Sunday, January 23, 2022

जैन शिल्प-संपदा

भगवान महावीर की  2600 वीं जयन्ती महोत्सव के अवसर पर, जैन अध्ययन संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा सन 2001 में ‘छत्तीसगढ़ का जैन शिल्प‘ पुस्तिका प्रकाशित की गई थी, जिसका संपादन डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम ने किया था। श्री रमेश जैन सह-सम्पादक थे। पुस्तिका में डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम का ‘छत्तीसगढ़ में जैन धर्म एवं कला का सर्वेक्षण‘ महत्वपूर्ण लेख है। इस लेख में रायपुर, बिलासपुर संग्रहालय और परगनिहादेव (विमलनाथ) मंदिर, मल्हार की जैन प्रतिमाओं के साथ आरंग, सिरपुर, राजिम, (नगपुरा),मल्हार, रतनपुर, धनपुर, नेतनागर, पुजारीपाली, महेशपुर, अड़भार, कुरुसपाल, गढ़ बोदरा, बारसूर, कुम्ही, केशगवां से प्राप्त प्रस्तर प्रतिमाओं का उल्लेख है, जिनमें धनपुर की तीर्थंकर प्रतिमाएं शैलोत्खात हैं। इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त नवग्रहयुक्त ऋषभदेव तथा ऋषभदेव की ही एक अन्य धातु प्रतिमा के अलावा आरंग से प्राप्त पार्श्वनाथ तथा शीतलनाथ की दो, इस प्रकार कुल तीन स्फटिक प्रतिमाओं का उल्लेख है।
इस पुस्तिका में मेरा लेख  बिलासपुर संग्रहालय की जैन शिल्प-सम्पदा सम्मिलित है, आंशिक संशोधन सहित यहां प्रस्तुत-

दक्षिण कोसल के प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व की दृष्टि से बिलासपुर क्षेत्र अत्यधिक समृद्ध है। यहाँ के विशिष्ट कला केन्द्रों के रूप में मल्हार, ताला, रतनपुर, अड़भार, शिवरीनारायण आदि स्थलों को विशेष रूप से रखांकित किया जा सकता है। इस क्षेत्र में दक्षिण कोसल के प्राचीन से राजवंशों शरभपुरीय, सोम-पाण्डुवंशीय तथा कलचुरि के काल में निर्मित शैव, वैष्णव, बौद्ध एवं जैन धर्म से संबंधित शिल्प सम्पदा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। तत्कालीन राजवंशों की धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता के फलस्वरुप सभी धर्मों के देवालय, मठ और विहारों का निर्माण सम्पूर्ण दक्षिण कोसल क्षेत्र में दिखाई देता है।

बिलासपुर जिले में शरभपुरीय एवं पाण्डुवंशीय राजाओं के शासनकाल में मल्हार और कलचुरियों के शासन काल में रतनपुर विशेष महत्व के रहे हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेषों से निर्मित अनेक देवालयों में शैव, वैष्णव के साथ-साथ बौद्ध और जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी भित्तियों में जड़ी हुई हैं तथा कहीं-कहीं ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिष्ठापित भी हैं, जिनकी पूजा-आराधना सम्मिलित रूप से की जाती है। यह जनमानस की अज्ञानता, रुढ़िवादिता अथवा धर्म-भीरुता का उदाहरण नहीं है अपितु पाषाण में प्रतिष्ठित देवात्मा की आराधना तथा कला-अवशेषों का मूल्यांकन एवं अपनी संस्कृति के प्रति जागरुकता का समग्र रुप भी है।

बिलासपुर जिले में जैन धर्म की कलाकृतियों के प्रारंभिक उदाहरण मल्हार से प्राप्त हुए हैं। सोमवंश के शासकों के काल लगभग 7-8वीं सदी ईस्वी में मल्हार, धार्मिक केन्द्र के रुप में विकसित हो चुका था। इस काल की अधिकांश प्रतिमाएँ भूरा-बलुआ प्रस्तर से निर्मित हैं। कलचुरियों के काल में जैन धर्म की लोक-व्यापी स्वरुप देखने को मिलता है। 10-11वीं सदी ईस्वी में जैन कलाकृतियों के प्रचुर अवशेषों से यह भी आभासित होता है कि शैव एवं वैष्णव धर्म के आचार-विचार तथा प्रतिमा-शास्त्रीय मान्य सिद्धांत जैन स्थापत्य कला में भी अनेक अंशों में ग्राह्य हो चुके थे। प्रतिमा विज्ञान में यह तीर्थंकर आदिनाथ, अम्बिका, गोमुख यक्ष, मातृकाओं तथा नवग्रहों के विश्लेषणात्मक अध्ययन से विशेष रुप से स्पष्ट होता है।

जिला पुरातत्व संग्रहालय, बिलासपुर में बिलासपुर क्षेत्र की जैन प्रतिमाओं का अच्छा संग्रह है। इन प्रतिमाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
 
तीर्थंकर
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 64X42X20 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। प्रतिमा का अधिष्ठान भाग खण्डित होने के कारण तीर्थंकर का अभिज्ञान संभव नहीं है। तीर्थंकर को पद्मासन में ध्यान मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। उनके शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार मणि-मुक्ता जड़ित प्रभामण्डल है तथा ऊपरी भाग में त्रिशिखर छत्र अभिषेकरत गजयुक्त मालाधारी विद्याधर-युगल प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर के शीर्ष पर उष्णीशबद्ध बुदबुदाकार केश हैं। कंधों तक स्पर्श करते हुए. लंबे कान, वक्ष पर श्री-वत्स चिन्ह तथा गले पर आवर्त रेखाएँ दृष्टव्य हैं। उनकी मुख-मुद्रा अत्यन्त सौम्य है। मध्य भाग पर दोनों ओर चंवरधारी इन्द्र द्विभंग में प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर प्रतिमा की दोनो हथेलियां एवं अधिष्ठान पर, लांछन भग्न है।

तीर्थंकर आदिनाथ
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 50X48X18 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर आदिनाथ प्रतिमा का उर्ध्वभाग अत्यंत कलात्मक है। उनके शिरोभाग पर जटाजूट बद्ध केशराशि का अंकन है जिसकी लटें स्कंध पर्यन्त विस्तीर्ण हैं। शिरोभाग के पीछे अलंकृत प्रभामण्डल है, जिसके ऊपर त्रिशिखर छत्र, दुन्दुभिवादक, अभिषेकरत गज-युग्म तथा बाह्य पार्श्व में मालाधारी विद्याधारी-युगल दृष्टव्य हैं। आदिनाथ के समीप दोनों ओर स्थित चंवरधारी इन्द्र अवशिष्ट हैं। इस प्रतिमा का वक्ष भाग खंडित है तथा मध्यभाग अनुपलब्ध है।

तीर्थंकर आदिनाथ
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 75X51X24 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर आदिनाथ पद्मासन में ध्यानमग्न अवस्थित हैं। उनके मुख पर ध्यान के भाव हैं। शिरोभाग पर जटा भारयुक्त गुंफित केश हैं तथा स्कंध पर्यन्त विस्तीर्ण हैं। शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार अलंकृत प्रभामण्डल अवशिष्ट है तथा अन्य प्रतीक भग्न हैं। वक्ष पर श्रीवत्स लांछन है। उनके दायें ओर चंवरधारी इन्द्र स्थित हैं। सिंहासन के उत्कीर्ण पटल के मध्य प्रसन्न मुख बलिष्ठ नंदी दृष्टव्य है जिसके नीचे धर्मचक्र एवं उपासना करते प्रतिष्ठापक दम्पत्ति तथा अन्य आराधक अंकित हैं। सिंहासन के दोनों ओर सिंह बैठे हुये दृष्टव्य हैं।

तीर्थंकर मल्लिनाथ
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 97X26X19 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर मल्लिनाथ की स्थानक प्रतिमा ध्यानस्थ प्रदर्शित है। उनके शिरोभाग पर उण्णीषबद्ध बुदबुदाकार केश हैं। उनके कर्ण तथा भुजाएं अत्याधिक बड़े हैं जो क्रमशः कंधा तथा घुटनों तक विस्तृत हैं। वक्ष पर श्रीवत्स लांछन दृष्टव्य है। तीर्थंकर मल्लिनाथ के शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार, अलंकृत प्रभामण्डल है तथा शिखर छत्र, दुन्दुभिवादक अभिषेक करते गज-युग्म, मालाधारी विद्याधर आदि दृष्टव्य हैं। नीचे पैरों के समीप चंवरधारी इन्द्र एवं शासन यक्ष-यक्षिणी कुबेर और अपराजिता लघु रूप में दृष्टव्य हैं। अधिष्ठान भाग पर अंकित उत्कीर्ण पटल पर तीर्थंकर मल्लिनाथ का लांछन, ‘कलश‘ चिह्न का अंकन है। सिंहासन पर दोनों ओर सिंह प्रदर्शित हैं।

तीर्थंकर
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - ग्रेनाइट प्रस्तर, माप - 70X20X12 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। तीर्थंकर समभाग स्थानक मुद्रा में खड़े हैं। उनके मस्तक पर बुदबुदाकार उष्णीषबद्ध केश हैं। मुख पर ध्यान के भाव है तथा नेत्र अर्धनिमीलित हैं। उनके कान कंधों तक विस्तीर्ण हैं तथा भुजाएं घुटनों को स्पर्श कर रही हैं। वक्ष पर मध्य में श्रीवत्स लांछन हैं। तीर्थंकर के शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल है तथा दुन्दुभिवादक, त्रिशिखर छत्र, अभिषेकरत गज-युग्म एवं मालाधारी विद्याधर आदि पारंपरिक अलंकरण हैं। नीचे पैरों के समीप चंवरधारी इन्द्र अवशिष्ट हैं।

गोमेद-अंबिका
प्राप्ति स्थल - दारसागर, सामग्री - बलुआ पाषाण, माप - 85X58X18 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। आम्र वृक्ष के नीचे गोमेद तथा अंबिका अर्ध पर्यंकासन में बैठे हुए प्रदर्शित हैं। गोमेद का मुख तथा दाहिना हाथ भग्न है। उनके बायें हाथ में अस्पष्ट वस्तु है। अंबिका के शिरोभाग पर किरीट मुकुट है तथा चक्राकार कुंडल, मुक्ताहार, स्तनसूत्र, भुजबंध, कटिसूत्र एवं नुपूर पहने हुई हैं। उनके दायें हाथ में बीजपूरक है तथा बायां हाथ भग्न है। अधिष्ठान भाग पर मध्य में पद्मासन आराधक अनुचरों सहित दृष्टव्य हैं। इस प्रतिमा में शिशु रूपायित नहीं हैं।

बाहुबली
प्राप्ति स्थल - रतनपुर, सामग्री - भूरा बलुआ प्रस्तर, माप - 80X23X18 सेंटीमीटर, काल - 11 वीं सदी ईस्वी। बाहुबली की यह प्रतिमा रतनपुर के पुलिया में जड़ी हुई थी, जिसे वहाँ से निकाले जाने के पश्चात् संग्रहालय में लाया गया है। यह छत्तीसगढ़ में ज्ञात एकमात्र बाहुबली की प्रतिमा है। जैन पुराणों में बाहुबली के द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत कठिन तपश्चर्या की कथा है जिसमें उल्लेख है कि उनके निश्चल देह पर लता गुल्म विकसित-पल्लवित हो गये थे। बाहुबली की यह तपस्या जैन धर्म की एक अत्यंत प्रभावोत्पादक कथा है। संग्रहालय की इस प्रतिमा में उपरोक्त तपश्चर्या का शिल्पीय रुपांकन है। बाहुबली समपाद स्थानक मुद्रा में स्थित रहकर तप कर रहे में हैं। उनके मुख पर असीम ध्यान के भाव हैं। शिरोभाग के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल है। उनके जांघों के ऊपर लता गुल्म स्वाभाविक रुप से लिपटे हुए हैं तथा छिपकली सदृश्य एक जन्तु भी अंकित है। अंत में पैरों के समीप दोनों ओर चंवरधारी देव दृष्टव्य हैं। सिंहासन पीठिका पर मध्य में उत्कीर्ण पटल, धर्म चक्र तथा सिंह दृष्टव्य है।

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बिलासपुर जिले से ही नहीं अपितु संपूर्ण छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जैन धर्म के पर्याप्त अनुयायी थे तथा कुछ अंशों में इन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। इन प्राचीन प्रतिमाओं के अध्ययन से हमें तत्कालीन धार्मिक सद्भाव, कलात्मक प्रवृत्तियाँ, लोक-व्यवहार तथा शिल्पीय प्रवृत्तियों की जानकारी भी प्राप्त होती है। जैन प्रतिमा विज्ञान का अध्ययन तथा उपलब्ध कलाकृतियों के सूक्ष्म अवलोकन से शास्त्रीय वर्णन तथा शिल्पीय कर्म-कौशल के मध्य एक सुदृढ़ ज्ञान-विज्ञान की प्रचलित परम्परा का संवहन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

पुनश्च- उक्त लेख में जैन-परंपरा की तीन अन्य प्रतिमाओं का उल्लेख यहां जोड़ा जा रहा है, जो श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट, अकलतरा, जिला- जांजगीर-चांपा के नाम पर 24.09.86 को पंजीकृत तथा 31.01.08 को बिलासपुर संग्रहालय के लिए संकलित की गईं हैं। उक्त तीनों प्रतिमाएं रजिस्ट्रीकरण अधिकारी कार्यालय, बिलासपुर में पंजीकृत हैं। इनमें, पार्श्वनाथ (पंजीयन क्र. 561), 12 वीं सदी ईस्वी- काले ग्रेनाइट पत्थर की पद्मासन में बैठी प्रतिमा है। पंचफण नाग, पादपीठ पर सर्प लांछन है। ऋषभदेव (पंजीयन क्र. 562), 12 वीं सदी ईस्वी- लाल बलुआ पत्थर की पद्मासन में बैठी प्रतिमा है। शीर्ष पर प्रभामण्डल है। पादपीठ पर लांछन स्पष्ट नहीं है। संभवनाथ (पंजीयन क्र. 563), 11 वीं सदी ई.- काले ग्रेनाइट पत्थर की कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमा है। पादपीठ पर अश्व लांछन है।

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