Wednesday, March 26, 2025

परीक्षक गुरु

परीक्षक रहे गुरुओं की याद, जिन्होंने परीक्षा में नंबर दिए, उससे अधिक अपने व्यवहार से सिखाया, किसी विद्यार्थी के लिए दुर्लभ, वह सम्मान मुझे इनसे मिला। ऐसे तीन- रमानाथ मिश्र जी, रहमान अली जी और बालचंद्र जैन जी। 

डॉ. रमानाथ मिश्र 1980-81, स्नातकोत्तर अंतिम की परीक्षा के वैकल्पिक प्रश्न-पत्र के वाह्य परीक्षक। लघु शोध-निबंध विकल्प के लिए डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम मार्गदर्शन थे। विषय था- ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर: एक अध्ययन‘ था। जांजगीर का भीमा या नकटा कहा जाने वाला यह मंदिर बार-बार देखा हुआ था, गृह-ग्राम अकलतरा के करीब था, कई कथाएं चलती थीं, छमासी रात, मंदिर के दो हिस्से, भीम बली और उसकी छेनी-हथौड़ी। इन सबको समझने-बूझने का मन होता। इसके बावजूद इस पर काम करने के लिए हिचक थी, निगम सर से मैंने कारण बताया कि ‘मैटर नहीं मिलता‘, इस पर उन्होंने कहा, फिर तो इसी पर काम करो, यह बात मैंने हमेशा के लिए गांठ बांध ली। निबंध लिखने की तैयारी के दौरान मार्गदर्शन के लिए वे स्वयं भी जांजगीर आए। जहां कहीं अटका, स्नातक कक्षाओं के गुरु डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर इसके लिए मार्गदर्शन देते रहे। निगम सर मेरे लिखे को बार-बार जांचते रहे, इसके लिए ऐसा भी अवसर आया कि वे कॉलेज के बाद साथ लगे हॉस्टल के मेरे कमरे में आ गए।  

परीक्षा का परिणाम आया। शोध-निबंध में मुझे आशा से अधिक नंबर मिले थे। निगम सर ने बताया कि वाह्य परीक्षक भारतीय और कलचुरि कला-स्थापत्य के बड़े विद्वान थे, उन्होंने इसे बहुत पसंद किया। कुछ साल बाद निगम सर ने किताब दिखाई, जिसमें मेरे शोध-निबंध से लिया गया जांजगीर के इस विष्णु मंदिर की भू-योजना का रेखांकन उल्लेख सहित शामिल था, मेरे लिए इससे बढ़कर और क्या हो सकता था कि रमानाथ मिश्र जैसे विद्वान की पुस्तक में इसे स्थान मिला है। 


तब तक मैं मिश्र सर से कभी नहीं मिला था। उनकी यह पुस्तक आने के कुछ साल बाद एक सेमिनार में मैं उनसे मुलाकात हुई, उन्हें बस अपना नाम बता पाया कि उन्होंने तुरंत याद किया, ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर‘। मैं उनका आभार व्यक्त करूं इसके पहले ही उन्होंने खेद व्यक्त किया कि आपके शोध-निबंध के रेखांकन का उपयोग मैंने किया था, इसका उल्लेख करते हुए आपका नाम नहीं दे पाया था। फिर उन्होंने पूछा कि आपको इसमें अंक तो ठीक मिले थे न, मैंने जवाब दिया मेरी आशा से भी अधिक सर- 86/100। 

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डॉ. रहमान अली 1981, एम.ए. अंतिम के स्थापत्य प्रश्न-पत्र के परीक्षक थे। रायपुर से एम.ए. की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए प्राच्य निकेतन में प्रवेश लेने भोपाल गया। भोपाल पहली बार जा रहा था, वहां डेरा-डंडा था और जान-पहचान के नाम पर ’प्राच्य निकेतन‘ के प्राचार्य डॉ. राजकुमार शर्मा। (जबलपुर हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील सतीशचंद्र दत्त, मेरे पिता और चाचा के करीबी थे, जिनकी बहन डॉ. शर्मा की पत्नी थीं।) डॉ. शर्मा से मिला, उनके निर्देशानुसार एडमिशन फार्म भरकर जमा कर दिया। तब प्राच्य निकेतन, बिरला मंदिर के पीछे होता था। ग्राउंड फ्लोर पर म्यूजियम और पहली मंजिल पर संस्थान-कक्षाएं, जिसमें बीच का हॉल लाइब्रेरी-रीडिंग रूम। लाइब्रेरी में इंतजार करने को कहा गया, वहां पहले-पहल लाइब्रेरियन पंडित मैडम से परिचय हुआ। 

प्रश्न-पत्र, जिसमें क्र. 7 पर
खजुराहो के मंदिर पर प्रश्न है।
कुछ देर में प्रवेश-प्रभारी डॉ. रहमान अली के सामने उपस्थित होने का बुलावा हुआ। अली सर ने बैठने का इशारा किया, नजर फार्म पर, मुख-मुद्रा गंभीर। पूछा, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से? परीक्षा में ‘स्थापत्य‘ आप्शन था? खजुराहो के मंदिर वाले प्रश्न के उत्तर में कंदरिया महादेव की भूयोजना का रेखांकन था? जवाब में जी हां, जी हां के साथ थोड़ी घबराहट के साथ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। तब उन्होंने मेरे प्राप्तांक बताते हुए कहा- ‘आपका यह पेपर मैंने जांचा था। आपकी हैण्डराइटिंग मुझे ध्यान थी, एडमिशन फार्म पर वैसा ही देखा तब स्थापत्य वाला पेपर और कंदरिया रेखांकन याद आया। वह पेपर जांचते हुए मैंने सोचा था, इस विद्यार्थी से कभी मुलाकात होगी। डिप्लोमा पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी अली सर का विशेष अनुग्रह मुझ पर बना रहा। उस पेपर में मिले अंक से मुझे भी ऐसा लगा था कि कभी इन उदार परीक्षक को जान पाता, उनसे मिल पाता- मुझे अंक मिले थे 69/100। 

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श्री बालचंद्र जैन, 1981-82, संग्रहालय विज्ञान स्नातकोत्तर पत्रोपाधि परीक्षा के प्रैक्टिकल में वाह्य परीक्षक थे, तब इन उद्भट विद्वान को न के बराबर समझ पाया था। 1984 से शासकीय सेवा में आया, बिलासपुर कार्यालय था और नियंत्रक उपसंचालक कार्यालय, जबलपुर होता था। जैन साहब तब तक सेवा-निवृत्त हो चुके थे, निवास जबलपुर में था। विभागीय बैठकों के लिए जबलपुर जाना होता था। अब तक उनकी विद्वत्ता और साथ ही विशिष्ट प्रशासनिक कौशल के बारे में कई बातें जानने-समझने लगा था। 

1986 में बैठक के लिए जबलपुर गए और विभागीय वरिष्ठ सहयोगी अधिकारी रायकवार जी के साथ जैन साहब के निवास उनसे मिलने गया। गंभीर-रिजर्व और कड़क माने जाने वाले जैन साहब का मेरे प्रति व्यवहार सहज, बल्कि आत्मीय था। विदा लेते हुए उन्होंने धीरे से ध्यान कराया, जिसे मैं पूरी तरह भूल वुका था, प्राच्य निकेतन में तुमने मेरे सारे सवालों का जवाब बहुत अच्छी तरह दिया, अब विभाग में आ गए हो, काम करने का मौका है, खूब काम करो, कहते हुए अपने ‘उत्कीर्ण लेख‘ वाले काम को आगे बढ़ाने का आशीर्वाद रायकवार जी के साथ मुझे दिया। हमें संतोष है कि वह काम यथामति तैयार कर विभाग से प्रकाशित करा सके। 


जैन साहब का 12/11/86 को मेरे नाम लिखा पत्र, जिसमें दीपावली और नववर्ष की शुभकामनाएं के साथ श्री रायकवार जी व अन्यों को सादर नमस्कार लिखा है। दूसरा पत्र 1/6/87 का श्री रायकवार के नाम है, जिसमें उन्होंने कृपापूर्वक लिखा- ‘श्री राहुल के प्रति मुझे भारी स्नेह हो गया है। उनसे बहुत आशाएं हैं। जैन साहब के निधन पर मैंने उन पर श्रद्धांजलि लेख लिखा था, जो तब 1995 के जून दूसरे सप्ताह में ‘हरिभूमि‘ समाचार पत्र के संपादकीय पेज पर पूरे आठवें कॉलम में छपा था, जिसकी कतरन सुरक्षित नहीं रख पाया। महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में उन्होंने अपनी सेवा के महत्वपूर्ण वर्ष बिताए थे, नवंबर 2024 में यहीं उनकी जन्मशती के आयोजन में उन्हें प्रति अपनी भाव-श्रद्धांजलि समर्पित करने का अवसर आया। 

इन तीन परीक्षक गुरुओं के अलावा तीन ऐसे गुरु हैं, जिन्होंने कक्षाओं में नहीं पढ़ाया, मगर अनमोल सिखाया- डॉ. प्रमोदचंद्र, श्री कृष्ण देव और श्री मधुसूदन ए. ढाकी, इन पर फिर कभी, फिलहाल सारे गुरुजन का पुण्य स्मरण।

Saturday, March 22, 2025

कोचिंग

1996-97। संयोगवश प्रतियोगी परीक्षा और कोचिंग से जुड़़ गया। हुआ यूं कि पता चला मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा के बाद साक्षात्कार की तैयारियां हो रही हैं। वह दौर ऐसा भी आया था कि दो-तीन सत्रों की मुख्य परीक्षा के परिणाम आ गए थे और कुछ समय के अंतर से साक्षात्कार होने थे। मैंने जानने की कोशिश की, किस तरह तैयारी कराई जाती है। जानकर अजीब लगा कि साक्षात्कार के लिए पिछले वर्षों में पूछे गए सवालों की सूची इंदौर से आ जाती है, फिर उसके प्रश्नों के जवाब लिखवाए जाते हैं और अधिकतर प्रतियोगी नोट्स ले कर, प्री और मेन्स की तैयारी की तरह इन जवाबों को रट लेते हैं। मुझे लगा कि यह अजीब है, साक्षात्कार की तारीख आने में थोड़ा वक्त था, इसलिए मैंने अपनी निशुल्क सेवा देने का प्रस्ताव रखा। धीरे-धीरे माहौल बदला। प्रतियोगी किसी कोचिंग के हों, मुझसे आ कर मिलने लगे, कई घर पर भी आने लगे। 

इस दौरान की ढेरो यादें हैं, जिन कुछ समझाइशों के लिए जोर होता था, यहां उनमें से कुछ-

# हां-नहीं, सही-गलत के बजाय सहमत -असहमत, उचित-अनुचित, उपयुक्त-अनुपयुक्त, जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें, जजमेंटल हो, विश्लेषण करें। 
# उत्तर देते हुए भावुक नहीं संवेदनशील हों, विषयगत नहीं वस्तुगत तथ्यात्मक रहें। जब तक आवश्यक न हो माता-पिता, भाई-बहन के बजाय परिवार-अभिभावक, रिश्तेदार-परिचित जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें। अखबार, पत्रकारिता की भाषा चिन्ताजनक, दुर्भाग्यपूर्ण, कलंक जैसे शब्दों और अपावश्यक विशेषण के इस्तेमाल से बचें।
# अपनी प्रामाणिकता और असलियत (आथेन्टिक और जेनुइन होने) का भरोसा रखें। अपने विचारों को स्पष्ट तार्किकता के साथ प्रस्तुत करें, न कि भावनात्मक प्रतिबद्धता से। प्रश्नों के जवाब में जानकारी, दृष्टिकोण को प्रस्तुति-कौशल होना चाहिए, शोध की गहराई या विशेषज्ञ की तरह के बजाय सामानज्ञ की सहजता और सतर्क जागरूकता अधिक जरूरी है। 
# एक सवाल अधिकतर होता कि क्या शासन/तंत्र की किसी नीति के विरुद्ध बोल सकते हैं/ सरकारी योजना की आलोचना कर सकते हैं? तंत्र के हिस्से के रूप में शासन की आलोचना या कमी का जिक्र सुधार-पूर्ति के सुझाव सहित किया जा सकता है। जैसे आधा गिलास पानी में आधा भरा होना आशावाद और आधा खाली होना निराशावाद है तो आधा खाली को कैसे भरा जा सकता है की दृष्टि से देखना तथ्यगत सकारात्मक है, जिसे साक्षात्कारवाद कह सकते हैं। 

सिलसिला बना रहा। बैंक, डिफेंस, एसएससी, पुलिस आदि के साक्षात्कार की तैयार वालों से संपर्क होता गया, मानता हूं कि अलग-अलग पृष्ठभूमि के युवाओं से लगातार मिलते रहने से अधिक साफ सोच पाने और बेहतरी में सहायक हुई होगी। 2012-13 में छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग का पैटर्न बदला, इस दौरान कई भूमिकाओं में आयोग से जुड़ गया, इसलिए अपनी मर्यादा तय कर ली। इस भूमिका के साथ खास तौर पर कहना है कि परीक्षा परिणाम के बाद चयनितों की दुनिया बदल जाती है, उनसे संपर्क न रहे, मेरा यथासंभव प्रयास होता, मगर जिनका चयन नहीं हो पाया, उनमें से कई ऐसे हैं, जो चयनितों से बेहतर स्थिति में हैं। 

1998.99 में पुलिस सब-इंस्पेक्टर की लिखित परीक्षा के बाद, उनके फिजिकल और साक्षात्कार के लिए बिलासपुर में मेरा नियमित जुड़ाव रहा। रेलवे ग्राउंड में फिजिकल का अभ्यास होता था। इस परीक्षा में चयन न हो पाने वाले एक प्रतियोगी को पत्र लिखा था, वह यहां है- 
प्रिय ..., 
शुभकामनाए 

कल शाम लगभग सभी लोग इकट्ठे हुए, श्री पी. जी. कृष्णन भी लगभग डेढ़-दो घन्टे रुके, पंकज अवस्थी भी आया था, मुझसे अलग से चर्चा हुई, वह अपना परिचय बताया और एकदम घरू बालक निकला. 

लगभग पूरे समय सब लोग (मेरे आलावा) तुम्हारी चर्चा करते रहे, और तुम्हारे सलेक्ट न होने पर आश्चर्य तो शायद किसी को नहीं था, अफसोस जरूर सबको था, पी. जी. का कहना था कि उनके लाड़ ने तुम्हारा नुकसान किया, वरना तुम्हें फिजिकल में 70 तक नन्बर मिलना था, लेकिन देर से आना, उनकी सहानु‌भूति और स्नेह के इच्छुक रहना, इस दिशा में तुम अधिक प्रयासरत रहे। 

तुम्हारे सभी मित्रों का यह मानना था कि जहाँ भी उन्हें किसी जानकारी के लिए मुश्किल होती थी, किसी किताब के बजाय तुम्हारी जानकारी पर अधिक भरोसा होता था, लेकिन तुम्हारे चयन की संभाव‌ना को लेकर कहीं-न-कहीं शंकित सभी थे, ऐसा क्यों हुआ तुम अधिक अच्छा विश्लेषण कर सकते हैं। 

इन्टरव्यूज (मॉक) के दौरान के लिए मैं तुमसे बार-बार जो कहता रहा, वह यहाँ दुहराने की जरूरत नहीं समझता. 

अब यह विश्लेषण करो कि तुम्हारी योग्यता (जो सचमुच तुममें है) का विश्‌वास तुम उन सभी लोगों को दिलाने में सफल रहे हो, जो तुम्हारा चयन करने वाले नहीं है, और चयन करने वालों के लिए अपनी उर्जा और क्षमता बचाकर नहीं रख पाये, तुम्हारे इस प्रयास ने तुम्हें सबकी सहानुभूति का पात्र बनाया, यदि तुम्हें इससे तसल्ली मिल रही हो, तो कम से कम मेरा ऐसा उद्देश्य नहीं है, क्योंकि बधाई का पात्र, सहानुभूति का पात्र बन जाये तो इस पर गुस्सा ही आ सकता है, मैं अपने लिए यह जरूर दुहराना चाहूँगा कि मेरे प्रति किसी का सहानुभूति दिखाना मुझे सबसे घृणास्पद लगता है और इसीलिए किसी अन्य के प्रति भी कुशलता (या चतुराईपूर्वक) सम्वेद‌ना प्रकट नहीं कर पाता, मुझे ऐसा लगता है कि किसी को या किसी की सहानुभूति, सच्ची वही होती है जो सहयोग के रूप में सामने आए. 

खैर पुनः दुहराता हूँ अपना विश्लेषण तुम करो, तुम्हारा मूल्यांकन न सिर्फ मैंने बल्कि उपरोक्त उल्लेख के अनुसार सभी ने किया है, और अपनी क्षमता और योग्यता सिर्फ वहाँ साबित करना सीखो, जहां वह आवश्यक है, हर सडक चलते बेकार के आदमी या चाय-पान ठेले पर अपने बुद्धि कौशल का प्रकाश फैलाना सार्थक नहीं होता है लेकिन यदि यह अभ्यास मानकर किया जाय तो इसे भी उपयोगी बनाया जा सकता है, अपनी योग्यता और अपनी सफलता के बीच सीधा और हक का रिश्ता कायम करने का प्रयास करो न कि अवैध संबंध स्थापित करने का, बीच के लोग सहयोगी हो सकते हैं निर्णायक नहीं, निर्णायिक सिर्फ तुम हो सकते हो और दूसरे लोग, अधिकृत लोग, उसे अटेस्ट कर सकते हैं, उन्हें उनके द्वारा तुम्हें सत्यापित किया जाय, इसके लिए मजबूर किया जा सकता है, यानि अगर परीक्षा केन्द्र उल्टा-पुल्टा हो तो ज्यादा जिद के साथ अपने लक्ष्य के लिए प्रयास करना, अपने को झोंककर अपनी सफलता खुद तय करना, पुनः शुभकामनाएं. 

राहुल 15-4-2000 

प्रतियोगी परीक्षा के दौर के बाद तब संपर्क में आए युवा अब भी यदा-कदा संपर्क करते हैं, तब की कोई बात याद दिलाते हैं, जिनमें से एक ऊपर वाला पत्र है, इसी तरह एक चयनित ने याद दिलाया था, वह यह है- 

प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बाद मिलने आने वालों से मैं कहा करता- Be an average officer, who is constantly trying to improve his average ... ’

तुम एक ऐसे औसत अधिकारी बनो जो सदैव अपने औसत को बेहतर करने की कोशिश कर रहा हो।’ न कि Excellent या Best बनो। बस अपने औसत को लगातार सुधारते चलो। 

मेरी इस बात की याद दिलाते हुए एक चयनित, अब वरिष्ठ अधिकारी ने टिप्पणी की- बच्चे बुजुर्गों की बात सुनते ही कहां हैं... मैं भी अपनी मस्ती में रहता था। कभी उनका कहना मानता नहीं था, पर आज उनकी कही बात याद आती है बहुत और मानने की कोशिश भी होती है। 

वो कहते थे कि औसत होने का अभिमान नहीं पकड़ता। बेहतरीन होने का अभिमान पकड़ सकता है। औसत के आगे बेहतर दिशा में भी बहुत कुछ है, पीछे भी बहुत कुछ ... स्कोप बहुत है औसत इंसान के पास बेहतर होने का...

औसत व्यक्ति विनम्र होता है, क्योंकि वो औसत है, वो बहुत कुछ नहीं जानता। ’मेरी ही बात सही है, ऐसा उसका आग्रह नही होता। आपकी भी बात आपके Point of View (दृष्टिकोण) से सही है, ऐसा मानने में उसे कोई दिक्कत नहीं। सबकी दृष्टि का कोण एक हो, ऐसा संभव भी नहीं।’ 

औसत का नियम यह भी बताता है कि सिर्फ एक इंसान के साथ भी बेहतर या खराब संबंध आपके संपूर्ण औसत को बहुत बेहतर या बहुत खराब तरीके से प्रभावित कर सकता है, यदि वो इंसान बेहद प्रभावशाली हो। So, 

 Always pick your battles carefully...Avoid unnecessary battles ... लड़ो तभी जब उससे आपके औसत के बेहतर होने की संभावना हो...’ अब समझ पा रहा हूं कि मेरा प्रयास होता था, साक्षात्कार को एक पड़ाव माना जाए, प्रतियोगी युवा इसे अंतिम लक्ष्य की तरह न देखें और साक्षात्कार में कामयाबी के गुर, सुखी और सफल जीवन के लिए भी लगभग उतने ही अनुकूल और आवश्यक होते हैं।

सिंहावलोकन पर संबंधित अन्य पोस्ट के लिंक- 

Thursday, March 20, 2025

सुरेन्द्र परिहार का पत्र 19-5-1987

सुरेन्द्र परिहार सर, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग (यूटीडी) मैं मैं उनका/ यूटीडी का विद्यार्थी नहीं रहा, मगर पुस्तकालय और परिचितों के कारण, (1976-1981) लगभग प्रतिदिन 3 नंबर सिटी बस से वहां जाता था। (कहा जाता था कि जो यूटीडी में नहीं पढ़ा, उसकी आधी जिंदगी बेकार और जिसने वहां पढ़ाई कर ली उसकी पूरी...!🙂) समाजशास्त्र के इंद्रदेव सर, भाषा विज्ञान के रमेशचंद्र मेहरोत्रा सर, भूगोल के पीसी अग्रवाल सर किसी भी विद्यार्थी की जिज्ञासा समाधान के लिए सहज तैसार हो जाते। परिहार सर की बात निराली थी, कोई भी जिज्ञासु कभी भी उनसे मिलने उनके निवास पर जा सकता था (वे आजन्म अविवाहित रहे), वहां चाय भी मिल जाती थी, पुस्तक पढ़ने को ले सकते थे, लाइब्रेरी से किताब चाहिए और विद्यार्थी को न मिल पा रही हो (मैं उस लाइब्रेरी की सदस्य नहीं था, रीडिंग रूम की सुविधा ले लेता था और बाद में जान-पहचान हो जाने के कारण शोध-संदर्भ खंड में भी जा सकता था।), तो अपने खाते से निकलवा कर देते थे।

विश्वविद्यालयीन पढ़ाई के बाद भी उनके जीवन भर, उनसे मेरा संपर्क बना रहा, जिज्ञासुओं के प्रति उनके रवैये के बारे में उनसे परिचित सभी भलीभांति जानते हैं, जो अपरिचित हैं, इस पत्र से अनुमान कर सकते हैं- 

प्रिय राहुल, 

आपका 10 मई का पत्र एक सुखद अचरज रहा। इस बीच आपसे एक अर्से से मुलाकात नहीं हो पाई। यह जानकर मुझे बड़ा अच्छा लगा कि आप पुरातत्व विभाग में काम कर रहे हैं और अध्ययन और शोध में अपनी रुचि बराबर बना कर रखते हैं। 

आपने आदिम धर्म पर इस बीच परियोजना के लिये एक लेख लिखा है - यह सुखद सूचना है मानव विज्ञान में आदिम और आधुनिक धर्म दोनों पर मानव शास्त्री काफी लम्बे समय से काम कर रहे हैं और धर्म की मान्यताओं और विकास के सम्बंध में काफी बहसें चालती रहती है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न मानवशास्त्रियों ने यह उठाया कि मानव कि धर्म समाज में क्या काम करता है? आदिम अथवा आधुनिक समाज में उसकी क्या उपादेयता है? क्या तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति के कारण वह अपनी जगह खो चुका है? धर्म के क्षेत्र में होने वाली सभी बहसों में आपको मार्क्स के विचारों को अवश्य पढ़ना चाहिये। धर्म के विकास और उपादेयता पर मार्क्स और एंगेल्स ने यह कह कर बहुत गर्मी पैदा कर दी कि ‘‘धर्म जनता का अफीम है‘‘। मैं मार्क्स के विचारों से सहमत नहीं पर इस क्षेत्र में मावर्स को प्रतिभाशाली अवश्य मानता हूं। किसी अच्छी बहस की शुरुआत मार्क्स से की जानी चाहिए।

आदिम धर्म के क्षेत्र में हमारे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में काफी साहित्य - समाजशास्त्र और मानवशास्त्र दोनों ही विषयों में। आप स्वयं यहां आकर कोई पुस्तक ले सकते हैं अथवा इस बीच यदि मैं बिलासपुर अकलतरा आया तो अपने साथ लेता आउंगा। अच्छा तो होगा यदि अपना वक्त निकाल कर यहां आयें तो काफी बातचीत रहेगी। 

पुरातत्व विभाग इन दिनों छत्तीसगढ़ में खनन का कहां कहां काम चला रहा है? बुद्धकालीन मूर्तियां और अवशेष सिरपुर को छोड़कर और कहां है, कृपया सूचित करें। मैं बिलासपुर आने पर आपके संग्रहालय को अवश्य देखना चाहूंगा।। 

शुभकामनाओं के साथ 
आपका शुभांक्षी 
सुरेन्द्र परिहार 
19/5/187

Wednesday, March 19, 2025

बस्तर में संग्रहालय

बस्तर के अखबार ‘दण्डकारण्य समाचार‘ की 1959 से 2003 तक की 45 वर्षों की यात्रा का संकलन है ‘जिज्ञासा‘। इसमें दस्तावेजी महत्व की जानकारियां हैं। संग्रहालय विज्ञान से जुड़े होने के कारण इसकी दो प्रविष्टियां मेरे लिए खास हैं- पहली 1961 में उद्घाटित पुरातत्वीय संग्रहालय (पेज-25) और दूसरी जगदलपुर में 1964 में नृतत्वशास्त्रीय संग्रहालय (पेज-70) के प्रस्ताव पर कार्यवाही का निम्नानुसार है- 

Vol 2 No. XXXIX Jagdalpur, Sunday, February 12, 1961 

Kabir Inaugurates Archeological Museum 

Jagdalpur, Feb. 5. The Minister for Scientific Research and Cultural Affairs Professor Humaun Kabir told a packed gathering here that the object of the Government was to study Indian Archeology throughout India and Baster would now also be put under this programme. 

He was inaugurating a small Archeological Museum housed in the District Collectorate on the afternoon of Feb. 4. The function was orgins by the District Publicity and Social Welfare department with an initial collection about 20 sculptures. 

"Bastar is a land of fascinating interest having influences from different parts of the country with manifestations of diversity of culture besides its unique place in the sphere of Anthropology, Geology and the ike and rich also in archeological remains scattered all over the disrict with thousands of years of history behind them," Shri Kabir said, Announcing a token grant of Rs. 1000/00 for the museum, the Minister said that while the departments of Anthropology and Gelogy are already at work at Bastar, the Government would step in the archelogical sphere also when time was ripe for it and appreciated the move taken locally towards this. 

speaking at length of cultural heritage of India Prof. Humayun Kabir said that researches now being carried & linguistic survey of India being made from next year would have more insight into this. The Minister advised the district to apraoch Government of India for a technical Institute to be followed by Polytechnic Institution for the benifit of tribals. Later in the evening Prof. Humayan Kabir paid visit to Republic Day Exhibition and gave away prizes to the competitors in the presence of a t gatheringe. He felt happy at the development programmes undertaken at Bastar and laid stress on placing emphasis on spread of education which alone would lead our country to progress, he said. 

On both these functions, in the absence of the Collector, the Duputy Collector Sri P.G.Y. Mudaliar who welcomed the Minister and introducted him to gathering stated in brief the background under which the functions were held and later proposed a vote of thanks for the chief guest in glowing terms. He also thanked all those connected with the successful organisation of the functions. 

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Voll. V No. 40 Jagdalpur, Sunday April 26, 1964 

Anthropological Museum at Jagdalpur 

JAGDALPUR, April 14, 1964. The Government of lndia, it is understood, is examning a proposal for opening of an Anthropological Museum at Jagdalpur, the Hdqrs of Bastar District. The Directorate of the Anthropological Survey of India, Calcutta, had recently deputed Doctor N.C. Chowdhary, the Curator of Indian Museum to Jagdalpur for survey and to find out this possibility. This survey by the Anthropological Survey of India was undertaken in view of a request from the Ministry of Education, Government of India inviting comments and suggestions on the proposal immediately and also asking for a comprehensive scheme with full financial involvement in case the directorate support the proposal, it is very reliably learnt. 

Shri Sunderial Tripathi of the Anthropological Institute Jagdalpur, it is also gathered, met the Education Minister Shri M.C. Chagla in New Delhi early last March and put before him the fact that Bastar area had many interesting historical finds relating to tribals, finds of early 9th to 15th Century A.D. and urged the desirability of establishing an Anthropological museum at Jagdalpur Maintained directly by the Central Government which would prove very useful to the country. 

Doctor Chowdhary who was here for four days left for Calcutta and is likely to submit his comments and suggestions shortly to the Directorate.

Tuesday, March 18, 2025

प्रवीरचंद्र भंजदेव - कालक्रम

बस्तर के अखबार ‘दण्डकारण्य समाचार‘ की 1959 से 2003 तक की 45 वर्षों की यात्रा का संकलन है ‘जिज्ञासा‘। इसमें आई दस्तावेजी महत्व की जानकारियों में पेज 84 पर वर्ष 7 अंक 37 जगदलपुर, रविवार 27 मार्च 1966 के साथ ‘राजमहल में गोली कांड, पुलिस की गोली से प्रवीरचंद्र भंजदेव का निधन‘ प्रकाशित है और इसी क्रम में पेज 85-86 पर उनके जीवन की महत्वपूर्ण तिथियां इस प्रकार छपी हैं- 

स्वर्गीय प्रवीर के जीवन की महत्वपूर्ण तिथियां 

२५ जून १९२९-प्रवीरचंद्र भंजदेव का शिलांग में जन्म 
९ मार्च १९३४-प्रवीर के लघु भ्राता वर्तमान महाराजा श्री विजयचंद्र भंजदेव का इंग्लैंड में जन्म। 
फरवरी १९३६- प्रवीर की माता महारानी प्रफुल्ल कुमारी का इंग्लैंड में देहावसान। 
१६ जुलाई १९४७- प्रवीर का विधिवत राज्याभिषेक। 
१ जनवरी १९४८- बस्तर का रियासत का विलीनीकरण। 
१९५३-शासन द्वारा प्रवीर की सारी संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस के अधीन करने की घोषणा 
१९५५- प्रवीर द्वारा आदिवासी किसान मजदूर संघ की स्थापना। 
१९५७- प्रवीर का जिला कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित होना तथा बाद में आम चुनाव में विधायक निर्वाचित होना। प्रवीर के पिता स्व. श्री प्रफुल्लचंद्र का निधन। 
१९५८- प्रवीर द्वारा आदिवासी सेवा दल स्थापना। 
१९५९- श्री प्रवीर द्वारा विधानसभा की मान्यता से त्यागपत्र। 
११ फरवरी १९६१-धनपूंजी गांव में प्रवीर की गिरफ्तारी
 
१२ फरवरी १९६१- शासन द्वारा प्रवीर गतिविधियों तथा उनके वक्तव्यों को जनविरोधी बताते हुये उनकी मान्यता रद्द की घोषणा। 
२७ मार्च १९६१- तोकापाल अश्रु गैस कांड। 
३१ मार्च १९६१- लोहंडीगुड़ा तथा सिरिसगुड़ा में आदिवासियों द्वारा प्रदर्शन तथा प्रवीर की रिहाई की मांग। लोहंडीगुड़ा में पुलिस द्वारा आदिवासियों पर गोली चालन। 
२६ अप्रैल १९६१- प्रवीर की नरसिंहगढ़ जेल से रिहाई, शासन द्वारा नियुक्त सलाहकार बोर्ड द्वारा प्रवीर की गिरफ्तारी को अवैध निरूपित किया जाना। 
४ जुलाई १९६१-प्रवीर का पाटन की राजकन्या शुभ राजकुमारी से विवाह (प्रवीर द्वारा महारानी वेदवती देवी नामकरण) 
अक्टूबर १९६१- प्रवीर द्वारा १४ वर्षों की लंबी अवधि के बाद पुनः विधिवत रथारुढ़ होकर दशहरा समारोह का नेतृत्व (इसके पूर्व वे १९४७ में रथारुढ़ हुये थे।) 
नवंबर १९६१- प्रवीर द्वारा ‘राजा मड़ई‘ का पुनः शुभारंभ (राजा मड़ई १९३७ से बंद थी) 
दिसंबर १९६१-प्रवीर दूद्वारा ‘महाराजा पार्टी‘ की स्थापना। 
फरवरी १९६२- कांकेर तथा बीजापुर के अतिरिक्त शेष सभी क्षेत्रों से महाराजा पार्टी के प्रत्याशियों की विजय। 
६ अक्टूबर १९६२- महारानी वेदवती देवी का बस्तर आगमन। 
८ तथा ९ अक्टूबर १९६२- महाराजा प्रवीर तया महारानी वेदवती देवी, दोनों के द्वारा रथारुढ़ होकर दशहरा समारोह का नेतृत्व। 
८ मई १९६३-जगदलपुर राजमहल में प्रवीर की संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस से मुक्त करने के लिये आदिवासियों द्वारा कोर्ट आफ वार्डस के कार्यालय पर हमला। 
९ मई १९६२- महारानी वेदवती द्वारा महल का त्याग तथा पाटन को प्रस्थान। 
१० मई १९६३- म. प्र. शासन द्वारा प्रवीर की संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस से मुक्त करने का निर्णय। 
३० जुलाई १९६३- प्रवीर की ३० लाख की संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस से मुक्त 
१६ नवंबर १९६३- प्रवीर द्वारा दीपावली के अवसर पर दान करते समय रिक्शा चालक मोतीलाल का हाथ काट दिया जाना। 
१९ नवंबर १९६३- मोतीलाल का हाथ काटने के अभियोग में प्रवीर की गिरफ्तारी तथा ५०० रुपये की जमानत पर रिहाई। 
२२ सितंबर १९६४- हाथ काटने के अभियोग में प्रवीर को १००० रु. जुर्माना तथा १८ माह की सख्त कैद की सजा सुनाया जाना एवं प्रवीर द्वारा अपील पेश। 
१२ जनवरी १९६५- प्रवीर द्वारा दिल्ली जाकर शांतिवन में अनशन। गृहमंत्री श्री नंदा द्वारा आश्वासन दिये जाने पर अनशन की उसी दिन समाप्ति। 
२ नवंबर १९६५-खाद्य संकट से प्रभावित सैकड़ों आंदिवासियों का महल में जमाव। 
१६ नवंबर १९६५-आदिवासी महिलाओं द्वारा रुपये में चार सेर चावल तथा सोने की लापता छड़ी की मांगों को लेकर जिलाधीश कार्यालय में धरना तथा प्रदर्शन। 
१२ दिसंबर १९६५- प्रवीर द्वारा सोने की लापता छड़ी की मांग लेकर अनशन। 
१६ दिसंबर १९६५-कमिश्नर श्री वीरभद्रसिंह के आश्वासन पर अनशन समाप्ति। 
४ फरवरी १९६६-केशरपाल में लेव्ही वसूली के समय उपद्रव। पुलिस द्वारा आदिवासियों पर अश्रु गैस लाठी चार्ज। 
८ फरवरी १९६६- लेव्ही वसूली के प्रश्न पर प्रवीर द्वारा विजय भवन में अनशन आरंभ। 
११ फरवरी १९६६- शासन द्वारा उचित कार्यवाही का आश्वासन दिये जाने पर अनशन की समाप्ति। 
१८ मार्च १९६६- राजमहल में पुलिस द्वारा आदिवासियों को पीटे जाने पर आदिवासियों द्वारा तीर कमान संभाल लिया जाना प्रवीर के बीच बचाव से अप्रिय घटना का टल जाना। 
२५ मार्च १९६६- आदिवासी कैदियों को न्यायालय ले जाते समय अन्य आदिवासियों द्वारा पुलिस दल पर तीर फेंकना जिसमें एक सूबेदार सहित ९ पुलिसमैन आहत (सरदार अवतार सिंह) की मृत्यु। पुलिस द्वारा आदिवासियों को महल में घेरकर गोली चालन। आधी रात तक संघर्ष। 
२५ मार्च १९६६- रात्रि के समय गोलियों से प्रवीर की महल में मृत्यु। 
२६ मार्च १९६६- प्रवीर का संध्या समय अंतिम संस्कार।
-इस्माईल जगदलपुरी

Wednesday, March 12, 2025

देउरकोना - पति पाती

पत्र लेखक-पति - राहुल कुमार सिंह, डीपाडीह कलां, 26/1/89 
पत्र प्राप्तकर्ता-पत्नी - श्रीमती नम्रता सिंह, अकलतरा, 3/2/89 


देउरकोना मंदिर          (संभवतः शिव मंदिर) 
लगभग 8 वीं सदी ई.     (दक्षिण पूर्व) 

त्रिरथ प्रकार का, पंचभूमि शिखर वाला पूर्वाभिमुख मंदिर है अग्रभाग खंडित होने से प्रवेश द्वार अप्राप्त है. अधिष्ठान अंशतः भूमि में दबा, अर्द्धस्तंभयुक्त प्रक्षेप वाली जंघा, चैत्य गवाक्ष, कीर्तिमुख, प्रतिमाओं (गणेश) युक्त शिखर, उपर क्षत शिखर पर आमलक शिला रखी है। 

जंघा के निचले भाग पर छोटी उत्कीर्ण प्रतिमाओं युक्त पाषाण मध्य में slit तथा उपर मकर मुख (सम्मुख युग्म) जंघा पर मालाधारी गन्धर्व तथा चैत्य में मुकुल. 

कीचक और गज का अंकन शिखर प्रक्षेप के सलिलान्तरों में। 

ईब नदी के बायें पार्श्व में लगभग 8 वीं सदी ई. का मंदिर है। 

यह स्थान सन्ना से लगभग 12 कि.मी. तथा इतना ही डीपाडीह से दूर है मार्ग के पश्चिम व्यपवर्तन (ग्राम नन्हेसर) से मात्र 1 कि.मी. दूर यहां पहुंचा जा सकता है। 

ईब उद्गम- जड़ाकोना ग्राम निकट ही है। रानीझूला पहाड़ी से निकला है। शिवालय पहाड़ी देउरकोना मंदिर के पास वटली पहाड़ी का नाम है। 

पोस्ट तथा राजस्व ग्राम - नन्हेसर 
पटवारी हल्का - 2 (खेड़ार) 
विकास खंड+तहसील - बगीचा 
थाना - सन्ना 
जिला - रायगढ़

Thursday, February 27, 2025

आइआइटी, भिलाई

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कई बार ऐसा अवसर आया, जब छत्तीसगढ़ से बाहर, इसकी पहचान के लिए बताना पड़ा- ‘भिलाई‘, स्टील प्लांट वाला छत्तीसगढ़। आज 27 फरवरी 2025 को भिलाई आइआइटी के एक आयोजन में शामिल होने का अवसर, जिसमें सांस्कृतिक धरोहर और भाषाई बहुलता, पारंपरिक ज्ञान-पद्धति, समष्टि चेतना आदि पर चर्चा है। इस मौके पर याद करता हूं, 14 जून 2018 को भिलाई में आयोजित शिलान्यास कार्यकम, जिसकी तैयारियों में संस्कृति विभाग के प्रतिनिधि के रूप में मैंने कर्तव्य-निर्वाह किया था। तब भिलाई आइआइटी, सेजबहार, रायपुर में संचालित था। 

अब आइआइटी भिलाई स्वयं के भवन-परिसर में है। इसके स्थल चयन और निर्माण के दौरान ‘कुटेलाभांठा‘ नामोल्लेख होता था। इस नाम में ‘भांठा’ समतल-सपाट और लगभग अनउपजाउ भूमि है और ‘कुटेला‘ यानि छोटा मुगदर, मुगरी। कपड़ा धोने में उसे पछाड़ा-पटका जाता है और पीटा-कूटा भी जाता है, कूटने के लिए काम में या ऐसे ही किसी काम में प्रयुक्त होने वाला लकड़ी का बल्ला ‘कुटेला‘ कहलाता है। यही कुटेला देशी क्रिकेट ‘रामरेस‘ में बल्ला भी बन जाता है। 

कुटेला शब्द का एक परिचय और होता था। पहले गरमी की रात खुले आंगन में सोते हुए बड़े-बुजुर्ग ‘स्टार गेजिंग‘ कराते थे, तब आकाशगंगा ‘हाथी धरसा‘ होता था, ‘सप्तर्षि‘ खटिया-खुरा चोर, सुकवा-शुक्र के अलावा नांगर-कुटेला दिखाया-पहचान कराया जाता था। आकाश में इनकी स्थिति से रात के पहर और सूर्योदय का अनुमान किया जाता था। ग्राम नाम का यह कुटेला, ऐसे ही किसी स्रोत से प्रेरित होगा। 

इसके साथ भिलाई पर भी ध्यान गया। पता चलता है कि 1955 में 47 गांवों की भूमि-अधिग्रहित करने की अधिसूचना जारी हुई थी। मगर भिलाई पर विचार करने के पहले उन 47 गांवों में से कुछ के नाम पर ध्यान दें- जल-आशय के नाम ‘रुआबांधा‘, ‘बावली‘ है। पथरीला ‘पथर्रा‘ है। नया गांव ‘नवागांव‘ है और पुराना गांव ‘जुनवानी‘ है। जीव-जंतुओं पर नाम ‘बेंदरी‘, ‘घुघवा‘, ‘परेवाडीह‘ हैं। वनस्पति पर ‘पचपेड़ी‘, ‘डूमरडीह‘, ‘परसदा‘ है। मिश्रित वनखंड ‘दादर‘ है और प्राचीन स्मारक, मंदिर वाला दैव स्थल ‘देवबलौदा‘ है। इस तरह यहां जैव-विविधता और भू-विविधता के साथ प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के धरोहर और उनकी स्मृति विद्यमान है। 

भिलाई, भलाई और भील के पास का शब्द है, मगर यहां प्रासंगिक नहीं जान पड़ता। भिलाई का उच्चारण लोक-जबान में सामान्यतः ‘भेलाई‘ होता है और इस उच्चारण का आधार लेना ही उचित जान पड़ता है। भेलाई के साथ पहले ध्यान जाता है भेल पर, यों तो एक भेल, बीएचइएन यानि भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स भी है, मगर एक अन्य भेल-पूरी है, जो कुछ खाद्य-सामग्री का मेल है, यह मूल आशय के कुछ पास बैठ सकता है। छत्तीसगढ़ी में अब कम प्रचलित एक भेल है, जो पतंगबाजी के दौरान इस्तेमाल होता है। दो पतंगों के बीच पेंच लड़ती है, भिडंत होती है तब किसी एक पतंग के कटने की संभावना बन जाती है और तमाशबीन बच्चे ‘भेल‘ चिल्लाते हुए अपना लग्गा तैयार कर, कटी पतंग लूटने के लिए दौड़ना शुरु करते हैं। हिंदी शब्दकोश से पता चलता है कि शब्द ‘भेला‘ है, जो पद्य में प्रयुक्त होता है, जिसका अर्थ भेंट-मुलाकात, भिड़ंत है और पिंड भी, जैसाकि गुड़ की ‘भेली‘ में आता है। 

‘भेलाई‘ के करीब एक अन्य वानस्पतिक शब्द भेलवां या भिलावां है, यह एक प्रकार का जंगली काजू का पेड़ है, जिसका फल भून कर खाया जाता है, छिल्के से पक्का काला रंग ‘परमानेंट ब्लैक मार्किंग इंक‘ बनता है, जिसका उपयोग धोबी, कपड़़ों में चिह्न लगाने के लिए किया करते थे। इसका एक अन्य उपयोग मवेशी चोर किया करते थे, चोरी किए मवेशी के सींग और देह पर यह स्याही नगा कर उसका रंग-रूप बदलने के लिए ताकि उसकी पहचान न हो सके। कुछ लोग इस वृक्ष के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, कहा जाता है कि जिसे इससे एलर्जी है, वह इस पेड़ के नीचे से भी गुजरा, छाया भी पड़ गई तो पूरे शरीर पर चकत्ते उभर जाते हैं। 

यह सब तो भाषाई उद्यम हुआ, मगर इससे क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं? संभावित निष्कर्ष के लिए यह भी ध्यान रखना होगा कि भिलाई नाम के कम से कम आधा दर्जन गांव छत्तीसगढ़ में हैं। निष्कर्षतः एक संभावना बनती है कि इस क्षेत्र में भेलवां के पेड़ रहे हों और दूसरी किन्हीं दो भू-आकृतियों, मार्गों या जलधाराओं आदि का मेल-जोड़-कटाव रहा हो। अन्य भिलाई नाम वाले ग्रामों पर इस दृष्टि से परीक्षण करने पर इस आसपास का निष्कर्ष पुष्ट होने की संभावना है, यह भी संभव है इस सबसे इतर कोई एकदम नई और अलग बात पता लगे। 

कुटेलाभांठा स्थित इस भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भिलाई की पृष्ठभूमि में, उसके इतिहास-भूगोल में निहित सभ्यता और संस्कृति के लक्षण पहचाने जा सकते हैं। संस्थान ने ‘संस्कृति, भाषा और परंपरा केंद्र‘ की स्थापना कर छत्तीसगढ़ के आदिम चित्रित शैलाश्रय, पुरातत्वीय स्मारक और विशिष्ट उत्पादों के जीआइ टैग आदि के क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्ययन आरंभ कर दिया है। छत्तीसगढ़ के प्राचीन धरोहर-स्मारकों में मानव सभ्यता के उत्कृष्ट प्रमाण, संस्कृति और परंपरा घनीभूत हैं। बस्तर में दंतेवाड़ा, बारसूर और भोंगापाल तो सरगुजा में रामगढ़, डीपाडीह और महेशपुर जैसे केंद्र हैं। इसके अलावा रायगढ़, कांकेर-चारामा में चित्रित शैलाश्रय हैं, सिरपुर, मल्हार, भोरमदेव, शिवरीनारायण जैसे स्मारक-केंद्र है, अकलतरा-कोटगढ़ में विशाल मृत्तिका दुर्ग है। इन धरोहरों में स्थानीय ज्ञान परंपराओं का समावेश होकर यह जीवन के सहज, सुगम और सुखद निर्वाह का साधन बन सार्थक हो। इस धरोहर के साथ जीवंत तादात्म्य स्थापित करने के प्रयासों को अब गति मिलेगी, संस्थान इन परंपराओं में सहभागी बनकर भविष्य भी गढ़ेगा, विश्वास है। 

यह नोट तैयार करते हुए तथ्यों की जानकारी और पुष्टि के लिए भिलाई के श्री संजीव तिवारी, जाकिर हुसैन, परदेशीराम वर्मा, गंडई के श्री पीसीलाल यादव, रायपुर के श्री राकेश तिवारी, डॉ. शिव कुमार पांडेय तथा अकलतरा के श्री रमाकांत सिंह व श्री रविन्द्र सिसौदिया से फोन पर बात करना उपयोगी हुआ, आप सभी के प्रति आभार।

Friday, February 7, 2025

शब्दों से परे कविता

कविताओं की मेरी समझ और रुचि संकीर्ण है, मगर परिचितों की कविता पढ़ने को अवश्य उत्सुक रहता हूं। एक खेल-सा होता है कि रचनाकार का व्यक्तित्व जैसा प्रकट है और जिस तरह परिचित हूं, उसकी रचनाओं की संगति कितनी बैठती है और फिर वह ऐसा कवि हो, जो प्रशासनिक अधिकारी हो और जिसके मातहत काम किया हो तब यह खेल और भी रोचक हो सकता है, कुछ-कुछ रोमांचक भी, मगर अंतराल लंबा हो तो यह रोमांच वैसा नहीं रह जाता और कवि-पाठक के रिश्ते का सहज निर्वाह संभव हो जाता है। यही स्थिति बनी त्रिलोक महावर जी की पुस्तकें पा कर। 

उनकी चार पुस्तके हाथ में हैं- ‘शब्दों से परे‘-2018, कविता का नया रूपाकार‘-2020, ‘नदी के लिए सोचो‘-2021 दूसरा संस्करण, ‘आज के समय में कविता‘-2022। 

‘शब्दों से परे‘ उनकी चयनित कविताएं हैं, आवरण शशांक का है, जिन्होंने उनकी कविताओं पर विमर्श की पुस्तक कविता का नया रूपाकार‘, जिसमें उनके संग्रह ‘शब्दों से परे‘ और ‘हिज्जे सुधारता है चाँद‘ पर केंद्रित विमर्श हैं, के लिए चयन किया है, संभव है कि ‘शब्दों से परे‘ की कविताओं के चयन में भी उनका मशविरा रहा हो। ‘आज के समय में कविता‘ भी उनके संग्रह ‘शब्दों से परे‘ से संबंधित है, जो उसके विमोचन पर एक सत्र में आयोजित परिचर्चा का दस्तावेज है, जबकि ‘नदी के लिए सोचो‘, उनका अन्य कविता संग्रह है। 

‘नदी के लिए सोचो‘ की कुछ कविताएं ‘शब्दों से परे‘ में भी हैं। कविताओं में बेतवा, इंद्रावती, तमसा, यमुना, बैनगंगा आदि नदी है, चांद के साथ और जंगल-दरख्त भी। नदी दुबलाती है, सिकुड़ती है, मौन रहती है, उसकी कमर कुछ ज्यादा ही झुक जाती है, कभी नवयौवना भी है, नदी रोती भी है, नदी सिसकती है, अब सपने में आती है, जैसे शब्द, पाठक को शब्दों से परे सहज ले जाते हैं। पर्यावरण के हालात भी कवि को रचने के लिए बाध्य करते हैं। ‘शब्दों से परे‘ में रूमानी कविताएं भी हैं और कम शब्दों में बात कहने के हुनरमंद, इस संग्रह की अंतिम और लंबी कविता ‘सिक्के की आखिरी साँस में मानों अपनी स्मृति के सारे पड़ाव को चवन्नी के बरअक्स देख-दिखा लेना चाहते हैं। 23 पाद टिप्पणियों वाली कविता, बस्तरिया भाषा-संस्कृति के शब्दों से अभिव्यक्त, कवि की तरल स्मृति का प्रवाह जैसा है। 

सीधे, सपाट बात कह कर असर पैदा करना, जैसे स्वयं शीर्षक ‘नदी के लिए सोचो‘ भी, इसे समीक्षकों द्वारा कितना काव्य माना जाता है, पता नहीं, लेकिन मन को छूता जरूर है। मगर नामवर सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, सतीश जायसवाल, राधेलाल विजघावने, राम अधीर, तेजिन्दर, शशांक, रामकुमार तिवारी, रमेश अनुपम, संजीव बख्शी, रऊफ परवेज, लक्ष्मीनारायण पयोधि, नारायण लाल परमार, विजय सिंह, सतीश कुमार सिंह नथमल शर्मा, सुधीर सक्सेना, शाकिर अली जैसे मर्मज्ञ और सुधिजन, इन कविताओं का मूल्यांकन कर चुके हैं, फिर और कुछ कहने को बस इतना कि मेरा भी वोट, इन कविताओं को। 

कविता ‘कहि देबे संदेश‘ की आखिरी पंक्तियां हैं- रोटी की आस है/ पानी की प्यास है/ धरती उदास है‘ मगर कवि यह भी मानता है कि- ‘ठिठुरती हुई जिजिविषा को भरोसा है/ एक दिन नदी फिर बहेगी/ धूप के साथ-साथ‘।

Thursday, February 6, 2025

खुशहाल! नार्वे

अजायबघर के सैर की तरह है, प्रवीण झा की ‘खुशहाली का पंचनामा’।

बचपन में किताब पढ़ी थी ‘ये भी मानव हैं‘, अब यह किताब पढ़ते हुए लगा कि नार्वे, यह भी एक देश, एक समाज है, ऐसे भी नागरिक, लोग होते हैं, ऐन्ड्रूयू ब्रेविक जैसे अपराधी, उसकी ‘सजा‘ और उसके साथ होने वाला सलूक!

किताब बताती है कि- ‘पूरे स्कैंडिनैविया में धर्म की शिक्षा भी स्कूलों में अनिवार्य है। पहले लूथेरान क्रिश्चियन पढ़ाई जाती थी। आजकल ईसाई धर्म घटाकर 50 प्रतिशत और बाकी इस्लाम, बौद्ध, यहूदी, हिंदू धर्म पढ़ाए जा रहे हैं। नास्तिकता भी पढ़ाई जा रही है। धर्म की शिक्षा पर कई विवाद हुए पर ये 100 साल से अड़े हुए हैं। कहते हैं, धर्म चाहे दो-चार और बढ़ा लो, ये शिक्षा बंद नहीं होगी।‘ इसके साथ याद आया कि भारतीय परंपरा में अथर्ववेद का मंत्र है- ‘जनं बिभ्रति बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।‘ अर्थात- “भिन्न-भिन्न भाषा वाले, नाना धर्मों वाले जन को यह पृथिवी अपनी-अपनी जगह पर धारण कर रही है। महाभारत कहता है- धर्मं यो बाधते धर्माे न स धर्मः कुधर्म तत्। अविरोधात् ‌तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम।। अर्थात- जो धर्म दूसरे धर्म का बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्म का विरोध नहीं करता, वही वास्तविक धर्म है। अशोक का बारहवां शिलालेख, जिसमें सभी धर्मों के सार-वृद्धि की कामना है और कथन कि ‘एक-दूसरे के धर्म को सुनना और सुनाना चाहिये।‘

लेखक पंचनामा करता है, मगर वह डॉक्टर है तो पोस्टमार्टम भी करता है और पाता है कि- ‘मेरे मन में एक शाम यह प्रश्न आया कि क्या सचमुच नॉर्वे एक ‘हैप्पी‘ या प्रसन्न देश है? या यह बस आंकड़ों पर बुना गया एक भ्रम-जाल है? दुनिया का सबसे खुश देश आत्महत्या में भी टॉप 10 में है।‘ और फिर अपनी साइकोलॉजिस्ट दोस्त के साथ अपना समाधान भी निकालता है।

यात्रा संस्मरण में देश और निवासी, निर्मल वर्मा वाले लेखन में शब्द-दर-शब्द साहित्यिक हो जाता है, ज्यों कहना कि- आइसलैंड हरा-भरा है और ग्रीनलैंड बर्फीला। मगर अपने लेखन को बेवजह साहित्य बना डालने के फेर में न पड़े, यह वैसा ही पसंद आने वाला लेखन है, कुछ-कुछ बातचीत की सपाटपन वाला। ऐसा नहीं कि ‘साहित्य है ही नहीं, एक बानगी- ‘नॉर्वे ग्रामसुंदरी है तो स्विट्ज़रलैंड राजनर्तकी। नॉर्वे के पहाड़ों में ग्रामसुंदरी की त्वचा का रूखापन है, यहाँ के पहाड़ बीहड़ हैं; बिना किसी 'फिनिशिंग' के बच्चों के सतोले की तरह जैसे पत्थर एक-दूसरे के ऊपर रख दिए गए हों। जबकि स्विट्ज़रलैंड में कौमार्य कोमलता है, हर पहाड़ तराशा हुआ नवयौवना के वक्ष की तरह।’

तिलक ‘द आर्कटिक होम इन द वेदाज‘ में वेदों आर्यों से उत्तरी ध्रुव का रिश्ता जोड़ते रहे, जिसकी चर्चा यहां भी है, उस पर मुझे याद आते रहे छत्तीसगढ़ में प्रचलित किस्से। कई प्राचीन स्मारकों के साथ यहां दंतकथा प्रचलित है कि उनका निर्माण छमासी रात में हुआ था।

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की खोज वाले नार्वे के एमंडसन की चर्चा है। इसे पढ़ते हुए हम मित्रों के बीच का प्रसंग याद आया। ध्रुवीय प्रदेशों की वैज्ञानिक अध्ययन के लिए गया दल बर्फीली हवाओं से जूझता सर्वे स्टेशन स्थापित करने की मशक्कत में लगा था। उधर कोई स्थानीय बर्फीली सतह के बीच एक छेद के उपर हारपून ले कर स्थिर बैठा था कि कब मछली वहां से गुजरते सेकंड भर के लिए रुके और वह उस पर वार करे। सर्वे टीम का सदस्य सोचने लगा कि हम स्टेशन खड़ा करने के लिए घेटों जूझ रहे हैं और एक ये श्रीमान हैं जो फुरसत से मछली मारने के लिए बैठे हुए हैं। इस पर हमारे मित्र ने टिप्पणी की, कि वह स्थानीय सोच रहा होगा कि यहां मछली मारने से फुर्सत नहीं और इन्हें देखो, किस बेमतलब काम के लिए समय मिल गया है, जो यहां तक चले आए हैं।

किताब में मछली मारी जाती है, पहाड़ भी एकाधिक बार चढ़ा दिया है। ऐसे दुहराव और भी हैं। स्वस्तिक को हर बार ‘स्वास्तिक‘ क्यों छापा गया है, समझ न सका।

इस किताब का एक हासिल कि नार्वे को वहां की संदर्भ-दृष्टि, भारतीय मूल्य और संस्कारों के साथ तो देखा ही गया है, मानवविज्ञानी तथ्यआग्रही तटस्थता भी है और यह सब आपस में इस तरह घुला-मिला है कि पढ़ते हुए पता नहीं लगता, पगुराते हुए रस देता रहता है।

Thursday, January 30, 2025

किसानी शब्द

छत्तीसगढ़ी भाषा-संस्कृति के क्षेत्र में अकादमिक स्तर पर आधारभूत शोध-प्रकाशन में नागपुर विश्वविद्यालय से भाषाविद डॉ. हीरालाल जैन के निर्देशन में पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त, डा. भालचन्द्र राव तेलंग की 616 पेज की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन‘ सन 1966 में हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर प्राइवेट लिमिटेड, बम्बई-4 से प्रकाशित हुई थी। 

यहां प्रसंग इस क्षेत्र के एक अन्य प्राथमिक, प्रामाणिक और व्यापक होने के कारण महत्वपूर्ण किंतु अब तक अप्रकाशित, पालेश्वर प्रसाद शर्मा के शोध प्रबंध ‘छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली‘ का है। यह शोध सन 1972 में पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा के निर्देशन में किया गया। कुल 676 पृष्ठों में मुख्य भाग 502 पेज तथा 174 पेज परिशिष्ट के हैं। इस अप्रकाशित शोध-प्रबंध के कुछ अंश प्रकाशित हैं और बहुत सारी जानकारियां विभिन्न अध्येताओं-लेखकों की रचनाओं में शामिल कर ली गई हैं। 

01 मई 1928    -    02 जनवरी 2016 

सन 1990 में उनकी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास एवं परम्परा‘ का प्रकाशन, रचना प्रकाशन, इलाहाबाद से हुआ। यह पुस्तक म.प्र. साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित है। पुस्तक का पहला अध्याय-भूमिका तथा दूसरा अध्याय-धार्मिेक एवं सांस्कृतिक जीवन, वस्तुतः आंशिक परिवर्तन के साथ उनके शोध-प्रबंध का पहला अध्याय एवं ग्यारहवां अध्याय है। इसके पश्चात सन 1995 में भारतेन्दु साहित्य समिति, बिलासपुर द्वारा ‘डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा अभिनन्दन ग्रन्थ‘ प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तिका के संपादक प्रो. रामनारायण शुक्ल थे। इस पुस्तिका में संपादक श्री शुक्ल का ‘डॉ. पालेश्वर शर्मा और उनका शोध प्रबंध‘ परिचयात्मक लेख शामिल है। 

पुस्तिका का पहला लेख डॉ. रामकृष्ण तिवारी का ‘डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्माःविचार एवं व्यक्तित्व‘ है। इस लेख में डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा की जन्मतिथि 2 अक्टूबर 1928 तथा उनके पी-एच. डी. का सन 1973 बताया गया है, संभवतः यह तिथि शोध-उपाधि की है। उनके जन्म तथा शोध तिथि के संबंध में स्पष्टीकरण आवश्यक है कि इसी पुस्तिका में शामिल विद्याभूषण मिश्र के लेख में उनकी जन्मतिथि 1 मई 1928 दी गई है, गत वर्ष प्रकाशित ‘डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा स्मृति ग्रंथ के जीवन परिचय और लेखों में भी उनकी यही जन्मतिथि है, पारिवारिक स्रोतों से की गई पुष्टि के अनुसार यही उनकी वास्तविक जन्मतिथि है। इसी प्रकार उनके पी-एच. डी. शोध-प्रबंध की मूल प्रति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर ग्रन्थागार में उपलब्ध है। ग्रंथालय के प्रभारी श्री सुपर्ण सेनगुप्ता जी के माध्यम से इस शोध-प्रबंध के अवलोकन का अवसर मुझे मिला, जिसमें तिथि 2-8-72 अंकित है।

शोध प्रबंध के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य, जानकारियों का उल्लेख आवश्यक है। बिलासपुर क्षेत्र में प्रचलित व्यावहारिक तथा पारिभाषिक संकलित शब्दों की संख्या शोध-प्रबंध में दी गई तालिका के आधार पर यहां अध्याय के साथ कोष्ठक में दी गई है, जिसका योग सूची में 8904 (? 9104) है, शोध-प्रबंध में ये शब्द अधो-रेखांकित हैं।

शोध-प्रबंध के‘पहला अध्याय - भूमिका‘ के ‘अनुसंधान कार्य की सीमाएँ‘ उपशीर्षक में तालिका बना कर बिलासपुर क्षेत्र में प्रचलित व्यावहारिक तथा पारिभाषिक शब्दों की संख्या दी गई है, जो यहां कोष्ठक में अध्याय के शीर्षक के साथ दी जा रही है। शोध-प्रबंध का पहला अध्याय ‘भूमिका‘ है, जिसमें (246 शब्द) छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक, भौगोलिक परिचय, लोग, जातियां, भाषा-बोली, शोध-प्रविधि और पूर्व में किए गए कार्यों की जानकारी है। दूसरा अध्याय ‘भूमि, खेत और गांव‘ में (782 शब्द) भूमि के प्रकार, खेतों के नामों का तथा गॉंवों के नामों का वर्गीकरण है। तीसरा अध्याय ‘खेती के साधन और उपकरण‘ का (379 शब्द) है। इस अध्याय में खाद, सिंचाई के साधन व तरीके तथा कृषि कार्य के उपयोग में आने वाले उपकरण की जानकारी है। चौथा अध्याय खरीफ (सियारी) प्रमुख अन्न तथा उपान्न (847 शब्द) की जुताई-बुआई और धान के प्रकार, जोंधरी, कोदो और कुटकी सहित फसल संबंधी प्रचलित हाना है। पाँचवाँ अध्याय ‘रबी (उन्हारी) प्रमुख द्विदल तथा अन्न-उपान्न‘ (489 शब्द) है, जिसमें राहेर, तिउरा, चना, उरिद, मसुरी, मूंग, गहूं, अंडी, तिल्ली, पटुआ और माखुर का विवरण है। छठाँ अध्याय ‘साग-सब्जियॉं तथा फल‘ में (763 शब्द) विभिन्न मौसम के साग, जंगली फल और भाजी, फल, कुसियार, आदा अउ हरदी, फूट अउ कलिंदर, पताल, पान का विवरण है। 

सातवाँ अध्याय ‘खेती से संबंधित पशु-पक्षी‘, जिसमें (698 शब्द) पालतू पशु तथा वन्य पशु-पक्षी की उल्लेख है। साथ ही पशु संबंधित प्रचलित हाना भी है। आठवाँ अध्याय ‘खेती की सुरक्षा‘ (261 शब्द) है। इसमें फसल को हानि पहुचाने वाले पशु, साँप, मुसुआ, कीड़े, रोग और निराकरण का उपाय दिया गया है। नवाँ अध्याय ‘प्रकृति, जलवायु संबंधी शब्द‘ का (124 शब्द) हैै, जिसमें बादल, वर्षा और जलवायु, ऋतु, नक्षत्र माह आदि तथा ऋतुगीत-बारामासी है। दसवाँ अध्याय में (2414 शब्द) ‘कृषक जीवन के अन्य व्यवसायी एवं उनके उत्पाद‘ की विस्तार से चर्चा है, जिसमें 26 शीर्षकों में विभिन्न बर्गों-कार्यों का विवरण है। ग्यारहवाँ अध्याय ‘धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन‘ (2101 शब्द) है, जिसमें संस्कार, त्यौहार, पूजा-प्राश्श्चित, टोटका, अपशकुन, गाली, चउॅॅंक, पकवान तथा दैनिक व्यवहार में प्रचलित शब्द, भूत-प्रेत और खेलों के प्रकार को भी शामिल किया गया है।

इसके पश्चात परिशिष्ट 1 से 7 में क्रमशः शब्दकोश, मुहावरे, लोकोक्तियां, लोक-गीत, लोक-कथाएँ, पहेलियाँ तथा ग्रंथ सूची है।

इस शोध-प्रबंध के ‘दूसरा अध्याय - भूमि, खेत और गाँव‘ के पृष्ठ 69 से 75 तक का अंश यहां प्रस्तुत है-

भूमि के प्रकार निम्नलिखित हैं - (१) मटासी भूमि में धान की खेती अच्छी होती है, किन्तु इसमें उन्हारी की फसल साधारण होती है। इसका रंग पिउरा या पीला है। इसमें पानी जमा रखने की क्षमता होती है। मटासी के दो प्रकार होते हैं। किसानों की भाषा में इन प्रकारों को लम्बर एक (नम्बर एक) या पंडरी मटासी (श्वेत मटासी) और लंबर दू (नंबर दो) कहते हैं। पंडऱी मटासी में भूरे रंग की मिट्टी का मिश्रण रहता है। उर्वरता पर्याप्त होने के कारण इसे मटासी नम्बर एक की भूमि कहते हैं। अधिक उपजाऊ जमीनों को लम्बरी भुइयाँ (नंबरी भूमि) कहते हैं। 

(२) कन्हार या कन्हारी (काली मिट्टी) खेती के लिये श्रेष्ठ मानी जाती है, इसी से हाना (कहावत) प्रचलित है- कन्हार जोंते अऊ कुल बिहावै- कन्हार भूमि जोतना तथा कुलीनवंश की कन्या ब्याहना उचित होता है। कन्हार मिट्टी काली होती है और इसमें पानी सोखने की क्षमता रहती है। कन्हार से भी दो प्रकार होते हैं। भुरुआ कन्हार (भूरे रंग की) और तेलिया कन्हार (अधिक काले रंग की भूमि)। यह मिट्टी इतनी उर्वरा होती है कि इसे किसान लोग धनहा (धान के योग्य) कहते हैं। इसमें उन्हारी भी उतनी ही पैदा होती है। उर्वरता के अनुसार इस भी नंबर एक तथा नंबर दो के क्रम में आँक़ा जाता है। 

(३) डोरसा (दो रसा या दोमट) मटासी तथा कन्हार के मिश्रण से बनती है। इस भूमि में सियारी तथा उन्हारी दोनों पैदा होती हैं। उर्वरता तथा जल सोखने की क्षमता के अनुसार इस भूमि को भी नंबर एक दो का क्रम दिया जाता है। 

(४) घोर्रहा भूमि कंकरीली होती है, इसी से इसे गोटकर्रहा (गोटी मिश्रित) भी कहते हैं। इसमें सियारी तो होती है, किन्तु उन्हारी की उपज कमजोर होती है। 

(५) कुधरारू भूमि में रेत की मात्रा होती है। कुधरा (रेत) होने के कारण ही यह कुधरारू कहलाती है, इसमें धान की फसल अधिक होती है। 

(६) कछरी या कछारी भूमि में रेत की मात्रा अधिक होती है, इसीलिए इस भूमि में धान की फसल अधिक अच्छी नहीं हो पाती, किन्तु उन्हारी के लिए यह भूमि अच्छी होती है। कछार के दो प्रकार होते हैं- (अ) पाल कछार तथा (ब) पटपर कछार, पाल कछार नदी की रेत तथा मिट्टी से बना कछार है जो सागभाजी बोने के लिए उपयुक्त होता है। पटपर कछार में रेत की मात्रा सर्वाधिक होती है, अतः वह कन्द, घुइयाँ और तरबूज की खेती के लिए ठीक होता है। 

(७) आबपासी व और आबपासी (आबपाशी व गैरआबपाशी) सिंचाई के आधार पर सभी खेतों को वर्गीकृत किया जा सकता है, जिन खेतों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है उन्हें आबपासी के खेत, तथा जिनके लिए सिंचाई की सुविधा नहीं है, उन्हें गैर आबपासी खेत कहते हैं। 

(८) परिया (परती) उस भूमि को कहते हैं, जिसमें कोई अन्न नहीं बोया जाता तथा वह भूमि व्यर्थ पड़ी रहती है। 

(९) गौचर तथा बीड़ के मैदान - प्रायः प्रत्येक गांव में ढोर डांगर (डंगर) के चरने के लिए जो चरागाह सुरक्षित रखे जाते हैं उन्हें गौचर, तथा चारे के लिए घास और खदर घास (छप्पर के लिए लम्बी घास) के लिये सुरक्षित मैदानों को बीड़ कहा जाता है।

(१०) जिस मिट्टी में कंकड़ की मात्रा थोड़ी अधिक होती है उसे कंकरहा कहते हैं। आकृति में बड़े कंकड़ होने पर भूमि को गोटकर्रहा कहा जाता है। पत्थर पाये जाने के कारण भूमि को पथरहा कहते हैं। 

(११) जिस भूमि में बड़े बड़े ढेले रहते हैं, उसे ढेलहा कहा जाता है। ढेलहा भूमि में खेती के लिए मिट्टी तैयार करने में अधिक श्रम लगता है। 

(१२) भूमि की थोड़ी ऊंचाई होने के कारण उसे टिकरा या टिकरिहा भुइयां कहते हैं। टिकरा में अलसी, अरहर, कोदो, कुटकी बोते हैं। 

(१३) जहां कुसियार (गन्ना) की खेती होती है उस बरछा तथा भूमि को बरछहा भुइयां कहते हैं। बरछा में साग विशेषकर चेंच भाजी बो देते है। बरछहा चेंच-भाजी सुस्वादु होती है। 

(१४) पर्याप्त उर्वर तथा बंधी हुई भूमि बंधिया कहलाती है। बंधिया जमीन गेहूं तथा चने की उपज के लिए प्रसिद्ध होती है। 

(१५) जिस जमीन में प्रकृति द्वारा गढे़ हो जाते हैं, उसकी भरकहा कहते हैं। भरकहा जमीन पशुओं के लिए बड़ी खतरनाक होती है। 

(१६) फटने वाली जमीन उरकहा कहलाती है। परती कन्हार उरकहा होती है। 

(१७) अधिक जल की मिट्टी गल जाती है, ऐसी गल जाने वाली मिट्टी की भूमि को गरनहा कहते हैं। 

(१८) जिन खेतों में चना, गेहूं बोया जाता है, उन्हें भर्री है। भर्री में सियारी नहीं बोयी जाती। 

(१९) जिस खेत में गांव का खाद युक्त पानी एकत्र होता है उसे गोरसा या रसनहा भूमि कहते हैं। रसनहा भुइयां खेती के लिये अच्छी होती है, क्योंकि इस भूमि में कम श्रम में ही अधिक अन्न उत्पन्न होता है। 

(२०) खलिआन, (खलिहान) या कोठार (कोष्ठागार) वह स्थान है, जहां खेतों से अन्न लाकर अम्बार लगाते हैं, और वहीं दौनी करते हैं। इन स्थानों में भी फसल बोई जाती है। इन्हें बियॉंरा या बियारा कहते हैं । 

(२१) नदी के किनारे की भूमि रेतीली होने के कारण और बाढ़ के द्वारा खाद पाने के कारण साग-सब्जी बोने के लिये उपयुक्त होती है उसे झाँंप कहते हैं। 

वर्षा की धारा के प्रवाह में पड़ने वाले खेत बहरा कहलाते हैं। बहरा की विशेषता भूमि की गहराई भी है, जिसके कारण वर्षा का जल संचित रहता है। बहरा के समीप दोनों पक्ष को पखिया (पक्ष) कहते हैं। 

जिन खेतों की ओर धार होने के कारण वर्षा की धारा बहती है उन्हें किसान नार कहते हैं। इस बहाव से लगे हुए खेतों के समूह को भी नार कहा जाता है। जिस जमीन की स्थिति नहरी सिंचाई से ऊपर होती है और नहर का पानी उस भूमि में चढ़ नहीं पाता उसे टांगर कहते हैं। खेत या गाँसा या पखार किधर है यह जानना किसान के लिए सर्वथा आवश्यक होता है। 

खेत की ऊपरी जमीन के हिस्से को पखार तथा नीचे की जमीन के भाग को गांसा कहते हैं। पानी हमेशा पखार से गांसा की ओर बहता है। प्रायः पखार की अपेक्षा गांसा की ओर अधिक अन्न उत्पन्न होता है। खेत में पानी भरने के लिए खेत में मुंही (मुंह) बनाते हैं। खेत में पानी भरने के लिये पखार मुंही को पहले खोलते हैं, और अधिक वर्षा में खेत में पानी कम करने के लिए गांसा मुंही को फोड़ते हैं। 

सिंचाई की दृष्टि से जिस खेत में पहले पानी पहुंचता है उसे मुंही वाला खेत कहते हैं और उसके नीचे के खेत को मुंहीतर खेत कहते हैं। जिन खेतों को सिंचाई मिलती है उन्हें पल्लो खेत कहते हैं, रोपा के लिए जिस खेत या भूमि में बीज बोया जाता है उसे थरहौटी कहते हैं। 

धान की अच्छी फसल पाने के लिए खेतों में खन्ती (खुदाई) की जाती है, और मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों को खेतों की मेड़ों पर रख दिया जाता है जिस ढेलवानी कहते हैं। खेत गहरे होते हैं तो फसल भी अच्छी होती है। और मेड़ों पर ढेलवानी के कारण अरहर की फसल भी अच्छी होती है। हाना है ‘जे मां बूड़य हांड़ी, तेमां होवय खांडी‘ (जिस खेत में हंडी डूबने लायक पानी हो उस खेत में कई खण्डी धान उत्पन्न होगा।) 

गर्भ धारण की क्षमता के कारण खेत गभार कहलाते हैं। इन खेतों का मूल्य अधिक होता है। मेड़ (सीमा बनाने तथा पानी रोकने के लिए मिट्टी का घेरा) बनाकर खेत तैयार किया जाता है। 

खाले या खाल्हे का अर्थ नीचे, तरी याने तले तथा सही या साही परिचय बोधक होता है। 

इसी प्रकार इस शोध-प्रबंध के ‘छठाँ अध्याय - साग सब्जियां तथा फल‘ के पेज 194 से 201 तक का अंश यहां प्रस्तुत है-

साग-सब्जी 
छत्तीसगढ़ में कुछ विशेष जाति के लोग हैं, जो साग-सब्जी की खेती करते हैं। इनमें मरार, पटेल, माली, सबरिया, गोंड़, धांगड़, बिंझवार, सौंरा आदि प्रमुख हैं।

सब्जी की खेती - कोला (घर, रसोई से लगा बगीचा), बारी, कछार, झाँप (नदी का तट), खेत, कोठार, टिकरा, भर्री, बरछा (गन्ने का खेत) बगैचा में की जाती है। सब्जी की खेती के लिए पशुओं से रक्षा का प्रबंध करना अत्यंत आवश्यक होता है।

इसके लिए बाग-बगीचे के चारों ओर घेरा करते है। सम्पन्न कृषकों द्वारा घेरा, कच्ची पक्की दीवार, तार की जाली आदि के द्वारा किया जाता है। साधारणतया गरीब किसान सरहद के चारों ओर की मेढ़ ऊंची उठाते हैं। इसे खवा (भित्ति) उठाना, खवा देना, खवा बनाना कहते है। खवे के ऊपरी सिरे पर मिट्टी के गीले लोंदे रखे जाते है, एवं उन्हें मिला दिया जाता है। इन पर छोटे छोटे कांटों की टहनियां आपस में सटाकर खोंस देते हैं। इसके लिए प्रमुखतः बोइर (बेर), बमरी (बबूल), चीड, बनबोइर (बनबेर) मकोइया, गटारन (बेंत जैसा एक कंटीला पौधा), छींद, आदि के काटों का इस्तेमाल करते हैं। इन कांटों को मजबूती के लिए दोनों ओर कमची से बांध देते है, जिसे कांटा लगाना, कांटा गड़ियाना, कांटा खोंचना, कांटा बांधना, कमची- बांधना, कांटा बतनियाना (रस्सी से बांधना) कहते है। खवा का आधार चौड़ा एवं ऊपरी छोर क्रमशः सकरा होता है। जिस कभी कभी चिकना भी कर दिया जाता है। इसे खवा चिकनाना कहते है। बरसात में खवे की रक्षा के लिए उस पर पालानी (खदर का छप्पर) बांध देते है। 

कहीं कहीं बिना खवा बनाये ही कांटों की बड़ी डाल को मेंड़ में साबर (सब्बल) से खोदकर गाड़ देते है, एवं उसकी मजबूती के लिए कांटों को बांस या बांस की कमची या अन्य पतली डाल से बतनिया देते हैं। बांस की पतली टहनियां भी काम में लाई जाती है। इस क्रिया को बाड़ी रूंधना कहते हैं। 

सरहद में कुछ पौधों को उगाकर मी बाड़ी रूंधने का काम लिया जाता है।

बेसरम, रूसा, मेंहदी, कनेर, गंगा-अमली, बतराज, थूहा, गटारन, मकोइया आदि के पौधे बाड़ी के चारों और लगाते हैं। 

बरसात के सिवाय अन्य मौसम के लिए सिंचाई की व्यवस्था करना दूसरी मुख्य आवश्यकता है। इसके लिए खेत में कच्चा या पक्का कुआं, झिरिया (नदी में कच्चा खोदा गया सोता) नदी नाले की धार बांधकर तालाब, डबरी आदि का पानी एकत्र कर टेंडा या छापा (पानी फेंककर सींचना) मारकर या नाली, टार के माध्यम से सिंचाई की जाती है। 

पानी का बिखराव समस्त भूमि पर आसानी से करने के लिए आवश्यकतानुसार भूमि के धरातल को ऊंचा-नीचा करके पलिया (क्यारी) बना लेते हैं। 

जमीन की भरपूर जुताई है की जाती है, ताकि मिट्टी भुरभुरी बन जाती है। ढेले फोडे़ जाते हैं, छोटे-मोटे गड्ढ़े पाट दिये जाते हैं, अनावश्यक पौधों को जड़ समेत खोदकर घास आदि निकाल दी जाती है। 

खेत की भुरभुरी मिट्टी में पानी के बहाव को ध्यान में रखते हुए छोटी बड़ी क्यारियां (पलिया), डुहरू (छोटी नाली) मांदा (पतली मेड़), थवना (थाला) बनाये जाते हैं। प्रमुख नाली को टार तथा छोटी नाली को डुहरू तथा पौधे लगाने अथवा बीज डालने के लिए बनाये गये शाल को थवना कहते हैं। पौधों में मिट्टी चढ़ाने की क्रिया की मांदा चढ़ाना कहते हैं। क्यारियों को पलिया कहते हैं। पौधे को जमीन से ऊपर उठाने के लिए मिट्टी हटाने या मिट्टी चढ़ाने की क्रिया पेड़ टारना है। मिट्टी को भुरभुरी करने की क्रिया को माटी गुररना कहते हैं।

साग बोना तथा तोड़ना - साग बो देने पर बीजहा बिसाके (खरीदकर) परियार के (साफ करके) बीजहा हावै, बीजहा छींच दे, पौधा उगने पर, बीजा जामगे, आंकुर आगे, दुपन्नी मेलथे, गैफरी मेलत हावै, फोंकक आवत हे, भाजी काफी फैलने पर भाजी बने भदराय हे, भाजी फदक गे, चला भाजी खोंट लेवा, भाजी ल टोरा, फल धारण करने पर जिया धरत हे, जीकी धरत हे, लोवा धरत (फूल में फल), फूल ल झन टोरिहा, डोंहडी फुलत है, फोंक ल टोरिहा, बने साग फरगे हे, रखवारी करे ला लागही, बारी राखे जाहा, चोर, बंदर, गाय, बैल और अन्य जंतुओं से रक्षा के लिए बारी में रखवाली आवश्यक है। 

साग के प्रकार- पानी की सिंचाई लब्ध होने पर अब साग बारहों महीने बोया जा सकता है। बारामासी साग का लाभ अधिक मूल्य पाना है, फिर मी साग के ऋतुओं अनुसार भेद हो सकते हैं। (१) बरसाईत के साग (२) जड़कल्ला के साग (३) घाम दिन के साग इसी प्रकार इसके दो और प्रकार है, भाजी तथा जंगली साग। जंगली सागके लिए बोने और रक्षा करने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता । (१) बरसात या बरसाईत के साग- रमकेरिया (भिण्डी), तरोई (तोरई), मरारी तरोई, हंसा तरोई, डोंड़की तरोई, घिया तरोई, झुमकी तरोई, चिकनी तरोई, बरबट्टी, कोंहड़ा या मखना, रखिया, कुंदरू, भांटा-गोलवा, काछी, भेजराभांटा, मुरई, करेला (बड़े तथा छोटे), खेंड़हा, खेखसा, कोंचई, करौंदा, कर्रौआ, गंवार फल्ली, खीरा आदि । (२) जाड़ा या जड़कल्ला के साग- आलू, सरगुजिहा आलू, लाल आलू, इलाहाबादी आलू, पटना के आलू, फूल गोभी, गांठ गोभी, पताल, भांटा, लौकी, परोड़ा (सफेद चचेड़ा), गाजर, सेमी, बामी सेमी, हाथीपांजर सेमी, बटराली सेमी, मुनगा, बोदी - बीजा, या फुनगा, डांगकांदा, बरैजहा कांदा, जिमीकांदा, ताई (चौड़ी फली) खुरसा, मटर, तिवरा के लमेना, बटुरा के फत्ली आदि । (३) गर्मी या घाम के दिनों के साग कटहर, करेला, गोंदली (प्याज), सकरकंद हैं। पहले कहा जा चुका है, कि अब पानी की सुविधा तथा साग के मूल्य को देखकर बारहमास सब्जी उगाई जाती है। छत्तीसगढ़ में विशेषकर बिलासपुर से बाहर काफी मात्रा में साग-सब्जी भेजी तथा बेची जाती है। इसमें कोंचई (घुंइया) सबसे अधिक प्रसिद्ध है- इसके प्रकार- (१) साकिन कोंचई (२) पेंडारू कोचई (३) देसी कोचई (४) बिलासपुरिहा कोचई (इसमें खुजलाहट नहीं होती) 

भाजी भी किसी भी ऋतु में बोई तथा खाई जाती है। विशेषकर जाड़े में भाजी का महत्व तथा मूल्य अधिक रहता है। कुछ साग सर्वथा जंगली या स्वयं उत्पन्न होते हैं। इनमें सब्जी तथा भाजी दोनों सम्मिलित हैं। 

जंगली फल तथा भाजी- खेखसा, कर्रौंआ, ठेलका, पुटु, बनकुंदरू, बनरमकेरिया, बनकरौंदा, चरौंटा भाजी, करील (बांस की कोंपल काटकर उसमें खमीरा पैदा किया जाता है। इसका स्वाद सट्टा होता है)। 

छतीसगढ़ में प्रचलित अन्य सागों के नाम नीचे दिये जा रहे हैं- बिरहुल का फूल, पोई फूल, धंवई फूल, नीम फूल, अमलीफूल, ढेंस कांदा, तथा पीकी (तालाब से) मुनगा, फूट, भसकटैया, केथला, पिहरी, डूमर, बिही, अंवरा, बोहार फूल, बोहारफर, आदा, मउहा, कुर्रू, कोसम, कसही, खड़हार, भेलवाफूल, कोंचई नेर्रा। 

भाजी - 
छत्तीसगढ़ में भाजी तथा फल को सुखाकर ग्रीष्म ऋतु में या जब आवश्यक हो, खाते हैं। उसे सुसकी या खोइला कहते हैं। सुसकी (शुष्क) भाजी के नाम निम्नलिखित हैं- तिवरा भाजी, बटुरा भाजी, सरसों भाजी, पोई, धोपा, खेखसा, मखना, चरौंटा, मुनगा, तिनपनिया, नोनिया, गोल, रोपा, मुंगलानी, चेंच, खेंड़ा, सुनसुनिया, कोचई, चना, कुरम्हा, दानसुइया, ढेई, गुमी, कोइलारी, लाल, चौराई, पालक, मुरई, मेथी, पथर्री या (पिथौरी) प्याज, कांदा भाजी, करेला, सेमी, भथुआ, बोहार माजी, अमारू पटुवा,मुढ़ी, गुर्रु, चांटी, उल्ला, केना, कोआटेनी, कुकुरजिया, फांगभाजी, मिर्चा भाजी, कोंजियारी भाजी, गाड़ामेरी, सियाड़ाफ़र, पिरता भाजी। 

सुसकी या सुखरी (शुष्क की हुई) खोइला- बुंदेला, तिउरा, चना, भांटा-खोइला, मुनगा, सेमी, तरीइ्र, ढैंस, डूमर, गोभी, पीपरी, बड़सुखरी, रमकेरिया। कोचई, मखना, करेला, आलू, गंवारफल्ली, बोइर, मुरइै, खेंढ़वा, (करील की सुखरी) आदि। 

भाजी और साग बिक्री - हटरी या हाट के लिए किसान साग भाजी तोड़ता या तोड़वाता है, और थोक या चिल्हर बेचता है। किसान से थोक में साग-सब्जी खरीद कर कुछ लोग उसे उपभोक्ताओं को मुनाफा लेकर बेच देते हैं, एवं इस धन्धे द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं। ऐसे लोगों को दलाल, कोंचिया, कोचनिन कहते है, और इस प्रथा को दलाली करना या कोचियाई करना कहते है। 

शब्दावलियां ये हैं- चार आना के कुढ़ा गदोये हावन, मलोवन कतेक देबे, किलों के भाव बेचबे, पुरौनी (उपरौनी) डार, घर के उपजारे जिनिस अतका महंगी झन दे, मोर बारी के उपजोये नो है, कोचियाई आने हांवन, परता नइ परत ए, आवा साग भाजी ले लेवा ओ, लान तो ओ का साग धरे हावस। (चार आने की ढेरी की है, पूरे साग का दाम. क्या है? किलो के भाव में बेचेगा, उपरौनी दे, घर की उपज है, इतना महंगा मत दे, मेरे बगीचा का नहीं है, चिल्हर बेचने लाया हूं, भाव नहीं पटता, साग लो साग, साग ला तो क्या क्या है?) भाजी तो बासी दिखत हावे, कबके टोरे बाय, शनिचरी बाजार दिन के तो मोल लेहे हावौं, पैसेच के देबे कि खेजा के घलोक देथस। चाऊर के लेबे कि धान के, चिटुक बैन दे। तैं हर तो निचट महंगुलहिन लागथ हस, हाथ ल हला के दुएच डेंटरा झर्रा देथस, भांटा हर कड़हा हावै, कुंदरू हर पकपका गये है, करेला हर किरहा हावै, तोर मन परत हावे त ले जोर जबरान नई ए, दे पैसा ल जल्दी दे बेरा होवथ हावै (भाजी बासी है, कबकी तोड़ी गई है? शनिवार बाजार में खरीदा है, पैसा या धान किसमें भाजी बेचेगी? चावल या धान किससे खरीदोगे? थोड़ी भाजी और दो, तू महंगा बेचने वाली है, भाजी की दो डाल और दे, भटा सड़ा है, कुंदरू पक गया है, करेले में कीड़े हैं, तुझे लेना है तो लो, जबर्दस्ती नई है। पैसा जल्दी दे, समय हो रहा है। 
चित्र परिचय- बिलासपुर में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के साथ नवंबर 2000 में कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, डॉ. प्रभुलाल मिश्र तथा डॉ. लक्ष्मी शंकर निगम वक्ता थे। वरिष्ठ आइएएस अधिकारी और पुरा-कला अध्येता डॉ. के.के चक्रवर्ती जी ने दौरे पर बिलासपुर से गुजरते हुए इस आयोजन के लिए समय निकाला था और संक्षिप्त वक्तव्य भी दिया था। यह तस्वीर संभवतः इसी आयोजन की है, जिसमें मेरे आमंत्रण पर पधारे सर्वश्री केशव शुक्ला जी, रामलाल कश्यप जी, रोहिणी कुमार बाजपेयी जी और पालेश्वर प्रसाद शर्मा जी दिखाई पड़ रहे हैं। 
दूसरी तस्वीर स्वयं में स्पष्ट है, यह तहरीर उनकी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास एवं परम्परा‘ के आरंभिक पृष्ठ पर मेरे पास सुरक्षित है। 

प्रसंगवश- डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा (औपचारिक-सार्वजनिक अवसरों पर उनके लिए मेरा संबोधन ‘सर‘ या ‘सरजी‘ होता था और निजी-आत्मीय प्रत्यक्ष के दौरान ‘महराज‘) के शोध-प्रबंध का अध्ययन करते हुए लगा कि बाद के बहुत सारे ऐसे शोध-प्रकाशन हैं, जिनमें न सिर्फ उनके काम का आधार लिया गया है, बल्कि उपयुक्त उल्लेख के बिना उसका इस्तेमाल कर लिया गया हैै। तब आवश्यक लगा था कि उनके शोध-प्रबंध का परिचय, कुछ अंश को मूल सहित दर्ज किया जाए। इस तैयारी में लग गया था तब तक लगभग साल भर पहले रूद्र अवस्थी जी का पत्र मिला, जिसमें डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा स्मृति ग्रंथ की योजना की जानकारी देते हुए लेख का आग्रह किया गया था, इस संबंध में श्री अभिजीत तिवारी से भी चर्चा हुई, किंतु निजी परिस्थितियों और लंबे प्रवास के कारण चाह कर भी तैयारी को अंतिम रूप न दे सका। अब पुनः यह अवसर बना जब समन्वय साहित्य परिवार छत्तीसगढ़ के प्रांतीय अध्यक्ष डॉ. देवधर महंत जी से चर्चा के दौरान मैंने कुछ प्रसंगों और इस बहाने पितृ-पुरुषों का स्मरण किया, उन्होंने इसका उल्लेख करना प्रासंगिक माना, अतएव। 

सर्वश्री मुंगेली वाले रामगोपाल तिवारी जी के पुत्र, कुटुमसर और भीमबेटका एस बेल्ट के खोजकर्ता भूगोलविद डॉ. शंकर तिवारी/छितानी मितानी दुबे परिवार के श्री राजाबाबू दुबे/ विधायक, खादी बोर्ड के अध्यक्ष रहे इतिहास-पुराविद श्री रोहिणी कुमार बाजपेयी और टिकरापारा, यूथ हॉस्टल वाले श्री व्यंकटेश तैलंग, मेरे पिता श्री सत्येन्द्र कुमार सिंह के सहपाठी थे और मैं उन सबका सदैव इनका स्नेह-भाजन रहा। डॉ शंकर तिवारी पर केंद्रित प्रदर्शनी एवं विचार गोष्ठी का आयोजन 11 अप्रैल 2003 को बिलासपुर में किया गया था। सरजी और विनय पाठक जी से अक्सर मुलाकात बिलासा कला मंच के कार्यक्रमों और सोमनाथ यादव जी के कार्यालय में हो जाती थी। उक्त आयोजन की रूपरेखा निर्धारित करने में सरजी से मार्गदर्शन मिला। 

आयोजन में प्रदर्शनी का शुभारंभ सुबह 11 बजे हुआ और सायंकाल निर्धारित विचार गोष्ठी के लिए गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरिजेश पंत थे तथा प्रमुख वक्ता पुराजीव एवं पुरातत्व विज्ञानी डॉ. जी.एल बादाम, बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष श्री सतीश जायसवाल और डॉ. शंकर तिवारी के शिष्य तथा भोज मुक्त विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. एस.एल. कोका थे। 

(संभवतः इसी) आयोजन के उद्घाटन सत्र के लिए हमलोग चाहते थे कि बिलासपुर के संस्कृति-मूर्धन्य एक साथ मंच पर हों, मगर कई लोगों ने उन सबके बीच आपसी मनमुटाव की बात कहते हुए हतोत्साहित किया जा रहा था। इस पर भी उन्होंने प्रेरित किया और यह संभव हुआ कि मंच पर डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा, श्यामलाल चतुर्वेदी जी, डॉ. विनय पाठक और नंदकिशोर तिवारी जी जैसे विद्वानों का मंच पर एक साथ शोभायमान होने का दुर्लभ संयोग बना। 

आयोजन के समापन में वेद परसदा, मस्तूरी के सांस्कृतिक कला-दल के रहंस की प्रस्तुति तय हुई, मस्तूरी वाले संगीत-शिक्षक श्री विष्णु प्रसाद निर्णेजक और मुड़पार वाले श्री मनीष सिंह का सहयोग मिला। व्याख्यान, संस्मरण और वैचारिक सत्र शाम तक पूरा हो चुका था, मगर रहंस का दल नहीं पहुंचा, तब मोबाइल फोन का चलन कम था। दल से संपर्क नहीं हो पा रहा था। सरजी, सोमनाथ जी के साथ राय हुई, जिसमें बद्रीसिंह कटहरिया जी और सनत तिवारी जी सहभागी बने और इन दोनों ने मंच संभाल लिया ताकि रहंस दल के आते तक दर्शक-वृंद के लिए ‘फिलर‘-स्थानापन्न प्रस्तुति की जाए और तात्कालिक योजना के अनुरूप कटहरिया जी और सनत तिवारी जी ने मंच संभाल लिया, दर्शकों को बांधे रखा। यहां तक कि रहंस की टीम आ जाने पर भी दर्शकों ने उनकी प्रस्तुति जारी रखने की फरमाइश करने लगे। ऐसे कई अवसरों पर उनका मार्गदर्शन और प्रेरणा मुझे मिली। इसके साथ उनके लेखन या किसी विचार से असहमति होने पर जब भी मैंने अपनी बात उनके समक्ष रखी, उन्होंने सदैव पूरी बौद्धिक-तार्किक उदारता के साथ अपने से इतर पक्ष को महत्व दिया। 

नोट - यहां शोध-प्रबंध का अंश तिरछे अक्षरों /इटैलिक फांट/ में है, जिसे मूल से नकल करते हुए यथावत रखने की यथासंभव सावधानी बरती गई है। मूल में टाइपिंग की कुछ अशुद्धियों को दुरुस्त किया गया है। किसी गंभीर लेखन-उद्धरण या शोध संदर्भ-उल्लेख का प्रयोजन हो तो मूल का अवलोकन आवश्यक होगा।

Friday, January 24, 2025

कृश्न चन्दर

बारह-पंद्रह वाली, बाली उमर में पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाले प्रेमचंद से कुछ-कुछ परिचय हो गया था मगर पाठ्यक्रम से बाहर के आकर्षण में मेरे पसंदीदा कहानीकार कृश्न चन्दर थे (अब भी हैं)। याद करने लगा, उनकी दो-तीन कहानियां- एक जिसका शीर्षक ‘सबसे बड़ा लेखक‘ जैसा कुछ था, कब्र पर लगे शिलालेख वाला। एक अन्य अन्य ग्रह के यात्री का पृथ्वी पर आना और किसी हसीना का गिर गया रुमाल ले कर अपने ग्रह पर वापस लौटना, वहां शीर्ष विशेषज्ञों की बैठक, जिसमें ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...‘ वाली राय आती है। एक और कहानी, जिसमें स्कूल की पढ़ाई में फेल, सोलह साल की लड़की को खुद विश्वविद्यालय, जैसा कुछ कहा गया है। 

इस खोज-बीन में हाथ आए उनके संग्रह दुहराने-टटोलने लगा, वह कोई नहीं मिला, जो मिला उसके कुछ अंश-
 

एक कहानी याद आती थी, ‘आजादी का मोहभंग‘, मगर लगता कि शीर्षक इतना ठेठ भी न था, कुछ नाजुक-सा था, वह मिल गई- ‘पांच रुपए की आजादी‘, जिसमें वे मेट्रो सिनेमा के सामने सिर्फ दो आने में मिलने वाली रोटी की दावत, एशिया के सबसे बड़े नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू की, करने की बात कहते हैं। आगे बढ़ कर यहां तक कह जाते हैं- ‘ साम्राज्य जीवन के हर अंग में व्यभिचार का समर्थक है। सुन्दरता, सचाई, पवित्रता, शांति, लाज, घर, खुशी, किताब, फूल, आराम इत्यादि सब चीज़ों को वह नंगा करके उससे व्यभिचार करता है। इसके बाद उसे महंगे-सस्ते दामों बाजार में जाकर बेच देता है।‘ 

‘मेरी प्रिय कहानियां‘ संग्रह के लेखकीय वक्तव्य ‘कहानी की कहानी‘ में कहते हैं- ‘आप जब उनसे बात करेंगे तो उनकी बातचीत बिल्कुल ठीक-ठीक आपकी समझ में आ जाएगी। लेकिन जब वे कहानी लिखेंगे तो आपके पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा। सिवाय ऊटपटांग, अनबूझ पहेली के। वे कॉफी हाउस का रास्ता जानते हैं लेकिन अपनी कहानी का नहीं। उन्हें अपनी नौकरी का उद्देश्य मालूम है, अपनी कहानी का नहीं। जब वे अपने घर जाते हैं तो दो टांगों के सहारे कदम उठाते जाते हैं, लेकिन अपनी कहानी में सिर के बल रेंगते हैं और उसे आर्ट कहते हैं। मैं उन्हें कहानीकार नहीं, मदारी कहता हूं।‘ 

कहानी ‘भक्तराम‘ का अंश- 
लाला बांसीराम के सिख बन जाने से गांव में झटके और हलाल का प्रश्न उठ खड़ा हुआ था। मुसलमान और सिक्खों के लिए तो यह एक धार्मिक प्रश्न था, परंतु भेड़-बकरियों और मुर्गे-मुर्गियों के लिए तो जीवन और मृत्यु का प्रश्न था। लेकिन मनुष्यों के नकारखाने में भला पशुओं की आवाज कौन सुनता है? 

कहानी ‘महालक्ष्मी का पुल‘ का अंश- 
महालक्ष्मी स्टेशन के इस पार महालक्ष्मीजी का मन्दिर है, उसे लोग ‘रेस कोर्स‘ भी कहते हैं। इस मन्दिर में पूजा करने वाले हारते अधिक हैं, जीतते कम हैं।‘ 

कहानी ‘पूरे चांद की रात‘ का अंश- 
मैंने कहा, ‘मैं तुम्हें चूम लूं?‘ 
वह बोली, ‘हुश ! ... नाव डूब जाएगी।‘ 
‘तो फिर क्या करें?‘ मैंने पूछा। 
वह बोली, ‘डूब जाने दो।‘ 

अब याद कर रहा हूं कि ठीक ऐसा ही संवाद किसी फिल्म में भी है- राजकपूर-नरगिस का, ‘आवारा‘ या चोरी-चोरी‘ या शायद अन्य किसी का, यह भी संभव है कि इसे तब पढ़ते हुए दृश्य की कल्पना मैंने खुद कर ली हो, जैसा कई बार हुआ करता है कि कुछ पढ़ा, वह समय बीत जाने पर देखी किसी फिल्म के संवाद जैसा याद आने लगता है और इसके उलट कुछ फिल्मी दृश्य इस तरह याद आते हैं, जैसे उन्हें कहीं पढ़ा है। ‘तीसरी कसम‘ और ‘गाइड‘ के साथ ऐसा हो, तो लगता है, स्वाभाविक है मगर अन्य में भी होता रहता है, होता रहे, इसमें लुका-छिपी का धूप-छांही आनंद जो होता है। 

कहानी ‘पांच रुपये की आजादी‘ में लिखते हैं, ‘मेरा जी चाहा कि मैं कावसजी जहांगीर हाल में भाउकर का एक लेक्चर रखूं और हिन्दुस्तान के सारे बड़े-बड़े नेताओं को बुलाऊं और उनसे पूछूं कि बताओ, जनता इस आजादी की यथार्थ्ज्ञता को जानती है या नहीं? और इसी कहानी के आरंभ में - ‘ऊ हू दम चिखा डिक डिक! जिसका मतलब यह था कि आज बहुत खुश हूं। खैर...‘