छत्तीसगढ़ी की पहली प्रकाशित काव्य रचना- ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘, पंडित सुंदरलाल शर्मा (1881-1940) की कृति है। समाज सुधारक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडितजी राजिम के निकट स्थित ग्राम चमसूर/चन्द्रसूर निवासी थे, उन्होंने राजिम में कवि समाज और पुस्तकालय की स्थापना की थी।
पं. सुंदरलाल शर्मा की कृतियों की अधिकृत जानकारी के लिए सन 1916 में प्रकाशित उनकी पुस्तिका ‘श्रीध्रुव-चरित्र-आख्यान‘ का संदर्भ महत्वपूर्ण है। इस पुस्तिका के अंत में ‘‘राजिमनिवासी-पं. सुन्दरलालजी शर्मा त्रिपाठी रचित‘‘ कुल 8 पुस्तकों की सूची दी गई है, जिनका नाम इस प्रकार आया है- 1-श्रीराजीवक्षेत्रमाहात्म्य 2-श्रीप्रह्लादचरित्र नाटक 3-श्रीध्रुव-चरित्र 4-श्रीकरुणा-पचीसी, 5-श्रीविक्टोरिया-वियोग 6-श्रीरघुराज-गुण कीर्तन 7-प्रलाप-पदावली 8-श्रीछत्तीस-गढ़ी दानलीला। इसके पश्चात् उल्लेख है कि ‘‘ग्रन्थकर्ता की अन्यान्य उत्तम पुस्तकों के लिये ठहरिये। शीघ्र प्रकाशित होंगी।‘‘
बाद के अध्येताओं द्वारा सामान्यतः पं. सुंदरलाल शर्मा की 9 प्रकाशित कृतियों का उल्लेख मिलता है। इस संदर्भ में ध्यान योग्य, उक्त सूची की आठ पुस्तकों में, ‘श्रीराजीवक्षेत्रमाहात्म्य‘ की गणना यहां और अन्य स्थानों पर भी पं. सुंदरलाल शर्मा की रचनाओं में है, किंतु उक्त पुस्तक ‘श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य‘ पर कविवर पं. शिवराज का नाम रचयिता के रूप में है, जबकि ‘‘श्री सुन्दर लाल शर्मा त्रिपाठी मंत्री श्री राजीव क्षेत्र, कवि समाज‘‘ और ‘‘ठाकुर श्री सूर्योदय सिंह वर्मा‘‘ नाम सम्पादक के रूप में है। इन आठ पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य प्रकाशित पुस्तकों की सूची में सन 1903 में रचित ‘‘श्री भूषण कवि विश्वनाथ पाठक का जीवन चरित्र‘‘ पुस्तक का नाम नवीं प्रकाशित पुस्तक के रूप में शामिल किया जाता है। ऊपर आठ पुस्तकों की सूची सन 1916 में प्रकाशित पुस्तिका से है, जिसमें अन्यान्य पुस्तकों के शीघ्र प्रकाशित होने का लेख है, इसलिए श्री भूषण कवि ... पुस्तक का प्रकाशन सन 1916 के बाद की संभावना बनेगी, किंतु इसकी मुद्रित प्रति की जानकारी न मिल पाने से, प्रकाशित होने की पुष्टि का आधार अब पूर्व अध्येताओं द्वारा किया गया उल्लेख मात्र रह जाता है।
सन 2000 में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से प्रकाशित पुस्तिका में हरि ठाकुर ने 22 ग्रन्थों की रचना का नामोल्लेख किया है, जिसमें से 16 का रचना काल, संवत् 1951 (1955 होना चाहिए?) से संवत् 1969 तक दिया है (आगे बताया गया है कि उनका सम्पूर्ण लेखन काल सन् 1898 से 1912 तक था। इन पन्द्रह वर्षों में ...) और अन्य 6 की ‘रचना तिथि अज्ञात‘ बताया है। इस सूची में सरल क्रमांक 17 से 22 तक की कृतियों- 17. श्रीकृष्ण जन्म आख्यान, 18. काव्यामृत वर्षिणी, 19. स्फुट पद्य संग्रह, 20. प्रलाप पदावली (भजन संग्रह), 21. सतनामी भजन माला, 22. सद्गुरु वाणी, की रचना तिथि अज्ञात‘ उल्लेख है। यह जानकारी भी दी गई है कि उपर्युंक्त 22 में से (1) श्री राजीव क्षेत्र माहात्म्य (2) श्री प्रहलाद चरित्र नाठक (3) श्री धु्रव चरित्र आख्यान (4) करुणा पचीसी (5) विक्टोरिया वियोग (6) श्री रघुराज गुण कीर्तन (7) प्रताप पदावली (भजन संग्रह) (8) छत्तीसगढ़ी दानलीला (9) सतनामी भजन माला, प्रकाशित कृतियां हैं। शेष अप्रकाशित हैं। तथा उन्होंने चार नाटक, दो उपन्यास, एक जीवनी, छत्तीसगढ़ी में तीन प्रबंध काव्य, दो संगीत आख्यान लिखे।
ध्यातव्य है कि यहां 9 वीं प्रकाशित कृति का नाम अन्य अध्येताओं की सूची का ‘श्री भूषण कवि विश्वनाथ पाठक का जीवन चरित्र‘ नहीं, बल्कि ‘सतनामी भजन माला‘ (इसकी रचना तिथि अज्ञात, बताया गया है) आया है। पं. सुंदरलाल शर्मा की कृतियों, रचनाओं को विभिन्न उल्लेखों में ग्रंथ कहे जाने के कारण, स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि पुस्तिका के रूप में उनकी प्रकाशित कृतियों में ध्रुव-चरित्र, करुणा-पचीसी, विक्टोरिया-वियोग और श्रीरघुराज-गुण कीर्तन, यद्यपि साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, किंतु आकार की दृष्टि से मात्र दो-ढाई सौ पंक्तियों की रचनाएं हैं। पं. सुंदरलाल शर्मा की रचनाओं के लिए यहां संक्षेप में इतना ही कि अलग-अलग स्रोतों को देखने पर जानकारी गड्ड-मड्ड होती है और तथ्य निकालना आसान नहीं है।
इनमें से छत्तीसगढ़ी दानलीला सन 1905 या इसके पूर्व लिखी गई, किन्तु इस संबंध में अन्य अपुष्ट हवाले भी मिलते हैं, जिनका उल्लेख यहां किया जा रहा है।
विचारणीय है कि इस काव्य के रचना-वर्ष के जितने संदर्भ मिले, उनमें पूर्व प्रकाशित अन्य जानकारियों का खंडन अथवा उन पर टिप्पणी नहीं की गई है। पंडित सुंदरलाल शर्मा पर शोध-प्रबंध, निबंध में भी इसके परीक्षण का प्रयास नहीं दिखा। अतएव इसके रचना-वर्ष तथा रचना का आधार/प्रेरणा पर कुछ विचार, उपलब्ध सामग्री अर्थात् छत्तीसगढ़ी दानलीला के सन 1915 में प्रकाशित द्वितीय और सन 1924 में प्रकाशित तृतीय संस्करण तथा बाद के प्रकाशनों के आधार पर किया गया है। सन 1906 में प्रकाशित छत्तीसगढ़ी दानलीला का प्रथम संस्करण अप्राप्त है और यथासंभव प्रयासों के बावजूद अब तक की स्थिति, निराशाजनक और अपनी धरोहर के प्रति सजगता पर बड़ा सवाल है। प्रथम संस्करण के प्रकाशन की जानकारी द्वितीय संस्करण से मिलती है। परीक्षण हेतु देखे गए अन्य शोध, प्रकाशन, पुस्तिका संस्करणों की जानकारी यथास्थान है।
पहले-पहल एक महत्वपूर्ण और रोचक उल्लेख 1925 में प्रकाशित ‘रायपुर-रश्मि‘ में छत्तीसगढ़ी बोली शीर्षक के अंतर्गत मिलता है- ‘इस भाषा में कविता करने का लग्गाराजिम के पंडित सुंदरलाल ने बीसक वर्ष पूर्व से लगाया था।‘ छत्तीसगढ़ के सामान्य संदर्भ की लोकप्रिय दो पुस्तकों में पहली सन 1973 में प्रकाशित प्यारेलाल गुप्त की ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ तथा सन 1996 में दो भाग में प्रकाशित मदन लाल गुप्ता की ‘छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन‘ है। दानलीला संबंधी जानकारी के संदर्भ में अप्रत्याशित कि प्राचीन छत्तीसगढ़ में प्राचीन छत्तीसगढ़ी साहित्य का अध्याय तो है, जिसमें एक हजार वर्ष की साहित्यिक परम्परा को तीन भाग में बांटा गया है, जिसके तीसरे कालखंड, आधुनिक युग में आज तक, उल्लिखित है, किन्तु आगे इस के बजाय स्फुट रचनाएं शीर्षक के अंतर्गत गोपाल, माखन, रेवाराम और प्रह्लाद दुबे आदि का नाम है किन्तु पंडित सुंदरलाल शर्मा, पं. लोचन प्रसाद पांडेय आदि नामोल्लेख नदारद है। छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन के द्वितीय भाग, पृष्ठ 194 पर उल्लेख है- ‘‘ठेठ छत्तीसगढ़ी में काव्य का सृजन करने वालों में पंडित सुन्दर लाल शर्मा का स्थान अद्वितीय है। सुन्दर लाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दान लीला की उपलब्ध प्रति में प्रकाशन वर्ष 1912 मुद्रित है और लोचन प्रसाद पान्डेय की छत्तीसगढ़ी कविता सन् 1909 की उपलब्ध है। ... ... किन्तु सुन्दरलाल शर्मा ने ही सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ी को ग्राम्य भाषा के पद से उठाकर साहित्यिक भाषा के पद पर अधिष्ठित किया‘‘ तथा पुनः ‘‘छत्तीसगढ़ी के प्रथम महाकवि सुन्दरलाल शर्मा ...‘‘। जबकि पं. मुकुटधर पाण्डेय ने अपने लेख 'छत्तीसगढ़ी भाषा' में स्पष्ट उल्लेख किया है कि- 'छत्तीसगढ़ी में आधुनिक साहित्य-सृजन का सूत्रपात राजिम के श्री पं. सुन्दर लाल शर्मा ने किया। उन्होंने सन् १९०६ में 'दानलीला' लिखी थी।'
सन 1981 में ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला: एक समीक्षा‘‘पुस्तिका डॉ. चित्तरंजन कर के संपादन में हिंदी साहित्य परिषद्, शासकीय राजीवलोचन महाविद्यालय, राजिम से प्रकाशित हुई। संपादकीय में कहा गया है कि- ‘‘कोई कृति किस समय, किस स्थान पर, किस व्यक्ति के द्वारा प्रणीत हुई है, यह गौण है।‘‘ निसंदेह किसी कृति के साहित्यिक मूल्य का विवेचन करते हुए ऐसी जानकारी गौण हो सकती है, किंतु ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ का महत्व, उसके रचना काल के कारण ऐतिहासिक भी है, अतः इस संदर्भ में कृति का समय, गौण बताना उचित नहीं। संभव है कि संपादक ‘समय‘ के लिए आश्वस्त नहीं थे, इसलिए उन्होंने ऐसा विचार व्यक्त किया हो।
पुस्तिका के लेखों में पृष्ठ 3 पर भुवनलाल मिश्र ने इस अपूर्व काव्य की रचना सन 1912 में हुई बताया है और पृष्ठ 5 पर प्रकाशन वर्ष 1913 बताया है। पृष्ठ 6 पर पुरुषोत्तम अनासक्त ने बताया है कि- ‘‘प्रथम संस्करण 1913 में निकला 1915 में दूसरा और तृतीय संस्करण 1924 में।‘‘ इसके बाद संस्करण का उल्लेख किए बिना बताया है कि ‘‘उस समय दानलीला की कीमत चार आने थी‘‘ तथा ‘‘दानलीला को पं. अंबिका प्रसाद बाजपेयी द्वारा 159 बी, मछुआ बाजार स्ट्रीट, दी इंडियन नेशनल प्रेस- ‘‘स्वतंत्र‘‘ में मुद्रित किया गया है। इसमें मात्र चौबीस पृष्ठ हैं।‘‘ वस्तुतः यह 1924 वाले तीसरे संस्करण के अंतिम पृष्ठ पर ‘विज्ञापन‘ के नीचे प्रिंट लाइन में छपा है। सन 1924 ई. वाले इस ‘त्रितीय बार‘ प्रकाशित पुस्तक का मूल्य चार आना तथा प्रकाशक श्रीचन्द्रशेखर विद्याभूषण शर्म्मा जिमिन्दार छपा है। 1915 में द्वितीय बार प्रकाशित पुस्तक में भी मूल्य चार आना है। इसके प्रकाशक श्रीनीलमणि शर्म्मा जमिन्दार तथा नं. 201 हरिसन रोड, के ‘नरसिंह प्रेस‘ में बाबू रामप्रताप भार्गव द्वारा मुद्रित‘‘ छपा है। डॉ. चित्तरंजन कर ने अपने लेख में, संपादकीय में व्यक्त विचार के अनुसरण में इसकी रचना तिथि की चर्चा नहीं की है, किन्तु पुस्तिका में शामिल रवि श्रीवास्तव के लेख में पुनः उल्लेख है कि- ‘‘दानलीला‘‘ का प्रथम संस्करण 1913 में प्रकाशित होकर जनमानस के बीच आ चुका था।
छत्तीसगढ़ी दानलीला शीर्षक से सन 2000 में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से प्रकाशित, हरि ठाकुर द्वारा संपादित पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर छपा है- ‘‘पं. सुन्दरलाल शर्मा द्वारा सन् 1903 में रचित छत्तीसगढ़ी प्रबंध काव्य‘‘। इसके पृष्ठ 6 पर डॉ. सुधीर शर्मा ने लिखा है कि- ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला जब 1912 में प्रकाशित हुई तब ...‘‘। इसी पुस्तिका में हरि ठाकुर ने लिखा है कि ‘‘इस प्रबंध काव्य की रचना उन्होंने 1903 में की थी किन्तु प्रकाशित बहुत बाद में हुई।‘‘ क्या यह लिखते हुए उन्हें जानकारी न थी कि इसका प्रथम संस्करण 1906 में प्रकाशित हो गया था या मात्र तीन साल बाद प्रकाशित होने को उन्होंने ‘बहुत बाद में‘ माना है। आगे लिखा है कि इसकी कथा श्रीमद्भागवत् के दशम स्कंध पर आधारित है जबकि इस पर अन्य अध्येताओं की राय भिन्न है।
इस क्रम में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के दो अन्य प्रकाशन- सन 2004 में डॉ. चित्त रंजन कर, प्रभारी अध्यक्ष, पं. सुंदरलाल शर्मा शोधपीठ के संपादन में ‘छत्तीसगढ़ के गाॅंधी पं. सुंदरलाल शर्मा‘ तथा सन 2009 में डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र के परामर्श से पद्मश्री डॉ. महादेव प्रसाद पाण्डेय, डॉ. आभा रूपेन्द्र पाल, डॉ. सुपर्ण सेन गुप्ता, डॉ. व्यास नारायण दुबे तथा डॉ. जवाहर तिवारी के संपादन मंडल में प्रकाशित हुई। सन 2009 के प्रकाशन में छत्तीसगढ़ी दानलीला संबंधी जानकारियां लगभग वही हैं, जो अन्यत्र आई हैं। 2004 में प्रकाशित पुस्तक में विभिन्न विद्वान-अध्येताओं के लेख हैं, इनमें से लेखकों के नाम और उनके लेख के प्रसंगानुकूल अंश इस प्रकार हैं-
डॉ. परदेशीराम वर्मा- ‘‘1905 में वे दानलीला लिख चुके थे।‘‘
डॉ. सविता मिश्रा- सन 1906 में ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ का सार्वजनिक प्रकाशन कर ...‘‘
डॉ. बलदेव- ‘‘पं. भुवनलाल मिश्र के अनुसार इसका रचनाकाल सन् 1905 और हरि ठाकुर के अनुसार 1903 है ... इसका पहली बार प्रकाशन सन 1912 में हुआ था।‘‘
डॉ. जीवन यदु- ‘‘कुछ विद्वान पं. सुन्दरलाल शर्मा को छत्तीसगढ़ी कविता का ‘आदि कवि‘ मानते हैं। पं. सुन्दरलाल शर्मा ने सन 1913 में छत्तीसगढ़ी का प्रथम खंड-काव्य ‘दानलीला‘ का प्रकाशन कराया था। ... शर्मा जी ने उक्त खण्डकाव्य की रचना सन् 1912 में कर ली थी ... पं. सुन्दरलाल शर्मा ने सन् 1916 में ‘सतनामी भजन माला‘ और ‘छत्तीसगढ़ी मनोरंजन‘ का सृजन किया था। पं. सुन्दरलाल शर्मा ने सन् 19168(?) में ‘सतनामी भजन माला‘ और ‘छत्तीसगढ़ी रामायण‘ की रचना की।‘‘
रमाकांत श्रीवास्तव- ‘‘दानलीला का प्रकाशन 1923 में हुआ।‘‘
डॉ. चित्तरंजन कर- ‘‘पं. सुंदरलाल शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ के प्रथम संस्करण (1960 ईं.) में।‘‘
डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र- ‘‘पं. शर्मा द्वारा रचित कृतियों में छत्तीसगढ़ी दानलीला (1913)‘‘।
डॉ. रामकुमार बेहार- ‘‘सन् 1906 (उम्र 26 वर्ष) में छत्तीसगढ़ी में उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ की रचना की।‘‘
मुकुंद कौशल- ‘‘सन् 1905 में लिखित इस अद्भुत कृति का मुद्रण कलकत्ता में बाबू रामप्रताप भार्गव के नरसिंह प्रेस में सन् 1906 में किया गया।‘‘
डॉ. गोरेलाल चंदेल- नारी-चेतना का यह बेमिसाल संदेश पं. सुंदरलाल शर्मा 20 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में छत्तीसगढ़ के लोगों को ‘दानलीला‘ के माध्यम से देते हुए दिखाई देते हैं।
डॉ. सत्यभामा आडिल- ‘‘छत्तीसगढ़ी दान लीला (सन् 1908), नरसिंह प्रेस कलकत्ता.‘‘
ललित मिश्रा के संपादन में 2007 में प्रकाशित ‘‘युग-प्रवर्तकः पं. सुन्दरलाल शर्मा‘‘ के द्वितीय संस्करण में पृष्ठ 42 पर छत्तीसगढ़ी दानलीला नामक खंडकाव्य का सृजन सन 1904 में। इसी पुस्तक में पृष्ठ 112 पर इस खण्ड-काव्य को सन 1916 में शर्मा जी ने लगभग 34 वर्ष की आयु में (जन्म सन 1881) लिखा। पुनः छत्तीसगढ़ी दानलीला की प्रकाशन तिथि, पृष्ठ 113 पर 10.3.1906 तथा पृष्ठ 114 पर इसकी रचना सन 1905 में बताया है। साथ ही पृष्ठ 40 तथा पृष्ठ 179 पर प्रकाशित ग्रन्थ ‘‘हृदय तरंग‘‘ का नाम दिया है, जो उनकी इस पुस्तक में अन्यत्र दी गई सूचियों में अथवा अन्य अध्येताओं की सूची में नहीं है।
सन 2009 में प्रकाशित ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘‘ (संपादन- ललित मिश्रा और डॉ. सविता मिश्रा) के मुखपृष्ठ पर रचनाकाल - 1904 छपा है। इस पुस्तक के पृष्ठ 22 पर उल्लेख के अनुसार इस अपूर्व काव्य की रचना सन् 1904 में, मुद्रण 1906 में और उसका द्वितीय एवं तृतीय संस्करण क्रमशः सन् 1915 एवं सन् 1924 में प्रकाशित हुआ था।
सन 2017 में डॉ. चितरंजन कर की पुस्तक पं. सुंदरलाल शर्मा विरचित छत्तीसगढ़ी दानलीला (हिंदी अनुरचना) के पृष्ठ 11 पर ‘‘सन् 1903 में रचित ‘छत्तीसगढ़ी-दानलीला‘ छत्तीसगढ़ी की प्रथम प्रबंधात्मक रचना (खंडकाव्य) है‘‘ कहा गया है। इसी पृष्ठ का उद्धरण है कि ‘‘श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध से कृष्ण की दानलीला का सूत्र लेकर उन्होंने ... ... ‘छत्तीसगढ़ी-दानलीला‘ की रचना की।‘‘ जबकि दानलीला का कोई स्पष्ट सूत्र श्रीमद्भागवत में नहीं मिलता।
सन 2006 में वैभव प्रकाशन वाली ‘छत्तीसगढ़ी-दानलीला‘ के पृष्ठ 31 में डॉ. बलदेव के ‘छत्तीसगढ़ काव्य का मंगलाचरण‘ लेख में स्पष्ट किया गया है कि- ‘‘श्रीमद्भागवत् पुराण में दानलीला का कहीं उल्लेख नहीं हुआ है।‘‘ तथा ‘‘दानलीला पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी अर्थात् भक्तिकालीन आन्दोलन की उपज है।‘‘ किन्तु उन्होंने आगे यह भी लिखा है कि- ‘‘दानलीला और मानलीला के संकेत वेणुगीत, गोचारण, और रास प्रसंगों में खोज लेना कोई असंभव काम नहीं।‘‘ और ‘‘सूरदास जी ने श्रीमद् भागवत के दशम स्कन्ध के आधार पर सूरसागर की रचना की है। इसमें ब्रजलीला के अन्तर्गत दानलीला के करीब तीस पद मिलते हैं।
वैभव प्रकाशन वाली इसी पुस्तिका में आए छत्तीसगढ़ी दानलीला की रचना और प्रकाशन संबंधी विभिन्न पृष्ठों पर छपी जानकारी को एक साथ रखकर देखना आवश्यक है। पृष्ठ 47 पर- ‘‘पं. भुवनलाल मिश्र के अनुसार इसका रचनाकाल सन् 1905 और हरि ठाकुर के अनुसार 1903 है।‘‘ पृष्ठ 48 पर- ‘‘इसका पहली बार प्रकाशन सन् 1912 में हुआ था। दूसरा संस्करण सन् 1914 और 1915 के बीच होना चाहिए,‘‘ पृष्ठ 50 पर- ‘‘इसका चौथा संस्करण 1924 में हुआ था, जिसका पुनर्प्रकाशन डॉ. चित्तरंजन कर के संपादन में सन् 1981 में ... हुआ था।‘‘( डॉ. बलदेव का लेख)। पृष्ठ 53 पर- ‘‘पं. सुंदरलाल शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ के प्रथम संस्करण (1960 ई.)...।‘‘ (डॉ. चित्तरंजन कर का लेख)। पृष्ठ 56 पर- ‘‘सन् 1905 में लिखित इस अद्भुत कृति...‘‘। (मुकुंद कौशल का लेख)। पृष्ठ 59 पर- ‘‘पं. सुंदरलाल शर्मा 20 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में छत्तीसगढ़ के लोगों को ‘दानलीला‘ के माध्यम से...‘‘(डॉ. गोरेलाल चंदेल का लेख)।
डॉ. दयाशंकर शुक्ल की पुस्तक ‘‘छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का अध्ययन‘‘, प्रथम संस्करण 1969 प्रकाशित हुआ है, जिसके पृष्ठ 48 पर गोकुल प्रसाद की रायपुर रश्मि के पृष्ठ 83 का उद्धरण दिया है कि- ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा का पहिला पद्यात्मक ग्रन्थ राजिम के पं. सुन्दरलाल द्वारा रचा गया था।‘‘ किन्तु आगे इसी पुस्तक के पृष्ठ 50 पर लिखा है कि- ‘‘छत्तीसगढ़ी में प्रथम पद्य रचना 1907-08 में श्री लोचनप्रसाद पाण्डेय ने ‘कविता कुसुम‘ ...‘‘ पुनः इसी पृष्ठ पर लिखा है कि- सन 1942 में श्री सुन्दरलाल शर्मा ने ‘दानलीला‘ लिखकर ...‘‘ किन्तु पृष्ठ 56 पर लिखा है कि- ‘‘सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी पद्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। सर्वप्रथम इन्होंने ही छत्तीसगढ़ी में ग्रंथ-रचना की ...‘‘ डॉ. दयाशंकर शुक्ल की पुस्तक के द्वितीय संस्करण, सन 2011, में भी ऐसा ही छपा है।
इस पुस्तक के पृष्ठ 50-51 पर रोचक जानकारी मिलती है कि छत्तीसगढ़ी कविता की अब तक प्रकाशित विशेष उल्लेखनीय पुस्तकों में दानलीला शीर्षक की अन्य पुस्तक 1913 में बैजनाथप्रसाद, 1936 में श्री नर्मदाप्रसाद दुबे का उल्लेख है। प्रसंगवश खरौद निवासी टेटकूराम कहरा की पंकज प्रकाशन, केशव पुस्तकालय, मथुरा से प्रकाशित ‘‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘‘, जिसे अंदर के पृष्ठ में ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा में श्री दानलीला‘‘ छापा गया है, की प्रति भी मिली है, इसमें प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है, किंतु यह अनुमानतः 25-30 वर्ष से अधिक पुरानी नहीं।
‘‘छत्तीसगढ़ी साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन‘‘ (प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं, संभवतः सन 1978-79) नंदकिशोर तिवारी की पुस्तक है, जिसके पृष्ठ 8 पर उल्लेख है कि- मौलिक छत्तीसगढ़ी कविताओं की परम्परा सन् 1904 से आरंभ हो जाती है। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने इस परम्परा को जन्म दिया, तत्पश्चात् 1915 के आसपास पं. सुन्दरलाल शर्मा ने छत्तीसगढ़ी में कुछ कविताएं लिखीं। कुछ ही वर्षों के पश्चात् उनके द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी ‘दानलीला‘ प्रकाशित हुई। सन 1924 तक इसके 4 संस्करण निकले और बिक गए।‘‘ पुनः पृष्ठ 9 पर जोर दे कर कहा गया है कि- ‘‘पं. लोचनप्रसाद जी पाण्डेय को ही छत्तीसगढ़ी काव्य के प्रथम प्रणेता और छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य का संस्थापक स्वीकार करना पड़ेगा।‘‘
सन 2006 में प्रकाशित नंदकिशोर तिवारी की अन्य पुस्तक ‘‘छत्तीसगढ़ी साहित्य दशा और दिशा‘‘ में पृष्ठ 11 पर छपा है कि- ‘‘इन्हीं दिनों 1915 में सुंदर लाल शर्मा ने कुछ कवितायें लिखीं। उनके द्वारा रचित ‘छत्तीसगढ़ी दान-लीला‘ प्रकाशित हुई। 1924 तक इसके चार संस्करण प्रकाशित हुए।‘‘ पृष्ठ 145-146 पर छत्तीसगढ़ी लेखन का ऐतिहासिक आंकलन करते हुए, सामने आई कृतियों के क्रम में भी पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय (1904) और पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय (1919) के बीच पं. सुंदरलाल शर्मा (1915) को रखा गया है। इसी पुस्तक के भाषा-साहित्य खंड में एक पूरा अध्याय ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला के बहाने‘ है, जिसमें उल्लेख है कि- ‘‘पं. सुन्दर लाल शर्मा ने ‘दान लीला‘ की रचना सन् 1913 में की। पहली जिल्द इसी सन् में प्रकाशित हुई। ... उनके सामने भारतेन्दु और उनकी काव्य की चिंता का मनुष्य उपस्थित था। संभवतः इसी चिंता ने पं. सुन्दर लाल शर्मा को ‘दान लीला‘ लिखने की प्रेरणा दी।‘‘ फिर इसका अगला वाक्य है- ‘‘पं. सुन्दर लाल शर्मा ने ‘दान लीला‘ की कथा श्रीमद्भागवत से ली।‘‘ इसी क्रम में आगे व्याख्या है- ‘‘कृष्ण और गोपियों के अहैतुक प्रेम की यह कथा है। इससे अलग वृन्दावान से मक्खन, दूध, दही मथुरा जाने की कथा है। वास्तव में ‘पै धन विदेश चलि जात‘ की कथा को पं. सुन्दर लाल शर्मा ने ‘दान लीला‘ के मिथ से जोड़ा। वृन्दावन को भारत, मथुरा को इंग्लैंड और कंस को अंगरेजी हुकूमत ...।‘‘
सन 2011 में डाॅ. बलदेव के संपादन में ‘छत्तीसगढ़ी कविता के सौ साल‘ प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के आरंभ में विश्वरंजन ने लिखा है कि ‘‘मुकुटधर पाण्डेय के अनुसार पंडित सुंदरलाल शर्मा ने 1906 में छत्तीसगढ़ी में ही दानलीला नामक खंड काव्य लिखा था। (इसका प्रथम बार प्रकाशन 1910 में हुआ था।)‘‘ संपादकीय में डाॅ. बलदेव ने 1850 से स्वतंत्रता प्राप्ति तक जिन नामी गिरामी कवियों का उल्लेख किया है, उसमें बिसाहूराम, वनमाली प्रसाद श्रीवास्तव, जगन्नाथ भानु के अलावा लोचन प्रसाद पाण्डेय और गजानन माधव मुक्तिबोध जैसे अन्य कई नाम हैं, लेकिन इनमें पं. सुंदरलाल शर्मा का नाम नहीं है। इसके बाद उन्होंने लिखा है कि- ‘‘लोचन प्रसाद पाण्डेय हर छत्तीसगढ़ी म साहित्य सिरजन सुरू करिन। ... ... छत्तीसगढ़ी म काव्य लेखन बीसवीं सदी के सुरवाती दौर ले पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय अउ पं. सुंदरलाल शर्मा करत रहिन फेर वोकर ठोस प्रमान 1910 म छत्तीसगढ़ी दानलीला के प्रकासन ले ही मिलथे‘‘।
सन 2013 में प्रकाशित डाॅ. बलदेव की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी काव्य के कुछ महत्वपूर्ण कवि‘ विशेष उल्लेखनीय है। इसमें ‘छत्तीसगढ़ी काव्य का मंगलाचरण‘ पं. सुदरलाल शर्मा से, संवर्धन में क्रमशः पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय, प्यारेलाल गुप्त, पं. मुकुटधर पाण्डेय आदि का नाम है, किंतु पंडित लोचन प्रसाद पांडेय का नाम नहीं है। कहा गया है- ‘‘छत्तीसगढ़ी काव्य लेखन के मंगलाचरण भगवान कृष्ण के लीला गायन से होइस हवय।‘‘ इस दानलीला की चर्चा में लिखा है कि- ‘‘फेर श्रीमद् भागवत पुराण म वोकर कोनो तीर स्पस्ट उल्लेख नई मिलय।‘‘ पुनः ‘‘मान लीला अउ दान लीला जइसन नवा कथा के अवतरण हर पुष्टि मार्गी कवि मनके निज के कल्पना आय।‘‘ लेखक ने पर्याप्त विस्तार से सोदाहरण दिखाया है कि छत्तीसगढ़ी दानलीला पर सूरसागर और घनानंद का प्रभाव है।
यहां एक भ्रामक सूचना है कि- ‘‘छत्तीसगढ़ी व्याकरण के लेखक काव्योपाध्याय हीरालाल हर ए किताब के भूमिका लिखे हावे।‘‘ वस्तुतः, सन 1915 में प्रकाशित छत्तीसगढ़ी दानलीला के दूसरे संस्करण में स्पष्ट उल्लेख है कि छत्तीसगढ़ी दानलीला पर टिप्पणी रायबहादुर हीरालाल ने की थी, न कि काव्योपाध्याय हीरालाल ने। यह विशेष उल्लेखनीय है. क्योंकि डाॅ. बलदेव सन 2011 वाली पुस्तक के पृष्ठ 36 पर कवि परिचय में दानलीला की भूमिका वाले विद्वान का नाम रायबहादुर हीर(ा)लाल उल्लेख करते हैं, जैसा कि वस्तुतः है। डाॅ. बलदेव ने बताया है कि- ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला ... न तो वो हर खंड काव्य आय अउ न मुक्तक ... न तो इहां कथा सीर्षक हे अउ न सर्ग। कोनो तीर सास्त्रीय विधि विधान के निर्वाह नई होय हे।‘‘ रचना और प्रकाशन काल के संबंध में कहा गया है कि- ‘‘ पं. भुवनलाल मिश्रा के अनुसार पं. सुन्दर लाल शर्मा हर छत्तीसगढ़ी दान लीला के रचना 1905 म कर डारे रहिस। ... प्रथम प्रकाशन सन् 1910 के बाद होय रहिस।‘‘ तथा ‘‘चौथा संस्करण सन् 24 म ही निकल गए रहिस।‘‘
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के ‘भारतीय कला का इतिहास और संस्कृति‘ विभाग की पत्रिका ‘कला-वैभव‘ के वर्ष 2012 में प्रकाशित रजत जयंती अंक 18-19 के पृष्ठ 19 पर रमाकांत श्रीवास्तव ने लिखा है कि ‘इस कृति का पहला संस्करण 1913 में प्रकाशित हुआ।‘ तथा अगली पंक्तियों में फिर दुहराते हैं कि ‘दानलीला का प्रकाशन 1913 में हुआ। विशेष उल्लेखनीय कि यहां लेखक ने रचना काल को आधार बना कर उसे महत्व देते हुए, महावीर प्रसाद द्विवेदी युग-स्थितियों के संदर्भ में यह चर्चा की है।
सन 2017 में छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी के लिए डाॅ. ऋषिराज पाण्डेय ने पं. सुन्दरलाल शर्मा समग्र संकलन तैयार किया है, जिसमें पृष्ठ 122 पर उल्लेख है कि ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला की रचना सन् 1905 में हुई जबकि प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1906 में बाबू रामप्रताप भार्गव द्वारा...’’। वस्तुतः 1915 में प्रकाशित छत्तीसगढ़ी दानलीला के दूसरे संस्करण में ‘बाबू रामप्रताप भार्गव द्वारा ...‘ जानकारी आई है, किंतु प्रथम संस्करण भी यहीं से प्रकाशित हुआ था? यह किस आधार पर कहा गया है, स्पष्ट नहीं है, क्योंकि पहले संस्करण की प्रति संभवतः अब अप्राप्त है। इस संकलन में छत्तीसगढ़ी दानलीला संबंधी परिचय-जानकारियां पूर्व प्रकाशित स्रोतों, मुख्यतः दूसरे संस्करण और डाॅ. बलदेव के लेख से ली गई हैं।
श्रीमती रश्मि चौबे के शोध-प्रबंध 2005 में पृष्ठ 145 आदि पर इस काव्य की चर्चा है, शीर्षक है ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला (संवत् 1960)। पुनः ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रथम रचना करने वाले पंडित सुंदरलाल शर्मा ही थे।‘‘ किंतु पृष्ठ 148 पर शोधार्थी ने बिना टिप्पणी के डॉ. जीवन यदु को उद्धृत किया है कि- ‘‘पंडित सुंदरलाल शर्मा का ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘‘ नामक खंडकाव्य की रचना सन् 1912 में कर ली थी, किन्तु उसका प्रकाशन सन् 1913 में हो पाया। सन् 1924 तक उसके तीन संस्करण निकले।‘‘ इस शोध प्रबंध में पृष्ठ 145-146 के मध्य छपा चित्र विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें पूर्व के संस्करणों की तरह ‘‘चिटिक येहू ला तो बाँचो‘‘ के साथ ‘‘असली छत्तीसगढ़ी दानलीला‘‘, प्रकाशक हिन्दी पुस्तकालय मथुरा और मू. 50 न.पै. दर्शित है।
असली शब्द के प्रयोग से स्पष्ट अनुमान होता है कि अन्य दानलीला भी छप-बिक रही थीं। वैसे एक दौर रहा है जब पुस्तक शीर्षक के साथ असली, बड़ा, सचित्र विशेषण लगाए जाते थे। इसी तरह इसमें मूल्य न.पै. अर्थात् नये पैसे में है। नये पैसे का औपचारिक प्रयोग सन 1957 से 1964 तक रहा, किंतु उसके बाद भी आदतवश प्रयुक्त होता रहा, इससे स्पष्ट होता है कि सन 1924 और सन 1981 के बीच भी छत्तीसगढ़ी दानलीला के संस्करण प्रकाशित हुए हैं। साथ ही यहां उल्लेखनीय है कि सन 1955 में प्रकाशित श्री रविशंकर शुक्ल अभिनन्दन-ग्रन्थ में श्री काशीप्रसाद मिश्र ने लिखा है कि ‘‘हाल-हाल में कुछ लोगों ने कतिपय छोटी-छोटी पुस्तकें इस बोली में लिख डाली हैं, जिसमें से कुछ पर्याप्त लोकप्रिय भी हुई हैं। जैसे छत्तीसगढ़ी दानलीला।‘‘ ध्यातव्य कि यहां इस कृति के रचनाकार का नाम नहीं दिया गया है।
रचना वर्ष, संस्करण और प्रतियां-
प्राथमिक स्रोत का आधार लें तो पं. सुन्दरलाल-शर्म्मा त्रिपाठी प्रणीत सन 1915 ई. में प्रकाशित छत्तीस-गढ़ी-दानलीला द्वितीय संस्करण (द्वितीय बार 4000 प्रति, उल्लेख है) में प्रथम संस्करण की भूमिका है, जिसमें 10.3.1906 तिथि अंकित है। यही उल्लेख है कि ‘‘आज आपकी उसी चिर अभ्यासित प्यारी मातृभाषामेंही, एक पहला पहल नूतन संस्कारका प्रसार करके...‘‘ तथा ‘‘चाहे यह पुस्तक इस भाषामें पहले पहलही निर्मित होनेके कारण...‘‘ तथा द्वितीय संस्करण की भूमिका में ‘‘एक वर्ष के भीतर ही एक हजार जिल्दों का समाप्त हो जाना ... प्रथमावृत्ति की 1000 प्रतियों के चुक जाने पर...‘‘ तथा एक धूर्तका कई आवृत्ति निकलवाकर 5, 6 हजार जिल्दें बेंच डालना...‘‘। इस संस्करण के अंत में ग्रंथ तैयार होने की प्रामाणिक तिथि स्वयं कवि द्वारा इस प्रकार बताई गई है-
सम्मत दृग रस अंक शशि, तिथि तृतिया गुरुबार।
कृष्णपक्ष आसौज मह, भयेउ ग्रन्थ तय्यार।।
उक्त दोहे के आधार पर ग्रन्थ तैयार होने का वर्ष, दृग-2 रस-6 अंक-9 शशि-1 मान अर्थ लगावें तो यह विक्रम संवत 1962 की तिथि होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त दृग का मान आंख के गोलक के कारण 0 की संभावना व्यक्त की जा सकती है, ऐसी स्थिति में यह विक्रम संवत 1960 होगा। रचना-प्रकाशन की तिथि की पुष्टि यों भी हो जाती है कि सन 1915 ई. में प्रकाशित छत्तीस-गढ़ी-दानलीला के द्वितीय संस्करण में ‘विद्वानों की कतिपय सम्मतियां‘ में पं. जगन्नाथप्रसादजी शुक्ल द्वारा शुक्रवार, 21 जून 1907 को ‘श्रीवेंङ्कटेश्वर समाचार’ पत्र का भी हवाला है।
यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि शब्दों के माध्यम से संख्याओं को अभिव्यक्त किए जाने की परंपरा बहुत पुरानी है, जिसे शब्दांक या भूतसंख्या (क्रोनोग्राम) कहा जाता है। इस पद्धति में ‘वाम-गति‘, जिसे ‘अंकानां वामतो गतिः‘ कहा गया है, होती है अर्थात् अंकों को दाहिने से बाएं व्यवस्थित किया जाता है। इस पद्धति में अंकों के लिए विभिन्न शब्द निर्धारित हैं, किंतु शब्दों के लिए मान्य अंकों से भिन्न प्रयोग कर, परंपरा के उल्लंघन के भी उदाहरण मिलते हैं। ऐसा प्रयोग सूरदास ने भी किया है, उनका प्रसिद्ध पद है, जिसमें- मंदिर अरध (पक्ष-15 दिन) अवधि बदि हमसौं, हरि अहार (मास-30 दिन) चलि जात ..., इसी पद में आगे नखत (नक्षत्र-27), वेद (4) और ग्रह (9) आता है।
पं. सुंदरलाल शर्मा ने इस पद्धति से रचना काल का उल्लेख ‘‘श्री करुणा-पचीसी अथवा उटका (उलाहना) पचीसी‘‘ में इस प्रकार किया है-
संवत् गुण रस निधि शशि तिथि सप्तमि शशिवार।
शुक्ल पक्ष बैशाख मॅंह भयो बिनय तैयार।।
इस आधार पर रचना तैयार होने का वर्ष, गुण-9, रस-6, निधि-9, शशि-1, इस प्रकार संवत 1969 होना चाहिए, किंतु प्रकाशित पुस्तिका की मूल प्रति पर रचना काल 1959 अंकित है। संवत 1959 होने पर यह 14 मई 1902, दिन बुधवार होगा और संवत 1969 होने पर 23 अप्रैल 1912, मंगलवार होगा, जबकि यहां दिन शशिवार यानि चंद्र-सोमवार बताया गया है। उनकी अन्य कृति ‘‘विक्टोरिया-वियोग और ब्रिटिश-राज्य-प्रबंध-प्रशंसा‘‘ में रचना काल बताया गया है-
सम्वत गुण ९ सुर ५ खण्ड ९ शशि १ अष्टमि तिथि शशिवार।
शुक्ल पक्ष स्रावन सुभम वरण्यौ मति अनुसार।।
यहां शब्दों के साथ अंक भी दर्शा दिया गया है, जिससे किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं रह जाती कि इस कृति का रचनाकाल 1959 (11 अगस्त 1902, सोमवार) है, जो प्रकाशित पुस्तिका में अलग से मुखपृष्ठ पर और ‘निवेदन‘ में भी उल्लिखित है।
प्रसंगवश, अंकों को वर्णों से निरुपित करने की अन्य प्रचलित प्राचीन पद्धति ‘कटपयादि‘ का परिचय पा लें या जानकार अपनी स्मृति दुहरा लें। नाम से स्पष्ट है कि नागरी वर्णमाला के वर्गों के प्रथम अक्षरों से यह शब्द बना है। दाशमिक प्रणाली में एक से नौ और शून्य को मिला कर दस अंक, तो क, च, ट, त और प वर्गों में उंगलियों की तरह पांच-पांच वर्ण हैं। कटपयादि पद्धति में क से ञ तक मान क्रमशः 1 से 9 और 0, यानि क-1, ख-2, ग-3 ... ... ज-8, झ-9, ञ-0 होता है। पुनः इसी प्रकार ट-1 और ... ... न-0 होगा प से म क्रमशः 1 से 5 और य, र, ल, व, श, ष, स, ह क्रमशः 1 से आठ होता है। वाम-गति यहां भी होती है, जैसे 1960 को न, च/त/ष, झ/ध, क/ट/प/य जोड़ते हुए मात्राओं का इस्तेमाल कर सार्थक शब्द यथा- नैषधीय का मान 0691 होगा, जिसका आशय इस प्रणाली से, संख्या 1960 माना जाएगा।
आसौज यानि क्वांर-आश्विन (27-28 नक्षत्रों में से प्रथम, अश्विनी या अश्व-युज से आसौज) मास, कृष्ण पक्ष तृतीया, दिन गुरुवार स्पष्ट है। किंतु विक्रम संवत 1962 के आसौज मास, कृष्ण पक्ष तृतीया को दिन शनिवार तथा रविवार (16 तथा 17 सितंबर 1905) है। इसके पूर्व के वर्षों में आसौज मास, कृष्ण पक्ष तृतीया को दिन गुरुवार विक्रम संवत 1960, यानि सन 1903 में 10 सितंबर को है (तथा इसके बाद आश्विन मास, कृष्ण पक्ष तृतीया को गुरुवार विक्रम संवत 1970, यानि सन 1913 में 18 सितंबर को है।) ऐसी स्थिति में दृग या शशि का मान 0 रख कर विक्रम संवत 1960 यानि सन 1903 माना जाय? प्रथम संस्करण की भूमिका में मार्च 1906 की तारीख है, इस आधार पर सामान्य अनुमान होता है कि ग्रंथ सितंबर सन 1905 यानि विक्रम संवत 1962 या इसके पूर्व सन 1903? में तैयार हो गई होगी। इस प्रकार इस ग्रंथ ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘‘ का अन्य कोई रचना काल तथ्य और तर्कसम्मत नहीं होगा।
प्रभाव-
द्वितीय संस्करण की भूमिका में अपनी इस रचना पर अश्लील शब्दों के आक्षेप का जवाब देते हुए पं. सुंदरलाल शर्मा ने विभिन्न महाकवियों के श्रृंगार रस संबंधी उदाहरणों में भक्त कवि सूरदास की ‘‘दान लैहौं सब अंगनिको। अति मद गलित ताल फलते गुरु इन युग उतंगको‘‘ पंक्ति उद्धृत की है। इससे अनुमान होता है कि छत्तीसगढ़ी दानलीला की रचना अष्टछापी महाकवि सूरदास सारस्वत की दानलीला के आधार पर की गई है, न कि अकबर दरबार वाले महाकवि सूरदास ब्रह्मभट्ट के आधार पर। महाकवि सूरदास सारस्वत की दानलीला की पंक्तियां, जिनका अंश पंडित सुंदरलाल शर्मा ने उद्धृत किया है, वह मूलतः इस प्रकार हैं-
लेहौं दान सबै अंगनि कौ।
अति मद गलित, ताल फल तैं गुरु, इन जुग उरज उतंगनि कौ।
खंजन कंज मीन मृग-सावक, भॅंवर जबर भुव-भंगनि कौ।
कुंदकली, बंधूक, बिंबफल, वर ताटंक तरंगनि कौ।
कोकिल कीर, कपोत, किस लता, हाटक, हंस, फनिंगन कौ।
‘सूरदास‘ प्रभु हॅंसि बस कीन्हौ, नायक कोटि अनंगनि कौ।
उक्त पंक्तियों का मिलान छत्तीसगढ़ी दानलीला की निम्न पंक्तियों से-
सब्बो के जगात मड़वाहौं। अभ्भी एकक खोल देखाहौं।।
रेंगब हर हांथी लुर आथै। पातर कन्हिया बाघ हराथै?।।
केंरा जांघ नख्ख है मोती। कहौ बांचि हौ कोनौ कोती?।।
कंवल बरोबर हांथ देखाथै। छाती हंडुला सोन लजाथै।।
बोड़री समुंद हबै पंड़की गर। कुंदरू ओठ दाँत दरमी-थर।।
सूरुज चन्दा मुंहमें आहै। टेंड़गा भऊं अओ! कमठा है।।
तुर तुराय मछरी अस आंखी। हैं हमार संगी मन साखी।।
सूवा चोंच नाक ठौंके है। सांप सरिक बेणी ओरमे है।।
अभ्भो दू-ठन बांचे पाहौ। फोर बताहौं सुनत लजाहौ।।
ध्यातव्य है कि महाकवि सूरदास ब्रह्मभट्ट जिनकी कम से कम तीन दानलीलाएं हैं, उनकी कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत हैं, जिनसे पता लगता है कि इन दानलीलाओं से भी पं. सुदरलरल शर्मा अवश्य परिचित थे, पंक्तियां इस प्रकार हैं-
एक
अब दधि-दान रचैं इक लीला। जुवतिनि संग करौ रस लीला।।
‘सूरस्याम‘ संग सखनि बुलायौ। यह लीला कहि सुख उपजायौ।।
दूसरा
नित प्रति जाति दूध-दधि बेंचन, आजु पकरि हम पाई।
‘सूरस्याम‘ कौ दान देहु, तब जैहौ, नंद-दुहाई।।
तीसरा
कान्ह बिलग जिनि मानिए, राखि पछिलौ नेहु।
दूध दही की को गिनै, जो भावै सो लेहु।।
... ... ...
कुंज-केलि मन मैं बसी, गायौ ‘सूर‘ सुजान।।
जगात-
काव्य में पद आया है- ‘आगू मोर जगात दे, पाछू पाहौ जाय।।‘, पुनः ‘रोज रोज चोरी कर जावौ। मोला नहीं जगात पटावौ।।‘ फिर आया है- ‘दान दिए बिन जान-न पाहौ।‘ इस तरह जगात, दान और चुंगी कर के अर्थ में प्रयोग में आया है, जो ‘मंगथैं श्याम जगात जवानी‘ आते रास-श्रृंगार लीला रूप लेने लगता है। इस संदर्भ में जगात शब्द पर विचार करें तो अरबी शब्द ज़कात अर्थात् पाक या शुद्धि करने वाला, इसका छत्तीसगढ़ी रूप है जगात। जकात, इस्लाम में एक प्रकार का दान है, जिसे फ़र्ज़ की तरह और धार्मिक आयकर जैसा माना जा सकता है। इसकी राशि साल भर में होने वाली आमदनी या बचत का ढाई प्रतिशत अर्थात चालीसवां भाग होना चाहिए। छत्तीसगढ़ी दानलीला में इसी शब्द ‘जगात‘ का प्रयोग हुआ है। जगात, दान भी है और कर भी। हिन्दी में प्रचलित जकात का एक अर्थ आयात कर भी है। यहां दान-कर-जगात-लीला, शब्दों का अनुशीलन, कवि के शब्द चयन और भाषा सामर्थ्य की दृष्टि से विस्तार से किया जा सकता है। संक्षेप में, इस काव्य में कृष्ण गोपियों से कर-दान मांगते हैं। यह लीला प्रसंग बना है, क्योंकि दुहिताएं- राधा और गोपियां, दूध-दही बेचने के बहाने कृष्ण मिलन के लिए निकली हैं और कृष्ण अपने सखाओं संग रास्ते में जगात वसूलने, दूध-दही खाने और इस बहाने-लीला करते संयोग-श्रृंगार घटित कराने आ धमकते हैं। कृष्ण द्वारा जगात वसूलने की बात पर गोपियां उनके कर वसूलने के अधिकार पर सवाल उठाती हैं और कंस से शिकायत की बात कहती हैं। इस पर कृष्ण कंस की परवाह न करते और स्वयं कर वसूलने की बात कहते हुए मानों कंस को चुनौती भी देते हैं। बहरहाल, क्या यही तत्कालीन अंगरेजी हुकूमत के प्रतिरोध स्वर का स्वरूप है, जो आगे चल कर कार्य रूप में कंडेल नहर सत्याग्रह में प्रकट होता है।
फोटो पहचान-
आधार कार्ड और फोटो पहचान-पत्र के इस जमाने के लिए यह रोचक है कि पं. सुंदरलाल शर्मा को पुस्तक में प्रकाशित उनकी फोटो के आधार पर लोग ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ के रचयिता के रूप में पहचान लेते थे। इस पर उन्होंने टिप्पणी की है- ‘‘हमारे देशमें भी चित्र-परिचय ज्ञानका भी खासा प्रचार हो रहा है, केवल चित्र देखकर ही एक अपरिचित व्यक्तिको पहचान लेना, यह कुछ सहज काम नहीं है।‘‘
आगे क्या-
छत्तीसगढ़ी दानलीला का रचना वर्ष, इस काव्य की प्रेरणा, प्रकाशन वर्ष सहित कुल संस्करण (इसे दो चरणों में देखा जाना उपयुक्त होगा- सन 1981 में राजीवलोचन महाविद्यालय के हिंदी साहित्य परिषद द्वारा प्रकाशन और उसके बाद यानि दूसरा चरण और उसके पहले यानि प्रथम प्रकाशन से 1981 के पहले तक, पहला चरण, पाइरेटेड संस्करणों सहित) और मुद्रित प्रतियों की संख्या, छत्तीसगढ़ के अन्य दानलीला काव्य-अनुरचना, दान-कर अर्थात् जगात (जकात) की परंपरा और उसका श्रृंगारिक लीला में बदल जाना, जैसे पक्षों पर अब भी ध्यान दिया जाना और खोजबीन रह गई है।
हुआ क्या था-
इंटरनेट पर कविता कोश, भारतीय काव्य का सबसे विशाल ऑनलाइन संकलन है। कोश में कुल पन्ने एक लाख चालीस हजार से भी अधिक हैं। इस पर छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार और उनकी कविताएं हैं, लेकिन ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘‘ की प्रविष्टि अब तक मात्र नाम की थी, पूरी रचना यहां उपलब्ध नहीं थी। छत्तीसगढ़ी की यह पहली गंभीर प्रकाशित रचना, इंटरनेट पर वहां या और कहीं भी नहीं मिली तो इस ओर ध्यान गया। मन खिन्न हुआ, किंतु शिकवा-शिकायत के बजाय नेट पर प्रकाशित करने के लिए स्वयं वर्ड फाइल तैयार किया, टेक्स्ट को दूसरे और तीसरे तथा बाद के दो संस्करणों से मिलान कर प्रूफ ठीक किया। यह अपनी जिम्मेदारी मानते और प्रायश्चित भाव से किया गया, कि छत्तीसगढ़ी का यह पहला काव्य अब तक नेट पर क्यों नहीं है और इस कारण ध्यान से पंक्ति दर पंक्ति दुहरा कर पढ़ना भी हो गया, जैसा पहले नहीं पढ़ा था। परिणाम हुआ कि अब यह कविता कोश पर सुलभ है। मेरा अकवि होना, शायद इस दृष्टि से भला हुआ कि कविता कोश पर मुझे अपनी किसी रचना के बजाय ‘‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘‘ होना जरूरी लगा। इसे कविता कोश के लिए उपलब्ध कराने और सामग्री का टंकण करने वाले के रूप में मेरा नाम भी दर्ज हो गया, मेरे लिए यह अपनी रचना के वहां होने से कहीं अधिक बड़ा सम्मान है।
इस क्रम में ध्यान गया कि तिथि-तथ्यों को लेकर सावधानी नहीं बरती गई है, तिथियों के आधार-कारण-तर्क नहीं बताए गए हैं और अन्य वक्तव्यों-स्थापनाओं पर टिप्पणी करने से बचा गया है, बल्कि बहुधा उल्लेख भी नहीं किया गया है। इसलिए आवश्यक उद्धरणों के साथ उन पर टिप्पणियों की भी आवश्यकता जान पड़ी, जिससे यह पोस्ट बनी। इसमें विशेषकर उन बिंदुओं की ओर ध्यान दिलाने का प्रयास है, जिन जानकारियों-तथ्यों पर समीक्षात्मक दृष्टि की बातों का, अब तक मेरी नजर में आए लेखों और शोध में भी अभाव दिखा। जैसा उपर उल्लेख है, फिर भी कई ऐसे बिंदु रह गए हैं, जिन पर जांच-खोज होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ी दानलीला संबंधी जानकारियों और तथ्यों के माध्यम से हम अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा के सम्मान को पुष्ट कर आत्म-गौरव का एक ठोस आधार पा सकें, आशा है, अपेक्षा रहेगी। दूसरे और तीसरे संस्करण की साफ्ट कापी और यहां उल्लिखित प्रकाशनों की प्रति मेरे पास उपलब्ध है, जिसे साझा करने को सदैव सहर्ष तैयार हूं।
आभार सहित उल्लेखनीय कि जानकारियां जुटाने में श्री आशीष सिंह, डॉ. सुधीर शर्मा और श्री ललित मिश्रा का सहयोग मिला तथा संवत वाले दोहे के अन्यान्य आशय की रोचक चर्चा और समझने में कई परिचित अपनी राय सहित शामिल हुए।
पंडित सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दान लीला और उनकी प्रकाशित अप्रकाशित रचनाओं की जानकारी के लिए साधुवाद। प्रो अश्विनी केसरवानी
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी
ReplyDelete'छत्तीसगढ़ी दानलीला' के संबंध में अब तक किए गए 'शोधों का शोध' है यह आलेख ।
ReplyDeleteItne mahattvpurn aur shodhatmak lekh ke liye aabhar.
ReplyDeleteबढ़िया और महत्वपूर्ण जानकारी ...
ReplyDeletehttps://ultimatehappiness2.blogspot.com/2020/09/religious-problem.html
ReplyDeleteNice Blog
ReplyDeleteछत्तीसगढी़ दानलीला महाकाव्य कहाँ मिलेगा ?
ReplyDeleteमेरे पास है। मैं पं सुंदरलाल शर्मा परिवार की पाँचवी पीढ़ी हूँ।
Deleteआपका शोध प्रणम्य है। मैं सोचती हूँ कि १९०३ में ही किताब लिखी गयी होगी, कयोंकि १९६० में तो बहुत उम्र चली जाती है, जबकि इस किताब को पढ़कर लगता है कि कवि किशोर लगता है।
ReplyDeleteआपका यह भगीरथ प्रयास छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी में रुचि रखने वाले शोधार्थियों और अन्य अध्येताओं के लिये बहुत बड़ा वरदान है । छत्तीसगढ़ी काव्य के शुरुआती दौर पर इतना वृहत शोधपरक आलेख निश्चित रूप से आपके शोधार्थी वृत्ति के कारण सम्भव हो सका है ।
ReplyDeleteपंडित सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दान लीला और उनकी प्रकाशित अप्रकाशित रचनाओं की जानकारी के लिए साधुवाद। SANUK LAL YADAV
ReplyDeleteMere pas bhi sundarlal sharma ji se sambandhit material hai Mai use kavitakosh me sankalit karna chahti hoo margdarshan karne ki Krupa karenge. Unke sawraj aandolan sambandhit geet aur c.g. me likhi rachnayen bhi Daniela sahit
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन
ReplyDelete" दानलीला" संबंधी शोधपरक एवम् चिंतनपरक लेख के लिए साधुवाद |
ReplyDelete- प्रो. रामनारायण पटेल, दिल्ली
दानलीला के रचनाकर्म की इतनी विशद और व्यापक प्रस्तुति, आपके श्रम और सृजनात्मकता दोनों का उत्कृष्ट मेल है। इस आलेख के द्वारा आपने दानलीला के रचनाकाल पर जो प्रकाश डाला है, उससे छत्तीसगढ़ी साहित्य की प्राचीनता और भी स्थापित हो रही है ।इस श्रमसाध्य अध्यवसाय के लिए हार्दिक साधुवाद !
ReplyDeleteरामनाथ साहू
देवरघटा डभरा,जिला जांजगीर चांपा
Aapke lekh ke liye dhanyawad sir ... Bahut hi achhi hai.
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ReplyDeleteWoww
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