Tuesday, June 23, 2020

पवन ऐसा डोलै


सन 2018 में छपी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ 1953 में जन्मे राकेश तिवारी का संस्मरण है, जिसमें हिसाब-किताब उनके बीस बरस की उम्र से आरंभ होता है। पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ते 2010 तक पहुंचता है। यों किस्सा, लेकिन तिथिवार है तो कह लें इतिहास, यानि किस्सानुमा इतिहास या इतिहासनुमा किस्सा। वे कहते हैं- ‘‘एक जिन्दगी में पैंतीस बरस कम नहीं होते।‘‘ फिर ‘‘डगर, कु-डगर, बे-डगर डोलने-भटकने ... क्या पाने चले, किस दिशा में, क्या पाये, कहाँ पहुँचेंगे, क्या चाहा, नियति कहाँ ले आयी, अब किधर ले जाएगी? हर्ष-राग-विषाद के एक गुम्फन से निकलते दूजे में उलझ जाते।‘‘ और आगे यह भी कि ‘‘मासूम उमर भटकते-सॅंभलते फिसल गई। रुपहली रातों में प्रणय और रोमांच के धागे बुनने, बिखरने, सरझने के किस्से साझा करने के दिन उड़ते गये।‘‘ उस हिन्दुस्तानी संस्कृति में सराबोर, मानते हैं कि जिसका हिसाब चित्रगुप्त महराज के पास भी नहीं मिलेगा।

पुरातत्ववेत्ता, पुरातत्वविद जैसे भारी पद-पहचानधारी का काम पुराविद से भी चल जाता है। पुराविद से करीबी देशज शब्द बैठेगा पुरानिक, और कुछ आत्मीय सांचे में ढले तो ‘पुरनिया‘ (पुस्तक में यह शब्द सयानी समझ वाले पुराने-बुजुर्गों के लिए आया है)। तो इस कहानी का लेखक-पात्र, ‘पुरनिया‘ एक स्तर पर अपने सहेजे पैंतीसेक बरस के तरतीबवार लेखे की कहानी कहता है। दूसरे स्तर पर बात क्रमशः सर्वेक्षण से आरंभ होती है, उसका विवरण तैयार किया जाता है, प्रस्ताव बनता है, खुदाई-विश्लेषण और फिर व्याख्या के साथ ज्ञात इतिहास में ‘नयी‘ बात जोड़ते हुए ‘इति‘। यहां एक और स्तर मानव सभ्यता के विकास का है, गुफावासी आदिमानव, खेती-बस्तियां और इन पैंतीस सालों में ही बदल गई दुनिया, मानों सभ्यता के हजारों साल का गुटका संस्करण, पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन में सिमट जाए। चुनांचे, इन तीनों स्तरों का ऐसा सधा और संतुलित गुम्फन कि कहीं उलझन नहीं होती। अध्याय और खंड का विभाजन सहज संयोजक बनकर प्रसंग-अंशों को आपस में जोड़ता चलता हैं। खुली निगाह से देखे, खुले मन से सुने को, पूरी तसल्ली से गुन पाता है वही इसे सहेजते, ऐसा दस्तावेज तैयार कर सकता है। यह पुस्तक बेयर ग्रिल्स के थ्रिल्स वाली, पुरनिया की आत्मकथा, सह यात्रा प्रतिवेदन, सह उत्खनन डायरी, सह उत्खनन प्रतिवेदन, और मौज की झूला-चकरी वाला आनंद भी। चित्रित शैलाश्रयों से बाहर आ कर, सभ्यता भी व्यतिक्रमित आगे बढ़ती है।

पुरातत्व वालों को पीठ पीछे और मौका देखकर सामने भी गड़े मुरदे उखाड़ने वाले, कबर खोदने वाले कहा जाता है और उन्हें भूत, जादू-टोना, रहस्य, गुफा, बीजक-खजाना, उत्खनन और कार्बन डेटिंग वाला जाना-माना जाता है। यह पुरनिया लेखक स्वयं को भू-सुंघवा कहता है। यों देखें तो सर्वेयर-एक्सप्लोरर, पुरातत्व के हों, भूगोल, भू-विज्ञान के या नक्शा बनाने वाले सर्वे के भू-सुंघवा ही होते हैं, सूंघते हैं, नाप-जोख कर, गंध पा कर ताड़ लेते हैं और ताड़े हुए तिल को फिर ताड़ बनाने में जुट जाते हैं। लेखक यहां घोड़ा, लोहा, मेगालिथ और आर्य, इन चार ‘आर्य प्रश्नों‘ के इर्दगिर्द घूमता है। साथ चलती है लोरिक चंदा, नल दमयंती, भरथरी और आल्हा उदल गाथाएं, आधुनिक गाथा चंद्रकांता का तो इलाका यह है ही। लोरिकायन मॉरिसस में भी मिल जाती है। फिर गाथाएं जतन से पिरो दी गई हैं, लोकगीत से बेगम अख्तर, कबीर और भिखारी ठाकुर से ग्रियर्सन तक। दंतकथा, लोककथा, पुराण कथाओं के साथ प्राचीन शिलालेख भी।

पूर्वाचार्यों राहुल सांकृत्यायन (वोल्गा से गंगा) और डा. भगवतशरण उपाध्याय (सवेरा-संघर्ष-गर्जन और पुरातत्व का रोमांस) को स्मरण-नमन करते हुए, पुराविदों के आत्मकथात्मक गद्य में ब्रजमोहन व्यास का ‘मेरा कच्चा चिठ्ठा‘, केके मोहम्मद का ‘मैं एक भारतीय‘ का अपना महत्व है। इसी तरह शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता‘ भी उल्लेखनीय है, लेकिन यह ‘पवन ...‘, निराली बयार है। यह उन पुस्तकों में से है, जिसे पढ़ कर, कुछ कहे बिना मन मचलता रहे, लगे कि कोई सुख चोरी-चोरी पा लिया है, जिसे न बांट पाए तो पाप के भागी। बांट कर पुण्य चाहे न मिले, बांटनवार रंगेगा ही। पुस्तक के बहुतेरे अंश ऐसे हैं, जिन्हें उद्धृत कर ही उसका रस संभव है, बानगी लेते चलें-

वनवासी 
पात्र है गुदरी, उसका हुलिया- ''लम्बी दाढ़ी, झुके बदन, गहरे काले वर्ण और मझोले कद-काठी वाले गुदरी की आवाज में शहद और आग्रह में गहराई, कोठरी छोटी लेकिन दिल बहुतै बड़ा। फटाफट बिछौना बिछाते, तो उनके बाँहों की मछलियाँ फिसलते दिखतीं।'' गुदरी खिस्सा सुनाता है- ''एक ठे कोल इहाँ बाघे से लड़ल रहल।'' और कोल के साहस का बखान इस छोटे से वाक्य में हो जाता है- ''जउने धरती-पानी-बतास पै बघवा पला रहा, ओही पर कोलवौ।'' नामकरण के साथ तथ्य और इतिहास आता है कि- ''एक समय एक बलवान अहीर यहीं टाँगी से एक ठे बाघ मरलस, एही से एके कहल गइल ‘अहिर मरवा‘। ओकरे बाद एक ठे बाघ कइयौ अहिरन के भख लेहलस तो ‘बघ मरवा‘ नाम चला।'' साथ ही परंपरा मजेदार ढंग से बताई गई है- ''कोलिन हारी, तो कोल के साथ गयी, कोल हारा तो कोलिन के गाँव चला।''

वनवासी सभ्यता के प्रति लेखक के भाव देखिए- ‘‘कैसा उल्टा खेल चल रहा है, एक असंतुष्ट, असभ्य व्यवस्था परम संतुष्ट वनवासियों को सभ्य बनाने चली है।‘‘ उनकी जीवन-शैली की खासियत रेखांकित हुआ है- ‘‘बनवासी टपते रह गये। रहे होंगे कभी जंगल-पहाड़ के बेताज बादशाह, उन पर उनका नाम तो लिखा नहीं था। उन्हें तो पता ही कब रहा कि जमीन किसी के नाम लिखी जाती है। जान भी जाते तो क्या करते, खेती-किसानी से ज्यादा वे जंगल-पहाड़ में मस्त विचरने में ही आनंद पाते।‘‘ मगर इसके साथ एक पात्र कह जाता है- ‘‘सामंती और बरतानवी दौर ने इन स्वतंत्र वनवासियों को पैंट-कमीज वालों के सामने जो ये झुकना सिखाया, वह आज के भारत में ज्यादा दिन चलै वाला नहीं।‘‘

लोक-वार्ता
भाषा-अभिव्यक्ति में लोकवार्ता और उसमें लेखक समाए-समोए हैं। जल कुंड की गहराई का नाप है- ‘‘सात माचा की डोरी, ओ सात बरातिन पगहा, ओ थाह नाहीं बा।‘‘ वहीं बनारसी बलम मिर्जापुर क्या गए, कचौड़ी गली सूनी कर गए, लेकिन शिकायत यह कि मिर्जापुर गुलजार किए हैं- ''कचौड़ी गली सून कइला, हो बलमू ऽऽऽ ओ ऽऽ, मिरजापुर गुलजार कइला ऽऽ, हो बलमू ऽऽऽ'' और प्रयोग कि ''बुलेट मोटर साइकिल’ से बढ़कर ‘रॉयल इन फील्ड‘ भला दूसरी कोई सवारी क्या होगी।'' वहीं ‘चउवन गली और बावन बज़ार‘ जैसे शीर्षक में ग्राम नाम व्युत्पत्ति का रोचक हवाला है।

सर्वे के दौरान प्राप्त सूचनाओं का आकर्षण और उनकी टोह लेने की चाहत की अभिव्यक्ति, 'दिल बहक गया' और टटोल आने' की बात, कुछ इस तरह- ''कउवा खोह से लौटानी में ‘गोछरा जंगल‘ में अटक गये कोटारों और नील-गायों को भागते देखकर। वहीं एक गयार के बताने पर दिल बहक गया दक्खिनी कगार की ‘कनछ तर‘ की बड़की मान तक टटोल आने को।'' मच्छरों की खून चूसने की क्रिया को काटना कहना लेखक को नहीं भाया है, वह लिखता है- ‘‘रात भर मच्छरों ने जी भर कर चोभा।‘‘ इसी तरह सजग-सूक्ष्म अवलोकन को समृद्ध भाषा के इस्तेमाल से पेश करने की बानगी- ‘‘पगुराते फेंचकुर फेंकते गाय-गोरू- ऊँट‘‘ और वहीं अगली पंक्तियों में ‘‘पगुराते ऊँटों के हिलते थूथन से झरते झाग।‘‘ और फिर से अनुप्रास सहित ‘‘हारे हुए हैरान कुत्तों की लाल-लाल लार चुआती जीभें बित्ता भर लटक गईं।‘‘ पुस्तक में सहयोगी-मित्रों और विशेषज्ञ-विद्वानों के नाम हैं, लेकिन जहां नाम आवश्यक नहीं, वहां किस अंदाज से बात कही गई है, देखिए- ‘‘किसका नाम लें और किसका छोड़ें- लाल, पाल, वर्मा, गोपाल, देव, जोशी, सिंह, मिश्रा, सिद्दीकी, श्रीवास्तव, बाजपेयी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, मिश्रा, पंत नामांतधारी एक से एक श्रीमंत।‘‘ और नाम से बचते-बचाते- ''तारणहार बनकर अवतरित हुए हमारे नये कैबिनेट मन्त्री जी।'' फिर मंत्री जी के प्रवास को जीवंत किया है, इस तरह- ‘‘और हवा में समायी वी.वी.आई.पी. विजिट की सरसराहट।‘‘

शब्द-सृष्टि
कुछ शब्दों पर चर्चा करते चलें- चारों ओर के लिए शब्द चलता है इर्द-गिर्द या कम प्रचलित है गिर्दागिर्द, लेकिन लेखक ने सहज-सार्थक शब्द गढ़ा है- 'चौगिर्द'। एक शब्द आया है डमरू बाघ, लेखक ने इसका अर्थ ‘बच्चों वाली बाघिन‘ बताया है, किन्तु छत्तीसगढ़ में डमरू या डमरुआ ‘बाघ के बच्चे‘ के लिए प्रयुक्त होता है। यहां एक पुरातात्विक स्थल का नाम डमरू है और यह मात्र संयोग नहीं होगा कि इस गांव के एक तालाब का नाम बघबुड़ा है। एक अभिव्यक्ति है- ‘अपनी कल्पना की ढीली लटाई‘, पतंग के साथ धागा लपेटने की चकरी के लिए के लिए शब्द चलता है, चरखी, घिरनी या परेता। पुस्तक में आया शब्द ‘लटाई‘ इसी का पर्यायवाची है, यहां प्रयोग भी कम मजेदार नहीं कि लटाई से कल्पना का धागा ढील दिया गया है। एक अंश है- ‘‘कुल बीझन अजवैं ना सरझ जाई। फीर, कल्हियाँ बदे का बची? ‘‘ अब इसे मिला कर देखें कृष्ण बलदेव वैद की कुकी और उसके एक प्रसंग से- ‘‘कभी कभी कुकी ऐसा आभास देती दिखाई देती है कि वे मेरी सारी साहित्यिक, मानसिक, सांसारिक आध्यात्मिक गुत्थियों को सुलझा सकती है लेकिन सुलझाती नहीं क्योंकि सोचती है अगर उसने यह कठिन काम कर दिया तो मैं क्या करूँगा।‘‘ अब पता नहीं कि इन दोनों लेखकों ने एक-दूसरे के इन अंशों को देखा या नहीं, मेरे देखने में आया, तो साथ रख दिया है।

एक बारीकी कि ‘‘फूल की थाली में पलाश के पत्ते पर खटाई‘‘। फूल यानि, फूल कांस, कांसे की थाली, जिसका प्रयोग भोजन के लिए प्रतिष्ठित है। (इसी तरह एक अन्य फूल, 'फूल पीतर' यानि पीतल, मुख्यतः अवध अंचल में प्रचलित है।) मिश्र-धातु कांसा, मिश्रण अनुपात के फर्क से ‘मस्केल‘ और ‘नेर‘ भी होता है, जो अन्य बर्तन या घंटी आदि बनाने के काम आता है। फूल कांस में सफेदी और चमक अधिक होती है। कांसे की थाली या बर्तन में दही-मही (मठा) की खटाई तो परोसी जाती है, लेकिन आम, इमली या नीबू की खटाई, कसाने-कसैली पड़ने लगती है, इसलिए फूल की थाली पर सीधे चटनी परोसने के बजाय पलाश का पत्ता इस्तेमाल होता है। इसी तरह 'विजयशाल' कहा गया है, बड़े ढोल जैसे वाद्य को। यह एक नया शब्द मिला। इसे समझने के लिए तुक्का लगाया कि यह बीजासार या बीजाशाल का सुधरा रूप हो। बीजा (छत्तीसगढ़ी एक उच्चारण बिजरा भी) मुख्यतः शाल वनों के बीच ही होता है, शायद इसलिए उसका नाम जोड़ा बना कर ‘बीजा-शाल‘ आता है। आगे, ढोल समूह के वाद्य, यानि ऐसे तालवाद्य, जिन्हें लकड़ी को खोखला कर बनाया जाता है, उनमें कटहल, आम, खम्हार-सिवना (कुरुसमरा), कदम्ब, भिर्रा, गोइंजा (गूंजा?) काठ भी प्रयुक्त होता है। कुछ लोगों की पसंद सिरीस है, किन्तु सबसे उपयुक्त लकड़ी यही यानि बीजा मानी जाती है। धान के भीतर डेढ़-दो महीना डाल देने पर उसकी गरमी से लकड़ी पक जाती है, फिर खोखला करते हुए इसमें दरार नहीं आता। इससे बने ढोल, तबला आदि की ध्वनि मधुर ठनकदार होती है। उसकी आवाज, रात के साथ गहराती, और-और ‘तान‘ होती जाती है।

पुस्तक में आए शब्द और उनकी इस तरह प्रवाहमयी, उन्मुक्त भाषा-अभिव्यक्ति तभी संभव हो सकती है, जब उसमें मन रचा-बसा हो, लिखने वाले को पाठकों की परवाह तो हो, लेकिन दबाव न हो। वही ऐसा ‘स्वान्तःसुखाय‘ रच पाता है जो हमखयाल ‘बहुजन रुचाय‘ हो सकता है। कला-साहित्य का कोई भी रूप हो, उसका अपना और सच्चा सुख तो सृजन-रियाज में ही निहित होता है, प्रदर्शन-आश्रित रचनाकार की संतुष्टि दूसरों, यानि श्रोता-दर्शक-पाठक (और आयोजक-प्रकाशक-वितरक) के पास गिरवी हो जाती है। यह पुस्तक, आत्मनिष्ठ साधक, खुद-मुख्तार रचना-सुखी, ‘सच्चे साहित्यकार‘ की कृति है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के शब्दों में- ‘‘सच्चे साहित्यकारों के लिए जो बात सबसे अधिक मुख्य है वह है उनका अंतःसुख। उसी अंतःसुख के कारण वे साहित्य के क्षेत्र में यश और अपयश की चिंता न कर लिखते ही जाते हैं।’‘ संक्षेप में, अभिव्यक्ति के गरिष्ठ-बेमेल छौंक के छद्म को सहज उजागर करने वाली, निरस्त कर सकने वाली सुपाच्य ‘कोदो-कुटकी‘ भाषाभिव्यक्ति परोसी गई है इस लेखन में।

पुरनिया निगाह
ऐसी बातें, पुरनिया जिनसे लगातार दो-चार होते रहते हैं, लेखक अपने पेशे पर टिप्पणियों का स्वयं आनंद लेता है- ''हाँ तो गीबड़ों सुनो! क्या कहते हो तुम सब, उहै- क्या कहते हैं तोहरे सब आर्कोलॉजिस्ट बनने चला है। इहै ककरा-पथरा, नरिया-खपरा बीनने चला है। ई कुल कै के जिनगी में कुच्छौ नहीं कर सकत्या। भला माई-बाबू तोके एही बदे पढ़ै भेजले रहलैं। सब झूठ है, फ्राड है। वेस्टर्न कंट्रीज के देखा-देखी इंडोलोजी पढ़ाता है। का करब्या जन ई कुल पढ़-लिखि कै। बहुत बन जाब्या तो मास्टर। औ, मास्टरै बन के का कै लेब्या, मास्टर होए दो जून खाए, लड़िकन के ननियौरे छोड़े जाय।‘‘ पात्र श्रीवास्तव जी से कहलाया गया है- ‘‘भारत में आर्किओलॉजी आयी है अंग्रेजों के साथ, इसलिए उन्होंने यह टर्मिनोलॉजी अंग्रेजी में ईजाद की, जिसे सारी दुनिया में समझा जाता है। वैसे पुरातत्व वाला यही सब ‘जॉरगन‘ बोल कर तो एक्सपर्ट कहलाता है ना, जो अगर सोझै भाषा में बोलब्या तो तोके के भाव देई बबुआ!‘‘ फिर ‘‘पुरान-धुरान गुनने की मेरी चाकरी‘‘ मानते हुए लेखक बताता है कि- ‘‘एम.ए. करके नौकरी की तलाश पूरी होने तक हमारे साथ खाक फाँकने का तजुर्बा हासिल करने के इरादे से आए थे।‘‘ या शोधार्थी के लिए- ‘‘एक अरसे से जवानी खपा रहे‘‘ लेकिन इसके साथ- ‘‘पोथी पढ़ै से जितना नहीं सीखा जाय सकत है ऊ से कहूँ ज्यादा ज्ञान मिलत है घूमै-सुनै ते।‘‘ और फिर ‘‘एक ने मन की बात खुलकर बतायी- ‘गुरु जी। दरजा में बैठ के पढे में कउनौ मजा नहिनी। न कुच्छो देखाय, ना समझै में अमाय। खेते, बने-पहाड़े में घूम-घूम के अइसने पढ़ावल जाय, जैसे आप लोग पढ़ावत हवै, तब ना आयी समझ में।‘‘

सर्वेक्षण में अवलोकन खुली निगाह से होता रहे तो इतिहास का क्रम अपने-आप उजागर होते चलता है, जैसे आदिम शैलाश्रय-गुफाओं की चित्रकला को देखते-देखते लेखक मानों स्वयं उस दौर में पहुंच जाता है- ‘‘नृत्य मूलतः अंतर्मन के आनंद से उद्भूत हुआ। श्यामल मेघों का घिराव देख मयूरो का थिरकना, हरियाले वन-प्रांतर में उल्लसित मृग-छौनों की किल्लोलें, मृगया से छके सिंह-शावकों की मस्त कलाबाजियाँ, विशिष्ट अवसरों पर चिड़ियों की चहकन-फुदकन की तरह किन्हीं अवसरों पर अंदर से उपजे उमंग के ज्वार ने आदिम मानव के अंग-अंग में चपलता भरकर उन्हें बाँहें और पैर फैलाकर, गरदन, कमर और सिर लचका कर नाचने के लिए उद्यत किया होगा। आखेट खेलने चले, तो सफल मृगया की कामना से नाचे, कबीले भर की भूख मिटाने लायक बडा पशु गिरा लिया, तो सफलता की उमंग में नाचे, अलाव पर अहेर भुनने लगा, तो सुस्वाद माँस की लालसा में नाचे। पवन, वर्षा, वन, नदी, गाछ, सूरज और चाँद जो भी पारलौकिक लगता या जिससे हित सधता या जिससे भय खाते, उन सबकी उपासना में नाचते। कमर, कंधे और बाँह में बाँह डाल कर नाचते।‘‘

पुरातत्व
बातों-बातों में प्राचीन स्थापत्य का सहज विवरण आता है- ‘‘नीचे पड़े द्वार-स्तंभ पर अंकित यू जो ऊपर से नीचे तक लपटे नाग बने आंय ना, एहिका कहत हैं नाग-शाखा, इसके अगल-बगल ऊपर से नीचे तक फूलों से सज्जित पुष्प या फुल्ल शाखा, आदमी-औरत के जोड़े वाली मिथुन-शाखा, किंकिणिका-शाखा और पत्तों से ढॅंके घड़े वाली घट-पल्लव शाखा। शाखाओं के नीचे एक बगल मकर पर सवार गंगा जी और दुसरे बगल कछुआ पर सवार जमुना जी, उनके बगल शिव जी के द्वारपाल गण।‘‘ और फिर मंदिर स्थापत्य की चर्चा- ‘‘याकु भिट्टी वाली छ्वाट क्यार जगती-पीठ पर बने एहि मंदिर केरी तलछंद योजना मां चतुरस्र (चौकोर) द्विअंग गर्भगृह और याकु छ्वाट कपिली अथवा अंतराल क्यार प्राविधान आय। औ ऊर्द्धवच्छंद योजना मां सबसे नीचे आय खुर, कुंभ, कलश और कपोत मोल्डिंग वाला बेदीबंध। ओहिके ऊपर बीचो-बीच रथिका से सज्जित तनुक उभरा भवा जंघा भाग। रथिका क्यार स्तंभ सजे आंय घट-पल्लव, कीर्तिमुख, किंकड़िका-घंटी, औ, खल्व औ पत्र-शाखा नामक अभिप्राय सेने। बगल मां नीचे द्याखी, नान्हे-नान्हे शिवलिंग। नीचे-ऊपर जालक-पैटर्न से सजा पट्ट औ ओहिके ऊपर तुला-दंड। फिर, अंतरपत्र के ऊपर शिखर, मानो एक के ऊपर एक शहतीर जस खमसे मोल्ड, एहिका कहा जात है पीढ़ा शिखर, ढाकी साहब नया नाम दिहिन है- फाँसना शिखर।‘‘ और अवसर पा कर जुड़ता है- ‘‘चारों कोनों से अंदर की ओर मुड़ते शिखर वाले (रेखा शिखर) क्रमशः ऊपर की ओर छोटे होते हुए पीढ़ों वाले शिखर (फाँसणा शिखर) और हाथी की पीठ की तरह गोल गजपृष्ठ शिखर वाले (वलभी शिखर)।‘‘

मूर्तियों की चर्चा करते हुए प्रतिमाशास्त्रीय लक्षणों का उल्लेख आता है और ‘‘भाँति-भाँति के केश-विन्यास अलकावलि, भ्रमरक, हनी काम्ब, चूड़ा-पाश, लम्बकेश, वलिभृतवलयक, त्रिशिख आदि आदि।‘‘ विभिन्न आकार-प्रकार विशिष्टता वाले मृदभांड-पॉटरीज- ‘‘एन.बी.पी., ब्लैक-एंड-रेड वेयर, ब्लैक-स्लिप्ड वेयर, पेंटेड ब्लैक-स्लिप्ड‘‘ और मनके-गुरिया- ‘‘एगेट, कारनेलियन, क्वार्ट्ज, चालसीडोनी, क्रिस्टल, जैसपर वगैरह। फिर, हर ढेरी में एक-एक किस्म की गुरियों को सजाया- लॉन्ग बैरेल (लम्बे बेलनाकार), सर्कुलर (गोल), व्हील-शेप्ड (पहिये के आकार के), बाई-कोन (दोनों सिरों पर कोणाकार), तिकोन, हेक्सागोनल (षड्कोणीय), चैकोर, पोलिश्ड, अन-पॉलिश्ड, फिनिश्ड-अनफिनिश्ड (पूर्ण-अपूर्ण), ट्यूब्यूलर (नलीदार), काली-सफेद-भूरी-लाल लहरिया वाले, लाल, सफेद, नीले, भूरे, बहुरंगी। देखते-परखते आँखें जुड़ा जातीं।‘‘

पुरातत्व जैसे क्षेत्र में नई खोज के तकनीकी पक्ष, खबरों के ख्याल से, सामान्य पाठक के लिए किसी रुचि के नहीं माने जाते। सामान्यतः मीडिया ऐसे समाचारों में चौंकाने वाली कोई बात- चमत्कार, दुर्लभ, प्राचीनतम, पहली बार जैसे विशेषण के लिए व्यग्र होता है। ऐसे एक मामले की चर्चा यहां भी है- ‘‘ईस्वी सन और ईसा पूर्व की गफलत से बचाने के लिए हमने अपने प्रेस नोट में 1200 ईसा पूर्व जगह आज से 3200 बरस के आस-पास का लोहा मिलने का जिक्र किया, लेकिन कुछ एक सुधी संपादकों ने उसे संशोधित करके 3200 ईसा पूर्व कर दिया। कहाँ तो हम 1200 ईसा पूर्व बताने में ही झिझक रहे थे और कहाँ 3200 ईसा पूर्व? ऐसे में चरिहूँ लंग से हंगामा बरपने को कौन बरज पाता।‘‘

बदलता जमाना
इतिहास में विचरते को परिवर्तन जिस तरह दिखता है, उसके नमूने- ‘‘उस जमाने तक के आदमी आज यहाँ, कल वहाँ डेरा डालते, फंदा गोफना तीर-कमान से चिरई-अहेर मारते, फल-फूल बटोरते, भूँजते-खाते, नदी-नाला, खोह-कंदरा में घूमते परम स्वतंत्र रहे। इन्हें ‘हंटर-गैदरर स्टेज‘ की सभ्यता के आखिरी पायदान पर चल रहे परम निर्द्वंद्व होमोसेपियन (आधुनिक मानव) माना जाता है। फिर अनाज उपजाने और जानवर पालने की जानकारी पाने के बाद सालो-साल बीज बोने, उगाने, फसल रखाने-काटने-दंवाने, सिरज-संभाल कर रखने, गाय-गोरू चराने और गोठ बना कर रखने के गोरखधंधे में ऐसा उलझे कि अपनी सारी आजादी गँवा कर एक जगह खूंटा गाड़ कर गाँव बसा कर रहने लगे। इस तरह उनकी महीन तकनीकी कारीगरी और ज्ञान की बढ़ोतरी ने जहाँ उन्हें आगे बढ़ाया, वहीं उनके पैरों में बेड़ियाँ भी डाल दीं।‘‘ यह बता कर पात्र अभय के माध्यम से मजेदार निष्कर्ष निकालते हैं- ‘‘मतलब आदमी ने पौधों और पशुओं को पालतू बनाया और उसी प्रक्रिया में स्वयं भी पशुओं और पौधों का पालतू बन गया।‘‘ परिवर्तन को आंकने के लिए हाय तौबा के बजाय सपाटबयानी है कि- ‘‘पवन ऐसी डोलती रेलगाड़ी ने मुनरी, चुटकी, चुनरी, कड़ा और कपड़ा सब दाँव पर लगवा दिया।‘‘ और एक नमूना- ‘‘मसीही स्कूल, अस्पताल, गिरजाघरों का फैलाव- ‘मसीहं शरणं गच्छामि‘ के मंत्रोच्चार के साथ।‘‘

विनम्र दायित्व
लेखक अपनी विनम्रता के साथ, दायित्व और उसकी गरिमा में संतुलन बनाए रखता है, इस तरह ‘‘लोग-बाग बड़का मेटलर्जिस्ट मान कर भासन झारने का बुलउवा भेजने लगे। किसको-किसको बताते- हम चन्द्रगुप्त मौर्य वाला इतिहास-पुराण, पुरवा-पाथर पढ़ने वाले बहल्ला विद्यार्थी रहे, मेटलरजी से हमारा सूँघने भर का भी वास्ता नहीं रहा। लेकिन लाज बचाने के लिए मॅंगनी वाले परिधान पहिर-ओढ़ कर, साथियों की मदद से तैयार प्रेजेंटेशन दिखाने निकल पड़े।‘‘ लेखक अपनी पद-गरिमा के प्रति सजग है- ‘‘तब कितनी फजीहत होगी, अपनी तो खैर बिसात ही क्या, ओहदे की ज्यादा होगी।‘‘ (इस पुस्तक के लेखक श्री राकेश तिवारी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक यानि सर्वोच्च पद पर आसीन रहे हैं।) लेखक की जिम्मेदार संतुलित वैज्ञानिक दृष्टि प्रकट होती है- ‘‘किसी नई प्रविधि के ईजाद होने का इंतजार करना पड़ेगा, तब तक के लिए नपे-तुले तुक्के पर तुक्के ही चलेंगे।‘ और ''यह बताना भी कितना जरूरी है कि रिसर्च और न्याय के मसलों में सिक्के के दोनों पहलू ठीक से देख लिए जाएं।'' संरक्षण-विरूपण पर तटस्थ टिप्पणी का असर महसूस कर सकते हैं- ‘‘एक दृश्यांकन में... दूसरी ओर एक मगरमच्छ को घेर कर मारने का दृश्य। चित्रों के ऊपर कोलतार से लिखे चिरुई गाँव के रहने वाले ‘रामधनी‘ का नाम।‘‘ और मानों निचोड़ आता है- ‘‘इस मामले में एक बात ध्यान से सुनने और गॅंठिया लेने वाली भी है कि दर्शन-दिग्दर्शन की भावना के साथ यह सब किया जाय। अपनी धरती माँ, पुण्य पावन वन-प्रपात और सांस्कृतिक पहलुओं को बाजार का बिकाऊ माल समझ कर कतई नहीं। उनकी साफ-सफाई, रख-रखाव और अपनी जीविका-अर्जन में समुचित सन्तुलन बना रहना चाहिए वरना सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी के सारे अण्डे एक ही बार में पा लेने का नतीजा तो सब केहू जनतै होब्या!‘‘ पुस्तक पर अंत की ओर आगे बढ़ते, साथ छूटने की धड़कन होने लगती है, तब आखिरी वाक्य आता है- ‘‘जिन्दगी रही तो फिर मिलेंगे।‘‘ इससे राहत होती है कि फिर मिलने, ऐसा कुछ और पढ़ने का रास्ता खुला हुआ है।

प्रसंगवश-पुस्तक पढ़ते हुए मन में हिन्दी भाषा-साहित्य और उसकी रवानी, बार-बार आती रही। पुस्तक के खंडों के शीर्षक ऐसे हैं, जिसे पढ़ते ही मुझ से देसी-गंवार का मन ललचा जाए। वैसे हिंदी के साथ कभी गॅंवारी बोली का विशेषण इतिहास-दर्ज है ही। यहां है, पूर्वी हिन्दी, अवधी, बैसवारी, भोजपुरी और उस पर बनारसी ठाट के साथ दृष्टि, अभिव्यक्ति और भाषा का संतुलित-समन्वय। पीछे मुड़कर परंपरा टोह लें तो इंशा अल्लाह खाँ और लखनवी सरशार जैसी यही ठाट-मौज भारतेन्दु और गुलेरी में दिखती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है- ''उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी लेखकों में एक विचित्र प्रकार की जिंदादिली थी'', (वे स्वयं अपने लेखन, खासकर निबंधों में सहज परिहास की आत्मीयता से लालित्य-पुट का अवसर बनाते रहे।) ‘हिन्दी का लोकवृत्त‘ पुस्तक के अनुवादक नीलाभ ने लिखा है- 1920-40 के बीच के काल में ... पत्रिकाएं भी भाषा और साहित्य को दिशा देने में जुटी हुई थीं। वैसी जीवन्तता फिर आगे के दशकों में देखने को नहीं आयी। बाद में हिन्दी साहित्य पर शुद्धता आग्रही अनुशासन-दंड के बहाने आंचलिक भाषा के विशिष्ट और तद्भव शब्दों से परहेज बरतते, छायावादी घनीभूत छाया का असर कि, परिनिष्ठ किताबी भाषा-शैली चल पड़ी और यही लिखने-पढ़ने की आदत बन गई। पिछले दिनों आई डॉ ओम निश्चल की आकर्षक शीर्षक वाली पुस्तक ‘भाषा की खादी‘, जिसमें सोंधी हिंदी-हिंदुस्तानी के बेधड़क देशज रूप को अब फिर सार्थक रेखांकित किया गया है।

भवानी प्रसाद मिश्र ने कवियों के लिए कहा है कि ‘‘लगभग सभी, कुछ बँधे-बँधाये ढंग से कुछ बँधी-बँधाई बातें कहते रहते थे। उन दिनों, उसे ‘छायावाद‘ कहा जाता था।‘‘ यह कमोबेश उस दौर के गद्य की भाषा-अभिव्यक्ति पर भी लागू होती है, जिसमें देसी ढब समानान्तर बना तो रहा, मगर हाशिये पर, बस हाजिर बतौर। रेणु और बिज्जी जैसे कुछेक इससे अलग दिखते रहे। ढर्रे वाली साहित्य-दृष्टि में भाषा, पाठ्यक्रम वाली और वृहत्तर लोक की अभिव्यक्ति दूरबीन से देखते, चलती गाड़ी की खिड़की से झांकते, ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है‘ वाली हो गई। केदारनाथ सिंह के शब्दों में ‘यह एक आधुनिक का/ आदिम प्रवास था/ अपने ही घर में‘ की हालत हो गई। इस व्यथा को रेखांकित करने और उबरने जैसे प्रयास का उदाहरण विद्यानिवास मिश्र का ‘हिन्दी की शब्द-सम्पदा‘ है।

प्रसंगानुकूल, परीक्षण-प्रमाण है कि लगभग 20 साल बेहद लोकप्रिय रही ‘आधुनिक भावबोध, कला संचेतना और नवीनता का प्रतिनिधि मासिक‘ कही जाने वाली ‘ज्ञानोदय‘ जैसी पत्रिका का सन 1970 में अवसान हुआ, तब उसके संपादक लक्ष्मीचन्द्र जैन ने महसूस किया था कि ‘भारतीय जीवन एक नये दशक में, एक नये युग में, प्रवेश कर रहा है। इसके बाद का समय ‘नवनीत‘ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ जैसी पत्रिकाओं और उनके समर्थ संपादकों नारायण दत्त और मनोहर श्याम जोशी का रहा, जो न केवल युगानुकूल सामग्री चयन के लिए सजग और प्रयासरत रहते थे, भाषा और अभिव्यक्ति के स्तर पर साहित्य को समृद्ध कर सकने वाली जानी-अनजानी लेखनी के प्रति भी उत्सुक रहते थे।

इसी क्रम में ‘धर्मयुग‘ वाले धर्मवीर भारती यहां सीधे प्रासंगिक हैं। रचना से अन्यथा किसी परिचय, संपर्क के बिना 'गांव-गंवई के लेखक', विवेकी राय छपते रहे, और उन्होंने यथाअवसर स्पष्ट किया कि ''भारती जी व्यक्ति नहीं, रचना को देखते हैं और 'धर्मयुग' नए-नए लेखकों को प्रकाश में लाने का बेजोड़ ऐतिहासिक कार्य कर रहा है।'' इसी तरह 40 साल पहले, जब इन राकेश तिवारी का लेख, अपनी तरह के मौजी-किस्सागो अमृतलाल नागर के माध्यम से भारती जी के पास पहुंचा, ‘खोहों में खोया अतीत‘ शीर्षक से ‘धर्मयुग‘ में छपा और उन्होंने नागर जी से जानना चाहा- ‘यह लड़का है कौन? उससे और लेख लिखाने हैं।‘

और एक बात, भाषा-परंपरा ग्रंथ रामचरितमानस की। तुलसीदास कृत रामचरितमानस, मूल रामकथा वाल्मीकि रामायण की भाषा-टीका है किन्तु आमजन में रामायण का पर्याय यही है। धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित इस ग्रंथ का पाठ-पारायण अध्यात्म लक्षित होता है, लेकिन याद किया जाता है, उद्धृत होता है- प्रकृति, प्रवृत्ति, जीवन-मूल्य और सुभाषित के लिए। रामकथा, राम-रावण की युद्ध कथा है, लेकिन रामचरितमानस, तुलसी के शास्त्र और लोक-मन की मैत्री का भी दस्तावेज है, जिसमें भाव विष्णु, भाषा के उस गरुड़ पर गतिमान हैं, (कुबेरनाथ राय को आत्मसात करते हुए) ‘रथन्तर‘ और ‘वृहत्‘ यानि मार्गी और देशी, जिसके डैने हैं।

मानस-आस्था है कि पारायण के साथ राम शब्द उचार लेने से ही सारा काम बन जाता है, पाप धुल जाते हैं, मुक्ति मिल जाती है, ‘हरि नाम‘, ‘कलिजुग केवल हरि गुन गाहा‘ और ‘एक अधार राम गुन गाना‘ को मिलाते, सरल बनाते हुए ‘कलियुग केवल नाम अधारा‘ चल निकला। फिर भी मानस पाठ-पारायण, सुमिरन के साथ कहीं बसा रह जाता है, चिंतन-मनन में आ जाता है, खासकर तब, जब मिलता-जुलता शब्द-प्रसंग आ जाए। मानस की भाषा में तत्सम-तद्भव का और दृष्टि में लोक-शास्त्र का जैसा सहज समन्वय है, उसके चलते यह भाषा-साहित्य की पाठ्य पुस्तक की तरह चाहे न पढ़ा गया हो, प्रभाव वैसा ही छोड़ता है। विद्वानों ने कहा है कि तुलसी की भारतव्यापी सफलता का रहस्य उनकी भाषा में है। उनकी भाषा में जो ‘तद्भवता‘ है वह अपने पीछे ‘तत्सम‘ भाषिक संस्कृति का बल ले कर खड़ी है। सो, अपने भाषा संस्कारों और स्मृतियों को सहेज रखने की परवाह हो तो मानस पढ़ते रहना चाहिए। ‘इसलिए‘ रामचरितमानस के अभ्यास को लाभकारी मानते, हिंदी-प्रेमियों के लिए मनमौजी स्वच्छंद भाषाई प्रयोग वाली पुस्तकों के क्रम में यह ‘पवन ...‘ स्मृति डोलती रहेगी।

मुझ जैसे थोड़ा पढ़ने-लिखने वाले, अलेखकों के लिए लिखना वैसा ही मेहनत का काम है जैसे कसरत, जो करने की सोचें तो आलस हो, मन न करे, लेकिन करें तो आनंद भी आए। ऐसा आनंद इस पुस्तक के लिए महीने भर बना रहा। अक्सर 'साहित्य', सिद्धहस्तों के लिखे को ही माना जाता है, बोनाफाइड साहित्य-प्रेमी उसे पढ़ते हैं, आह-वाह करने के हकदार वही होते हैं। समीक्षक, उसकी समीक्षा करते हैं। वैसे तो यह टिप्पणी, समीक्षा के खाने में ही जाएगी, लेकिन है शुद्ध पाठकीय आनंद की अभिव्यक्ति के लिए। साहित्य-समाज में भी एक जनजातीय समुदाय है, मुख्य धारा उनके प्रति तटस्थ है और वे भी मुख्य धारा के प्रति उदासीन। यह पुस्तक ऐसे व्यक्ति की रचना है जो साहित्यकार होने के दबाव से मुक्त, बेपरवाह इसलिए उदासीन (न लिखने की व्य‍ग्रता, न छपाने की जल्दी) है, तो 'समीक्षा' की मर्यादा से मुक्त रहते, बस पाठक हो कर इसे लिख लेने के साथ, स्वयं को इस पुस्तक का सबसे उपयुक्त पाठक होने का दावा भी पेश है, इस नीयत से कि काश! मुझे कोई गलत साबित कर दे।

कैफियत, पहली कि पुस्तक के इतने उद्धरण यहां आ गए हैं, कोई चाहे तो बिना पुस्तक पढ़े, इसके बारे में साधिकार सविस्तार बता सकता है। दूसरी, जो पुस्तक न पढ़ पाएंगे, एकदम वंचित न रह जाएं, कम से कम इतना तो पढ़ रखें। तीसरी, जो न पढ़ पाएं हों, पूरी पुस्तक पढ़ने को मचल जाएं और चौथी, जिन्होंने पुस्तक पढ़ी है, उसका आनंद लिया है, उन्हें कुछ अलग, अतिरिक्त भी रस मिले।

इस पुस्तक का नाम पता चला तब एक शीर्षक याद आया था ‘मनपवन की नौका‘। कुबेरनाथ राय की ‘निषाद बांसुरी‘ इसके पहले आ चुकी थी। ‘मन पवन की नौका‘ पर सवार उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के दिक्-काल यात्रा की। इस ‘पवन ...‘ का लेखक, डगमग डोंगी में सशरीर, स्वहस्त चप्पू लेकर सफर कर चुका है। चंचल मन को यह भी याद आता है कि कभी ‘खैरा पीपर कबहुं न डोले‘, सुना तो सोचता था कि पीपर कैसे डोलेगा भैयाजी, अरे! डोलेगा तो पत्ता न डोलेगा, छत्तीसगढ़ी गीत के बोल हैं ‘पीपर पाना डोलत नइए, का हो गे टुरी ल बोलत नइए‘, लड़की का मन इतना कठुआ गया है। राम वनगमन प्रसंग में दशरथ का मन भी पीपर पात सरिस डोला था। पीपल के पत्ते का आकार और डंठल ऐसा होता है कि जब हवा न चल रही हो, अन्य सभी पेड़ के पत्ते थिर हों, तब भी डोलते-मचलते रहते हैं। इसीलिए पीपल को ‘चल-वृक्ष‘, ‘चल-दल‘ अथवा ‘चल-पत्र‘ कहा गया है। शास्त्र-वचनों की व्याख्या में मानव मन को कामना-कर्मरूपी वायु से प्रेरित, पीपल के पत्ते की तरह नित्य चंचल स्वभाव वाला भी कहा गया है। मेरे चलायमान मन को विराम देने के लिए सोचता हूं, कभी लेखक रूबरू हुए तो पूछूंगा कि महराज! पवन तो डोलाता है, खुद थोड़े डोलता है, आपने पवन को ‘ऐसा‘ कैसे डोला दिया।

9 comments:

  1. इतनी सुंदर समीक्षा पढ़ कर आनंद आ गया। आप निÏश्चत रहें कि आप "पाप के भागी" नहीं बने हैं। कारण, "बाँट कर पुण्य चाहे न मिले, बाँटनवार" रंग गया है। सच में इसे पढ़ कर कुछ कहे बिना आपका मन मचलता रहता और लगता कि कोई सुख चोरी-चोरी पा लिया है, जिसे न बाँट पाए तो पाप के भागी।
    और हाँ, स्वयं को इस पुस्तक का सबसे उपयुक्त पाठक होने का जो दावा आपने पेश किया है, उसे गलत साबित करने की हिम्मत किसमें है भाई?

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  2. राहुल जी ! 'समीक्षा' के बाद 'कैफियत' पढ़ कर पता चला - अभी भी आप के अति संवेदनशील 'तन-मन' विंध्य की वादियों में ही डोल' रहे हैं। आपके सवाल पर इतना ही कहना है 'पीपर पात आपके चलायमान मन जैसा होता है, ऐसा कि "कि जब हवा न चल रही हो, अन्य सभी पेड़ के पत्ते थिर हों, तब भी डोलते-मचलते रहते हैं।" और अगर हवा हड़होर चले तब डोलने लगता है महराज !

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