आस्था के आदिम बिन्दुओं पर सभ्यता का आवरण और संस्कृति का श्रृंगार
मैदानी छत्तीसगढ़ में ग्राम देवताओं की वैविध्यपूर्ण मान्यता, मुख्यतः द्रविड़ और निषाद प्रजाति-कुलों की थाती मानी जा सकती है। ग्राम देवता के वर्गीकरण, उपासना-पूजा की पद्धति व संबंधित भाषा-विशिष्टता में हमारी वर्तमान समेकित संस्कृति के मूल घटकों-उपादानों की पहचान हो सकती है। चूंकि ग्राम देवता परंपरागत ढंग से मूलतः जनजातीय समाज और उनके धार्मिक अनुष्ठानों से सम्बद्ध हैं, इसलिये यह सांस्कृतिक बिन्दु अपेक्षाकृत कम मिलावटी है।
आगम स्मृतिसार का कथन है- ''ब्राह्मणानां शिवो देवाः क्षत्रियाणां तु माधवः। वैश्याणां तु भवेद ब्रह्मा, शूद्राणां ग्राम देवताः॥'' यह ग्राम देवताओं के अनार्य परंपरा से जुड़े होने का संकेत मात्र है, किन्तु हमारी संस्कृति की समन्वयात्मक प्रकृति के फलस्वरूप आर्य-अनार्य, लोक-शास्त्र घुल-मिल कर समरस हो गये और ग्राम देवता, संस्कृति संवाहक बनकर, जाति-प्रजाति भेद लांघकर, समष्टि चेतना के अविभाज्य अंग बन गए।
ग्राम देवताओं की मान्यता का स्वरूप स्वाभाविक ही सुसंगठित नहीं होता, क्योंकि आदिम-धर्मों में भी आध्यात्मिकता का बीज अवश्य रहा होगा किन्तु उसमें सुविचारित दार्शनिक पृष्ठभूमि या मोक्ष जैसे उच्चतर विचार शास्त्रजन्य संभावनाएं हैं। धर्म का मूल रूप आस्था और विश्वास का है, परिवर्तन के क्रम में धर्म के मूल घटक तो विद्यमान रहे, किन्तु अपेक्षाकृत जटिल होकर गौण होते गए लेकिन इन आदिम श्रद्धा केन्द्रों- ग्राम देवताओं का स्वरूप परंपरागत मान्यता पर आधारित, सहज और सरल बना रहा। हेनरी वाइटहेड (1921) के अनुसार- ''ग्राम देवताओं का कार्य महामारी और अनिष्ट से गांव की रक्षा करना है, ये ग्राम्य-जीवन के मौलिक तथ्यों के प्रतीक हैं और विश्व के निर्माण-संहार जैसी महत्तर शक्तियों से नहीं जुड़े होते।''
आशुतोष भट्टाचार्य (1955) कहते हैं- ''ग्राम देवताओं में व्यक्तिगत उपासना के बजाय सामुदायिक जनजीवन और उपासना में तत्व निहित हैं।'' डॉ. ओपर्ट, डाल्टन और हैविट ने भी इन्हीं विशिष्टताओं का उल्लेख विस्तार से किया है कि ''ग्राम देवताओं की पूजा से गांव माता-महमारी, पशुरोग, अकाल, अग्नि-दुर्घटना, बाढ़, असमय मृत्यु, सर्पदंश, वन्य-पशु आक्रमण की आशंका से मुक्त होकर सम्पन्नता और खुशहाली का जीवन व्यतीत करता है।'' ग्राम देवता खोई हुई वस्तु की प्राप्ति और पशु चोरी का पता करने जैसे दैनंदिन जीवन के तात्कालिक तथा स्पष्ट और सहज लक्ष्य के लिये व्यक्तिगत स्तर पर पूजे जाते हैं।
ग्राम देवता पहाड़, नदी-नाला, तालाब, जंगल, वृक्ष के अतिरिक्त सीमा पर, मार्ग में अथवा ग्राम के मध्य में स्थापित होते हैं। कोल समुदाय के वन्य ग्रामों में वन देवताओं की स्थापना ग्राम से संलग्न वन-खण्ड या अधिकतर शाल वृक्ष समूह में 'सरना' के रूप में की जाती है। सरना अत्यंत पवित्र व जागृत क्षेत्र माना जाता है। ग्राम व क्षेत्र की सामान्य बैठकें, मनोरंजन और पंचायत-निर्णय, देव साक्ष्य की उपस्थिति में, सरना में होता है साथ ही सरना राहगीरों को रात्रि विश्राम के लिए 'शरण' भी देता है।
इस अंचल के प्रत्येक मैदानी गांव का महत्वपूर्ण स्थल ठकुरदिया होता है, जहां गांव के मालिक-देवता, ठाकुरदेव अपने बाहुकों जराही-बराही और कहीं-कहीं परऊ बैगा व अन्य देवों के साथ विराजते हैं। ठाकुरदेव के ही मान्यता-साम्य बड़ादेव या बूढ़ा देव भी है। बूढ़ादेव के साथ बढ़ावन की मान्यता होती है, जो पत्थर की गोल गाटियां है, त्यौहार 'बार' के अवसर पर देव के साथ-साथ 'बढ़ावन' की पूजा होती है, और इसी प्रकार की मान्यता, ठाकुरदेव की स्थापना, शोधन और पुनर्स्थापना के लिए बैगा (ओझा-गुनिया) द्वारा पूर्ण कराई जाती है।
पुरानी बस्ती पर, विशेषकर नदी-नालों के किनारे बसे गांवों में अथवा गांव से संलग्न उजाड़-वीरान टीला, सरना या ठकुरदिया जैसा महत्वपूर्ण, 'डीह' क्षेत्र होता है, जहां देवकुल विद्यमान मानकर उन्हें पूजा जाता है। डीह, डिहवार या डिहारिन देव के रूप में मान्य पवित्रता के कारण, इस क्षेत्र के आसपास शुद्धता, पेड़ काटने की मनाही तथा यहां से गुरजते हुए पागा (पगड़ी) और पनही (जूता) उतार लेने की सावधानी बरती जाती है।
इस अंचल के प्रत्येक गांव में मातृ शक्ति, माताचौरा अथवा महामाया के रूप में विभिन्न नाम-विग्रहों से पूजी जाती है, इनमें शास्त्रीय सप्तमातृकाओं का मूल स्वरूप संभवतः 'सतबहिनियां' है, साथ ही अक्काइसों बहिनी की भी पूजा की जाती है। अन्य क्षेत्रों में जयलाला, बिलासिनी, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासुली, चण्डी का नामोल्लेख सतबहिनियों के रूप मिलता है। इस अंचल में सतबहिनियां को चेचक या सात माता बूढ़ी मां, मटारा, लोहाझार, कथरिया, सिंदुरिया, कोदइया, आलस के नाम से भी पूजा जाता है। सतबहिनियां का स्थान गांव के बाहर अधिकतर नाले, जल स्रोत या जल-प्रवाह के निकट होता है। नदी घाट पर घाटादेई पूजित होती है। महामाया की पूजा नवरात्रि पर जंवारा के रूप में होती है। गौरा की पूजा वार्षिक अनुष्ठान होता है जो जनजातीय समाज में प्रचलित है। गौरा, जंवारा, बार, मड़ई, जगार, जतरा आदि प्राचीन मह या वार्षिक मेले के रूप हैं जो मनौती या विशाल धार्मिक सामूहिक आयोजन है।
परा-शक्ति और ग्रामीणों के बीच की कड़ी बैगा (गुनिया, देवार, सिरहा) है। मान्यता है कि ग्राम देवता, बैगा के माध्यम से संदेश देते हैं। इन्हीं बैगाओं के पूर्व-पुरुष परऊ बैगा, देवता के रूप में पूजे जाते हैं, परऊ बैगा की स्थापना अंचल के अधिकतर मैदानी ग्रामों में अवश्य है। कुछ क्षेत्रों में बैगा की एक अन्य श्रेणी होमदेवा है जैसा कि नाम से स्पष्ट है- होमदेवा, मात्र होम दे सकते हैं, लेकिन देव आह्वान का अधिकार बैगा को ही होता है। बैगाओं में परऊ बैगा और गुरुओं में देगन गुरु जैसी प्रतिष्ठा अन्य की नहीं, लेकिन राउतराय, धेनु भगत, बिरतिया बाबा, बीर सुनइता, बीर बयताल, लाला साहब, राय मुण्डादेव, संवरादेव, सौंराइन दाई आदि की भी मान्यता है। देव प्रतिष्ठा अर्जित अन्य गुरु हैं- सेत गुरु, सोनू गुरु, संवत गुरु, भुरहा गुरु, बिद गुरु, ढुरु गुरु, अगिया गुरु, जोगिया गुरु, बंधू गुरु, देवा गुरु, बेन्दरवा गुरु, सइजात गुरु, सुंदर गुरु, अकबर गुरु, रहमत गुरु, मांधो गुरु, गुरु धनित्तर। शबर जनजाति (संवरा या सौंरा) इस अंचल में झाड़-फूंक मंत्रों के विशेषज्ञ माने जाते हैं। धनुहार और बिरहोर आदि जनजातियों में भी मंत्रों का विशेष प्रचलन है। कुछ स्थानों पर इन मंत्रों की विधिवत ज्ञान के लिए प्रशिक्षण केन्द्र होते हैं, जहां प्रत्येक नागपंचमी को दीक्षान्त समारोह होता है, दीक्षित शिष्य ही मंत्र-प्रयोग कर सकने का अधिकारी होता है।
गोंड़ जनजाति के परगनिहा और कुमर्रा देव भी, उनके धर्मगुरू हैं जिन्हें देवता की श्रेणी प्राप्त हैं, और ये समान रूप से ग्राम देवताओं के साथ पूजित होते हैं। नांगा बैगा-बैगिन जैसे प्रचलित देवताओं के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न ग्रामों में विभिन्न बैगा देवताओं की स्थापना ज्ञात होती है, उदाहरणतया- सुनहर, बिसाल, बोधी, राजाराम, तिजऊ, लतेल, ठंडा बैगा आदि। इसी प्रकार मुनि बाबा, पांडे देव, धुरुआ देव आदि की भी प्रतिष्ठा है। इनमें से कुछ स्थापनाओं के साथ मान्यता है कि इन देवों के चबूतरे पर सर्पदंश पीड़ित व्यक्ति को लिटा देने से या चबूतरे की मिट्टी खिलाने से लाभ होता है। सामान्यतया बैगा, जनजातीय समाज अथवा निषाद या कहीं-कहीं यादव जैसी पिछड़ी जाति के होते हैं, किन्तु कहीं सतनामी बैगा भी हैं।
अंचल में पूजित अन्य मुख्य देवों में विभिन्न बाबा, यथा- सिद्ध या सीतबावा, बरमबावा, भैरोबावा, मुड़ियाबावा, अघोरीबावा, कलुआबावा आदि हैं। पाट या पाठ देवता अधिकतर वृक्ष देव हैं, जिनमें कुर्रूपाठ, बासिनपाठ, कंवलापाठ, कोइलरपाठ, होइलरपाठ, मोहरिलपाठ, लोढ़िनपाठ, कोहारिनपाठ, सुरसापाठ, सेतरपाठ, लखेसरपाठ, करबा-करबिनपाठ, निरासीपाठ, पठरियापाठ, डूंगरपाठ, बइहारपाठ, सिंहासनपाठ, भंवरपाठ, अंधियारीपाठ, अंजोरीपाठ, बघर्रापाठ, डोंगापाठ, कोटरापाठ, नंगनच्चापाठ आदि हैं। देवियों में बमलई, समलई, महलई, खमदेई कोसगई, सरंगढ़िन, विशेसरी, सत्तीदाई, चण्डीदाई, मावली, कालिका, कंकालिन, सरपिन या पानी गोसाइन आदि भी पूजित होती हैं। कुछ अन्य देवी-देवता हरदेलाल, घोड़ाधार, सांहड़ादेव, सांढ़-सांढ़िन, परातिन, हाड़ादेव, नांगरदेव, चिरकुटी, खूंटदेव, खरकखाम्ह, अखराडांड, धूमनाथ, चितावरी, ठंगहादेव, जैसी विस्तृत सूची है। इनमें कुकुरदेव और बंजारी देवी को बंजारा-नायकों से संबंधित किया जाता है।
ग्राम देवताओं में सभी प्रकार की शुभंकर-अनिष्ट शक्तियां, मृत पूर्व पुरूषों की स्मृति, पुरानी व्यवस्था में ग्राम के प्रभारी दाऊ साहब का प्रतीक स्थान, परगनों अथवा जमींदारियां, रिसायतों के संबंध जैसे- सरंगढ़िन और मार्ग सूचक चिन्ह स्थान ओंगन पाठ, चिथरी दाई, ढेला देव सभी का आत्मीय साहचर्य महसूस किया जाता है। जिला मुख्यालय धमतरी के पास करेठा को कुआरी गांव माना जाता है, यहां होलिका दहन नहीं किया जाता और लोग कहते हैं कि यहां ग्राम देवी-देवताओं की शादी नहीं हुई है और इस गांव को कुंआरीडीह भी कहा जाता है। कनिंघम (1882) ने अपने विस्तृत निबंध में इसे दानव या असुर पूजा मान लिया है, किन्तु देवताओं से भयभीत होकर उन्हें सम्मान देने वाला जनमानस, वर्षा के लिए देवता से सहज आत्मीयता के पर्याप्त उदाहरण के रूप में, गोबर या मिट्टी लीप-पोत कर, धूप में बाहर निकालकर उसे दण्ड (सजा) भी देता है।
वस्तुतः यही वह बिन्दु है जहां मनुज जाति की व्यापकता से उपजी संस्कृति के सूत्रों का अनुमान होता है। इस बिन्दु पर हम सृष्टि की कोख से उत्पन्न प्रकृति- नदी, पहाड़, जीव-जन्तु, वनस्पति, परा-अपरा से एकाकार, अपने जनजातीय सम्पर्कों में सर्वबंधुत्व का आभास पाते हैं अतः ग्राम देवताओं के माध्यम से जनजातीय संस्कृति की पहचान के लिए विस्तृत और गहन शोध-सर्वेक्षण की आवश्यकता है, जिसमें ग्राम देवता की नामोत्पत्ति, स्थापना का इतिहास, अवस्थिति, भौतिक स्वरूप ज्ञान-मान्य रूप, पूजा का प्रयोजन उद्देश्य व अवसर, अन्य देवों से सम्बद्धता, पूजा में प्रयुक्त/निषिद्ध वस्तु के साथ-साथ बैगा-गुनिया परंपरा का समावेश हो ताकि सृष्टि में अपने मूल की तलाश करते हुए, सहोदर प्रकृति से स्वयं तक की सांस्कृतिक अनेकता में एकता का सूत्र पिरोया जा सके। यह ऐसी खोज है, जिसमें लक्ष्य तक न पहुंचने, परिणाम हासिल न होने के बावजूद भी जो मिलता है, वह कम नहीं।
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यह लगभग इसी रूप में रावत नाच महोत्सव समिति, बिलासपुर की
वार्षिक पत्रिका 'मड़ई' सन 1999 में प्रकाशित हुआ है। |
अपनी पिछली पोस्ट 'ठाकुरदेव' में जैसा उल्लेख किया है, छत्तीसगढ़ के ग्राम-देवताओं की जानकारी, शौकिया व अनियमित तौर पर पिछले लगभग 30 वर्षों से जुटा रहा हूं। इसकी शुरुआत सहज जिज्ञासा से हुई और यह हरि अनंत ... साबित हुआ है, लेकिन एक स्थिति में कुछ अन्य बातों सहित यह स्पष्ट हुआ कि आदिम समाज में बैगा, व्यक्ति और पूरे समाज के कायिक-मानसिक विकास के लिए उत्तरदायी रहे हैं, जो कार्य ब्राह्मणों के जिम्मे बंटा या जैसा प्रयास इसाई मशिनरियों ने किया। कायिक-मानसिक का तात्पर्य, स्वास्थ्य और शिक्षा से है। बैगा, झाड़-फूंक से 'कायिक' रोग-व्याधि दूर करते रहे हैं वहीं मंत्रों और देव स्थानों की पूजा-अनुष्ठान से अपनी परम्परा में 'मानसिक' शिक्षित-दीक्षित करते रहे हैं।
यहां मुख्यतः मध्य-मैदानी छत्तीसगढ़ में प्रचलित मान्यताओं के आधार पर चर्चा है। इसमें उत्तरी छत्तीसगढ़-सरगुजा और दक्षिणी छत्तीसगढ़-बस्तर के संदर्भ न के बराबर हैं। इसी तरह महाराष्ट्र से लगे पश्चिम सीमावर्ती छत्तीसगढ़ और उड़ीसा सीमा के पूर्वी छत्तीसगढ़ के हवाले यहां कम ही हैं।
ग्राम-देवता स्थलों के चित्र अकलतरा के हैं।
- यह पोस्ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 19 अगस्त 2012 के अंक में प्रकाशित।