कि यही काम सबसे मुश्किल है, और सबसे गहरी चुनौती है उसे स्वीकार करना। सच्चाई स्वीकार करने से बहुत कुछ टूटता है हम अपनी बनाई झूठी धारणाओं के टूटने से डरते हैं। इसलिए अपनी सच्चाई से डरने वाले लोग बहादुर कलारिन जैसी कथा को केवल चोरी छुपे फुफफुसाहट में सुन तो सकते हैं पर जाहिर तौर पर स्वीकार नहीं कर सकते जबकि गुस्सा करते ही हमारी जुबान पर इडिपस काम्पलेक्स वाली गाली सबसे पहले उभर आता रहा है।
अच्छा - सार्थक लेख : तारीफ़ ।
Deleteरोचक और सारगर्भित..... 👌👌👌 जहाँ तक हबीब तन्वीर जी की बात है तो उनकी लोक नाट्य बहादुर कलारिन मैंने भी पढ़ी है.... मुझे लगा कि उन्होंने कहानी के साथ manupulate किया है। माँ और पुत्र के संबंध को रेखांकित करने का प्रयास किया है, जो कि ठीक नहीं है। आपके इस लेख के कुछ अंश को अपनी पत्रिका में जरूर स्थान देंगे।
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