कटहल और आम, पलाश और सेमल, कोयल की कूक के साथ महुए की गंध का मधु-माधव मास। चैती-वैशाखी का महीना, धर्म-अर्थ और काम से गदराया हुआ। खरीफ जमा है और रबी की आवक हो रही है। मेलों में मनोरंजन, खरीद-फरोख्त हुई। मेल-जोल में बात ठहरी, वह अब रामनवमी और अक्ती-अक्षय तृतीया की मांगलिक तिथियों पर वैवाहिक संबंधों के साथ रिश्तों तक आ गई, नई गृहस्थी जमने लगी है। खेती-बाड़ी का भी नया कैलेंडर शुरू हो रहा है।
रायपुर से उत्तर में 25 किलोमीटर दूर मोहदी के 1 मई, मजदूर दिवस का रंग लाल नहीं, बल्कि हरित होता है। 15 अप्रैल से 15 दिन की छुट्टी के बाद 'सौंजिया' फिर सालाना काम पर लगेंगे। कोई 15 साल पहले वैशाख अधिक मास होने से समस्या आई कि बढ़े महीने का हिसाब कैसे हो, तब आपसी मशविरे से यह काम-काज अंगरेजी तारीख से चलने लगा। सौंजिया, किसानी की अलिखित संहिता का पारिभाषिक शब्द है, जिसकी व्याख्या में कृषक जीवन के विभिन्न पक्ष उजागर हो सकते है। सामुदायिक जीवन की कल्पना सी लगने वाली हकीकत गांवों में सहज रची-बसी है, जिसकी शब्द-रचना भी मुझ जैसे के लिए कठिन है, लेकिन तोतली भाषा में स्तुति करते हुए संक्षेप में सौंजिया (सउंझिया- साझीदार/साझा) यानि खेती में श्रम भागीदारी से उपज के एक चौथाई का अधिकारी। बाकायदा सौंजिया संगठन है यहां, जो इसी दौरान अपनी कमाई के दम पर सांस्कृतिक आयोजन करता है।
लगभग 4000 आबादी वाला छोटा सा गांव, मोहदी। अब एटीएम, मोबाइल, मोटर साइकिल, भट्ठी, सरपंची, गरीबी रेखा, नरेगा के चटख रंग ही दिखाई पड़ते हैं, पड़ोसी लोहा कारखाने का भी असर हुआ है, फिर भी गांव की संरचना के ताने-बाने को कसावट देने वाले कई समूह-वर्ग ओझल-से लेकिन सक्रिय हैं। पारा-मुहल्ला, टेन (गो-धन स्वामी आधारित वर्ग), पार (जाति आधारित वर्ग), दुर्गा मंदिर समिति और सबसे खास ग्रामसभा, गांव के पंच-सरपंच और प्रमुख नागरिकों की 25 सदस्यीय समिति, जो रामकोठी का संचालन करती है।
पुरानी बात, गांव में दशहरे का उत्साह है। भजन, माता सेवा, रामायण तो चलता ही रहता है, लेकिन अब की झांकी और लीला की खास तैयारी है। धूमधाम से त्यौहार मना। रामलीला की चढ़ोतरी में इकट्ठा हुआ धान इस बार किसी गांवजल्ला काम में खर्च नहीं किया जा रहा है, उसे जमा कर दिया गया है। अब मोहदी में भी रामकोठी है। 85 बरस पहले और आज भी। 'कोठी' यानि कोष्ठ या भण्डार और 'राम' विशेषण-उपसर्ग का यहां आशय होगा- शुभ, वृहत् और निर्वैयक्तिक। पुरानी रामकोठी छोटी पड़ने लगी तो बड़ा भवन बन गया।
छत्तीसगढ़ में देशज ग्रामीण बैंक जैसी संस्था रामकोठी कांकेर, धमतरी, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा और रायपुर जिले में अधिक प्रचलित है। दुर्ग जिले के तेलीगुंडरा की रामकोठी प्रसिद्ध है। आसपास के गांवों गोढ़ी, नगरगांव में भी रामकोठी है, लेकिन मोहदी की बात कुछ और है। यहां आज भी लगभग डेढ़-दो सौ क्विंटल धान क्षमता यानि कम-से-कम दो लाख रूपए मूल्य की जमा-पूंजी है। सवाया बाढ़ी (ब्याज) पर दिये जाने वाले कर्ज की दर अब 15 प्रतिशत सालाना कर दी गई है। त्रुटि और समस्या रहित ग्रामीण प्रबंधन। गांव में रामलीला मंडप भी बन गया। गांव के लोग मिलकर ही रामलीला करते थे, लेकिन चटख रंगों का असर हुआ और पिछले दशहरा में एक सप्ताह के लिए लीला पार्टी पड़ोसी गांव कचना से आई।
रामलीला मंडप पर नाम लिखा है- श्री मुकुंदराव। इस मंच के सामने बछरू (बछड़ा) बंधा दिखा। मेरा देहाती मन भटक जाता है। भंइसा, बइला-बछरू, किसान की ताकत। बछड़े के गले में लदका है, गर्दन पर हल का जुआ रखने का अभ्यास कराया जा रहा है। नाक नाथने का काम किसान कर लेता है, लेकिन सबसे जरूरी बधिया, अब गांव में कोई नहीं कर पाता, पास के पशु औषधालय में जाना पड़ता है। लदका, नथना और बधिया, किसान के जवान होते, मचलते पुत्र के साथ जुड़ रहा है, चाहें तो आप अपनी तरह से सोच कर देखें।
वापस, मुकुंद नाम पर। इसका खास महत्व है, रायपुर और छत्तीसगढ़ के लिए। वैसा ही जो 'शिकागो' नाम का है, दिल्ली और देश के लिए। यानि वह नाम, जो महान व्यक्तियों, नेताओं-अभिनेताओं की आवाज दूर-दूर पहुंचाने का साधन रहा है।
मोहदी में रामकोठी की तलाश करते हुए जो सूत्र मिला, उससे रास्ता तय हुआ मुकुंद रेडियो तक का। यह इतिहास की रामकोठी, खजाने जैसा ही है, जहां रायपुर और छत्तीसगढ़ पधारी हस्तियों की सचित्र स्मृति जतन कर रखी है।
रामकोठी की इस रामकहानी में एक रावण भी है, लेकिन यह रावण खलनायक नहीं, बल्कि सहनायक जैसा है और ग्राम देवताओं की तरह सम्मान पाता है।
82 वर्षीय इस रावण प्रतिमा की प्रतिदिन पूजा होती है, मनौती मानी जाती है, नारियल भी रोज ही चढ़ता है। इस क्षेत्र के अन्य ग्रामों की तरह पड़ोसी गांव बरबन्दा में भी रावण प्रतिमा है। गांववासियों से पूछता हूं- 'कस जी, तू मन रावन के पूजा करथव ग।' मेरे सवाल में जिज्ञासा के साथ चुभने वाली फांस भी है, लेकिन जवाब सपाट है- 'हौ, वहू तो देंवता आए एक नमूना के बपुरा (बेचारा) ह।' सटपटा कर, सभी ग्राम देवताओं सहित रावण को हमारी राम-राम।
हड़प्पायुगीन विशाल अन्नागारों को सामुदायिक प्रयोजन का माना गया है। नियमित लेखन के सबसे पुराने, चौबीस सौ साल पहले के दोनों नमूने इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। महास्थान (बांग्लादेश) के मागधी प्रभावित प्राकृत लेख में धान्य और कोठागल (कोष्ठागार) शब्द मौर्यकालीन ब्राह्मी में उत्कीर्ण है, जिसमें कर्ज लेन-देन का भी उल्लेख है। इसी तरह सोहगौरा, उत्तरप्रदेश वाले ताम्रपत्रलेख में भी ‘दुवे कोट्ठागालानि‘ (दो कोष्ठागार) अंकित है। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के मदकू घाट (मदकू दीप) से मिले अट्ठारह सौ साल पुराने शिलालेख में अक्षयनिधि का उल्लेख भी इसी परंपरा का आरंभिक प्रमाण माना जा सकता है। छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी सिरपुर की खुदाई से हाल ही में बारह सौ साल पुराने अन्नागार प्रकाश में आए हैं।
अक्षय तृतीया पर परिशिष्टः
1 मई, श्रम दिवस है। 2 मई, सत्यजित राय की जन्मतिथि और इस वर्ष आज 6 मई को अक्षय तृतीया, इन तीन तिथियों का संयोग, छत्तीसगढ़ और रावण के साथ जुड़ कर पंचमेल बन रहा है, यह भी देखते चलें।
कहानी की पृष्ठभूमि इस उद्धरण से स्पष्ट है- ''दुखी ने सिर झुकाकर कहा- बिटिया की सगाई कर रहा हूं महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगीॽ'' लेकिन छत्तीसगढ़ में रामनवमी और अक्ती (अक्षय तृतीया), ऐसा साइत-सगुन है, जिस पर कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में जाति-सौहार्द की परम्परा और तथ्यों के ढेर उदाहरण हैं (रावण भी देव-तुल्य है), लेकिन सद्गति में अनुसूचित जाति के लिए प्रयुक्त शब्द अब न सिर्फ निषिद्ध है वरन विस्फोटक हो सकता है। इन सब बातों का सार यह कि प्रेमचन्द और सत्यजित राय जैसे पंडितों के सामने हमारी स्थिति कहानी के 'दुखी' की नहीं तो चिखुरी गोंड़ से अधिक भी नहीं और इस दृष्टि से कहानी और फिल्म 'सद्गति' की देश-काल प्रासंगिकता प्रश्नातीत नहीं।
प्रेमचंद पर टिप्पणी करते हुए बख्शी जी के निबंध 'छत्तीसगढ़ की आत्मा' का उद्धरण तलाश रखा है- ''जो सामाजिक समस्या प्रेमचन्द जी की ग्राम्य-कहानियों में विद्यमान है, उनके लिए यहां स्थान नहीं है।''