Monday, January 17, 2022

सबरिया - राजेश

राजेश कुमार सिंह, मानवविज्ञान और समाजशास्त्र के स्नातकोत्तर उपाधिधारी होने के साथ इनमें गंभीर रुचि लेते थे और उनका उद्यम अकादमिक अध्ययन तक सीमित नहीं, बल्कि सांस्कृतिक-सामाजिक सूत्रों के संधान सहित सकारात्मक परिवर्तन की संभावना भी देखने का होता। प्रवासी मजदूरों की स्थिति पर उनका लघु शोध-प्रबंध एक महत्वपूर्ण अध्ययन था। इसी प्रकार विभिन्न जाति-जनजाति और उनकी संस्कृति के प्रति उनकी दृष्टि सूक्ष्म होती थी। अपनी विशिष्टताओं के चलते सबरियों पर उनका ध्यान लगातार रहता और वे नोट्स लेते रहते, उन्हें इस बारे में जानकारियां जुटाने और समझने में अकलतरा वाले शेखर दुबे जी, अमरताल-लटिया वाले लक्ष्मीनारायण सिंह जी, मुलमुला-अकलतरा वाले रमाकांत सिंह जी, रिस्दा वाले दिलभरण सिंह जी, रेमंड सीमेंट-हैदराबाद वाले श्री एम.वाई शर्मा और ग्रामीण बैंक वाले पा.ना सुब्रह्मनियन के अलावा लटिया वाले श्री कन्हैया सबरिया, अमरताल वाले श्री अन्का सबरिया, आरसमेटा वाले श्री संकर सबरिया से महत्वपूर्ण सहयोग मिला। मुझे भी इस दिशा में रुचि हुई और उनके लिए कुछ जानकारी मैंने इकट्ठी की थी। यह नोट, मूलतः उनके द्वारा तैयार किया गया था, जिसे वे अंतिम रूप नहीं दे पाए, किंतु इसके बावजूद भी इसका महत्व कम नहीं है, मानते हुए प्रस्तुत-

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ एवं बिलासपुर अंचल के निवासी सबरिया वस्तुतः कौन है, ठीक-ठीक कोई नहीं जानता। नृतत्वशास्त्री, न समाजशास्त्री, न शासकीय विभाग और न खुद सबरिया। समय के साथ-साथ नदी के किनारों से मैदानों की ओर बढ़ते सबरिया लोगों की पहचान, समय के साथ-साथ अधिक धुंधलाती जा रही है। इसके सिर्फ दो ही उपादान शेष हैं जो इनके मूल स्थान और पहचान की ओर संकेत करते हैं। प्रथम यह कि ये उच्चारण में थोड़े अंतर के साथ तेलुगु भाषा बोलते हैं और दूसरा, ये हमेशा लोहे का मोटा डंडा ‘सब्बल‘ लिए रहते हैं। इनकी बसाहट से अनुमान होता है कि ये महानदी के साथ चलते-चलते इस क्षेत्र में प्रवेश कर गये। एक मोटे कयास से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व सबरिया आंध्र की मूल किसी जाति/जनजाति के सदस्य, अथवा उसके उपसमूह हैं, किंतु किस प्रयोजन से यहां आये? जवाब शायद महानदी ही दे सकती है।

सबरिया लोगों में बहुत कम पढ़े-लिखे हैं। उनका अपना कोई लिखित दस्तावेज भी नहीं है। अतः अपनी पहचान के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। मगर इनकी पहचान के गंभीर प्रयास नहीं हुए। सबरिया जाति पर कुछ शोध निबंध हैं पर इस मूल प्रश्न का, कि सबरिया आखिर हैं कौन, सभी मौन हैं। सरकारी खानापूरी इतने से ही हो जाती है कि इनकी जनसंख्या कितनी है और इनका प्रतिशत कुल जनसंख्या में कितना है। शासन ऐसे कुछ मामलों में आंकड़ों को इतना महत्व देता है कि आदमी उसके पीछे छिप जाता है। आवश्यकता पड़ने पर पुलिस की डायरियां और तहसील कार्यालय इन्हें गोंड मानकर काम चला लाते हैं। कभी-कभी तो इन्हें सिर्फ आदिवासी बता देना ही पर्याप्त समझा जाता है। मगर शासन की जनजाति सूची में सबरिया का कोई स्थान नहीं है।

मध्यप्रांत के जनजाति/जातियों के बारे में सबसे प्रमाणिक पुस्तक ‘द ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया’’ में रसेल एवं हीरालाल का ध्यान भी इन पर नहीं गया है। संभवतः उन्होंने सबरियों को सहरिया या संवरा-शबर मान लिया है। किंतु बाद के प्रकाशनों में यह सामान्यतः स्पष्ट है कि मिलते-जुलते नाम के अलावा इनमें अन्य कोई समानता नहीं है। सबरिया रहन-सहन, भाषा, शारीरिक गठन, पेशा, धार्मिक मान्यताओं में स्पष्टतः भिन्न हैं। सहरिया मूलतः मुरैना शिवपुरी, गुना जिलों में पाये जाते हैं। इन्हें पूर्व में अपराधी जनजातियों की सूची में रखा गया था। शबर, मूलतः उड़ीसा के रहने वाले माने गए हैं और भाषा आधार पर मुण्डा भाषा परिवार के अंतर्गत हैं जबकि सबरिया द्रविड़ भाषा परिवार के सदस्य हैं।

छत्तीसगढ़ अंचल के इन मेहमानों का ‘सबरिया‘ नामकरण में दिखाई पड़ता है कि जार्ज गिर्यसन ने अपने सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में ‘शबर’ जाति की उपस्थिति दर्ज की है। एक किंवदंती के अनुसार ये रामचरित मानस में उल्लेखित वृद्ध आदिवासी महिला शबरी के वंशज हैं, स्थापित मान्यतानुसार जिसने शिवरीनारायण में भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थें। संयोग की बात है कि शिवरीनारायण के आसपास सबरिया जाति की बड़ी जनसंख्या निवास करती है। दूसरी मान्यता इनके मूल उपादान हाथ में धारण किये जाने वाले लोहे के डंडे या सब्बल से है। सब्बल के छत्तीसगढ़ी उच्चारण साबर से, उसे धारण करने वाले, सबरिया कहे जाने लगे। सबरिया अपने इस उपकरण का उपयोग अत्यंत कुशलता से एवं सभी कार्यों- यथा, खोदने, काटने, भारी वस्तु उठाने, शिकार के प्रयोजन हेतु अस्त्र और शस्त्र दोनों रूप में करते हैं।

किंवदंतियों/अवधारणों से परे हटकर और पूर्वग्रहों से अलग, तार्किक विचार करने पर इनकी पहचान तो नहीं हो पाती परन्तु पूर्व में उल्लेखित दोनों उपादानों, बोली और सब्बल से इनके मूल स्थान, जीवन शैली और जीवन यापन के ढंग के बारे में स्पष्ट संकेत मिलता है। साबर या सब्बल एक ऐसा औजार है जिसका मूलतः खोदने और भारी वस्तुओं के उठाने हेतु उत्तोलक के रूप में सबसे अधिक सुविधाजनक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। इससे यह तो कहा ही जा सकता है कि सबरिया ऐसे कार्य में कुशल रहे हैं जिसका खोदने, भारी वस्तुओं को उठाने जैसे कार्य से संबंध हो। तार्किक संभावना बनती है कि सबरिया मूलतः खनिक हैं जो आंध्र-तेलंगाना के उस क्षेत्र के निवासी हैं जहां इमारती पत्थरों की खदानें रही हों और जहां से यात्रा एवं परिवहन का सर्व सुविधाजनक माध्यम-साधन, गोदावरी-इंद्रावती और महानदी रही हो। लेकिन दूसरा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि जीवन यापन का साधन होते हुए ये अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर इस क्षेत्र में क्यों चले आये। इसके लिये हमें महानदी के किनारे बसे प्राचीन नगरों में पाये जाने वाले साक्ष्यों को देखना होगा।

महानदी के किनारे पुरातात्विक महत्व के कई संपन्न नगरों के अवशेष हैं, जो अधिकतर पत्थरों की बड़ी-बड़ी सिलों और फर्शी से निर्मित है। यहां एक और किवदंती को शामिल किया जाय तो कहानी बनती है कि शिवरीनारायण, जांजगीर और पाली इन तीनों स्थानों पर एक साथ तीन मंदिरों का निर्माण हो रहा था। इस विश्वास/मान्यता के साथ कि एक निश्चित तिथि को सबसे पहले जिस मंदिर का निर्माण पूरा हो जावेगा वहीं नारायण वास करेंगे। संयोगवश इस प्रतियोगी निर्माण योजना में शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूरा हुआ और वहां नारायण की प्राण प्रतिष्ठा हुई। जांजगीर और पाली के मंदिर पिछड़ गए। वैसे तथ्य यह है कि पाली का मंदिर, नारायण का नहीं, बल्कि शिव का मंदिर है, महादेव मंदिर कहा जाता है, इस मंदिर को पूर्ण करने अथवा जीर्णोद्धार के प्रमाण अवश्य अभिलिखित हैं। जांजगीर का विष्णु मंदिर, जिसे भीमा मंदिर या अधूरा होने के कारण नकटा मंदिर भी कहा जाता है, अवश्य शिखररहित और पूजित नहीं है।

चूंकि सबरिया शारीरिक रूप से बलिष्ठ एवं परिश्रमी होते हैं अतः यह माना जा सकता है कि इन मंदिरों के निर्माण का काल जो लगभग एक हजार वर्ष पूर्व है, इन्हें परिवहन और पत्थर की बड़ी-बड़ी लाटों को मंदिर की ऊंचाई पर पहुंचाने हेतु बुलवाया गया होगा। धीरे-धीरे इनकी मिट्टी काटने की कुशलता और परिश्रमी होने से इन्हें लगातार काम मिलता गया होगा और आंध्र-तेलंगाना से आये ये अप्रवासी मजदूर, यहीं बस गये होंगे। दूसरी एक अन्य कथा से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है जिस पर स्वयं सबरिया विश्वास करते हैं कि बहुत पुराने समय में दक्षिण की ओर भयानक दुर्भिक्ष पड़ने के कारण इनके पूर्वज ‘जनम देंसु’ (उत्तर दिशा) के राजा के यहां जीवन यापन हेतु गए और वहीं के होकर रह गये।

सबरिया पुराने रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ जिलों में मूलतः महानदी के पास-पास, छोटे-छोटे समूहों में जिन्हें सबरिया डेरा कहा जाता है, बसे हुए हैं। जीवन यापन, शिक्षा एवं रहन-सहन की दृष्टि से ये आदिम स्तर पर ही हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में सबरिया बोली बोलने वालों की संख्या अनुमानित बमुश्किल 2000 से 2500 के बीच है। शासन द्वारा कर्ज देने अथवा बच्चों के स्कूल प्रवेश के अवसर पर जाति नाम सामान्यतः गोंड दर्ज किया जाता है। अपनी अलग पहचान की समस्या के चलते, इनमें इसके प्रति उदासीन, सहज स्वीकृति का भाव है। 

सबरिया गांव के बाहर रह कर गांव के निवासियों से अपने सम्पर्कों की भी दूरी बनाए रखते हैं। अपनी अलग बोली होने के बावजूद, अन्य लोगों से संपर्क हेतु ये छत्तीसगढ़ी बोली का प्रयोग आसानीपूर्वक करते हैं। इनके पास जीवन यापन हेतु कोई निश्चित स्रोत नहीं है। थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी, शिकार और विशेषकर गड्डा खोदने एवं मिट्टी काटने की मजदूरी से अपना जीवन निर्वाह करते हैं। सबरिया बोली का नामकरण छत्तीसगढ़ अंचल के मूल निवासियों द्वारा, इस समूह की बोली के रूप में हुआ है, जिसे भी सबरियों ने स्वीकार कर लिया है। इनकी बोली के तुलनात्मक विश्लेषण से दो तथ्य सामने आये हैं (1) सबरिया, अपनी बोली और शारीरिक गठन के आधार पर द्रविड़ भाषा वर्ग के हैं। (2) सबरिया बोली अपने भाषागत स्वरूप में प्राचीन तेलुगू के निकट है।

ग्लोटोक्रोनोलॉजिकल, तुलनात्मक अध्ययन से निश्चित किया गया है कि सबरिया बोली प्राचीन तेलुगू के निकट है, जो द्रविड़ भाषा परिवार के तेलुगू की एक बोली है और लगभग 10 वीं शताब्दी ईस्वी में पृथक होकर इस ओर आ गई होगी। इसके अलावा भी सबरिया बोली की अन्य भाषिक विशेषताएं प्राचीन तेलुगू से मिलती है। प्राचीन तेलुगू के समान ही इसमें कुछ व्यंजन नहीं मिलते। परन्तु स्वरों में दीर्घता का महत्व प्राचीन तेलुगू की अपेक्षा इसमें गौड़ रूप से होता है। इसके अतिरिक्त शब्द भण्डार एवं वाक्य संरचना की दृष्टि से भी यह प्राचीन तेलुगू के ज्यादा निकट है। समय के साथ-साथ रायगढ़ जिले में पाये जाने वाले सबरिया परिवार जो उड़ीसा के निकट है पर उड़िया और छत्तीसगढ़ी दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है वहीं सादरी-कोरवा बोली के प्रभाव के कारण सबरिया लोग ‘य’ के स्थान पर ‘स’ का प्रयोग करते है। सबरिया बोली में बहुतेरे शब्दों में ‘उ‘ का प्रयोग होता है। यथा-नाक के लिए मुक्कु, आंख-कुन्नु, बाल-जुहु, पैर-कालु, पेट-कोडकु, नख-गोरु, दांत-पोन्नु, हड्डी-मुड़सु, चमड़ी-तोलु, इसी प्रकार नातेदारी शब्दों में समधी-येरकु, मामा-ममाडु, बेटा-कोड़हु, बेटी-कुन्तु, पति-भगुडु। पशुओं के नाम में बैल-खेद्दु, गाय-आयेद्दु, बकरा-म्याधोतु, भैंसा-ग्याभोतु, गौरेया-फिस्गु, गिद्ध-रामोन्दु। प्राकृतिक वस्तुओं में पेड़-सेट्टु, पानी-नीलु, तालाब-सेरु, बादल-मेगु, सूर्य-पोद्दु, तारे-कोकलु, दिन-युगलु, रात-माघलु, ठंड-सिलकालू, गरमी-एन्डाकालु, बरसात-बरसाकालु। भोजन सामग्री में भात-कुडू, साग-पुच्चू। सबरियों में रिश्ते-नातों के विभेद बहुत व्यापक न होने के कारण उनकी बोली में तत्सबंधी शब्द विविधता सीमित है। अतः प्राथमिक रिश्तों के लिए ‘पद‘ (बडा) तथा ‘‘चेन‘‘ (छोटा) शब्दों को जोड़कर संबंध व्यक्त किये जाते हैं। इनकी बोली में अप्पा शब्द बड़ी बहन, बुआ मौसी, ताई एवं साली के लिए प्रयुक्त किया जाता है। बदलते परिवेश, बढ़ती आबादी, गावों में खुली जमीन का सिकुड़ता क्षेत्र ने इन्हें स्थानीय लोगों के लगातार संपर्क में रहने और घुलने मिलने की स्थिति पैदा कर दी है। इस बोली पर हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी भाषियों से परस्पर बढ़ते सम्पर्क के कारण इन दोनों भाषाओं का प्रभाव बढ़ रहा है और इससे मूल सबरिया बोली का प्रचलन घटता जा रहा है।

सब्बल और बोली के अलावा कुछ ऐसे विशेष गुण हैं, जो सबरिया जाति की विशिष्ट पहचान बनाये रखने में सहायक हैं, यथा- चूहा शिकार, सांप की चमड़ी निकालना और कर्ज चुकाने के मामले में ईमानदारी। सबरिया बसाहट के आसपास की बैंक शाखाओं से संपर्क करने पर पता चला कि ये आवश्यकता होने पर भी कर्ज लेने से हिचकिचाते हैं और शासकीय लक्ष्य पूरा करने हेतु बैंकों के विशेष प्रयास करने पर ही कर्ज लेते हैं। इन्हें साग-भाजी (बाड़ी), मुर्गीपालन एवं बकरीपालन हेतु कर्ज दिया गया है। मुर्गीपालन में इन्हें विशेष लाभ की प्राप्ति नहीं होती। मांस इनका प्रमुख भोजन है। छोटे पक्षियों, खरगोश, बनबिलाव, लोमड़ी इत्यादि की लगातार कम होती उपलब्धता तथा शिकार पर कठोर प्रतिबंध के कारण इन्हें मांस मिलने में परेशानी होती है और इससे भी इनका मांस भक्षण बाधित हो रहा है। ऐसी स्थिति में अपने मांस भक्षण की आवश्यकता-पूर्ति वे शासकीय योजनान्तर्गत कर्ज ले कर पाली गई मुर्गियों से करते हैं। बकरा पालन में एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि जांजगीर के निकट नवागढ़ ब्लाक में स्थित सबरिया डेरा में इन्होंने एक अत्यंत व्यवहारिक समस्या की जानकारी दी कि उन्हें बैंक से 10 बकरियां के साथ एक जमुनापारी बकरे का जोड़ा कर्ज पर दिया जाता है। जमुनापारी बकरे और बकरियां छोटी-छोटी झांड़ियों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। विभिन्न योजनाओं के तहत मैदानों/भाठा से ऐसी छोटी झांड़िया गायब हो गई है। मैदानों में घास दुर्लभ है क्योंकि ये मैदान लाल मुरुम के हैं। अतः इस समस्या के समाधान के रूप में सबरिया बकरे-बकरी के चारे के लिए पेड़ की डालियां काटकर एक खाट को खड़ी कर छोटी झाड़ी की ऊंचाई पर लटकाकर रखना होता है तभी बकरे बकरियां चारा खाते है। इसके अभाव में कई बकरे-बकरियां असमय काल कवलित हो गये। बैंक का कर्ज पटाने में सबरिया सबसे अधिक मुस्तैद व ईमानदार हैं। शायद ही कोई सबरिया बैंक के दस्तावेजों में डिफाल्टर पाया गया है। इसके पीछे उनका यह दृढ़ विश्वास है कि यदि वे कर्ज लेते हैं और न चुकाने पर उन्हें कर्ज देने वाले के घर में कुत्ते, बैल या अन्य किसी पशु के रूप में जन्म ले कर कर्ज की भरपाई करनी पड़ेगी।

फिर भी सवाल है कि सबरिया वस्तुतः हैं कौन? पहचान की दिशा में बढ़ने के लिए उपादान एवं संकेत सीमित हैं, परन्तु इसी अभाव में इन्हीं सीमित पहचान चिन्हों को व्यापक व्यावहारिक और तार्किक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। बोली और सब्बल के अलावा दो ही ऐसे तथ्य पहचान खोज यात्रा के दौरान मिले जो इस दिशा में संकेत करते हैं। लगभग 35 साल पहले जांजगीर से केरा जाने वाले मार्ग पर नवागढ़ के पास स्थित सबरिया डेरा में निवास करने वाली 90-92 वर्ष की वृद्धा सबरिया ने बहुत खोदकर और विभिन्न प्रकार से पूछताछ करने पर इस प्रश्न के उत्तर में, कि वे हैं कौन, बताया कि अपनी जाति के बारे में बचपन में वृद्धों से सुनी कहानी का उसे एकमात्र शब्द याद है वह है कि वे ‘‘तल पैटु वाल्लवुम’’ हैं। इस तेलुगू शब्दका अर्थ है- तल अर्थात ‘सर‘, पैटुवाल्ल अर्थात ‘ढोने वाले‘ और वुम अर्थात ‘हैं‘।

दक्षिण के कुछ भाग में पाये जाने वाले विभिन्न श्रमिक जातियों में इस बात का विशेष महत्व है कि वे बोझ किस प्रकार उठाते हैं। सिर पर, पीठ पर, कन्धों पर अथवा कमर पर। बोझ उठाने का यह तरीका न सिर्फ उन्हें एक विशिष्ट उपजाति/जाति समूह के सदस्य के रूप में उनका स्थान व पहचान निर्धारित करता है वरन् जाति संस्तरण में दूसरे ढंग से बोझा उठाने वालों की तुलना में उनका उच्च अथवा निम्न स्थान निर्धारित करता है। वृद्धा की पुरानी पीढ़ी ने अपने जाति नाम पर विशेष जोर देने की बजाय उसे सिर्फ यह याद रखना महत्वपूर्ण समझा कि वे कार्य क्या करते हैं और कैसे अर्थात वे बोझा उठाते हैं और वह भी सिर पर। संभवतः इस उम्मीद के साथ कि कभी उन्हें अपने मूल स्थान पर जाना पड़े तब वहां के जातीय संस्तरण में उन्हें अपना निर्धारित स्थान और सम्मान प्राप्त हो सके। केवल यह बताने से कि वे तल-पैटु-वाल्लवुम हैं।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सबरियों के लिए लगभग सभी एक ही बात याद करते हैं कि वे पुराने समय से ही मिट्टी काटने संबंधी कार्य दक्षतापूर्वक करते रहे हैं, विशेषकर पुराने समय में जब बड़े तालाब,गांव के जमींदार अथवा ग्रामवासियों (गांवजल्ला) द्वारा खुदवाया जाता तब दूर-दूर से खोजकर सबरिया लोगों को बुलवाया जाता। दस-पंद्रह सबरिया परिवार तालाब खोदने के लिए निर्धारित स्थान पर आते, अस्थायी सबरिया डेरा बन जाता और वे दूसरे मजदूरों की तुलना में ज्यादा सफाई और तेजी से काम पूरा करते थे। तेजी से काम करने की वजह होती, सबरिया स्त्री और पुरूष दोनांे साथ काम करना तथा उनकी शारीरिक मजबूती और श्रम। सबरिया पुरुष, साबर से अत्यंत कुशलता और तेजी से मिट्टी काटते और सबरिया औरतें उसे सामान्य से अधिक भराव वाली विशिष्ट टोकरियों में लेकर शीघ्रता से दूर फेंक आती। टोकरी को विशिष्ट इसलिये कहा गया है क्योंकि सबरिया जाति द्वारा तालाब खोदने की जानकारी देते समय सभी ने सबरिया औरतों द्वारा सिर पर उठाये जाने वाले टोकरी का विशेष उल्लेख किया। सामान्य टोकरियां ‘‘झउहा’’ से आकार में यह लगभग 2) गुनी बड़ी होती है और जिसे सबरिया औरतें अत्यंत आसानी से सिर पर ढोती थीं।

इसके अलावा एक विशेष जानकारी और प्राप्त हुई कि छत्तीसगढ़ के गांवों में तालाब का विवाह कराने की प्रथा है जिसमें निश्चित पूजा संस्कारां के बाद तालाब के बीचों-बीच एक स्तंभ स्थापित कर दिया जाता है। मान्यता यह भी है कि तालाब के बीच स्तंभ स्थापित करने का कार्य सिर्फ सबरिया जाति के लोगों द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। उपरोक्त तथ्यों के सहारे पहचान करने के प्रयास में एक अद्भुत संयोग यह है कि ये सारे तथ्य दक्षिण की एक जाति ‘बेलदार’ के लक्षणों और विशिष्टता से पूरी तरह मेल खाते हैं। यह एक अतिरिक्त संयोग है कि जिस प्रकार सब्बल धारण करने के कारण स्थानीय भाषा में ऐसे लोगों को सबरिया कहा गया वहीं लोहे की ही एक छड़ (बेलंे) रखने और उसे अपने औजार के रूप में उपयोग करने के कारण दक्षिण में पाई जाने वाली जाति को बेलदार कहा गया। बेलदार भी मिट्टी खोदने एवं घर बनाने संबंधी कार्य करते हैं। प्राचीन काल में तालाब खोदने और मिट्टी से नमक शोधन का कार्य भी करते थे।

पुराने संदर्भों से पता चलता है कि सन् 1911 में लगभग 25000 बेलदार निमाड़, वर्धा, नागपुर, चांदा और रायपुर जिलों में बस गये। मूलतः बेलदार के अलावा नूनिया, भूरहा और सांसिया जाति को भी बेलदार माना जाता है। इस तरह यदि पत्थर एवं मिट्टी के काम करने वाले जातियों के सदस्यों की संख्या लगभग 35000 पहुंच जाती है तो संभव है कि बेलदार जाति मूलतः आर्यों से संबंधित हो, जैसे मूरहा- बिंद जनजाति से, मटकुड़ा (मिट्टी खोदने वाले) गोंड़ अथवा परधान से, (छत्तीसगढ़ी) सासिया और लरिहा अथवा उरिया मूलतः कोल भूइयां और उरांव से संबद्ध माने जाते हैं। कोल, मिट्टी खोदने और घर बनाने के काम में दक्ष माने जाते हैं। 

छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले बेलदारों को ओडिया, लरिहा, कुंचबंधिया, मटकुड़ा और कारीगर समूहों में बांटा जाता है। इसमें उरिया और लहरिया मूलतः उड़ीसा निवासी हैं जो बाद में छत्तीसगढ़ में बसे हैं। ओडिया निचले मद्रास प्रान्त में घर बनाने वाले कारीगर हैं, जो अपने बारे में यह बताते हैं कि जब एक बार इन्द्र ने राजा सगर का पवित्र घोड़ा चुरा कर पाताल लोक में रख लिया तो राजा सगर के हजार पुत्रों ने पृथ्वी में बड़े-बड़े गड्ढे खोदे और जब वे अंततः पाताल लोक पहुंचे तब वहां निवास कर रहे कपिल मुनि के क्रोध से जलकर भस्म हो गये। तदन्तर जब सगर के हजार पुत्रों ने अपनी प्रेतयोनि से छुटकारा चाहा तब कपिल मुनि ने यह कहा कि उनकी संतानें पृथ्वी पर हमेशा गड्ढा खोदती रहेंगी और इन गड्ढो का प्रयोग तालाब के रूप में होगा। उनके द्वारा खोदे गये ऐसे तालाबों का विवाह संस्कार संपन्न कराने पर सगर पुत्रों की आत्मा को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलेगी। इस कथा के आधार पर ओडिया अपने आप को राजा सगर के पुत्रों के वंशज मानते हैं और यह भी कहते हैं कि तालाब खोदने के पश्चात् यदि उसका विवाह संस्कार जब तक इनके द्वारा ही संपन्न नहीं करवाया जाता, तालाब अपवित्र रहता है।

ओड़िया जाति की एक देवी रींवा राज्य में है जिसके ध्वज को केवल ओडिया ही स्पर्श करते हैं। किसी अन्य जाति के लोंगों द्वारा उसे स्पर्श करने पर उस व्यक्ति को दैविक क्षति शारीरिक रूप में उठानी पड़ती है। किसी भी व्यक्ति के यह कहने पर कि वह बेल जाति का सदस्य है उसे वह ध्वज स्पर्श करने को कहा जाता है। ध्वज को स्पर्श करने पर उस पर कोई विपदा न पड़ने पर अन्य बेलदार उसे भाई के रूप मे स्वीकार करते हैं। इस साम्य के आधार पर माना जा सकता है कि सबरिया मूलतः ओडिया बेलदार ही हैं जिनका काम मिट्टी के बड़े-बड़े तालाब खोदना तथा उनका विवाह संस्कार पूर्ण कराना था? छत्तीसगढ़ के लोक कथा गायक देवारों द्वारा गाये जाने वाले दशमत ओड़निन की गाथा भी इससे जुड़ जाती है।

उपरोक्त तथ्यों के आधार प्रतीत होता है कि सबरिया मद्रास के निचले प्रांत के बेलदार हैं। लेकिन ये अपना मूल स्थान छोड़कर छत्तीसगढ़ किसी प्रयोजन से आये और फिर यही के होकर रह गये। मद्रास से छत्तीसगढ़ की यात्रा और तब से अब तक हुए सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन बीच की कड़ियां अधूरी हैं। इन कड़ियों और उस पहचान की रोशनी में शासन अनुसूचित जाति की सूची में इन्हें शामिल कर इन्हें अपना जीवन स्तर सुधारने में इस प्रकार सहयोग दे ताकि ये अपनी मौलिकता बनाये रखते हुए भी छत्तीसगढ़ के निवासी बने रह सकें। अगर अब भी ऐसा प्रयास नहीं हुआ तो इनकी धुंधलाती पहचान समय के साथ खो जावेगी। 

आशा है कि सबरियों की पहचान की दिशा में यह एक सार्थक प्रयास होगा। सबरिया लोगों को अपने मूल स्थान को खोजने, अपने आपको पहचान कर व्यवस्था में अपना स्थान निर्धारित कराने में संभव है आगे भी वर्षों इंतजार करना पड़े। शायद तब तक, जब किसी दिन इनके ही बीच एक ‘एलेक्स हेली’ पैदा हो जो अपनी जड़ों को ढूंढ निकाले।

(तस्वीरें दसेक साल पहले जांजगीर जिले के ग्राम जरवे के सबरिया डेरा की हैं। पावर प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहित हो जाने के कारण तब वे अपना डेरा छोड़ने की तैयारी में थे।) 

राजेश कुमार सिंह जी (26.04.1956-26.02.2018), मेरे सहोदर अग्रज थे। 

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प्रसंगवश, हरिभूमि समाचार पत्र, रायपुर में 11 अप्रैल 2007 को प्रकाशित समाचार। पत्रकार श्री प्रमोद ब्रह्मभट्ट ने आपसी चर्चा की इस जानकारी को समाचार पत्र के लिए उपयोगी मानते इस रूप में प्रकाशित किया था- 

छत्तीसगढ़ के क्षेत्र विशेष के खुले मैदान में घांसफूस का ‘कुंदरा‘ बनाकर रहने वाले आदिम जाति सबरियों का डेरा प्रकाश में आया है। टूंड्रा प्रदेश के एस्कीमों की तरह निवास करने वाले आदिम जाति के सबरिये बिलासपुर जिले के पामगढ़ तहसील में शिवनाथ महानदी संगम के तट पर ग्राम कमरीद के निकट निवास करते हैं। वर्तमान में इस आदिम जाति के तीन से चार डेरे ग्रामः कमरीद के भांठा में विद्यमान है।

उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार के अभिलेखों में इस बात का उल्लेख है कि पूर्व में खानाबदोश जाति के सबरिये ‘कुंदरा‘ में निवास करते थे। ये वर्तमान में मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं। परंतु संस्कृति विभाग के पुरातत्वीय सर्वेक्षण ने इस उल्लेख को गलत पाया। पुरातत्वीय सर्वेक्षण टीम के प्रमुख राहुल सिंह ने बताया कि पुरातत्वीय सर्वेक्षण में परंपरा, किंवदंतियां, सांस्कृतिक परिवेश तथा विरासत के अंशों को भी सर्वेक्षण में शामिल किया जाता है। इसी सर्वेक्षण के तहत यह तथ्य प्रकाश में आए हैं। श्री सिंह के अनुसार कुंदरा संभवतः कंदरा का अपभ्रश है। ये आदिम जाति सांस्कृतिक तौर पर छत्तीसगढ़ियों से अलग होने के कारण खुले मैदान में घांसफूस का इग्लू की तरह ‘कुंदरा‘ बनाकर निवास करते हैं। इनके कुंदरे में एक छोटा सा दरवाजा होता है तथा अंदर से कुंदरा सात से आठ इंच जमीन के अंदर खुदा होता है।

ये सबरिया जाति के लोग तेलगु भाषी हैं। इनके आराध्य सांप हैं परंतु ये सांप और चूहों का मांस चाव से खाना पसंद करते हैं। चूंकि सांप इनके देवता हैं इसलिए ये सांप को मारते नहीं लेकिन उसकी खाल निकालकर चमडा निकाल कर सांप को छोड़ देते हैं जब सांप मर जाता है तो उसे खा लेते हैं। सबरियों का प्रमुख औजार सब्बल होता है। कहा जाता है कि अब से एक हजार वर्ष पूर्व कल्चुरी शासनकाल में ये जाति आंध्र प्रदेश की पत्थर खदानों से काला ग्रेनाइट पत्थर से शिल्प बनाने के लिए छत्तीसगढ़ आए थे। मूलतः खदान श्रमिक ये सबरिया आदि जाति सब्बल और उसके उत्तोलक (लीवर) की तरह व्यवहार करने में निपुण होती है। इस जाति में कितना भी बडा पत्थर ही उसे एक आदमी के अलावा दूसरे आदमी की मदद से उठाना तौहीन माना जाता है। ‘कुंदरा‘ में निवास करने के पीछे इनकी शुद्ध वायु की अवधारणा है। यदि इनका कोई सदस्य बीमार पड़कर मर जाता है तो ये मानते हैं कि मौत के देवता ने घर पहचान लिया है इसलिए ये आदिम जाति उस कुंदरा को छोड़कर दूसरी जगह खुले मैदान में फिर कुंदरा बना लेते हैं।

चूंकि सबरिया जाति का कोई स्थायी निवास नहीं होता इसलिए इन खानाबदोशों की किसी सरकारी योजना में शामिल नहीं किया जा सकता है। इनको इनकी संस्कृति के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं है। शासकीय अभिलेखों में कभी इन्हें अनुसूचित जाति, कभी जनजाति में रखा जाता है। खरौद, रहौद और कमरीद में निवास करने वाले अन्य सबरियों में पंच, सरपंच तथा डॉक्टर, इंजीनियर भी बन चुके है परंतु उनके कुछ वंशज अभी ‘कुंदरा‘ संस्कृति में जी रहे हैं।

2 comments:

  1. आपने नाम दिया इसके लिए धन्यवाद अन्यथा यह तो बिना नाम के प्रकाशित हुई है ।एक बार पुनः आभार 🙏

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  2. शायद राजेश भैया के ब्लॉग पर भी पड़ा था, तभी इस जाति के विषय में विस्तृत रुप से जान पाया।

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