2 अक्टूबर, नाटक और खास कर बिलासपुर से जुड़े लोगों के लिए, डॉ. शंकर शेष की जयंती के रूप में भी याद किया जाता है (यही यानि 2 अक्टूबर डॉ. शेष की पत्नी श्रीमती सुधा की जन्मतिथि है) और यह बीत जाए तो अक्टूबर की ही 28 तारीख उनकी पुण्यतिथि है। डॉ. शेष (1933-1981) के साथ बिलासपुर के नाटकीय इतिहास-थियेटर की यादें भी दुहराई जा सकती हैं।
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डॉ. शंकर शेष |
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भागीरथी बाई शेष |
बिलासपुर से जुड़ा बिलासा का किस्सा इतिहास बनता है, भोसलों और भागीरथी बाई शेष (1857-1947) के नाम के साथ। पति पुरुषोत्तम राव के न रहने पर निःसंतान मालगुजारिन भागीरथी बाई को उत्तराधिकारी की तलाश थी। बात आसान न थी लेकिन पता लगा कि उन्हीं के परिवार के भण्डारा निवासी विनायक राव पेन्ड्रा डाकघर में कार्यरत हैं। वसीयतनामा तैयार हो गया। कहानी, इतिहास बनी।
1861 में पृथक जिला बने बिलासपुर में रेल्वे के लिए जमीन की जरूरत हुई। उदारमना भागीरथी बाई जमीन दान देने को तैयार हुई, किन्तु अंगरेजों को 'देसी का दान' मंजूर नहीं हुआ और बताया जाता है कि 1885 में तत्कालीन मध्यप्रान्त के चीफ कमिश्नर सर चार्ल्स हाक्स टॉड ने बिलासपुर रेलवे स्टेशन और रेलवे कालोनी के लिए 139 एकड़ जमीन के लिए 500 रुपए मुआवजा दे कर बिक्रीनामा लिखाया।
विनायक राव की पत्नी सीताबाई थीं, उनके तीन पुत्रों में बड़े नागोराव हुए, जो उसी बिक्रीनामा के आधार पर भू-वंचित माने जा कर रेलवे में क्लर्क नियुक्त हुए। नागोराव की पहली पत्नी जानकीबाई और दूसरी पत्नी सावित्री बाई थीं।
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सावित्री बाई नागोराव शेष |
दूसरी पत्नी के पुत्रों में बड़े बबनराव, फिर बालाजी, तीसरे (डॉ.) शंकर (शेष), उसके बाद विष्णु और सबसे छोटे गोपाल हुए। नागोराव (निधन- 17 दिसम्बर 1960), जिनके नाम पर जूना बिलासपुर का पुराना स्कूल है, रेलवे में क्लर्क रहे, लेकिन सोहराब मोदी का थियेटर अपने शहर में देखने-दिखाने की धुन थी, नतीजन 1929 में श्री जानकीविलास थियेटर बना, जिसके लिए हावड़ा की बर्न एंड कं. लि. से सन '29 तिथि अंकित नक्शा बन कर आया था।
पारसी नाटकों, मूक फिल्मों और फिर बिलासपुर फिल्म इतिहास के लंबे दौर का साक्षी, दसेक साल से बंद यह थियेटर मनोहर टाकीज कहलाता है। हुआ यह कि पेन्ड्रा के जाधव परिवार के मंझले, मनोहर बाबू वहां सिनेमा का काम करते रहे, छोटे डिगू बाबू ने दुर्ग में तरुण टाकीज का काम संभाला और बड़े भाई, दत्तू बाबू बिलासपुर आ कर इसका संचालन करने लगे। इस तरह श्री जानकीविलास थियेटर का नया नाम 'मनोहर' भी पेन्ड्रा से आया और पेन्ड्रा वाले ही विनायक राव के पुत्र, बिलासपुर में थियेटर के पितृ-पुरुष नागोराव शेष हुए और हुए उनके पुत्र डॉ. शंकर शेष।
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मनोहर टाकीज - श्री जानकी विलास थियेटर के साथ डॉ. गोपाल शेष |
तब 'सारिका' में डॉ. शेष का कथन छपा था- ''सन 1979 की बात है। मैं भोपाल में था। उन दिनों विनायक चासकर ने मेरा नाटक 'बिन बाती के दीप' उठाया था। मुझे भी नाटक में एक भूमिका दी गई। कैप्टन आनंद की भूमिका। दो दिन रिहर्सल हुई फिर चासकर को लगा कि अगर शेष को कैप्टन आनंद बनाया गया तो और कुछ हो या ना हो, नाटक पिट जाएगा। तो लेखक की नाटक से छुट्टी हो गई। इस घटना के बाद मुझे एहसास हुआ और मैंने नियति की तरह इसे स्वीकार किया कि अभिनय करना मेरे बस की बात नहीं।'' यह संक्षिप्त किन्तु रोचक अंश डॉ. शेष की भाषा-शैली सहित उनकी प्रभावी सपाटबयानी का समर्थ उदाहरण है।
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डॉ. शंकर शेष की रचनाओं की व्यवस्थित सूची-जानकारी मिली नहीं, अलग-अलग स्रोतों से एकत्र कर डा. शेष की कृतियों को विधा और रचना वर्ष के क्रम में रखने का प्रयास किया है, जिसमें संशोधन संभावित है, इस प्रकार है-
नाटक
1955- मूर्तिकार, रत्नगर्भा, नयी सभ्यताःनये नमूने, विवाह मंडप (एकांकी)
1958- बेटों वाला बाप, तिल का ताड़, हिन्दी का भूत (एकांकी)
1959- दूर के दीप (अनुवाद)
1968- बिन बाती के दीप, बाढ़ का पानीःचंदन के दीप, बंधन अपने-अपने, खजुराहो का शिल्पी, फन्दी, एक और द्रोणाचार्य, त्रिभुज का चौथा कोण (एकांकी), एक और गांव (अनुवाद)
1973- कालजयी (मराठी व हिन्दी), दर्द का इलाज (बाल नाटक), मिठाई की चोरी (बाल नाटक), चल मेरे कद्दू ठुम्मक ठुम (अनुवाद)
1974- घरौंदा, अरे! मायावी सरोवर, रक्तबीज, राक्षस, पोस्टर, चेहरे
1979- त्रिकोण का चौथा कोण, कोमल गांधार, आधी रात के बाद, अजायबघर (एकांकी), पुलिया (एकांकी), पंचतंत्र (अनुवाद), गार्बो (अनुवाद), सुगंध (एकांकी), प्रतीक्षा (एकांकी), अफसरनामा (एकांकी)
पटकथा
1978- घरौंदा,1979- दूरियां, सोलहवां सावन (संवाद)
कहानी
1979 से 1981- ओले, एक प्याला कॉफी का, सोपकेस
उपन्यास
1956- तेंदू के पत्ते 1971- चेतना, खजुराहो की अलका, धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे (अपूर्ण)
अनुसंधान
1961- हिन्दी और मराठी तथा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन
1965- छत्तीसगढ़ी का भाषाशास्त्रीय अध्ययन
1967- आदिम जाति शब्द-संग्रह एवं भाषाशास्त्रीय अध्ययन
जानकारी मिलती है कि उपन्यास ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ 1956 में लिखा जा रहा था, मगर अपूर्ण रहा। इसका पुस्तकाकार प्रथम संस्करण जगतराम एण्ड सन्ज, दिल्ली से 1990 में प्रकाशित हुआ। सिर्फ 91 पृष्ठों में देवव्रत-भीष्म के जन्म की पृष्ठभूमि से धृतराष्ट्र के गांधारी से विवाह की पृष्ठभूमि तक, महाभारत की कहानी के अंश की सारी नाटकीयता को जिस तरह मनोभावों के चित्रण और संवाद के साथ लिखा गया है, वह अपने अधूरेपन में भी पूरे जैसा महत्वपूर्ण है। यह भी देखा जा सकता है कि यह कहानी जहां छूटती है वह ‘कोमल गांधार‘ में जुड़ जाती है, मानों उन्होंने उपन्यास-नाटक का जोड़ा रचा हो।
डॉ. शेष नाटक प्रेमियों में जिस तरह स्वीकृत थे, फिर उनके सम्मान-पुरस्कार का उल्लेख बहुत सार्थक नहीं होगा, लेकिन एक जिक्र यहां आवश्यक लगता है- नागपुर के प्रसिद्ध धनवटे नाट्य गृह का शुभारंभ 1958 में डॉ. शेष के नाटक 'बेटों वाला बाप' से(?) होने की सूचना मिलती है।
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''इस बार तुमको अरपा नदी दिखाएंगे और अरपा नदी के पचरी घाट,'' बम्बई से चलने के पहले डॉ. शंकर शेष ने तय किया कि अपनी पत्नी को अपने पुराने शहर के सारे ठिकाने, जिनके साथ उनका पूरा बचपन और बचपन की कितनी-कितनी कथाएं जुड़ी हैं, जरूर दिखाकर लाएंगे।
उपरोक्त अंश पैंतीसेक साल पहले 'रविवार' में छपी, सतीश जायसवाल की कहानी ''मछलियों की नींद का समय'' का है। कहानी के नायक डॉ. शंकर शेष हैं और एक पात्र सतीश (कहानी के लेखक स्वयं) भी है। पूरी कहानी डॉ. शेष के बिलासपुर, समन्दर-नदी-तालाब-हौज के पानी, जलसाघर-थियेटर-संग्रहालय-किला-मछलीघर और मछलियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है। पंचशील पार्क की अहिंसक मछलियां। मामा-भानजा तालाब (शेष ताल) की बड़ी-बड़ी मछलियां। कहानी में वाक्य है- ''श्रीकान्त वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और डॉ. शंकर शेष के इस शहर में कुछ भी गैर-सांस्कृतिक नहीं हो सकता।'' और यह भी- ''डॉ. साहब, अरे मायावी सरोवर और अपने मामा-भानजा तालाब के बीच क्या कोई संबंध है?''
सतीश जी की इस कहानी के बहाने कुछ और बातें। बिलासपुर के साथ मछुआरिन बिलासा केंवटिन का नाम जुड़ा है।... ... ... श्रीकान्त वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और डॉ. शंकर शेष, बिलासपुर के चार ''एस'' कहे जाते हैं। ... ... ... आंखों पर पट्टी बांधी गांधारी का डॉ. शेष का नाटक 'कोमल गांधार' और सत्यदेव दुबे के 'अन्धा युग' की अदायगी के साथ यहां संयोग बनता है कि डॉ. शंकर तिवारी ने 1958-59 में खोजा कि कांगेर घाटी, बस्तर की कुटुमसर गुफाओं में दो-ढाई इंच लंबी बेरंग मछलियां हैं, उजाले के अभाव में इनकी आंखों पर झिल्लीनुमा पर्दा भी चढ़ गया है। साथ ही उनके द्वारा 15-20 सेंटीमीटर मूंछों वाले अंधे झींगुर 'शंकराई कैपिओला' Shankrai Capiola की खोज प्रकाशित की गई। यह भी कि इस कहानी के बाद सतीश जी यदा-कदा बिलासपुर के पांचवें ''एस'' गिने गए।
कहानी ''मछलियों ...'' का अंतिम वाक्य है- इस बार, बम्बई से साथ आई हुई पत्नी ने पहली बार आपत्ति की, ''यह मछलियों की नींद का समय है और लोग शिकार पर निकले हैं।''
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थियेटर के भीतर अब अंधेरा-परदा |
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प्रमिला काले, जिनका शोध (1986) है
''नव्य हिन्दी नाटकों के संदर्भ में
डॉ. शंकर शेष के नाटकों का शिल्पगत अनुशीलन |
सभी ऐतिहासिक पात्र, नामों के प्रति आदर।