सन 1998 में रामकथा के तीन ग्रंथों का प्रकाशन मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क विभाग से हुआ। क्रम से नाम लें तो हलबी रामकथा, माड़िया रामकथा और मुरिया रामकथा। ग्रंथों के सम्पादक प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल हैं तथा हलबी रामायण में उनके नाम के साथ संग्राहक और अनुवादक भी उल्लिखित है। ग्रंथ में छपा है मूल्य : आदिवासियों में निर्मूल्य वितरण। वैसे तो सेंटीमीटर और ग्राम में माप-तौल भी हो सकती है, लेकिन किसी ग्रंथ का ऐसा तथ्य-आग्रही मूल्य-महत्व बताना वाजिब नहीं, सो भारी-भरकम इन ग्रंथों का आकार कल्याण के विशेषांक जैसा और पृष्ठ संख्या क्रमशः 688, 454 और 644 है।
प्रथम खण्ड माड़िया रामकथा (कोयामाटते रामना पाटा-वेसोड़) लिंगो ना वेहले पाटा (गोंडी रामकथा मंजूषा) के लिए कहा गया है कि यह ''रामकथा'' बस्तर की माड़िया-जनजातियों की वाचिक परम्परा की पुनर्रचना है। यह भी बताया गया है कि बस्तर की माड़िया जनजाति दो वर्गों में विभाजित है- अबुझमाड़ की अबुझमाड़िया, तथा दक्षिण बस्तर की दंडामी माड़िया।
अबुझमाड़िया तथा दंडामी माड़िया यद्यपि जातीय नाम से समान हैं, किन्तु इनकी बोलियां आपस में दुर्बोध हैं। अबुझमाड़िया मुरिया के बहुत अधिक निकट है। कोई भी मुरिया अबुझमाड़िया को आसानी से समझ सकता है, किन्तु किसी दंडामी माड़िया के लिए अबुझमाड़िया एक अबूझ पहेली है।
प्रो. हीरालाल शुक्ल |
ग्रंथ की भूमिका में यह उपयोगी और रोचक स्पष्टीकरण है कि गोंडी की सभी बोलियों में लोकगीत के लिए पाटा शब्द समान रूप से प्रचलित है। लोककथाओं के यहां तीन रूप मिलते हैं-
(क) सामान्य कथा के लिए अबुझमाड़िया में पिटो, दंडामी माड़िया में वेसोड़, तथा दोर्ली में शास्त्रम शब्द प्रचलित है।
(ख) पौराणिक और धार्मिक कथाओं के लिए दंडामी माड़िया तथा दोर्ली में पुरवान शब्द प्रचलित है, जो पुराण का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है।
(ग) दंडामी माड़िया में वेसोड़ किसी कथा का वाचक है, जबकि दोर्ली में यह गीतकथा का उपलक्षक है। दंडामी माड़िया में गीतकथा के लिए पाटा-वेसोड़ शब्द प्रचलित है।
द्वितीय खण्ड मुरिया-रामचरितमानस लिंगोना वेहले पाटा (गोंडी रामकथा मंजूषा) में संपादक के अनुसार वे लगभग तीन दशकों तक मुरिया समाज में रामचरितमानस के गोंडी प्रारूप पर घोटुल के युवक-युवतियों के साथ बैठकर 'पाटा' बनाते रहे। उन्हीं के शब्दों में ''मैं इन युवक-युवतियों को मुरिया गोंडी में रामचरितमानस का अर्थ समझाता और अपने आशु कवित्व के कारण ये शीघ्र पाटा पारने लगते। दो दशक के बाद समूचे रामचरितमानस का इसीलिए (सन 1977 में) मुरिया में अनुवाद संभव हो सका।'' इसके साथ मुरिया रामकथा के 36 लोक-गायकों और 4 गायिकाओं की सूची दी गई है।
हलबी रामकथा की भूमिका में संपादक का कथन है- ''1962 से 1992 के मध्य तीन दशकों तक मेरे द्वारा सम्पादित प्रेरित या लिखित अब तक दर्जनों ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें रामकथा, गुंसाई-तुलसीदास तथा हलबी-रामचरित मानस (अक्षरशः सम्पूर्ण अनुवाद) उल्लेखनीय है। प्रस्तुत ''हलबी-रामकथा-मंजूषा'' में अब तक अप्रकाशित शेष रचनाओं का संग्रह है।
हलबी रामकथा के संपादकीय का अंश है-
''रामचरितमानस'' भारतीय-साहित्यचो अनुपम गंगा आय। एचो अमरुतचो सुआदके सियान-सजन, माई-पीला पातो एसत। एचो थाहा पाउक नी होय। एचो खोलने, गड़ेयाने डुबकी मारुन गियानचो रतन पाउन-पाउन कितरोय लोग सवकार होते एसत।
ए बड़े हरिकचो गोठ आय कि हलबी 'रामचरित' असन मौंकाने मुर होयसे, जे मौंकाने आमचो देश आजादी चो '50वीं बरिसगांठ' मनाएसे। 'रामचरितमानस' चो लिखलो 500 बरख पूरली।
मके बिसवास आसे कि ए किताबचो अदिक चलन होयदे। बस्तरचो बनवासी-रयतचो सांस्कृतिक भूक बुतातो उवाटने ए पोथी खिंडिक बले साहा होली जाले, आजादीचो 50वीं बरिसगांठ चो भाइग होली समझा।
पश्च-लेखः
ऊपर का लगभग पूरा हिस्सा इन ग्रंथों से लिया गया है। अब कुछ अपनी बात। वैसे तो थोड़ा कान खुला रखने वाले हिंदीभाषी के लिए समझना मुश्किल नहीं, फिर भी हलबी वाले पहले पैरा का अनुवाद इस तरह होगा-
रामचरितमानस भारतीय साहित्य की अनुपम गंगा है। इसके अमृत का स्वाद बड़े-बुजुर्ग, अबाल-वृद्ध पाते रहते हैं। इसकी थाह पाई नहीं जाती। इसकी गहराई में उतर कर, डुबकी मार के (लगाकर), ज्ञान का रत्न पा-पाकर कितने ही लोग साहूकार (सम्पन्न) होते रहते हैं।
भाषाई दृष्टि से अर्द्ध-मागधी या पूर्वी हिंदी की एक जबान (यहां तकनीकी-पारिभाषिक प्रयोजन न होने के कारण भाषा, बोली, उपभाषा के बजाय 'जबान' से काम चलाने का प्रयास है) छत्तीसगढ़ी है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी के साथ उत्तरी भाग में सरगुजिया और दक्षिण में हलबी स्वरूप, व्यापक और लगभग संपूर्ण संपर्क माध्यम है। पेवर छत्तीसगढ़ी (ठेठ-खांटी छत्तीसगढ़ी में शुद्ध के लिए शायद अंगरेजी 'प्योर' का अपभ्रंश पेवर शब्द प्रचलित है) या मध्य मैदानी छत्तीसगढ़ की जबान में भोजपुरी-मगही स्वाद लिए सरगुजिया (सादों या सादरी सहित) और मराठी महक व उड़िया छौंक वाली हलबी की भाषाशास्त्रीय विविधता रोचक है ही, इनकी वाचिक परम्परा के रस से थोड़ा परिचित होते ही, अरसिक भी इनमें ऊभ-चूभ होने लगता है। अपनी कहूं तो पहली जबान छत्तीसगढ़ी के बाद दोनों मौसियों सरगुजिया और हलबी से परिचित होने पर मुझे मातृभूमि पर सकारण गर्व होने लगा और भारतमाता के समग्र सांस्कृतिक रूप का कुछ अनुमान हो पाया।
त्वरित संदर्भ के लिए यह कि बस्तर अंचल पौराणिक-ऐतिहासिक दण्डकारण्य और महाकान्तार के नाम से जाना जाता था। पूर्व रियासत बस्तर का मुख्यालय आज की तरह ही जगदलपुर रहा, वैसे पुरातात्विक प्रमाणयुक्त बस्तर नाम का एक छोटा गांव भी जगदलपुर के पास ही है। रियासत के बाद बस्तर जिला, फिर संभाग बना। फिर उत्तरी बस्तर कांकेर जिला बना और दक्षिणी हिस्सा दंतेवाड़ा। सन 2007 से बीजापुर और नारायणपुर जिलों के गठन के बाद, अब 18 जिलों और 4 संभाग वाले छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर संभाग में 6, सरगुजा में 4, बिलासपुर में 3 तथा बस्तर संभाग में 5 जिले हैं।
कुछेक विद्वान रावण की लंका को बस्तर में ही मानते हैं। बस्तर के भाषाई-सांस्कृतिक सेतु स्वरूप इस ग्रंथ की तैयारी और प्रकाशन के दौरान न सिर्फ इसकी खोज-खबर रही, बल्कि एकाध अवसर पर मैंने सेतुबंध की गिलहरी-सा उत्साह भी महसूस किया था, वह आज रामनवमी पर याद कर रोमांचित हूं।
श्री हरिहर वैष्णव द्वारा ई-मेल से बस्तर में रामकथा पर प्राप्त महत्वपूर्ण सूचना (टिप्पणी के रूप में प्रकाशित) तथा दो छायाचित्र नीचे लगाए गए हैं -
इन ग्रंथों के प्रकाशन के लिए जनसंपर्क विभाग के साथ आप भी बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं।
ReplyDeleteप्रोफेसर हीरालाल शुक्ल ने तीन दशकों तक इन पर कार्य किया । उनका परिश्रम, धैर्य और लगन वंदनीय है। शुक्ल जी ने इसी अवधि में छह खंडों में ‘आदिवासी बस्तर का वृहद् इतिहास‘ भी लिखा। इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है-
‘अंग्रेज इतिहासविद् गिब्सन के पश्चात आज तक बस्तर के इतिहास लेखन का मेरे अतिरिक्त किसी ने प्रयास नहीं किया।‘
क्या छत्तीसगढ़ के विद्वान इसी तरह का कोई कार्य करने का बीड़ा उठाएंगे ?
सुन्दर और महान कार्य, मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों को स्थानीय भाषा में अनुवाद करने का।
ReplyDeleteयह काम उत्साह व रोमांच महसूस करने वाला ही है।
ReplyDeleteशुभकामना संदेश से इतर यह बेहतर है. रामकथा की पूरे भारत भर में कई कथाएं मिलती है. जनजातियों की इस रामकथा का यह विवरण उत्सुकता को बढाता है. और यहे उम्मीद करने पर बाध्य करता है कि इसके पाठ अन्य रामकथाओं से कैसे अलग है इसका वर्णन भी आप हम तक पहूंचायेंगे.
ReplyDeleteएक शोधपरक लेख के लिये आभार. हम अपनी संस्कृति को ऐसे ही बचा पायेंगे.. आप जैसे अनेकानेक व्यक्तियों की आवश्यकता है समाज को..
ReplyDeleteअद्भुत लेख राहुल भाई बधाई
ReplyDeleteरामचरित मानस भारतीय साहित्य की गंगा है इस पर तो कोई विवाद हो ही नहीं सकता
दुर्भाग्य ही कह सकतें है कि आज तो रामायण पाठ भी दिखावे का माध्यम बनता जा रहा है रही बात रामकथा लेखन के तरीकों कि तो यह तो कहा ही गया है कि
हरी अनंत हरी कथा अनंता
कहहीं सुनहीं बहु विधि सब संता
पुनः बधाई
बहुत ही सुंदर पोस्ट । सर इस श्रम को हमारा भी सलाम
ReplyDeleteरामन्वमी के अवसर पर आपने इस ग्रंथ से परिचय कराकर उत्कृष्ट जानकारी मुहैया करायी है।
ReplyDeleteमैने भी माड़िया गोंड पर एक अधकचरा सा लेख लिखा था पर यदि इन पुस्तकों की जानकारी मुझे होती तो मै कुछ बेहतर कर पाता आपको इस अद्वितीय जानकारी प्रदान करने के लिये दिल से धन्यवाद
ReplyDeleteअद्भुत लेख,शोधपरक हमेशा की तरह.राहुल भैया आपने ब्लॉग लेखन को एक नयी ऊँचाई दी है. शुक्रिया.
ReplyDeleteआज रामनवमी के अवसर पर आपका ये शोधपरक लेख पढकर हम भी रोमांचित हो गए हैं राहुल भैया.आज का दिन सफल हो गया.
ReplyDeleteइस जानकारी के लिए आपका बहुत बहुत आभार !
ReplyDelete। ग्रंथ में छपा है मूल्य : आदिवासियों में निर्मूल्य वितरण।
ReplyDeleteराहुल जी, आज के संदर्भ में ज़रूरी था इस वाक्य का उल्लेख भी.
दशकों तक किये गये शोध कार्य को हमने मिनटों में जान लिया, आपका आभार. शुक्ल जी तो वंदनीय हैं ही.
रामनवमी के मौके पर यह आलेख .....धन्यवाद स्वीकारें....
ReplyDeleteसच में जनमानस के हैं राम......
prashanshniye ,ramnavmi ki badhai .
ReplyDeleteयह विलक्षण कार्य करने वाले के प्रयासों की कल्पना मात्र से रोमांच उत्पन्न हो जाता है!
ReplyDeleteराहुल जी रामकथा तो हमारे मानस व संस्कृति का प्रतिरूपण है। इसीलिए तो कविवर तुलसीदास जी ने अपनी क़त रामकथा महाकाव्य का नाम भी रामचरित मानस रखा। इस रामकथा का अपनी रीति-परम्परा व आदर्श के अनुरूप ही विभिन्न क्षेत्रों व समुदायों ने रचना,व्याख्या और परम्परा का निर्बहन किया है। अपनी आदिम जनजातीय संस्कृति में रामकथा की रचनाओं का इतनी सुन्दर व दुर्लभ अभिव्यक्ति हेतु साधुवाद व हार्दिक अऴिनंदन।
ReplyDeleteबस्तर के रामचरित के प्रणयन परिप्रेक्ष्यों की इस जानकारी के लिए आभार !
ReplyDeleteशायद सांकलिया इस तरह की बातें करते थे की लंका आज की लंका से पृथक कहीं थी -बाकी बस्तर का वन दंडकारण्य रहा होगा बुद्धिगम्य लगता है !
@ राहुल सिंह जी ,
ReplyDeleteसबसे पहले आपको रामनवमी की हार्दिक शुभकामनायें उसके बाद साधुवाद कि इस बार भी आप अत्यंत विचारोत्तेजक प्रविष्टि लेकर हाज़िर हुए हैं !
भले ही आप इसे मजाक समझियेगा पर आज सुबह सुबह संयोगवश टी.वी.पर निर्मल दरबार वाले निर्मल बाबा जी को देखते हुई आप लगातार याद आते रहे लेकिन इस बात पर कैसे और क्यों का कोई जबाब / तर्क नहीं है मेरे पास !
@ सबसे पहले लंका,
यहां तालाब या नदी के किनारे स्थित ऊंचे टीले पर बसी बस्ती /टोले /मोहल्ले/पारा को लंका का संबोधन आम है ! ऐसे में विद्वान अगर लंका की खोज कर डालें तो इसमें आश्चर्य कैसा :)
कुछ महीनों पहले एक धार्मिक /सांस्कृतिक आद्य-बिंदु खोजी दल यहां से गुज़रा उसने श्रीराम वनगमन का मार्ग भी निर्धारित कर दिया है ! इसी तरह से यहां के एक भूतपूर्व विधायक स्वर्गीय साहित्यकार बंधु ने तो केसकाल घाट से कालिदास के मेघदूत वाले मेघों के टकराने का दावा भी किया था :)
@ बस्तर में राम कथा,
श्री हीरालाल शुक्ल जी ख्यातनाम भाषाविद हैं,उनके कथनानुसार उन्होंने तीस वर्षों के अथक परिश्रम से जनजातीय वाचिक परम्परा की पुनर्रचना की है ! स्मरण रहे कि ...वे कहते हैं वाचिक परंपरा की पुनर्रचना :)
उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया कि मौखिक साहित्य में व्याप्त रामकथा सन्दर्भों का संकलन करने के उपरान्त उन्होंने टूटी हुई कड़ियों को बाबा तुलसी दास कृत श्री रामचरितमानस के प्रसंगों में ढालने का प्रयत्न किया है ! इससे वे आगे लिखते हैं कि...
''मैं इन युवक-युवतियों को मुरिया गोंडी में रामचरितमानस का अर्थ समझाता और अपने आशु कवित्व के कारण ये शीघ्र पाटा पारने लगते। दो दशक के बाद समूचे रामचरितमानस का इसीलिए (सन 1977 में) मुरिया में अनुवाद संभव हो सका।''
अब संभ्रम यह है कि उन्होंने श्री रामचरित मानस का स्थानीय बोलियों में अनुवाद करवाया याकि बस्तर में वाचिक परंपरा के रूप में पहले से ही मौजूद राम कथा की टूटी हुई कड़ियाँ जोड़ कर पुनर्रचना की ?
ऐसा लगता है कि राम अदिवासी जीवन के पोर पोर में,
ReplyDeleteबोली बोली में समाये हैं.
मौका लगने पर पढना चाहूँगा सर जी.
what about संभ्रम of Ali sahab
बहुत अच्छी ग्यानवर्द्धक जानकारी है धन्यवाद।
ReplyDeleteADARNIYA RAHUL JI.
ReplyDeleteBAHUT HI SUNDER POST
......BADHIYA JAANKARI KE LIYE SHUKRIYA
दुर्गाष्टमी और रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeletesahejne yogya.....saath hi ali sa ko bbi abhar
ReplyDeletepranam.
ई-मेल से प्राप्तः
ReplyDeleteहरिहर वैष्णव दिनांक : 12.04.11
सरगीपालपारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर, छत्तीसगढ़
दूरभाषः 07786242693, मोबा. : 9300429264
ईमेलः lakhijag@sancharnet.in
आदरणीय राहुल सिंह जी
नमस्कार।
आज के 'सिंहावलोकन' में प्रकाशित ''बस्तर में रामकथा'' शीर्षक आपके महत्त्वपूर्ण आलेख के लिये आपको सदा की तरह धन्यवाद। आभार आपका। हल्बी रामकथा के संपादकीय के अंश के 99.99 प्रतिशत हिन्दी अनुवाद के लिये भी बधाई।
यह पोस्ट पढ़ते-पढ़ते ही कुछ बातें याद आने लगीं। सोचा, आप तक पहुँचा ही दूँ। सम्भवतः इसे आप उपयोगी पायें।
इस समय मेरे सामने रामकथा से सम्बन्धित दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तकें रखी हुई हैं (देखें दोनों के चित्र)। पहली है, ''रामकथा'', जिसके लेखक हैं बस्तर के मूर्धन्य साहित्यकार श्रीयुत् लाला जगदलपुरी जी (कवि निवास, डोकरीघाट पारा, जगदलपुर, बस्तर, छ.ग.)। और दूसरा ग्रन्थ है, श्री गोस्वामी तुलसीदास विरचित श्रीरामचरितमानस का हल्बी पद्यानुवाद। अनुवादक हैं बस्तर के ही सुप्रसिद्घ साहित्यकार श्री रामसिंह ठाकुर (नारायणपुर, बस्तर, छ.ग.)।
''रामकथा'' (लाला जगदलपुरी) का प्रकाशन मध्यप्रदेश रामचरितमानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति, भोपाल द्वारा 197879 में किया गया था। 108 पृष्ठीय इस पुस्तक में श्रीरामजन्म से ले कर रावणवध के बाद अयोध्या वापसी तक की कथा हल्बी में प्रस्तुत की गयी है। इसी तरह श्री गोस्वामी तुलसीदास विरचित श्रीरामचरितमानस के 666 पृष्ठीय हल्बी पद्यानुवाद (रामसिंह ठाकुर) का प्रकाशन भी मध्यप्रदेश रामचरितमानस चतुश्शताब्दी समिति, भोपाल द्वारा ही 1991 में किया गया था। इस पद्यानुवाद का आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से प्रातःकालीन सत्र में नियमित प्रसारण भी आरम्भ किया गया था किन्तु कुछ समय बाद कतिपय कारणों से इसका प्रसारण बन्द कर दिया गया।
बस्तर के इतिहासलेखन की जहाँ तक बात है, मेरी जानकारी में स्व. गनपत लाल साव 'बिलासपुरी' और जगदलपुर (बस्तर, छ.ग.) निवासी शिक्षाविद् एवं इतिहासकार डॉ. के. के. झा तथा श्री रोहिणी कुमार झा के भी नाम इस सन्दर्भ में लिये जाते हैं। श्री लाला जगदलपुरी एवं डॉ. रामकुमार बेहार ने भी बस्तर के इतिहास पर अपनी कलम चलायी है।
पुनः आभार सहित।
आपका :
हरिहर वैष्णव
बहुत ही ज्ञानवर्द्धक जानकारी...
ReplyDeleteअनुपम कार्य है यह...
इतने शोधपरक आलेख के लिए आभार
कुछ भी कहने की दशा में नहीं हूँ। बस यही कि ईश्वर मेरी शेष आयु आपको दे दे। समय और समाज को आपकी अधिक आवश्यकता है।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख, धन्यवाद!
ReplyDeleteगीत के लिए पाटा शब्द तेलुगु में भी प्रयुक्त होता है। तमिळ में कुछ मिलता जुलता सा ही है।
@अब संभ्रम यह है कि उन्होंने श्री रामचरित मानस का स्थानीय बोलियों में अनुवाद करवाया याकि बस्तर में वाचिक परंपरा के रूप में पहले से ही मौजूद राम कथा की टूटी हुई कड़ियाँ जोड़ कर पुनर्रचना की?
ऐसा लगता है कि बस्तर की वाचिक परम्परा का लेखन करते समय पायी टूटी कडियों में टांका मानस का लगाया गया है।
मेरे लिए एकदम नयी जानकारी है बहुत रुचिकर रही ! राम नवमी पर इस लेख को लिखने में किया गया आपका श्रम व्यर्थ नहीं जाएगा ! हार्दिक आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए धन्यवाद|
ReplyDeleteबस्तर में लंका? रोचक! सेतु कहां बान्धा होगा राम सेना ने?
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट
ReplyDeleteज्ञानवर्धक जानकारी के लिए धन्यवाद|
बहुत ही महत्वपूर्ण लेख. आभार.
ReplyDeleteहमेशा की तरह आज भी बहुत कुछ जानने को मिला और इससे अच्छी बात क्या हो सकती है........मुझ अकिंचन की और से सादर आभार स्वीकार करें |
ReplyDeleteगौरव..
excellent - dr jsb naidu
ReplyDeleteek sunder prayas.bahut bahut badhai ho..
ReplyDeleteRAM NAVMI par aap ka programm ZEE Tv par dekha sunder prayas...
jai baba banaras...
ईमेल से प्राप्त आदरणीय प्रो. हीरालाल शुक्ल जी का संदेश
ReplyDeleteDear Mr Rahul
I saw you blog in 'bastar cho rama katha'. It is very well presented
thank you for this excellent dispatch.
Regards
Prof. HL Shukla
Bhopal
रामचरितमानस जैसे आदर्श ग्रंथ का स्थानीय अनमोल चित्रण..आपके ब्लॉग को पढ़्ने पर हमेशा ज्ञान की ग्रंथियों का विकास होता है..लाजवाब..
ReplyDeleteबड़ा अच्छा लगा जानकार कि ये पुरानी धरोहरें छोटी छोटी भाषाओं के माध्यम से आम जनों तक पहुँच रही हैं.... अन्य भाषाओं और बोलियों में भी लोगों के काम करने की जरुरत है...
ReplyDeleteयह कुछ कम पल्ले पड़ा। लेकिन कुछ कहूंगा। कुछ लोग टिप्पणियों के बीच अचानक बधाई और शुभकामना संदेश सुना जाते हैं, यह ठीक नहीं लगता मुझे। बात इस बार की नहीं किसी पर्व या दिवस के समय की है।
ReplyDeleteमेरे कान अधिक नहीं खुले कि अर्थ समझता। कुछ वाक्य तो समझ गया था।
लंका पर मानस-शंका-समाधान किताब में कहा गया है वह लंका है ही नहीं ये सब, श्रीलंका भी नहीं। क्योंकि राम ने विभीषण को एक कल्प तक राज करने का वरदान दिया था। और एक कल्प 72*4320000 साल का होता है। लेकिन अभी विभीषण भाई दिखते नहीं कहीं।
बस्तर पर 1982 के मुक्ता के एक अंक में छपा बस्तर की प्रेमकथा याद आ रही है।
किताबों की लिपि नागरी ही है। और मूल्य ऐसा है!
इस पोस्ट से मुझे अत्यधिक लाभ और ज्ञान प्राप्त हुआ। कुछ मायनों में लाभ भी ज्ञान ही है और ज्ञान भी कहीं कहीं लाभी ही होता है। मुझे दोनों हुए। धन्यवाद!
ReplyDeleteI am now not certain the place you're getting your information, however great topic. I needs to spend some time learning more or figuring out more. Thanks for fantastic info I was on the lookout for this info for my mission.
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