Friday, October 24, 2025

भो-रम-देव

‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ कहे जाने वाले भोरमदेव में शब्दों के साथ भटक रहा हूं। यह भटकना, रास्ता भूलना नहीं, रास्ते की तलाश भी नहीं, बल्कि मनमौजी विचरण है। भोरमदेव, शब्द पर बहुत सी बातें कही-लिखी गई हैं, भोरमदेव, बरमदेव है, ब्रह्म, बूढ़ादेव, बड़ादेव, इतने मत-मतांतर कि भरम होने लगे। अलेक्जेंडर कनिंघम 1881-82 में गजेटियर के हवाले से कहते हैं- The Great Temple of Boram Deo or Buram Deo। छत्तीसगढ़ में भिर्रा या भिरहा (Chloroxylon swietenia) कहे जाने वाले पेड़ को पड़ोसी पश्चिमी ओडिशा में ‘भोरम‘ कहा जाता है, इससे कोई रिश्ता बने न बने, शाब्दिक ही सही, मेल बनता है। भोरम के करीब का छत्तीसगढ़ी शब्द है, भोरहा यानी भ्रम, संदेह या भूल। शायद इसी भूल-भटक में राह सूझे, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़कर, उसके आसपास, अगल-बगल। कुछ नादान तोड़-फोड़ करनी हो तो ‘भो!रम देव‘, ‘भोर-म-देव‘, हे देव, भोर होते ही तुझमें मेरा मन रमा रहे।
भोरमदेव मंदिर
भोरमदेव, स्मारक का नाम है न कि गांव का। इस स्मारक के साथ मड़वा महल और छेरकी महल भी हैं, गांव हैं- छपरी और चौंरा। इनमें छपरी का छापर, छावनी या छप्पर नहीं, बल्कि सलोनी मिट्टी से से आया होगा। चौंरा का संदर्भ फणिनागवंशी शासक रामचंद्र के मड़वा महल शिलालेख, विक्रम संवत 1406 में है, जहां चतुरापुर या चवरापुर का उल्लेख है। ‘चंवरा‘ शब्द यज्ञ वेदी के लिए तैयार की गई चौकोर समतल भूमि, ‘चत्वरक‘ तद्भव रूप चउंक-चांतर से आता है। सती चौरा या माता चौंरा जेसे शब्दों में इस शब्द का आशय छोटा मंदिर या देवस्थान, निहित है। चौरा का ताल्लुक अब कबीरपंथी मान्यताओं से भी जुड़ गया है। एक गांव लाटा है, जिसे लाटा-बूटा या लता-नार से संबंधित माना जाना है, मगर यह भी ध्यान रहे कि लाटा, गुफा, सुरंगनुमा, संकरे-बंद घिरे स्थान का- जहां लेट कर, सरक कर, रेंग कर जाना पड़े, का भी पर्यायवाची होता है। भोरम और हरम शब्द आसपास हैं, पास ही गांव है ‘हरमो‘, ईंटों वाली महलनुमा संरचना ‘सतखंडा हवेली‘ के कारण यह गांव चर्चित है। इसे कुछ ‘हरम‘ से जोड़ कर देखते हैं तो दूसरी ओर एक आस्था ‘महाप्रभु वल्लभाचार्य‘ से जुड़ी है, जिससे संबद्ध कर हरमो को ‘हरि-नू‘, गुजराती ‘हरि का‘ भी मानने वाले हैं। इतिहास में काल-निर्धारण की दृष्टि से यह क्षेत्र फणिनाग, कलचुरि वंशजों, मंडला के गोंड़ तथा मराठों से जुड़ता है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में योद्धा स्मारक और सती स्मारक प्रतिमाएं शक्ति संतुलन के लिए होने वाले युद्धों का प्रमाण हैं।
सतखंडा हवेली, हरमो 

यह कछारी जमीन वाला इलाका है। जंगल-पहाड़ नदी-नाले और बांध-तालाब से बची रेतीली जगह- कछार, जिस पर छोटी और कंटीली झाड़ियों वाली वनस्पति, कछार में टिकने के लिए जड़ें मजबूत होनी चाहिए। कछार, धान के लिए उपयुक्त नहीं, लेकिन धान से ही तो काम नहीं चलता। जलधाराओं के नजदीक और पानी उतर जाने पर पाल कछार और उससे दूर पटपर कछार। यहां एक और कछार है- सरकी कछार, इस नाम की कई शास्त्रीय व्याख्या होती है, यह भी माना जाता है कि छेरकी ही सरकी बन गया, संभव है, क्योंकि स-द, छ-स होता रहता है, ज्यों रायपुर के पास का गांव छेरीखेड़ी-सेरीखेड़ी। सरकी का जोड़ सरकना है यानी रेंगना या खिसकना, छत्तीसगढ़ी का सलगना- पेट के बल सरक-सरक कर चलना, सरीसृप की तरह। मगर यह भी संभव जान पड़ता है कि यह सरकी-चटाई या टाट (ज्यों टाट-पैबंद या टाटीबंद) यानि समतल-पटपर का समानार्थी है मगर ‘दादर‘ से कुछ अलग।

संकरी नदी पर दुरदुरी आता है, जो तुरतुरिया, खरखरा, सुरसुरी की तरह पानी के बहाव से होने वाली ध्वनि से बना शब्द है। मगर यह सोचने का रास्ता दिखाता है कि जलधारा का बहाव कैसा है, स्थान पथरीला, रेतीला, चौड़ा-संकरा, छोटा-लंबा, कम-अधिक ऊँचाई वाला, धाराओं में बंटा हुआ या अन्य कुछ। जिस तरह का नाम है, यानि नामानुरूप ही ध्वनि सबको सुनाई देती है या इस पर सुनने वाले और आंचलिक भाषा का भी प्रभाव होता है। जलधाराओं की बात हो तो गंगा का स्मरण होता ही है और गंगा के लिए कहा जाता है- ‘गं गं गच्छति गंगा‘।

बजरहा यादव जी ठेठवार मिले, मैं पूछता हूं- देसहा, कनौजिया, कोसरिया, झेरिया, बरगाह, महतो? मुस्कुरा कर छोटा सा ‘पॉज‘ देते मेरे इस ‘ज्ञान‘ को ध्वस्त करते हुए गर्व से बताते हैं-दुधकौंरा। दुधकौंरा सुनकर पहले तो रायपुर का मठ, दूधाधारी-दुग्धआहारी याद आया फिर ठेठवारों के ‘कौंराई‘ का। मैं भी हार मानने को तैयार नहीं, कभी पाली-कटघोरा की ओर किसी कौंराई ठेठवार से मिला था, कौंराई से तुक जमाने की कोशिश करता हूं, वे टस से मस नहीं होते। मड़वा महल में बैठे हैं, आसपास छेरी चराते हैं। अब इन दोनों महलों मड़वा और छेरकी की ओर ध्यान जाता है। महल, पत्थरों वाली पक्की इमारत के कारण नाम पड़ा होगा और मड़वा, इस मंदिर के साथ जुड़ी रोचक बात कि मंदिर के सामने का स्तंभयुक्त मंडप, शादी के मड़वा जैसा है साथ ही इस स्मारक का एक नाम ‘दूल्हादेव’ मंदिर प्रचलित रहा है। इस मंदिर की बाहिरी दीवार पर जंघा में विभिन्न मिथुन मूर्तियां हैं, कुछ अजूबी भी। गर्भगृह के सामने से बाईं ओर परिक्रमा शुरू करें तो, काम-कला वाली मिथुन प्रतिमाओं का ‘अजीबपन‘ बढ़ता जाता है और आखिरी पहुंचते तक शिशु को जन्म देती नारी प्रतिमा है। मिथुन प्रतिमाओं के कारण ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के नाम से इसकी ख्याति रही, खजुराहो काम-कला वाली मिथुन मूर्तियों का पर्याय बन गया। मंडपयुक्त संरचना, मड़वा वाले इस महल की मूर्तिकला से यह मान लिया गया है कि इस मंदिर की दीवार पर विवाह उपरांत गृहस्थ जीवन के काम पुरुषार्थ के लिए ‘कामसूत्र‘ का शिल्पांकन किया गया है, जो नर-नारी समागम-संसर्ग से संतानोत्पत्ति करते वंशवृद्धि के ज्ञान देने वाली मूर्तियों में जीवंत प्रशिक्षण वाली पाठशाला जैसा है। कहा जाता है, यहां भाई-बहन का साथ जाने का निषेध है, मगर ऐसा अब तक नहीं सुना कि विवाह के बाद इस मंदिर के दर्शन और परिक्रमा करने का नियम है।
पश्चिमाभिमुख मडवा महल मंदिर
दक्षिणी जंघा पर प्रतिमाएं

कछार और छेरकी या छेरी यानि बकरी-बकरे को जोड़ कर सोचने का प्रयास करता हूं। छेरकी महल के लिए कहा जाता है कि छेरी चराते हुए, बरसात हो जाने पर बकरी चराने वाले चरवार इस मंदिर में शरण लिया करते थे, संभव है मगर लगता है कि इस कछारी इलाके में गोपालक भी बड़ी तादाद में बकरा-बकरी पालन करते हैं इसलिए छेरी-चरवार हैं। फिर बात आती है कि क्या कछार और छेरी का रिश्ता शब्द ‘छ-र‘ से आगे भी कुछ है। गोवंश और अजवंश के एक खास अंतर की ओर ध्यान जाता है। अजवंश की उपरी और निचली, दोनों दंतपंक्तियां होती हैं, जबकि गोवंश की उपरी दंतपंक्ति नहीं होती, इसलिए दोनों की चराई में अंतर होता है। संभव है कि सामान्य मैदानी घास-पात गोवंश के चरने भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त होता हो और कछारी भूमि की वनस्पति अजवंश, बकरे, घोड़े और हिरण परिवार के जीवों के लिए। इस क्षेत्र में देसी बकरे ही पाले जाते हैं जो बौनी-नीची झाड़ियों और घास वाली चराई क्षेत्र में graze करते हैं लंबे और लटके कान वाले जमनापारी बकरे, जो graze के बजाय browse करते हैं, ऐसे चराई क्षेत्र के लिए अनुकूल साबित नहीं होते। ‘हरिन छपरा‘ गांव भी दूर नहीं है। उल्लेखनीय कि यहां नाम छेरी-छेरकी है, इसी तरह सरगुजा में प्राचीन मंदिर ‘छेरकी नहीं छेरका‘ हैं। खैर! अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र न हो तो उस पर बहुत बातें करना अपनी जांघ उघाड़ने जैसा है, फिर भी इतना तो मुंह मारा ही जा सकता है।
छेरकी महल मंदिर


यहां एक परत और है, छेरकी महल के आसपास लीलाबाई यादव जी मिल जाया करती थीं और पूछने पर धाराप्रवाह कहानी सुनाती थीं- ‘देवांसू राजा बिना महल के राखय छेरिया, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरी-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आही अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हियाय हे। त आघू छेरी के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भुईयां म गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरी लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे।‘

मैदानी छत्तीसगढ़ के गांवों में गुड़ बनाने के लिए सामुदायिक गन्ने की पैदावार, सामुदायिक रूप से बरछा में ली जाती थी। बरछा, तालाब के नीचे की भूमि होती थी। अब भोरमदेव, कवर्धा क्षेत्र की एक पहचान शक्कर कारखाना और गन्ना उपजाने वाले इलाके की भी है। यहां संकरी नदी है। छत्तीसगढ़ में सांकर, संकरी जैसी संज्ञाधारी कई-एक हैं, जिनमें ओड़ार संकरी, संकरी-भंइसा, संकरी-कोल्हिया जैसे ग्राम नाम और संकरी नदी को इन सब के साथ जोड़ कर देखना होगा। संकरी, वर्णसंकर है? सांकर यानी संकल-जंजीर है? संकरा यानी कम चौड़ा है? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘अलकर सांकर‘। संकरी नदी के करीब का एक नाम चैतुरगढ़-कटघोरा-कोरबा वाली शंकरखोला की जटाशंकरी-अहिरन। इस तरह संकरी, शिव-शंकर के पास भी है। और क्या इसका शर्करा-शक्कर से जुड़ा होना संभव है। पुराने अभिलेखों में शर्करापद्रक, शर्करापाटक, शर्करामार्गीय, गुड़शर्कराग्राम जैसे स्थान-क्षेत्र नाम आते हैं, ये नाम क्या शक्कर से संबंधित हैं या नदी के रेत-कण को महिमामंडित किया गया है- बुझौवल तो है ही, ‘बालू जैसी किरकिरी, उजल जैसी धूप, ऐसी मीठी कुछ नहीं, जैसी मीठी चुप।‘

जेन अभ्यास होता है, जिसमें सारे विचार ‘मू‘ के अव्यक्त में पहुंचकर मौन हो जाते हैं, ‘चुप‘।

Monday, October 20, 2025

छत्तीसगढ़ ऐसा भी

छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी, गोंड़ी, कुड़ुख, सादरी, सरगुजिया आदि भाषी हम, इन भाषा-विभाषाओं में हो रहे लेखन से जुड़े होते हैं, छत्तीसगढ़ पर हिंदी और अंग्रेजी में हो रहे लेखन से भी परिचित होते रहते हैं मगर हमारा ध्यान इस ओर कम जाता है कि छत्तीसगढ़ से जुड़े अन्य भाषा-भाषी, अपनी भाषा में छत्तीसगढ़ को किस तरह देखते हैं, उसे अपनी भाषा में किस तरह अभिव्यक्त करते हैं। इस दृष्टि से मेरी जानकारी में (छत्तीसगढ़ के) असमी, उड़िया, बांग्ला और मराठी भाषी मुख्य हैं।

पिछले कुछ समय में ऐसी एक मराठी और दो बांग्ला पुस्तक देखने को मिली। मराठी पुस्तक डॉ. नीलिमा थत्ते-केळकर की 2023 में प्रकाशित ‘आमचो छत्तीसगढ़‘ है। बांग्ला पुस्तकों में एक नारायण सेनगुप्ता की 2008 में प्रकाशित ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है और दूसरी रंजन रॉय की 2020 में प्रकाशित ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ है।


‘आमचो छत्तीसगढ़‘ की लेखक ने पाठकों को संबोधित कर बताया है कि-


शीर्षक पढ़कर शायद लगे कि मैंने गलती से ‘आमचा‘ की जगह ‘आमचो‘ लिख दिया है। लेकिन ऐसा नहीं है। छत्तीसगढ़ी में यही कहते हैं। यह राज्य हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी होने के बावजूद, हम इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते। इसका एहसास मुझे दो साल पहले हुआ। जब यात्रा तय हुई, तो मैंने नियमित अध्ययन करके काफ़ी जानकारी इकट्ठा की। फिर, अपनी यात्राओं के दौरान, इस अनजान क्षेत्र ने मुझे इतना अनूठा और समृद्ध अनुभव दिया कि इसे और लोगों के साथ साझा करने का मन हुआ। मैंने फ़ेसबुक और विपुलश्री पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला के ज़रिए ऐसा करने की कोशिश की। फिर भी, मुझे लगा कि ज्यादा लोगों तक पहुँचने की ज़रूरत है। तो अब, यह किताब शुरू होती है।

इस राज्य में क्या नहीं है? गुफाओं में मानव निवास के समय का इतिहास, खुदाई में मिले प्राचीन अवशेष, पहाड़ियों और घाटियों से बहती नदियाँ-झरने जैसी भौगोलिक विशेषताएँ, हरे-भरे धान के खेतों और मनमोहक वृक्षों से सजी यहाँ की प्रकृति, उससे जुड़े आदिवासी, उनके गोदना, उनके नृत्य, उनकी विचित्र अवधारणाएँ, मिट्टी और धातु की विशेष कला, मंदिर, मूर्तियाँ, मंदिरों से जुड़ी प्राचीन कथाएँ, रामायण-मेघदूत जैसे काव्यों से जुड़े सूत्र और इढ़र, चीला, फरा जैसे प्रामाणिक स्थानीय व्यंजन, और भी बहुत कुछ! रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर यहाँ के प्रमुख जिले हैं।

कवर्धा ज़िले का भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ का खजुराहो है और चित्रकूट जलप्रपात छोटा नियाग्रा। मैनपाट यहाँ का शिमला है और राजिम यहाँ का प्रयाग! आप इस छत्तीसगढ़ के बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे।

मैंने स्कूल में एक शपथ ली थी। उसमें एक वाक्य था, ‘मुझे अपने देश की समृद्ध और विविध परंपराओं पर गर्व है।‘ इस वाक्य का सही अर्थ समझने के लिए मैं इधर-उधर भटकने लगी। असम, अरुणाचल, ओडिशा, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक की यात्रा ने मुझे बहुत कुछ दिया। अब इसमें छत्तीसगढ़ भी जुड़ गया है।

यद्यपि मैंने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए लेख और लेखों की श्रृंखला लिखी है, लेकिन पुस्तक लिखने का यह मेरा पहला प्रयास है।

यह कोई जानकारीपूर्ण पुस्तिका नहीं है। यह पर्यटन पर लिखी अन्य पुस्तकों की तरह संरचित नहीं है, न ही यह परिपूर्ण होने का दावा करती है। मैं बस आपको छत्तीसगढ़ वैसा दिखाना चाहती हूँ जैसा मैंने उसे देखा। मैंने इस पुस्तक का कोई मूल्य निर्धारित नहीं किया है। क्योंकि मैं वहाँ देखी गई प्रकृति, कला और लोगों के जीवन का मूल्यांकन कैसे कर सकती हूँ? मैं बस यही चाहती हूँ कि आप भी इन सबका उतना ही आनंद लें जितना मैंने लिया।

दूसरे संस्करण के अवसर पर - मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं किताब लिखूँगी। लेकिन मैंने लिखी और प्रकाशित भी कर दी! इतना ही नहीं, पहली किताब का दूसरा संस्करण भी सिर्फ़ डेढ़ महीने में आने वाला है। पाठकों की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।

पहले संस्करण की कीमत स्वैच्छिक रखी गई थी और एकत्रित सारी धनराशि बस्तर क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों को भेज दी गई थी।

पाठकों की विशेष माँग पर अब यह दूसरा संस्करण रियायती मूल्य पर लाया गया है। इसमें छत्तीसगढ़ का मानचित्र देवनागरी लिपि में भी दिया गया है। इस संस्करण की बिक्री से प्राप्त राशि का उपयोग भी पूर्ववत ही किया जाएगा।

इस पुस्तक के छत्तीस स्थल-स्मारक आदि शीर्षकों में भोरमदेव, ताला, मदकू, मल्हार, सिरपुर, राजिम, चित्रित शैलाश्रय, केशकाल, कोंडागांव, बस्तर, बारसूर, रायपुर, रामगढ़, चंदखुरी, मैनपाट और अमरकंटक आदि हैं।

बांग्ला पुस्तकों में पहली ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ में लेखक के परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1933 में हुआ। पाँच दशकों से अधिक समय से साहित्य सेवा में संलग्न हैं। 12 प्रकाशित पुस्तकें हैं तथा पाँच पत्रिकाओं व छह संस्मरणों का संपादन किया है। दिल्ली के चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा बाल साहित्य में पुरस्कृत तथा विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हैं। उन्होंने स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य किया। वर्तमान में, वे छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुख्य सलाहकार हैं।

पुस्तक में लेखक ने बताया है कि-

‘छत्तीसगढ़ की इस धरती पर 38 वर्ष का लंबा समय बीत चुका है। मुझे छत्तीसगढ़ के आकाश, वायु, लोगों, लोक उत्सवों, साहित्य और समाज को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला है। उसी का प्रतिबिम्ब ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है। श्री सिंह बनर्जी (सिद्धार्थ नाम सार्थक) और उनकी पत्नी पी.के. गांगुली, बंबई के ‘आनंद संगबाद‘ समाचार पत्र के मेरे प्रिय दो प्रमुख, दुनिया भर के बंगालियों को एक मंच पर लाने और रिश्तेदारों के साथ बैठकें करने के प्रयास में बंगाल, आउटर बंगाल और विश्व बंगाल का भ्रमण कर रहे हैं। इन बैठकों के दौरान, एक दिन उन्होंने हमारे निवास पर एक सुखद शाम बिताई। इसकी पहल ‘छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी‘ द्वारा की गई थी। बिलासपुर की लगभग सभी बंगाली संस्थाओं के प्रतिनिधि उपस्थित थे। आनंद संगबाद के प्रतिनिधियों ने इसे एक सूत्र में पिरोया। विदाई के समय, उन्होंने उस स्मृति को अपने हृदय में जीवित रखने के लिए एक पांडुलिपि भेजने का अनुरोध किया था। वह पांडुलिपि है ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘। ... छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुखपत्र ’मातृभाषा‘ के सुयोग्य संपादक और बिलासपुर शाखा के अध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर बनर्जी ने इस पुस्तक के लेखन में विविध प्रकार से योगदान दिया है। ... उनके सच्चे सहयोग के बिना, मेरे लिए अपने रुग्ण शरीर में कुछ दुर्लभ जानकारी एकत्रित करना संभव नहीं होता। ... मेरे मित्र भास्कर देव रॉय ने जानकारी और तस्वीरें एकत्रित करके मेरी विभिन्न प्रकार से मदद की है - मैं उनका आभारी हूँ।‘

पुस्तक में छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल, छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य और लोकगीत, कथक नृत्य और छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ के विवाह रीति रिवाज, विभिन्न व्यवसायों में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ, बस्तर जिले का प्रसिद्ध दशहरा उत्सव, स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ की भूमिका, स्वतंत्रता आंदोलन में बिलासपुर का अतिरिक्त योगदान, छत्तीसगढ़ और बंगाली साहित्य जैसे शीर्षक हैं।

दूसरी बांग्ला पुस्तक ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ के लेखक परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1950 में कोलकाता में हुआ। ग्रामीण बैंक में अपनी नौकरी के दौरान उन्हें तीन दशकों तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण और आदिवासी जीवन को करीब से देखने का अवसर मिला। उन्हें साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन पर किताबें पढ़ना और बातचीत करना पसंद है। उनकी विशेष रुचि ‘मौखिक इतिहास‘ में है। कुछ अन्य प्रकाशनों के अतिरिक्त ‘चरणदास चोर-तीन छत्तीसगढ़ी परीकथाएँ हैं। यह पुस्तक ग्रामीण छत्तीसगढ़ के लोक जीवन, भावनाओं, प्रेम और जाति की कहानी है।

पुस्तक का भाग 1: जलरंग और भाग 2: जाति की कहानी है, जिसमें लेखक के संस्मरण हैं। परिशिष्ट में भौगोलिक और राजनीतिक पहचान, पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, छत्तीसगढ़ के प्रमुख बंगाली और छत्तीसगढ़ का लोक जीवन है। यह पुस्तक मेरे लिए खास, क्योंकि पुस्तक का ‘उत्सर्ग‘ यानी समर्पण है- ‘डॉ. राहुल सिंह, एक प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्वविद् और लोक कला विशेषज्ञ‘

टीप - संभव है कि अपनी भाषाई समझ की सीमा के कारण कुछ अशुद्धियां, त्रुटियां हों। सुझाव मिलने पर यथा-आवश्यक संशोधन कर लिया जावेगा।

Sunday, October 19, 2025

ठाकुरबाड़ी

गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर का कुटुंब वृत्तांत है, अनिमेष मुखर्जी की ‘ठाकुरबाड़ी‘ इस किताब का पता लगने और हाथ में आने के बाद पन्ना खोलते हुए जैसा सोच रहा था, किताब वहीं से शुरू हुई, लगा कि लेखक ने माइंड रीड कर लिया है, वस्तुतः, यही समकालिक-विस्तार है। खुलासा यह कि मैं अपने बंगाली परिचितों के लिए सोचा-कहा करता हूं कि वे टैगोर, बोस, विवेकानंद और सत्यजित रे के लिए इतने आब्सेसिव क्यों हो जाते हैं, मेरी ऐसी सोच के पीछे यह होता है कि हम भी उन्हें कम नहीं मानते भाई। तो इस किताब ‘शुरू होने के पहले‘ की शुरुआत है- ‘यार तुम बंगाली लोग टैगोर को लेकर इतना ऑब्सेसिव क्यों होते हो? अगर आप एक बंगाली है, तो संभव है आपने यह सवाल कई बार सुना हो। अगर आप बंगाली नहीं हैं, कि संभव है कई बार आपका मन हुआ हो यह सवाल पूछने का।‘

पूरी किताब एक रोचक शोध-पत्र है, ऐसी कि हर पैरा में सूक्ति या उक्ति या कोई चौंका सकने वाली ऐसी रोचक जानकारी, जो संभव है कि आपको रही हो मगर पक्का स्रोत पता न होने के कारण मन में स्मृति में अधकचरी की तरह दर्ज हो। शुरू में ही बात आती है कि टैगोर ने किसानों के लिए माइक्रो-फ़ाइनेंस क्रेडिट सिस्टम की शुरुआत। जिसका उद्देश्य किसानों को साहूकारों के चक्र से बचाना था। लगभग 150 साल बाद इसी कॉन्सेप्ट को आधार बनाकर मोहम्मद यूनुस ने अर्थशास्त्र का नोबेल जीता। यूनुस ने कहीं ज़िक्र तक नहीं किया कि वे जिस विचार के लिए पुरस्कार ले रहे हैं, उसका मौलिक विचार उनका राष्ट्रगान लिखने वाले कवि का है। ... कर्जा लेने वाले ज्यादातर किसान मुसलमान थे और साहूकार हिंदू। कहा गया कि गुरुदेव हिंदुओं का हित मारकर मुसलमानों का भला कर रहे हैं। विडंबना यहीं ख़त्म नहीं होती, बंगाल में वामपंथ बुद्धिजीविता के नाम पर खूब फला-फूला। इन वामपंथियों ने अपने सबसे बड़े बुद्धिजीवी प्रतीक को हमेशा, ज़मींदार और ग़रीबों का दुश्मन दिखाकर प्रचारित किया।

‘घ्राणेन अर्ध भोजनम्‘ से जाति-धर्म च्युत होता राढ़ी, कुशारी, पीराली, ठाकुर, टैगोर परिवार ऐसी सामाजिक जकड़बंदियों से मुक्त हो कर किस तरह सकारात्मक आधुनिकता की ओर बढ़ता है, जिसमें जोड़साँको और ठाकुरबाड़ी है तो इसके समानांतर पाथुरियाघाट भी है, और चोरबागान जैसी छोटी शाखाएं भी, ढेर सारी करनी और कुछ-कुछ करम-गति भी है, यह सब विस्तार और बारीकी से जानना रोचक है। इसी परिवार की विधवा महिला रामप्रिया अदालत गईं, यही विवाद ठाकुर परिवार के बंटवारे का कारण बना और माना जाता है कि विधवा के संपत्ति हक का अदालत तक पहुंचा यह पहला मामला है।

पत्नी मृणालिनी के अलावा, दिगंबरी देवी, इंदिरा देवी, ऐना-अन्नपूर्णा-नलिनी, विक्टोरिया की दुखियारी-नारी कथा-व्यथा के चटखारे के बीच सामान्यतः यह नहीं उभर पाता कि इसी परंपरा में सरला देवी चौधरानी हैं, महात्मा गांधी और विवेकानंद, दोनों जिनके प्रशंसक थे। गांधी ने उन्हें स्प्रिचुअल वाइफ कहा, खादी के लिए मॉडलिंग कराया और विवेकानंद उन्हें साथ विदेश लेकर जाना चाहते थे। यही सरला अपने बेटे की शादी इंदिरा (गांधी) से कराना चाहती थीं। इसी क्रम में शिवसुंदरी देवी टैगोर, स्वर्णकुमारी, कादंबरी, नीपोमयी देवी, प्रज्ञासुंदरी देवी, सुनयनी और ज्ञानदा यानी ज्ञाननंदिनी देवी टैगोर भी हैं। तब साड़ी को परंपराओं के विरुद्ध और अश्लील मानने वाले समाज में ज्ञानदा के छद्मनाम से विज्ञापन छपा, जिसमें बताया गया था कि आधुनिक महिला के साड़ी पहनने का तरीका क्या है, जो ब्लाउज़, शमीज़, पेटीकोट, ब्रोच और जूतों के साथ साड़ी पहनती हैं। ज्ञानदा ने ही अंग्रेज़ी तारीख के हिसाब से जन्मदिन मनाने की शुरुआत की, जिसमें केक कटता था और हैप्पी बर्थ डे विश किया जाता था। सिनेमा और थियेटर में टैगोर परिवार की तमाम बहुएँ खुल कर काम करती थीं।

पुस्तक का खंड 2 ‘कोलकाता से अलीनगर‘ में क्लाइव और पलासी की बात में पाठक यों डूब जाता है कि टैगोर से ध्यान हट जाता है, इसे लेखन का बहकना मान लें, जैसा लेखक खुद मानते हैं, तो भी यह बहकाव बाहोशोहवास है। बुनी हुई हवा कहलाने वाला ढाका का मलमल, जगत सेठों की रईसी, घसीटी बेगम, सिराजुद्दौला की बेगम लुत्फ़-उन-निसा, जिसके लिए प्लासी के नशे में चूर जाफ़र और उसके बेटे ने प्रस्ताव भिजवाया कि बाप-बेटे किसी एक से शादी कर लो, मुर्शिदाबाद में ‘नमकहराम ड्योढ़ी‘ कहलाने वाली जाफ़र खान की इमारत, 1610 में दुर्गा पूजा का आरंभ, भारत की पहली न्यायिक हत्या मानी गई महाराजा नंदकुमार की फांसी। यह खंड कहावत पर समाप्त होता है कि- ‘प्लासी के बाद नवाबों को धोखा मिला, क्लाइव को पैसा और जनता को अकाल मिला।

सूचना/सूक्ति की तरह आए कुछ वाक्य- ‘भारतीय जाति व्यवस्था उससे कहीं ज़्यादा जटिल है, जितनी सोशल मीडिया पर दिखती है।‘ ... ‘भारतीय ज़मींदारों और बाबुओं की संपत्ति उसी पैसे पर टिकी हुई थी जो भारत में नील की खेती में बुने हुए शोषण और चीन को अफ़ीम की लत लगवाकर आ रहा था।‘ ... ‘जो पैसे का बंदरबाँट ईस्ट इंडिया कंपनी ने किया उसे मैनेज करने में पढ़े-लिखे बंगाली काम आए और इन बंगाली बाबुओं ने भी इस प्रक्रिया में काफ़ी पैसा कमाया। यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने और फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए।‘ ... ‘राजनीति जब इतिहास का इस्तेमाल करती है, तो कई बार पुराने खलनायकों को नायक बना देती है। फिर शताब्दी भर बाद लोग बहस करते रहते हैं कि फ़लाँ, नायक था या खलनायक।‘ ... ‘माना जाता है कि अंग्रेज़ों ने भारतीय क्लर्क्स के लिए बाबू शब्द इसलिए इस्तेमाल करना शुरू किया, क्योंकि यह नकलची बंदरों ‘बबून‘ से मिलता-जुलता था।‘ ... ‘उस ज़माने में राजा राम मोहन राय समेत कई प्रगतिशील विद्वान काले जादू और तंत्र-मंत्र में यकीन रखते थे और इस पर शोध करते थे।‘ ... ‘बेचारा हर समय खोया-खोया और उदास रहता था। रह-रहकर दर्द भरी आहें भरता और दारू में दवा की तलाश करता। ज़माने को पता है कि ऐसे लक्षण दुनिया भर में एक ही बीमारी के होते हैं। लोगों ने फौजी से पूछा कि दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है। तो उसने बताया कि उसके अपने देश में उसे किसी कन्या से प्रेम था।‘ ... मेरी और अधिक पसंद की बातें हैं, जिन्हें किताब में ही सिमटे रहने दे रहा हूं।

टैगोर और उनके परिवार पर न जाने कितना विपुल उपलब्ध है, मुझ जैसे गैर-बंगला पाठक के लिए भी हिंदी और अंग्रेजी में ढेरों सामग्री है, जिसमें डूबें तो लगता है कि इसके बाद भी क्या पढ़ना रह जाएगा। आप ऐसा सोचते हों या इन सबसे कोई नाता न हो तब भी यह पुस्तक पठनीय है। टैगोर जानकारों को भी लगेगा कि ऐसी कोई बात नहीं जो कुछ अलग/बेहतर न कही जा सके, अल्टीमेट कुछ भी नहीं। सब कुछ होना बचा रहेगा ... की तरह। यह किस तरह चौंकाने वाली जानकारी है कि टैगोर ने बॉर्नविटा, गोदरेज साबुन, लिपटन चाय जैसे उत्पादों के लिए न सिर्फ मॉडलिंग की, उनके लिए कॉपी भी लिखी।

टैगोर ने बुढ़ापे में नंदलाल बसु से कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में जितने भी चित्र बनाए, उनमें कादंबरी की आँखे बनाने की ही कोशिश की। ... उनका प्रसिद्ध गीत है, ‘खैला भाँगार खैला खेलबी आए।‘ यानी आओ खेल ख़त्म कर देने का खेल खेलते हैं।

लेखक ने अपनी मंशा जाहिर की है कि ‘कुछ किस्से चुने जाएं, उनकी तथ्यात्मकता को बरकरार रखते हुए, उन्हें क़िस्सागोई के अंदाज़ में सुनाया जाए ... तीस सेकंड की रील वाले दौर में ढेर सारी जानकारी बोझिल न लगने लगे‘, अपने इरादे पर कायम रहते, इसे बखूबी निभाया है, कर दिखाया है। रोचक बनाए रखने के लिए विश्वसनीय प्रामाणिकता से समझौता नहीं किया है। कुल जमा, किताब मुझे ‘अच्छी लगी‘ कहना काफी नहीं होगा यह कहना जरुरी है कि किताब ‘अच्छी है‘। किताब से प्रभावित हूं, अतिशयोक्ति हो सकती है, यह भी संभव है कि असर कुछ समय बाद कम हो जाए, लेकिन पूरी जिम्मेदारी से अनुशंसा कर सकता हूं कि सुरुचिसंपन्न पाठक किताब के लिए ‘पैसा वसूल‘ जैसी चालू बात नहीं कह सकेगा। हां! किताब का अनुवाद, हो सकता है टैगोर पर हिंदी से बंगला होने के कारण खुले मन से स्वीकार न हो, मगर अंगरेजी अनुवाद का सवागत, शायद मूल हिंदी से अधिक होगा।

Friday, October 17, 2025

धानी छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, खास कर मध्य छत्तीसगढ़, जहां धान उपज का रकबा और पैदावार अधिक है, वहीं इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में 23000 से अधिक प्रकार के धान बीजों का संग्रह है। इसके साथ दो बातें जोड़ कर देखना जरूरी है कि फसल-चक्र परिवर्तन और मिलेट्स पर भी जोर दिया जाता है, जो आवश्यक है तथा यह भी कि भोजन में कार्बोहाइड्रेट प्रतिशत सीमित रखना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। 

इस बीच छत्तीसगढ़ में 15 नवंबर 2025 से 31 जनवरी 2026 तक धान खरीदी के कुल 2739 केंद्रों के माध्यम से 3100/ प्रति क्विंटल की दर से प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी निर्धारित है। याद आया कि हमने 1965-66 में 'बालभारती' कक्षा-3 में पाठ पढ़ा था-

पाठ 28

धान की खेती


आज रायपुर शहर में किसानों की बड़ी भीड़ थी। सभी बहुत खुश दिखाई देते थे। जिलाध्यक्ष की कचहरी के सामने एक मंडप बनाया गया था। सुन्दर बंदनवारों और झंडियों से मंडप खूब सजाया गया था। मंडप में सभा का प्रबन्ध किया गया था, वहाँ प्रमुख अधिकारी और नेतागण इकट्ठे हुए थे। वहाँ आये हर व्यक्ति की जबान पर धमतरी के किसनसिंह का नाम था, क्योंकि आज का यह उत्सव उन्हीं के सम्मान के लिए हो रहा था। 

परन्तु किसनसिंह का यह सम्मान किसलिए? उन्होंने ऐसा क्या काम किया है? 

इसका कारण यह था कि किसनसिंह ने अपने खेत में सबसे अधिक धान पैदा की थी। छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल धान है। अच्छी बरसात होने पर धान के पौधों को रोपने के पन्द्रह-बीस दिनों बाद सभी ओर हरी-हरी धान लहलहाने लगती है। पौष माह में कटाई के बाद धान की फसल तैयार हो जाती है। साधारणतः एक एकड़ जमीन में दस बारह मन धान पैदा होती है। परन्तु किसनसिंह ने अपनी एक एकड़ जमीन में पच्चीस मन धान पैदा की। सारे किसानों को किसनसिंह की इस सफलता पर बड़ी खुशी हो रही थी। वे जानते हैं कि अपने खेतों में अधिक से अधिक अनाज पैदा करना सबसे बड़ी देश-सेवा है। इससे देश में संपत्ति बढ़ेगी और जनता को खूब अनाज मिलेगा। दूसरे देशों के सामने हमें हाथ नहीं फैलाना होगा। इसलिए किसनसिंह ने जो कार्य कर दिखाया है, उसका महत्व बहुत अधिक है और इसीलिए आज उनका सम्मान किया जा रहा है।

सभा का समय होने पर जिलाध्यक्ष के साथ किसनसिंह मंडप में आये। उन्हें मंडप में आता देखकर सब लोग खड़े हो गये। वे मंच पर जाकर बैठ गये। फिर जिलाध्यक्ष ने अपना भाषण शुरू किया- 

‘‘किसान भाइयों! आप सभी जानते हैं कि हम लोग यहाँ श्री किसनसिंह का सम्मान करने के लिए इकट्ठे हुए है। देश में धान की फसल बढ़ाने के लिए सरकार ने अभी-अभी एक नया तरीका बताया है। अपने जिले में भी इस साल बहुत से किसानों ने यही तरीका अपनाया है। इससे उन्हें बहुत लाभ भी हुआ है। जहाँ पहले एक एकड़ जमीन में दस या बारह मन धान पैदा होती थी, वहाँ इस तरीके से बीस-बीस मन तक धान पैदा हुई है। कुछ किसानों ने तो बाईस मन तक धान पैदा की है, परन्तु किसनसिंह इन सबसे आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने एक एकड़ जमीन में पच्चीस मन धान पैदा की है। आप सबकी ओर से मैं उनको बधाई देता हूं और उन्हें सरकार को ओर से एक हजार एक रुपये इनाम के रूप में भेंट करता हूँ।‘‘

इसके बाद जिलाध्यक्ष ने किससिंह को फूलों की माला पहनाई और रुपयों की थैली भेंट की। सभा में आये हुए सब लोगों ने तालियाँ बजाईं। तालियों की गड़गड़ाहट समाप्त होने पर किसनसिंह ने अपना भाषण शुरू किया- 

‘‘जिलाध्यक्ष महोदय और किसान भाइयो! आप लोगों ने मेरा जो सम्मान किया, उसके लिए मैं आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। देश की संपत्ति बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य है। इसके लिए जो कुछ भी हम कर सकें, वही हमारी सबसे बड़ी देश-सेवा होगी। अब मैं धान की फसल तैयार करने के नये तरीके के बारे में दो-चार बातें कहूँगा। पहली बात है, बीज का चुनाव। बीज अच्छा हो तो फल भी अच्छा होता है। धान की अच्छी फसल के लिए ठोस बीज चाहिए। ठोस बीजों का चुनना बहुत सरल है। बीजों को नमक के पानी में डाल दो। जो बीज हलका होगा, वह ऊपर तैर आयेगा। जो बीज नीचे बैठ जाये उसे ठोस समझना चाहिये। इन चुने हुए बीजों में कीड़े मारने वाली दवा लगा देना चाहिये और फिर उन्हें बोना चाहिये। ऐसा करने से फसल को कीड़ा नहीं लगता। 

पौधा लगाने के लिए क्यारियाँ ऊँची होनी चाहिये। उनमें गोबर और राख की खाद डालना चाहिये। जिस स्थान पर ऐसी खाद डाली जाती है, वहाँ पौधे ऊँचे और घने होते हैं। जिस जमीन में इन पौधों को रोपा जाये, उसमें भी खाद देना चाहिये। इसके लिए सड़ी पत्तियां, खली और हड्डियों का चूरा बहुत लाभदायक होता है। 

‘‘पौधों को एक सीधी कतार में रोपना चाहिये और दो पौधों के बीच साधारणतः आठ या दस अंगुल की जगह छोड़ देनी चाहिये। इससे पौधों को बढ़ने के लिए काफी जगह मिलती है। उन्हें धूप, प्रकाश और गरमी भी मिलती है। एक कतार में और थोड़ी-थोड़ी दूर पौधा रोपने से निदाई अच्छी तरह हो सकती है। धान की बाढ़ अच्छी होती है। उसमें अधिक अंकुर फूटते हैं, अच्छी बालें लगती हैं और खूब धान होती है। 

मैंने शुरू से ही बड़ी देखभाल की इसीलिए मैं इतनी धान पैदा कर सका और आपके सम्मान के योग्य ठहरा। मैं आपको इसके लिए बार-बार धन्यवाद देता हूँ।‘‘ 

ऐसा कहते हुए किसनसिंह ने दोनों हाथ जोड़े, और अपना भाषण समाप्त किया। एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट हुई। जिलाध्यक्ष महोदय से कहा-अब राष्ट्र-गीत गाया जायेगा। यह सुनकर सब लोग अपने-अपने स्थान पर चुपचाप खड़े हो गये। राष्ट्रगीत के बाद सभा समाप्त हो गई।

Monday, September 22, 2025

प्रतिभू स्मृति कथा

आखिरी पन्नों पर ‘कोरे पन्ने‘ बार-बार आता है, जो किताब के शीर्षक ‘स्मृतिशेष कथा अशेष‘ के उपयुक्त है। पहले दो पर्व पीठिका की तरह, तृतीय पर्व दंगोें, विभाजन, विस्थापन-पलायन, शरणार्थी-तनाव का है और चौथा प्रभावित पूरे समुदाय के खोना-पावना वाला, उसके वापस पटरी पर आने वाला। पुस्तक ‘पूर्वी बंगाल के विस्थापित हिन्दुओं की औपन्यासिक गाथा‘ है, जिसमें हिंदू-मुस्लिम दंगा प्रसंगों के साथ विभाजन की गाथा है, स्वाभाविक ही कई अंश संवेदनशील हैं, मगर पूर्वाग्रह न हों तो बेहद संतुलित। लेखक ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है कि हिन्दू-मुस्लिम अंतर्संबंधों तथा अंतर्विरोधों को उकेरने का कारण वैमनस्यता फैलाने वाले तत्वों की पड़ताल का है। जाति-धर्म के उन्माद में भाषा का कारक किस तरह प्रभावी हो सकता है, यहां उभारा नहीं गया है, मगर महसूस किया जा सकता है।

कथा-सूत्र के लिए पात्र ‘जतीन बाबू (लेखक स्वयं?) की डायरी‘ वाला उपयुक्त तरीका अपनाया गया है। जो अपने दीर्घ अनुभवों को कलमबद्ध करने को लालायित हैं, किसी और के लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों को विगत से सबक लेने के लिए, डायरी लिखते हैं, जिसमें आत्मावलोकन है और स्वचिंतन भी। एक अंश जहां लगता है कि लेखक अपने भाव सीधे अभिव्यक्त कर रहा है- ‘बंगालियों द्वारा, खासकर पूर्वी बंगाल से विस्थापित बंगालियों द्वारा, ऐसी कोई तिथि या दिन स्वस्फूर्त हो नहीं तय की गई, जो समर्पित हो कष्ट और अमानुषिक यातना की उन यादों को। यह पूरे बंग समाज के लिए गंभीर आत्मचिंतन का विषय है कि क्यों वेदना के करुण देशराग को गाने का कोई मुहूर्त, कोई तिथि नहीं है। उस देशराग को, जिसने न केवल पूरे बंगाल को वरन निखिल विश्व के बंगालियों को और पूरे देश को प्रभावित किया?‘

पुस्तक में बताया गया है कि- बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी और गांगुली के पूर्वज मूलतः उत्तर प्रदेश के कान्यकुब्ज ब्राह्मण उपाध्याय थे। बारहवीं सदी में सेन वंश के तत्कालीन राजा ने काशी से जिन कुछ विद्वानों को वैदिक कर्मकांड हेतु स्थायी रूप से बंगाल बुलाया था, उन्हें जिन ग्रामों में बसाया गया उनसे उनकी पहचान हुई। इस तरह वन्ध्य ग्राम के उपाध्याय हुये वंद्योपाध्याय अर्थात बानुज्जे अर्थात बनर्जी और चट्ट ग्राम के उपाध्याय हुये चट्टोपाध्याय अर्थात चाटुज्जे अर्थात चटर्जी। बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी तथा गांगुली इन चारों को ही कुलीन ब्राह्मण कहा गया (पेज-69)। अनिमेष मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘ठाकुरबाड़ी‘ में लिखते हैं कि ‘... यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए। वैसे बता दें खुद को मुखोपाध्याय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय कहने का उद्देश्य अपने आपको विद्वान दिखाना होता था‘ (पेज-11)। इस संबंध में कहीं (संभवतः प्रभात रंजन सरकार के लेखन में) पढ़ा था कि ‘बाद में प्रश्नोत्तर के झमेले से बचने के लिए उन्हीं के उत्तरपुरुषों ने लिखना शुरू किया- ष्मेरा नाम श्री... वन्द्योपाध्याय है अर्थात् में वंन्द्यघटी गाँव का पंडित हूँष्। उसी प्रकार वर्द्धमान के चाटुति गाँव से चट्टोपाध्याय, बाँकुड़ा जिले के श्मुखोटीश् गाँव से मुखोपाध्याय, वर्द्धमान जिले में गंगोरी/गांगुली गाँव से गंगोपाध्याय, वीरभूम के श्गड़गड़ीश् गाँव से गड़गड़ी, श्पर्कटीश् (पाकुड़) से पाकड़ाशी, मानभूम (पुरुलिया) के घोषली गाँव से घोषाल, हुगली के दीर्घाड़ी से दोर्घाड्गी, पतितुण्ड गाँव से पतितुण्डी। यह तो प्रारंभिक दिनों की बात। कालक्रम में ये ही पदवियाँ जातिवाचक और जातिद्योतक बन गयीं। अंततः इन पदवियों के कारण विभिन्न प्रकार की भेदबुद्धि पैदा हो गयी। पदवी के सम्बन्ध में वर्त्तमान समाज में क्या करना उचित है इसे विचारशील लोगों के लिए चिन्तन करके देखने की जरूरत है।‘

पुस्तक का एक रोचक उद्धरण- ... वहीं मछली को भोजन का अनिवार्य भाग बनाने वाले ब्राह्मण तथा गैर ब्राह्मण समस्त हिन्दू बंगालियों के लिए बकरे का मांस केवल देवी समक्ष दिये गए बलि के प्रसाद के रूप में ही यदा-कदा अनुमत था। इस मांस को भी बिना प्याज-लहसुन के श्निरामिषश् तरीके से पकाने का विधान था। ’निरामिष‘ माने शाकाहारी और ’सामिष’ याने मांसाहारी भोजन। स्वादलोलुप जमींदारों की बिगड़ी पीढ़ियों व उन्हें अनुसरण करने वालों के साथ ही अँग्रेजी तालीम याफ्ता युवकों ने हालाँकि इसका भरपूर उल्लंघन करना आरंभ कर दिया था, पर मुर्गी तब भी कठोरता के साथ हिन्दू रसोई से दूर ही रखी गई थी। मुर्गी व उसके अंडे मुसलमानी आहार थे, अंडों के शौकीन हिन्दुओं के लिए बतख के अंडे अनुमत थे। स्वाभाविक रूप से उन दिनों मुर्गियाँ केवल मुसलमानों के द्वारा पाली व खाई जाती थीं। किसी मुसलमान के घर पाली गई मुर्गी का उड़कर या दाना चुगते हुये भटक कर किसी हिन्दू के घर की ओर चले आना बड़े विवाद का कारण बन जाता था। (पेज-111) 

पुस्तक के एक संवाद है, ‘पुटी तो छोटी मछली को कहते हैं‘ (पेज-92)। इस शब्द की चर्चा प्रभात रंजन सरकार की पुस्तक वर्णविचित्रा में इस पंकार है- ‘शफरी/सफरी - ‘शफरी‘ शब्द का अर्थ है पोंठी मछली। शफरी या पोंठी मछली की बंगाल में 11 प्रजातियां हैं ... वर्तमान में क्षुद्राकृति पोंठी को कोई कोई तीती पोंठी कहा करते हैं ... गंभीरजलसंवारी रोहितादि न विकारी। गण्डूषजलमात्रेण शफरी फरफरायते।। ... बंगला भाषा में ‘शफरी‘ शब्द का अपर अर्थ ‘विदेशागत‘ अर्थात् विदेश से सफर करके जो आया है।‘ (पेज-154)। मेरी जानकारी में यह शब्द संस्कृत के ‘प्रोष्ठी‘ से आया है और प्रोष्ठी के लिए अनुमान होता है कि ओंठ के उपरी भाग का आकार। एक अन्य संदर्भ- वाल्मीकि रामायण बालकांड में दशरथ के चारों पुत्रों को ‘प्रोष्ठपदोपमा‘, भाद्रपदा के चार तारों के समान कहा गया है। भाद्रपदा नक्षत्र के दो भेद, पूर्व और उत्तर हैं, इसके दो-दो तारे मिल कर कुल चार होते हैं।

ऐसा उपन्यास तब निकल कर आता है, जब लेखक को पाठक का ध्यान तो हो, मगर साहित्यिक प्रतिष्ठा पाने का दबाव न हो। प्रतिभू, कहानियां, उपन्यास से इतर लेखन भी करते रहे हैं, मगर अपनी लेखकीय सहजता पर कायम हैं, जो मुझ जैसे पाठक को उनके लेखन के प्रति आकर्षित करता है। प्रतिभू स्वयं को साहित्यकार नहीं मानते, बैंकिग पेशे से जुड़े रहे, पेशेवर लेखक-साहित्यकार होते तो मुझे लगता है कि कथा-क्रम का विकास करते हुए सूत्र के लिए प्रेम-कहानी का ताना-बाना लेते। उन्होंने ऐसा नहीं किया है, जबकि हरिप्रिया-पीयूष के साथ यह प्रेम-प्रसंग में यह संभावना थी। निहायत घरू-पारिवारिक माहौल के दैनंदिन जीवन की आशा-आकांक्षा और कुछ आशंकाओं को आधार बनाया है। लगता है यह स्वाभाविक है और यह इसी तरह आए, अलग से कोई पाठक-प्रलोभन न हो, गैर-पेशेवर होने के कारण आसानी से हो पाया है।

Sunday, September 14, 2025

रामायामालोक

सीय राममय सब जग जानी। करउं प्रनाम जोरि जुग पानी। ... लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।

पहले राम के याम-आयाम को लोक-आलोक में देख लें। ‘लोक‘ का अर्थ ‘फोक‘ जैसा सीमित नहीं, व्यापक रूप से यह ‘लौकिक‘ दृश्यमान जगत का पर्याय है, जिससे अवलोकन बनता है और आंचलिक भाषाओं, जैसे भोजपुरी में लउक-दिख रहा है। छत्तीसगढ़ी में यदा-कदा इस्तेमाल होता है, लउकत-गरजत, यानि बादल का गरजना और बिजली की चमक। यह इसलिए कि अंधेरी रात में बिजली चमकती है तो सारा दृश्य क्षण भर के लिए प्रकाशमान हो जाता है, ‘लउक‘ जाता है। छत्तीसगढ़ी में ऐसा ही एक अन्य प्रयोग है- ‘लोखन-लोकन या लउकन ले बाहिर‘, यह ऐसी बात के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष न किया जा सके, इसलिए अजीब, अनहोनी, अविश्वसनीय के आशय में भी प्रयुक्त होता है। अंगरेजी का ‘लुक‘ भी इसी मूल से आता है और त्रिलोचन, राजीवलोचन का ‘लोचन‘ तो है ही।

बांग्ला कृत्तिवास रामायण और निराला के ‘राम की शक्तिपूजा‘ का स्मरण करते चलें, जिसके आरंभ में राम-राजीवनयन और रावण-लोहितलोचन कहे गए हैं। और उत्कर्ष में राम याद करते हैं ‘कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन‘ और अपना एक नयन देकर एक सौ आठ में एक कम पड़ रहे नीलकमल की पूर्ति करने को उद्यत होते हैं। यहां शास्त्रीय संदर्भ की ओर ध्यान जाता है- पुरुषों को सप्त-पद्मांग माना जाता है, एक मुख, दो आंखें, दो हाथ और दो पांव, मगर नारायण विशिष्ट ‘अष्ट-पद्मांग‘ हैं, जिनकी नाभि, सृजन-पद्म है। इसी कविता में उल्लेखनीय पद है ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन‘, यहां ऐसा जान पड़ता है कि पूजा के लिए आंख बंद कर, आंतरिक शक्तियों का स्मरण और उन्हें जागृत करने का संकेत है, कि आंखें बंद करने, खो देने, न रहने पर दृश्यमान लौकिक जगत के व्यापार से मुक्त अंतःकरण उन्मुख होना है, जिससे शक्ति की मौलिक कल्पना संभव होगी।

कृत्तिवास रामायण और तुलसी मानस, आंचलिक भाषाओं में रचित सोलहवीं सदी की लगभग समकालीन रचनाएं हैं, इस संदर्भ में माधव कंदली के असमी रामायण को याद कर लेना चाहिए, जिसे आधुनिक आर्य-भाषाओं का प्रथम काव्य माना गया। यों अब विष्णुदास के ‘रामायनकथा‘, रचनाकाल संवत 1499, को हिंदी की पहली रामायण माना जा रहा है। माधव कंदली ने सीता का नख-शिख वर्णन, रीतिकालीन नायिकाओं की तरह या कालिदास के कुमारसंभव की पार्वती से प्रभावित जैसा है, जो श्रद्धा-भक्ति भाव को आहत करने वाला हो सकता है। इसी तरह कुम्हारिन मानी जाने वाली 14 वीं सदी की महिला कवि मोल्ल की तेलुगु ‘मोल्ल रामायण‘ में नारीदेह के अंगों के वर्णन में तुलसी वाली मर्यादा का संकोच नही है। तुलसी इसके लिए अनूठा प्रयोग करते हैं, जहां वे पशु-पक्षी-वृक्षों, जिनसे नारी अंगों की उपमा दी जाती है, कहते हैं- ‘सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू।।’

बारहवीं सदी का ‘कम्ब रामायण‘ दक्षिण भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना गया है। अध्येताओं ने तुलसी मानस पर इसके प्रभाव की विस्तार से चर्चा की है। यहां बालकांड का अध्याय 10 मिथिला-दर्शन पटल है, जिसमें नगर-प्रवेश के साथ ही राम-सीता मिलन की भूमिका बन जाती है। मिथिला नगरी कमल नयन राम का मानों आह्वान कर रही है कि सुनहरी आभा वाली लक्ष्मी यहां अवतीर्ण हुई है, अतः आप शीघ्र आइए। ऐसा लग रहा है मानों अनुपम सुंदरी जानकी का पाणिग्रहण करने के लिए योग्य वर को आते देख अप्सराएं आनंद से नाच रही हों। इसके बाद कवि का रोचक कथन है- ‘अब हम सीताजी का वर्णन करना चाहते हैं, किंतु कैसे करें? कमलासन ब्रह्मदेव से लेककर सभी, किसी नारी का उपमान देते समय लक्ष्मी का उल्लेख करते हैं, वही लक्ष्मी स्वयं सीता का रूप लेकर अवतीर्ण हुई है, तो उनका उपमान कहां से और कैसे ढूंढा जाय।‘ फिर भी सीता के सौंदर्य का विवरण देते हैं। मगर यहां रह गई कमी की मानों भरपाई एक पूरे अध्याय 20, प्रसाधन पटल में करते हैं।

यहीं चौदहवीं सदी के महत्वपूर्ण दूसरे तेलुगु ‘रंगनाथ रामायण‘, गोनबुद्धराज की कृति और उसमें सीता स्वयंबर वाला अंश देख लें। यहां जनक द्वारा यज्ञ-आयोजन के साथ स्वयंबर प्रसंग है। विवरण है कि मिथिला की यज्ञ-भूमि में कलिंग, नेपाल, कर्णाटक, लाट, मालव, सौवीर, मगध, पांचाल, कुरु, पाण्ड्य, बर्बल, कुंतल, अवंती, मरु, तरुष्क आदि देशों के राजा विराजमान थे। राम जनक से कहते हैं- हे भूपाल, यह धनुष बहुत ही पुराना, कमजोर और घटिया है। यदि बाण का संधान किया जाय, तो यह टिक नहीं सकेगा। इसी धनुष की आपने इतनी प्रशंसा की थी?‘ ... विवाह के लिए जनक चारों कन्याओं को सुसज्जित करने का आदेश देते हैं। श्रृंगार का विवरण देते हुए सीता के लिए गरिमापूर्ण कथन है- ‘सीता तो स्वयं लावण्य की मूर्ति, श्रेष्ठ गुणवती, जगन्माता, आदिलक्ष्मी का अवतार थीं, उस देवी के सौंदर्य का वर्णन करना किसके लिए संभव है।‘ और सीता का हाथ राम को सौंपते हैं, तब गुड़ तथा जीरा मिला कर वर-वधू के सिर पर रखा गया (आंध्र की परंपरा)। सीता और राम यहीं पहली बार एक-दूसरे को देखते हैं और ‘सीता का भव्य मुख सामने देख कर राम की आंखें पूर्णिमा के चंद्र के प्रकाश में विकसित कुमुद-पुष्प के समान प्रफुल्लित हो गईं। सीता की दृष्टि राम के चरण-कमलों पर इस प्रकार स्थित हुई जैसे पद्म पर भ्रमर बैठे हों।‘

कवि माधव स्वयं को ‘अहर्निशि चिंता राम राम‘ करने वाले और अपने बारे में कहते हैं- ‘कविराज कंदली आमा के से बूलिकय, कविलो हो सब जन बोधे। रामायण सुपयार श्री महामानिक्य थे, वाराहराजाय अनुरोधे।‘ यों स्पष्ट है- मुझे कविराज कंदली बुलाते हैं। मैं सब लोगों के बोध का कवि हूं, वाराह राजा महामाणिक्य के अनुरोध पर सु-पयार छंद में रामायण रच रहा हूं। असम अंचल के वाराही राजाओं में दो के नाम ‘माणिक्य‘ मिलते हैं, दोनों का काल चौदहवीं सदी होने के कारण माधव के असमी रामायण का काल भी सहज यही निर्धारित किया जा सकता है, कुछ विद्वानों ने असमी रामायण का रचना काल पंद्रहवीं शताब्दी माना है। माधव के नाम के साथ ‘कंदली‘ उपाधि जान पड़ती है, कंदल करने वाला कंदली हुआ जिसका अर्थ ‘वाद करने वाला‘ या ‘काव्य-शास्त्र चर्चा करने वाला‘।

लोक के ठेठपन वाले इस छत्तीसगढ़ी बुझौवल के साथ रामकथा के प्रति जिज्ञासा पैदा की जाती है- घर निकलत तोर ददा मर गे, अधमरा हो गे तोर भाई जी, आधा बीच म तोर नारी के चोरी, काम बिगाड़े तोर दाई जी। 

लोक-दृष्टि और राम को वाल्मीकि ने जोड़ा है कि- ‘यश्च रामं न पश्यत्तु यं च रामो न पश्यति। निन्दितः सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हते।। कुछ-कुछ ‘राम को न देखा तो ..., राम ने न देखा तो क्या देखा‘ जैसा।

दूसरा शब्द ‘राम‘, जिसकी विस्तार से चर्चा कामिल बुल्के ने की है और इसका रोचक शास्त्रीय निरूपण कुबेरनाथ राय ने किया है। यहां संक्षेप में, ‘राम‘ शब्द ऋग्वेद में एक राजा के व्यक्ति नाम की तरह आया है, उसे दुःशीम पृथवान और वेन नामक राजाओं की तरह प्रशंसनीय दानवीर बताया गया है, इसे करपात्री जी ने रामायण के ही राम माना है। तथा इक्ष्वाकु उल्लेख इस प्रकार है- ‘यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान् मराय्येधते‘, अर्थात् जिसकी सेवा में धनवान और प्रतापवान इक्ष्वाकु की वृद्धि होती है। इस संज्ञा वाले अन्य पात्र वैदिक-पौराणिक साहित्य में भी हैं।

भद्रो भद्रया सचमानः आगात, स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्। 
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन, रूशर्द्भिर्वर्णेरभि राममस्थात्।। (ऋग्वेद 10-3-3)
इस एक वैदिक ऋचा में संपूर्ण रामकथा संक्षेप में आ जाती है, ऐसी व्याख्या भी प्रचलित है- भजनीय रामभद्र, भजनीय सीता द्वारा सेवित होते हुए उनके साथ वन में आए। सीता को चुराने के लिए राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में रावण आया। वह सीता को चुरा कर ले गया। राम द्वारा रावण के मारे जाने पर अग्नि देवता राम की पत्नी सीता के साथ राम के सामने तेज के साथ उपस्थित हुए और असली सीता को उन्हें सौंप दिया। 

‘राम‘ शब्द विभिन्न एशियाई भाषाओं में है, अधिकतर सकारात्मक आशय वाला। वैदिक साहित्य के ‘राम‘ का शाब्दिक अर्थ रम्य, रमणीय या सुखद जैसा है। राम का एक अर्थ सुखद -आदर्श पुत्र भी माना गया है। श्रीरामरहस्योपनिषद के अंतिम पांचवे अध्याय में हनुमान ‘राम‘ शब्द की व्याख्या करते हुए यह भी कहते हैं- ‘अग्नीषोमात्मकं रूपं रामबीजे प्रतिष्ठितम् ... रामबीज-रां में अग्नि-सोम विश्वरूप प्रतिष्ठित है। पातंजल महाभाष्य के कथन को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है- ‘एकः शब्दः सम्यगधीत्यः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुम् भवति‘- सम्यक रीति से ज्ञात तथा सुप्रयुक्त एक शब्द भी इस लोक और स्वर्ग में कामधेनु जैसा है। इस रामबीज शब्द या एकाक्षर मंत्र रां को रांड्ा, जिसका उच्चारण रांगा-रंगा हो जाता है, से भी जोड़ा जाता है। इसी से रंज या गुस्से में लाल होना निकलता है या ‘जियो मेरे लाल‘ या लल्ला, जहां लाल का अर्थ पुत्र है और दूसरी तरह छत्तीसगढ़ी का लाल के लिए समानार्थी शब्द ‘रंगहा‘, जहां रंग का मतलब ही लाल है। संभव है कि यह खून के रंग के कारण समानार्थी हुआ हो, जैसे अपने पुत्र-पुत्री वंशजों को ‘अपना खून‘ कहा जाता है। ‘लालमुनियां‘ चिड़िया के नर-मादा भिन्न होते हैं, नर का रंग लाल होता है और आकार-प्रकार में वैसी ही मगर मादा के रंग में लाली नहीं होती, माना जाता है कि लाल-नर (प्रिय बेटा) और मुनियां (प्यारी बिटिया) को मिला कर इस लोकप्रिय ‘केज बर्ड‘ को नाम दिया गया है।

कहा जाता है कि मानस की प्रत्येक चौपाई में ‘र‘ अथवा ‘म‘ आता है इतना ही नहीं प्रत्येक पंक्ति-अर्धाली में भी ‘र‘, ‘म‘, ‘स‘ अथवा ‘त‘ अवश्य है। ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ‘द माडर्न वर्नाकुलर लिट्रेचर आफ हिंदूस्तान‘ का पांचवा अध्याय गोसाँईँ तुलसी दास से आरंभ होता है, जिसमें एक पाद टिप्पणी में वे लिखते हैं कि गया जिले के दाउदनगर के बाबू जवाहिर मल्ल ने उन्हें जानकारी दी कि वे एक ऐसे वृद्ध को जानते थे, जिनके पूर्वजों को स्वयं तुलसीदास ने बताया था कि उन्होंने अपनी कविता की ऐसी कोई पंक्ति नहीं लिखी, जिसमें ‘र‘ या ‘म‘ न हो। ग्रियर्सन टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि यदि सचमुच ऐसा हो तो यह संदिग्ध अंशों के असल होने के परीक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। मगर क्या सचमुच तुलसी ने ऐसा सप्रयास किया? ऐसा तो नहीं कि यह इसलिए संभव हुआ कि र-म-स-त वर्णमाला के ऐसे चार अक्षर हैं, जिनका उपयोग सबसे अधिक और हर आम-खास लेखन में होता है।

प्रसंगवश, स्वामी करपात्री जी महाराज ने अपने विशाल ग्रंथ ‘रामायणमीमांसा‘ में महाभारत-रामोपाख्यान को रामायण का स्रोत नहीं, रामायण को ही रामोपाख्यान का स्रोत मानते हैं साथ ही पाठ-भेद आदि की समीक्षा करते हुए बौद्ध-जैन रामचरित, भदंत आनंद कौसल्यायन और बुल्के सहित डॉ. वेबर, डॉ. याकोबी, डॉ. हाप्किन्स, डॉ. वान नेगलैन जैसे विदेशी अध्येताओं की प्रखर आलोचना करते हैं। असहमत होने पर ‘यह सब अटकलपच्चू भिड़ंत भिड़ाना मात्र है‘ कहते हुए धज्ज्यिां उड़ते हैं। करपात्री जी की पुस्तक ‘रामायणमीमांसा‘ का दूसरा अध्याय ‘कामिल बुल्के की रामकथा‘ है, जिसका आरंभ इस प्रकार है- ‘वास्तव में ईसाइयत फैलाने की दृष्टि से ही श्रीबुल्के ने रामकथा लिखी है‘। करपात्री जी को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि रामकथा-आस्था की जिन विसंगतियों को रेखांकित करने के लिए भिन्न स्रोत-संदर्भ का आधार लिया जाता है, उन विसंगतियों, विरोधाभास को अन्य संदर्भों का आधार लेते, टीका करते उन्हें तार्किक रूप से औचित्यपूर्ण भी ठहराया जा सकता है। बहरहाल, विभिन्न रामकथाओं का उल्लेख, उन पर विस्तृत समीक्षात्मक विवरण और टिप्पणी के लिए यह ‘रामायणमीमांसा‘ और फादर कामिल बुल्के की ‘रामकथा‘ विशेष महत्व के हैं।

सब जग सीयराम मय है, यहां सीता-राम के विवाह-संयोग को युग-संधि प्रसंग की तरह देखा जा सकता है। मानव सभ्यता के क्रम में खाद्य-संग्राहक आखेटजीवी काल को त्रेतायुग और कृषिजीवी गोपालक काल का जोड़ द्वापर के साथ बिठाया जाता है। त्रेता के धनुर्धारी राम (परशुधारी एक अन्य परशु‘राम‘), शिकारी हैं और सीता, कृषि-कर्म, हल जोतने से उत्पन्न हैं, द्वापर के गोपालक कृष्ण और हलधर एक अन्य बल‘राम‘ से जुड़ती हुई, यों भी सीता के पिता विदेहराज जनक, सीरध्वज हैं यानि जिनके ध्वज पर सीर-हल हो, मानों वह कृषक समाज के झंडाबरदार हों।

गौरी-पूजन के लिए फुलवारी में आई जनकतनया की विशिष्ट ‘शुभदृष्टि‘ का नाजुक प्रसंग है- ‘सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।। रामकथा का बालकांड मांगलिक है ही, वैवाहिक-मंगल, रामकथा का अनूठा नाटकीय-तत्व युक्त प्रसंग भी यही है। इसकी महत्ता ‘सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहूं सदा उछाहु मंगलायतनु राम जसु।।‘ के कारण भी गाई-सुनी जाती है। तुलसी ने मानस में एक अन्य ‘लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई।।‘ मांगलिक अवसर शिव-पार्वती विवाह का भी बनाया है। उनका मन इतने से नहीं भरा, उन्होंने अलग से ‘पार्वतीमंगल‘ और जानकी मंगल‘ भी रचा। इसके अलावा उनकी एक रचना ‘रामलला नहछू‘ है। यों नहछू विवाह संस्कार के अलावा यज्ञोपवीत के अवसर पर भी होता है। और कवितावली का मांगलिक पद- ‘दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं‘।

अब वाल्मीकि रामायण का पैंसठवें और उससे आगे के सर्ग देखना रोचक होगा, जहां विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ यज्ञ में आए हैं। विश्वामित्र जनक से कहते हैं कि दशरथ के ये दोनों पुत्र आपके यहां रखे धनुष को देखना चाहते हैं। ये दोनों धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो कर अपनी राजधानी लौट जाएंगे। जनक धनुष और अयोनिजा सीता का वृत्तांत सुनाते हुए कहते हैं कि मैंने यह निश्चय किया है कि जो इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी से सीता का ब्याह करूंगा। यदि श्रीराम इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा दें तो सीता को इनके हाथ में दे दूंगा। धनुष लाया गया और राम ने उसे उठा कर सहज प्रत्यंचा चढ़ा दी। धनुष को कान तक खींचते ही वह बीच से टूट गया। तब जनक ने अपनी पुत्री, श्रीराम को समर्पित करना तय किया। विश्वामित्र की अनुमति से दशरथ को लिवाने भेज दिया गया। दशरथ को बताया गया कि विश्वामित्र के साथ घूमते-फिरते आए आपके पुत्र राम ने अपने पराक्रम से सीता को जीत लिया है। दशरथ के मिथिला पहुंचने पर यज्ञ यमाप्ति के बाद विवाह का शुभ कार्य सम्पन्न होना निश्चित हुआ। वसिष्ठ इक्ष्वाकु वंश का और जनक अपने कुल का परिचय देते हैं। तदंतर सीता को राम के लिए और उर्मिला को लक्ष्मण के लिए समर्पित करते हैं। जनक के छोटे भाई कुशध्वज की दोनों कन्याओं का विवाह भरत और शत्रुघ्न के साथ तय हो जाता है। सारी तैयारी के बाद सीता को ला कर अग्नि के समक्ष (पहली बार) राम के आगे बिठाया जाता है, पाणिग्रहण होता है। चारों भाइयों का विवाह होता है और वे अपनी-अपनी पत्नियों के साथ जनवासे चले जाते हैं। यहां इस तरह सारा कुछ संपन्न हो जाने के बाद परशुराम आते हैं।

देखते चलें कि अध्यात्म रामायण का छठां सर्ग धनुर्भंग और विवाह का है, जिसमें विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण को जनक की मिथिलापुरी में यज्ञोत्सव दिखाने ले जाते हैं। विदेह नगर में पहुंच कर जनक से कहते हैं कि तुम्हारे यहां शंकर का धनुष देखने आए हैं। इस पर जनक अपनी ओर से बात जोड़ते हैं कि राम धनुष उठा कर, उसे चढ़ा देंगे तो अपनी क्न्या सीता उनसे विवाह दूंगा। राम ने आसानी से धनंष को थाम कर उसे चढ़ा कर खींचा और तोड़ डाला तब सीता मंद-मंद मुसकाती जयमाल राम को पहना कर प्रसन्न हुईं। फिर दशरथ को विवाहोत्सव के लिए बुलावा जाता है। राम-सीता के विवाह के साथ अपनी औरसी कन्या उर्मिला लक्ष्मण को तथा अपने भाई की पुत्रियां मांडवी और श्रुतकीर्ति क्रमशः भरत और शत्रुघ्न को ब्याह दीं।

आनंद रामायण, सार कांड के तीसरे सर्ग में विवाह प्रसंग कुछ इस तरह आता है- अहल्या उद्धार के बाद गंगा पार कर राम मिथिलापुरी की ओर बढ़े। वहां बड़ी संख्या में निमंत्रित राजा और अनामंत्रित रावण भी पहुंचा। विश्वामित्र के शिष्य ने एकांत में ले जा कर राजा जनक को संदेश सुनाया कि वे अपने दशरथ के दो पुत्रों को साथ लेकर आए हैं, ये सीता तथा उर्मिला का पाणिग्रहण करेंगे और धनुष रामचंद्र जी तोडेंगे, जब तक धनुष भंग न हो, तब तक यह किसी से न बताइएगा। जनक ने विश्वामित्र से अनजान की तरह दोनों बालकों का परिचय पूछा। राम-लक्ष्मण का स्वागत देख कर राजाओं को संदेह होने लगा कि सीता-परिणय पूर्वनिर्धारित तो नहीं! धनुष आता है, राजाओं के असफल होने के बाद रावण की बारी आती है, रावण धनुष तो उठा ही नहीं पाता, उल्टे धनुष उसकी छाती पर गिर जाता है, मुकुट दूर जा गिरता है इतना ही नहीं धोती खुल जाती है और उसके पहने हुए वस्त्रों में मल-मूत्र निकल जाता है। तब राम आगे आए और आसानी से धनुष उठा कर डोरी चढ़ा दी, और धनुष के तीन टुकड़े हो गए। इस बीच सीता प्रार्थना करती है कि राम धनुष चढ़ाने में समर्थ हों और मुनिवृत्ति धारण कर राम की अनुगामिनी बन कर उनके साथ चौदह वर्ष तक वन में भ्रमण करूं। सीता हथिनी पर सवार हो कर आती हैं, नेत्र कटाक्ष से राम को देखती हुई हथिनी से उतर कर लज्जापूर्वक नवरत्नों का हार अपने हाथों से राम के गले में डालती हैं।

आनंद रामायण जन्मकांड के आठवें सर्ग में सीता पृथ्वी में समाने लगती हैं, राम पहले तो पृथ्वी से निवेदन करते हुए कहते हैं- ‘जानकी तव कन्येयं श्वश्रूस्तवं मेऽधुना त्विह। कन्यादानं कुरु मुदा त्वया पूर्वं कृतं न हि‘ सीता आपकी कन्या है, इस नाते आप मेरी सास हैं। आपने विवाह के समय कन्यादान नहीं किया था, सो अब कर दीजिए। पृथ्वी राम की बात अनसुना करती हैं, इस पर राम क्रुद्ध होते हैं, धनुष पर बाण चढ़ाने लगते हैं, तब पृथ्वी स्वयं सीता को उठा कर राम की गोद में बिठा देती हैं।

डोंगरे जी महाराज की रामकथा और उनके वचनों में ऐसी तल्लीनता होती है कि वाल्मीकि-तुलसी परंपरा से अभिन्न हो जाते हैं, श्रद्धालु उन्हें ‘अर्वाचीन शुक‘ के समान मानते हैं। उनके ‘तत्त्वार्थ रामायण‘ में आया प्रसंग विशिष्ट मनभावन है- विश्वामित्र, राम को मांगने आए हैं, दशरथ अपनी आंखों के इस तारे को अपने से दूर होने की सोच भी नहीं सकते। इस पर वशिष्ठ दशरथ को समझाते हुए कहते हैं कि कल ही राम का जन्माक्षर देखते मुझे विश्वास हुआ कि इसी वर्ष राम के लग्न का योग है और लगता है विश्वामित्र राम के लग्न के लिए ही आए हैं। दशरथ यह कहते हुए सहमत होते हैं कि राम में वैराग्य जागृत हुआ है, उसे कुछ समझाइये। यहीं योगवासिष्ठ की भूमिका बनती है। मगर डोंगरे जी की कथा में आगे धनुषभंग के बाद सीता, राम को विजयमाला अर्पण करने आती हैं, राम सोचते हैं, सीता बहुत सुंदर हैं, इससे क्या? मां आज्ञा दें तो ही मैं लग्न करूं। साथ ही लक्ष्मण का भी विवाह करने को कहते हैं। ... विश्वामित्र के निश्चित किए अनुसार लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का भी लग्न क्रमशः उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ निश्चित हुआ। कन्यादान-पाणिग्रहण पर राम को ‘प्रतिगृह्णामि‘ कहने को कहा जाता है, राम वैसा ही कहते हैं किंतु लक्ष्मण को ‘प्रतिगृह्णामि‘ बोलने को कहा जाता है तो उन्हें मौज सूझती है, वे सोचते हैं कि मंगलाष्टक हो गया है, कन्या का हाथ मेरे हाथ में आ गया है, क्यों न थोड़ा हठ करूं, और कहते हैं कि प्रतिगृह्णामि तो ब्राह्मण बोलते हैं, जो दान लिया करते हैं, हम क्षत्रिय दान लेते नहीं, दान दिया करते हैं ‘प्रतिगृह्यताम‘ बोला करते हैं। उन्हें समझाया जाता है कि तुम्हारे बड़े भाई ने भी तो प्रतिगृह्णामि कहा है। इस पर लक्ष्मण कहते हैं कि वे तो भोले हैं, उन्हें जैसा कहा गया उन्होंने किया। बात अड़ गई वशिष्ठ के मनाने पर भी लक्ष्मण राजी नहीं हुए। तब विश्वामित्र ने उन्हें समझाया कि चाहे मंगलाष्टक हो गया हो, प्रतिगृह्णामि नहीं बोलोगे तब तक लग्न पक्की नहीं मानी जाएगी, तब कहीं जा कर लक्ष्मण मानते हैं। विवाह के दौरान हास-परिहास होता है। जनकपुरी की एक स्त्री बोलती है कि अयोध्या की स्त्रियां तो जबरदस्त हैं, खीर खाती हैं और बालक को जन्म देती हैं। राम आनंद लेते हैं, मगर लक्ष्मण को बात बरदाश्त नहीं होती, खीझ कर जवाब देते हैं कि जनकपुर का तो ऐसा भी रिवाज है, यहां की स्त्रियां ऐसी करामाती हैं कि इनके यहां धरती फटने से ही छोकरियां जन्मती हैं।

कन्नड़ ‘कौशिक रामायण‘ 16 वीं सदी के कवि बत्तलेश्वर की रचना है, लखनऊ के भुवन वाणी ट्रस्ट ने इसका संपादित अनूदित रूप प्रकाशित किया है। यहां बालकांड की संधि-2 में सीता जन्म और स्वयंबर प्रसंग है। स्वयंबर में सखियों के साथ राजकुमारी सीता हाथ में खस का पंखा लिए सभा में आती हैं। सखियां सभा में उपस्थित देवताओं की कमियां बताते हुए, उन्हें भी अनुपयुक्त ठहराती जाती हैं। यहां भी धनुष-भंग के प्रयास में असफल रावण हंसी का पात्र बनता है। यहां जनक कौशिक मुनि को संबोधित कर सीता के ब्याह रचने की बात कहते हैं, वैसे ही लक्ष्मण उद्यत हो कर, धनुष चढ़ाने का काम पूरा करने की आज्ञा मांगते हैं। इस पर मुनि कहते हैं- यह कुल की मर्यादा के प्रतिकूल है। लक्ष्मण! शांत हो जाओ और राम को आदेश देते हैं। यहीं सीता जी के मन में स्नेह अंकुरित होता है।

आगे, विवाह उपरांत भोजन की तैयारी की सूचना पाकर जनक महाराज समधी और उनके परिवार के साथ भोजनशाला में आये। ... बोलचाल में चतुर कन्नड़ प्रदेश की ललनाएँ कलछी से भर-भर खीर परस रही है। कलछी में खीर भरना और खाली करना ऐसा लगता है मानो चन्द्रमा नील जलधि में ओझल होता हुआ सहसा प्रकट हो जाता हो। चन्द्रमा और खीर धवल है, नीलजलधि और कलछी का रंग काला है। तेलुगु प्रदेश की नारियाँ प्रेम से रसमलाई परसने लगी। होयसल ललनाओं ने ऐसे अमित स्वाद से परितोष प्रदान करनेवाली पूरणपोळियाँ परसीं। लाट देश की स्त्रियों ने मोती, चांदी की तरह चमकती धवल-उज्ज्वल सेवई परसी। खानेवालों के मना करने पर भी तमिळनाडु की तरुणियाँ गुझिया परसने लगीं। ललनाएँ आम का रस, केले का रसायन कटोरों में भरती जा रही है। मिठाई के बाद चावल चलाया जाने लगा। काली मिर्च का रसम किसी-किसी ने लिया। सुमुखी कोमलांगी कन्याओं ने स्वर्गोपम षडरस व्यंजन परस कर बारातियों को संतुष्ट किया। शरत्कालीन शशिधर की भाँति शुभ्र धवल दही का चक्का वनजाक्षियों ने परोसा। इसके बाद मिर्च, आम, आँवला, गजनींबू आदि के अचार परसे जाने लगे। फिर बारातियों को लोटे में भर-भर के शक्कर मिलाया मलाई का दूध दिया गया सब संतृप्त हुए। हाथ मुँह धुलाये गये। सभा में पधारे सभी को होयसलवासियों ने सोने के पात्र में सुगंधित मुलायम पान बाँटे।

प्रसंग में इसी के साथ मंथरा आ जाती हैं। भरपेट खाकर निकले एक तुंदिल चौबेजी साँस नहीं ले पा रहे थे, मुश्किल से चल पा रहे थे, उसे देख मंथरा को मजाक सूझा और उसने चौबे के कमर में बँधी डोरी काट दी, चौबे को शर्मिन्दा होना पड़ा। आस-पास खड़े लोग हँस पड़े। राम को इसकी खबर लगी तो मंथरा को पकड़कर पेश करने का हुक्म दिया। मंथरा की खूब पिटाई हुई। वह चीखी, चिल्लाई, गिरी, खून से लथपथ हुई। वह जल-भुन कर रह गई। राम पर उसका रोष इतना बढ़ा कि यहीं उसने बदला लेने का ठान लिया।

छत्तीसगढ़ के कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय (1885-1951) की रचना है ‘मैथिली मंगल‘। उन्होंने सरल भाव से व्यक्त किया है कि जबलपुर के राजा गोकुलदास के यहां विवाह का कल्पनातीत वृहद आयोजन देख कर उनके मन में आया कि राम-सीता का विवाह कितना दिव्य रहा होगा और उसे किस तरह से शब्दों में, काव्य में उतारा जा सकता है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की ही एक अन्य उल्लेखनीय और मनोरम रचना गिरधारीलाल रायकवार रचित हल्बी नाटक ‘सीता बिहा नाट‘ है। इस नाटक के संदर्भ में 1998 में मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित (तत्कालीन मंत्री हमारे गृह जिले के डॉ. चरणदास महंत) डॉ. हीरालाल शुक्ल संपादित-संयोजित हल्बी, माड़िया और मुरिया रामकथा के तीन भारी-भरकम खंडों का उल्लेख आवश्यक है, जिनमें गिरधारीलाल जी की यह रचना शामिल है। हमारी संस्कृति में जन्म-मृत्यु के अनिवार्य संस्कार के अलावा विवाह ही सबसे मांगलिक और शास्त्रीय आधार वाला संस्कार है, उल्लेखनीय कि ‘विवाह सूक्त‘ वैदिक ग्रंथों के ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में अपनी विशिष्टताओं सहित शामिल है। एक अन्य उल्लेख, छत्तीसगढ़ सम्मिलित मध्यप्रदेश के दौरान भोपाल में 1970 में ‘रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति’ का गठन किया गया। इस समिति के संस्थापक हमारे गृहग्राम अकलतरा निवासी पं. रामभरोसे शुक्ल के मानस-मर्मज्ञ पुत्र पं. गोरेलाल शुक्ल (आईएएस) थे। समिति के मानस भवन से ‘तुलसी मानस भारती (मासिक)‘ पत्रिका का प्रकाशन पं. शुक्ल के प्रधान संपादकत्व में आरंभ हुआ।

इस क्रम में छत्तीसगढ़ के राम-साहित्य साधकों का स्मरण आवश्यक है, उन बहुतेरों में से कुछेक-

बिलासपुर निवासी महामहोपाध्याय जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ अल्प-चर्चित राम-रसिक हैं। उन्होंने तुलसी रामायण का अनुशीलन करते हुए महत्वपूर्ण मीमांसक कृतियों का प्रणयन किया, जो नवपंचामृत रामायण (1896), ‘तुम्हीं तो हो‘ का पहला भाग ‘रामाष्टक‘ (1914), श्रीतुलसी तत्वप्रकाश, रामायण प्रश्नोत्तरमाला सहित (1931), श्रीरामायण वर्णावली (1936), श्रीतुलसी भावप्रकाश (1937) हैं। ‘भानु‘ हिंदी छंदशास्त्र और काव्यशास्त्र के आरंभिक आचार्य हैं साथ ही गणित के भी अधिकारी विद्वान। मैनपुरी निवासी मुंशी सुखदेवलाल की टीका में मानस की संख्यात्मकता से अनुप्रेरित भानु जी का ध्यान इसके आगे अन्य पक्षें पर भी गया। संख्या नव और पांच का संबंध भी दिखा, वही नवपंचामृत रामायण में विवेचित है। अन्य कृतियां नाम से स्पष्ट हैं, किंतु इनमें विषय की मीमांसा और प्रस्तुति अनूठी है।

उन्नीसवीं सदी का एक अन्य महत्वपूर्ण नाम ‘श्यामा स्वप्न‘ वाले ठाकुर जगमोहन सिंह की संगत में रहे शबरीनारायण (शिवरीनारायण) निवासी पं. मालिकराम ‘भोगहा‘ है। भोगहा जी का जन्म 1870 में हुआ और मात्र 38 वर्ष की आयु में 30 नवंबर 1909 को उनकी मृत्यु हो गई। उनके लिए पं. लोचनप्रसाद पांडेय ने लिखा- ‘मालिकराम जैसे धार्मिक और विद्वान पुरुष की मृत्यु से छत्तीसगढ़ को जो क्षति पहुंची है, उसकी पूर्ति होना कठिन है। ईश्वर करे, पण्डितजी पुनर्बार हमारे छत्तीसगढ़ ही में जन्म धारण कर अपने देवोपम गुणों से हमारे नयन खोलें।‘ भोगहा जी ने महत्वपूर्ण मगर अत्यल्प चर्चित ‘श्रीराम-राज्य-वियोग‘ नाटक की रचना की थी।

डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, मानस में रामकथा (1952), भारतीय संस्कृति को गोस्वामी तुलसीदास का योगदान (चार व्याख्यानों का संग्रह 1953), मानस-माधुरी (1958), खंड काव्य राम-राज्य (1960, पाठ्य संस्करण 1972), तुलसी-दर्शन (1938-39 में डी. लिट्. के लिए हिंदी में प्रस्तुत प्रथम शोध-प्रबंध, सातवां संस्करण 1967 में प्रकाशित) जैसी पुस्तकों के लेखक हैं। डॉ. मिश्र की नातिन सुश्री आभा तिवारी की 2021 में प्रकाशित पुस्तक ‘डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र‘ में जानकारी दी गई है कि 1911 के लुइजि पियो टैसीटोरी और 1918 के जे.एन. कार्पेन्टर के बाद बलदेव प्रसाद मिश्र का तुलसीमानस पर तीसरा, हिन्दी में लिखा प्रथम शोध प्रबंध ‘तुलसी दर्शन मीमांसा‘ 1938 में नागपुर विश्वविद्यालय की डी.लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था। बलदेव प्रसाद मिश्र पुस्तक ‘मानस में रामकथा‘ (1952) में कहते हैं- ‘पिता का आदेश मानकर एक राजकुमार वन को जाते हैं। उनकी साध्वी सुकुमारी पत्नी भी उनका साथ देती है। वहां एक प्रभुता-मदान्ध सत्ताधीश उस साध्वी बाला को हर ले जाता है जिसकी प्रतिक्रिया में वे राजकुमार वन्यों की सहानुभूति प्राप्त करते और उनकी सहायता से ऐसे प्रबल प्रतिस्पर्धी को भी परास्त करके पत्नी को उन्मुक्त करते और आदेश पूर्ण होने पर पिता के राज्य का उपभोग करते हैं। यही रामायण की मूलकथा है।‘

डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र अभिनन्दन-ग्रन्थ का प्रकाशन 1963 में हुआ था, जिसमें ‘डाक्टर साहब की कृतियों पर कुछ सम्मतियां‘ शीर्षक अंतर्गत डा. राजेन्द्रप्रसाद की सम्मति में, जो मानस माधुरी की भूमिका 26.8.58 के रूप में है, कहा गया है कि ‘मैंने रामायण की कथा ही नहीं उसकी विद्वत्तापूर्ण व्याख्या भी उनके मुख द्वारा सुनी ... और उससे प्रभावित हुआ हूं ...। महावीर प्रसाद द्विवेदी की सम्मति के अंश इस प्रकार हैं- ‘बलदेव प्रसादाय शास्त्रज्ञाय महात्मने, सादरं बुधवर्याय भूयो भूयो नमोस्तुते। ... ‘तुलसी-दर्शन‘ की कापी आपने क्या भेजी मुझे संजीवनी का दान दे डाला। ... मैं मुग्ध हो गया। आप धन्य हैं। ऐसी पुस्तक लिखी जैसी तुलसी पर आज तक किसी ने न लिखी और न ही आशा है कि आगे कोई लिखेगा। ... आपने इस विषय में जो विद्वता प्रदर्शित की है वह दुर्लभ है। ... भैया मिश्रजी, मैं रामायण का भक्त हूँ ... मुझे मेरे मन की पुस्तक लिखकर भेजी, धन्यवाद। भगवान आपका कल्याण करें‘ (22.9.38)। रामचंद्र शुक्ल की सम्मति है- (तुलसी दर्शन में)‘मिश्रजी ने बड़ी पूर्णता के साथ विषय का प्रतिपादन किया है। उन्होंने वैदिक, पौराणिक और भक्ति-साहित्य के विशाल भण्डार से सामग्री संकलित करके बड़े विवेक के साथ उसका उपयोग किया है। उनका शोध-प्रबंध महान अध्यवसाय और व्यापक अध्ययन का परिणाम है।‘ (परीक्षक के रूप में विश्वविद्यालय को भेजी गई रिपोर्ट-18.7.38), मगर यह कुछ पढ़ते-लिखते मन में सवाल अटका रह जाता है कि इसका मूल स्रोत/दस्तावेज, सुरक्षित और कहीं उपलब्ध हैं? 

‘भानु' जी और मिश्र जी की परंपरा में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वाले डॉ. अम्बाप्रसाद ‘सुमन‘ का ‘रामचरितमानस-भाषा-रहस्य‘ विशद और विस्तृत अध्ययन उल्लेखनीय है। जैसाकि पुस्तक की प्रस्तावना में कहा गया है- ‘... विश्लेषण मुख्यतः ध्वनि-विचार, शब्द-विचार, रूप-विचार, वाक्य-विचार एवं अर्थ-विचार की दृष्टि से उपन्यस्त किया गया है। अतः, यह कहा जा सकता है कि डॉ० सुमन ने एड्विन ग्रीव्स, केलॉग, विजयानन्द त्रिपाठी, देवकीनन्दन श्रीवास्तव इत्यादि द्वारा प्रस्तुत किये गये एतद्विषयक अध्ययन को आगे बढ़ाया है।‘ पुस्तक में विेवेच्य का एक उदाहरण, बोली-बोला का प्रयोग है- अयोध्याकांड में ‘बोली मधुर बचन महतारी‘ और अरण्यकांड में ‘मरम बचन जब सीता बोला‘। जैसे ढेरों प्रयोगों पर भाषा और व्याकरण की दृष्टि से सूक्ष्म विचार करते हैं।

रायपुर में नृतत्वशास्त्र के प्राध्यापक रहे डॉ. ठाकोरलाल भाणाभाई नायक ने जनजातीय समुदाय में प्रचलित रामकथाओं का सर्वेक्षण कर प्रकाशित कराया था, जिसमें अगरिया जनजाति में प्रचलित रामकथा तथा ‘भिलोदी रामायण‘ की चर्चा है। रायपुर में नृतत्वशास्त्र के प्राध्यापक रहे डॉ. ठाकोरलाल भाणाभाई नायक ने जनजातीय समुदाय में प्रचलित रामकथाओं का सर्वेक्षण कर प्रकाशित कराया था, जिसमें अगरिया जनजाति में प्रचलित रामकथा तथा ‘भिलोदी रामायण‘ की चर्चा है। छत्तीसगढ़ के देवार और सीमावर्ती मंडला के परधान, लोकगाथाओं की वाचिक परंपरा के धारक-संवाहक हैं। इनमें लछमन जती की गाथा प्रचलित है, जिसे आदिमजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्था, छिंदवाड़ा के अंतर्गत शेख गुलाब से संग्रह कराया जा कर डॉ. ठा.भा. नायक के संपादन में ‘रामायनी‘ (लछमन की सत् परीक्षा) शीर्षक से 1964 में प्रकाशित किया गया है। संस्था के ऐसे ही दो अन्य प्रकाशन पण्डुवानी (भाग-1 कँवरा-पण्डवा तथा भाग-2 पण्डवा) और गोंडवानी भी हैं। इस गाथा के प्रमुख चरित्र लछमन हैं और यह अपने किस्म का ‘राघवपाण्डवीयम्‘ है, जिसमें महाभारत के पात्र पँडवा-पांडव भी आ जाते हैं। यहां प्रमुखता भीम की होती है। पण्डुवानी संग्रह की ‘देश बुँदेलिया‘ गाथा में अंजनी पुत्र हनूमान भी पात्र हैं और ‘कलजुग देव‘ कथा समाप्त होती है- ‘जैसे पंडवन के दिन लौटे वैसई सबके दिन लौटें रे भैयाऽऽऽ। जै सियाराम जी की।‘

रामायनी में लछमन की अग्नि-परीक्षा होती है, जिसमें वे खरे उतरते हैं और बात पूरी होती है- ‘जैसे लछमन के सत पूरा उतरिस वैसे सब भाई बोहनीन के सत पूरा उतरै हो ऽऽऽ । राम-लक्ष्मण को बकरी के दो थन जैसे एका वाले- ‘सुन के हो भैया, बियाकुल तो भै गैन, छिरिया कस थन रहैं, हम दोनों भैया।‘ कहा गया है। देवर ने सीता से खाने की फरमाइश की है, पहेली की तरह, ‘भर्रू के लाछा, माछी के दूध, बिना जोते बोए हरा चाँउर, लाल मूँड़ के चिवना, बिना गोड़ के बोकरा, अंधमुटा घोड़ा और बिना डारा पान के पीढ़ा।‘ इनमें से कुछ भी मिलना संभव नहीं है, मगर हल निकल आता है। ... सीता सपना देखती हैं कि लछमन तिरिया भेष धर कर लंका गए और रावण की कन्या ‘रानी पुफैया‘ को ब्याह कर ले आए हैं। ... लछमन, हनुमान को कहते हैं भांजे, मैं ही तुम्हारा मामा हूं। ...

राम-लछमन के मामा हैं राजा बासुक और उनकी कन्या है बीजलदई, जिससे लछमन का विवाह तय होता है, कई हां-ना के बीच शादी हो जाती है, विदाई भी होती है- ‘अब भए हवै बिदा के तियाँरी, सज गैसे बीजलदई, जुर गैनें सखियाँ, रो रो के भेंट कर रहे है बीजलदई रे भैया, झर झर आँसू बुहाय रहे हैं संग के सखियाँ, दादा के गरे से, लिपट लिपट रोथै, सखियन के संग मा, लिपट लिपट रोथै। मगर अंततः लछमन कुंवारे रह जाते हैं। गाथा समाप्त होती है- पहुँच गैन रामचंदर, सँग मा सीता जी लव कुश हवैं लरका, साँथ हवै लछमन रे भैया, पहुँचे हैं बदन महल मा, बजन लगिन नगारा, उड़न लगिन निशाना, होन लगिन गाना बजाना, नाचत्थैं नचौया, गावत्थैं गवैया।
बहुत दिनमा सीता आए हैं हो, नगरी मा आनन्द भै गै होऽऽ।

हरि ठाकुर ने ‘छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास‘ शीर्षक लेख द्वारा इस विषय का विस्तार से परिचय दिया था। उनकी 1990 की डायरी में 47 रामकथा-साहित्य की सूची है, जो महाकवि नारायण के रामाभ्युदय महाकाव्य से आरंभ होती है, मगर क्रमांक में आरंभिक 10 इस प्रकार हैं- 1 राम प्रताप-महाकवि गोपाल, 2 तास रामायण-ठाकुर भोला सिंह बघेल, 3 छत्तीसगढ़ी रामचरितनाटक- उदयराम, 4 मैथिली मंगल-शुकलाल प्रसाद पाण्डेय, 5 कोशल किशोर-डा. बलदेव प्रसाद मिश्र, 6 छत्तीसगढ़ी रामायण-पं. सुन्दरलाल शर्मा, 7 वैदेही-विछोह- कपिलनाथ कश्यप, 8 राम विवाह- टीकाराम स्वर्णकार, 9 राम केंवट संवाद-पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र 10 राम बनवास- श्यामलाल चतुर्वेदी (पूरी सूची अन्यत्र उपलब्ध है)।

मुकुटधर पांडेय ने छत्तीसगढ़ी का सामर्थ्य प्रमाणित किया है कालिदास के ‘मेघदूत‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर। इसके अलावा उन्होंने मानस के उत्तरकांड का भी छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया है। हेमनाथ यदु ने किष्किंधाकांड का छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया। 1992-93 में ‘छत्तीसगढ़ी सरगुजिया गीत नृत्य रामायण‘ प्रकाशित हुई, जिसके संगृहिता लेखक समर बहादुर सिंह देव हैं। पुस्तक की पहली प्रति तत्कालीन राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा जी को प्रेषित की गई थी, जिसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने इस संग्रह को महत्वपूर्ण मानते हुए इसकी प्रशंसा की थी। अंबिकापुर के ही रामप्यारे ‘रसिक‘ की पुस्तिका सरगुजिहा रामायण है।

इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात 'छत्तीसगढ़ी रमायन' (कौसिल्या नन्दन) डॉ. प्रभंजन शास्त्री के नाम जाने गए डॉ. एन.पी. उपाध्याय की 2001 में प्रकाशित कृति है। उन्होंने ‘अंजनि नंदन‘ की भी रचना की है। डॉ. मन्नूलाल यदुने रामकथा पर कई छोटी-बड़ी पुस्तकों का प्रकाशन कराया। प्रहलाद विशाल वैष्णव ‘अचिन्त‘ का तीन भागों में ‘रमाएन‘ क्रमशः 2013, 2015 तथा 2016 में प्रकाशित हुआ है, पुस्तक के शीर्षक के साथ जिसे ‘श्रीराम कहानी छत्तीसगढ़ी पद‘ कहा गया है। मेरी जानकारी में आए दो अन्य ग्रंथों का उल्लेख- रामसिंह ठाकुर द्वारा रामचरित मानस का हल्बी पद्यानुवाद और हमारे गृह-ग्राम निवासी गुलाबचंद देवांगन का ‘छत्तीसगढ़ी रमायेन‘। यह क्रम लंबा है, इसे यहां विराम देते हुए आगे बढ़ते हैं।

राम के वन-गमन से जुड़े दो रोचक प्रसंग हैं जिसमें पहला, भास के ‘प्रतिमा‘ नाटक का है। भास के इस नाटक की विलक्षण नाटकीयता बार-बार चमत्कृत करती है। नाटक के आरंभ में राम के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है ‘सामयिक अभिनय‘ दिखाने की तैयारी हो रही है। सीता की सेविका संयोगवश अशोकपत्र के बजाय वल्कल वस्त्र ले आती है। सीता पहले तो उसे लौटाने को कहती हैं, मगर उनकी इच्छा वल्कल धारण कर देखने की हो जाती है। तभी राज्याभिषेक के लिए बज रहे बाजों की आवाज अचानक थम जाती है और पात्र चेटी कहती है कि मैंने ऐसा सुना है कि राजकुमार का तिलक कर महाराजा वन में चले जायेंगे। इधर महाराजा ने राम का राज्याभिषेक स्थगित कर वन के लिए विदा कर दिया। अब राम सीता से मिलने आते हैं, दासी कहती है राजकुमार आ रहे हैं, आपने वल्कल नहीं उतारा! राम और सीता के बीच वार्तालाप होता है और राम कहते हैं मेरी अर्द्धांगिनी होकर तुमने पहले ही वल्कल पहन लिया, तो समझो मैंने भी पहन लिया। दूसरा रोचक प्रसंग सोलहवीं शताब्दी की रचना ‘अध्यात्म रामायण‘ का है, जिसमें राम द्वारा सीता को छोड़ कर वन गमन जाने की बात पर सीता का तर्क, आपने बहुत-से ब्राह्मणों के मुख से बहुत-सी रामायणें सुनी होंगी, बताइये, इनमें से किसी में भी क्या सीता के बिना रामजी वन को गये हैं? (प्रसंगवश राम वनगमन पथ पर अकादमिक-शोध दृष्टि से आरंभिक लेख एफ.इ. पार्जिटर का है, जो ‘द जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड‘, अप्रैल 1894 अंक में पेज 231-264 पर प्रकाशित हुआ था।)

राम के राज्याभिषेक और वनवास के बीच मंथरा-कैकेयी के आने के पहले ही वाल्मीकि के राजा दशरथ केकय नरेश और मिथिलापति को राज्याभिषेक के लिए नहीं बुलवाते। यह भी कहते हैं कि जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहां हैं, इसी बीच राज्याभिषेक हो जाना उचित प्रतीत होता है। राम लक्ष्मण से कहते हैं तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य शासन करो, तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो, यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है। इधर तुलसी के राम ‘भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। कहते हुए भरत को याद करते हैं। यह भी कहते हैं- हम सब भाई एक साथ जन्मे, खाना-सोना, खेल-कूद, संस्कार साथ-साथ हुए ‘बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।’ पर सब भाइयों को छोड़ कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही हो रहा है। दशरथ की मृत्यु के बाद राम से मिलने गए भरत बचपन के ‘हारेहुं खेल जितावहिं मोही‘ याद कर रहे हैं, मानों इसी तरह उन्हें राजगद्दी मिली है। यहां एक अन्य उल्लेख प्रासंगिक होगा। रामकथा में शत्रुघ्न की चर्चा कम होती है। उत्तरकांड के बासठवें-तिरसठवें सर्ग में मधु-कैटभ वाले मधु के पुत्र लवणासुर के वध का काम भरत अपने जिम्मे लेने को तैयार होते हैं, इस पर मझले भैया तो बहुत सारा कार्य कर चुके हैं कहते हुए शत्रुघ्न यह काम अपने हिस्से लेना चाहते हैं। राम उन्हें इसकी स्वीकृति देते हुए मधु के नगर में राजा के पद पर अभिषिक्त करने की बात कहते हैं। इस पर शत्रुघ्न से कहलाया गया है कि बड़े भाइयों के रहते हुए छोटे का अभिषेक कैसे किया जा सकता है?

राज्याभिषेक के बजाय वनवास की खबर पा कर कौसल्या सोच रही हैं ‘लिखत सुधाकर गा लिखि राहू‘ और राम से कही गई उनकी बात बहुत बारीक और खास है- ‘जौं केवल पितु आयसु ताता ...‘, केवल पिता की आज्ञा हो तो माता को बड़ी जान कर वन मत जाना, किंतु पिता-माता दोनों कहें तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या समान है। मगर खुलासा यह भी कहती हैं कि बड़ी रानी होकर भी छोटी सौतों से अप्रिय वचन सुनना पड़ेगा, तुम्हारे निकट रहने पर भी मैं उनसे तिरस्कृत रही हूं और बेहद मारक- ‘पति की ओर से मुझे सदा अत्यंत तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है, कभी प्यार और सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती हूं।‘ कौसल्या शायद कैकेयी और सुमित्रा के अलावा ‘त्रयः शतश्तार्धा हि ददर्शावेक्ष्यं मातरः‘ उन साढ़े तीन सौ सौतों के बारे में सोच रही हैं, राम वन-गमन के पूर्व जिनकी ओर दृष्टिपात करते हैं।

रामकथाओं के अंदर शामिल ऐसी राम-कथा, अध्यात्म रामायण में ही नहीं, अन्यत्र भी है। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के चौथे सर्ग में ही राजकुमार कुशीलव- कुश और लव, दोनों भाइयों को ‘काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत्। पौलत्स्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः।। सीता चरित युक्त संपूर्ण रामायण नामक महाकाव्य, जिसका एक नाम पौलस्त्यवध है, का अध्ययन कराया। कुश-लव द्वारा रामकथा गायन होने पर कहा गया है कि ‘चिरनिर्वृत्तमप्येतत् प्रत्यक्षमिव दर्शितम्। प्रविश्य तावुभौ सुष्ठु तथाभावमगायताम्।। सहितौ मधुरं रक्तं सम्पन्नं स्वरसम्पदा।‘ यानी ‘यद्यपि इस काव्य में वर्णित घटना बहुत दिनों पहले हो चुकी है तो भी इन दोनों बालकों ने इस सभा में प्रवेश करके एक साथ ऐसे सुन्दर भाव से स्वरसम्पन्न, रागयुक्त मधुरगान किया है कि वे पहले की घटनाएँ भी प्रत्यक्ष-सी दिखायी देने लगी हैं- मानो अभी-अभी आँखों के सामने घटित हो रही हों‘।। 

और फिर उत्तरकांड, तिरानबेवें सर्ग में पात्र-रूप में स्वयं वाल्मीकि द्वारा कुशीलव- कुश और लव को ‘कृत्स्नं रामायणं काव्यं गायतां परया मुदा‘ संपूर्ण रामायण-काव्य का गान करने के लिए कहने-गायन करने का उल्लेख आता है। मगर इसके पहले इकहत्त्रवें सर्ग में शत्रुघ्न अयोध्या जाते हुए रास्ते में वाल्मीकि आश्रम में रुकते हैं, वहां उन्हें रामचरित सुनने को मिला, जो पहले ही काव्यबद्ध कर लिया गया था। ... उस काव्य के सभी अक्षर एवं वाक्य सच्ची घटना का प्रतिपादन करते थे और पहले जो वृत्तांत घटित हो चुके थे, उनका यथार्थ परिचय दे रहे थे। साथ ही हरिवंशपुराण में बताया गया है वाल्मीकि के पहले रामकथा का गायन सूतों, चारण-कुशीलवों द्वारा किया जाता था और विष्णुपर्व में यदुवंशियों द्वारा ‘रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम्‘ रामायण का नाटक खेलने का उल्लेख है। मानस रामकथा, शिव-पार्वती संवाद या प्रश्नोत्तर, जिज्ञासा-समाधान है। देवताओं में शिव बड़े किस्सागो हैं। सबसे पुरानी लौकिक कथा ‘वृहत्कथा’ भी शिव द्वारा पार्वती को सुनाए गए किस्से है। यहां स्पष्ट होता है कि पार्वती रामकथा के किसी संस्करण से पूर्व-परिचित हैं, लेकिन उनके मन में कई जिज्ञासा-शंका है, जिसे दूर करने के लिए वे शिव जी से, उन शंकाओं के समाधानकारक रूप में रामकथा सुनना चाहती हैं।

कालिदास के रघुवंश, चौदहवें सर्ग में राज्य पाकर राम भवन में सीता सहित निवास कर रहे हैं, जहां वनवास काल के चित्र टंगे हैं, वे गर्भवती सीता से उनकी इच्छा पूछते हैं। सीता गंगा तटवर्ती तपोवनों को देखना चाहती हैं ... जहां उनकी तपस्वी कन्याएं सखियां रहती हैं और कुशा की झाड़ियां चारों ओर फैली हैं। इस पर राम कहते हैं, तुम्हें उस तपोवन में अवश्य भेजूंगा। यहीं गुप्तचर भद्र जनता द्वारा रावण के घर रही सीता को स्वीकार कर लिए जाने को अनुचित मानने की बात कहता है। प्रसंगवश राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि इसी प्रसंग में बन्धु शब्द का विशिष्ट प्रयोग है- तैंतीसवें श्लोक में ‘वैदेहिबन्धोः हृदयं विदद्रे- वैदेही-बन्धु राम का हृदय फट गया।‘ कालिदास ने ऐसा ही प्रयोग अन्यत्र मेघदूत के पूर्वमेध के छठें श्लोक में है, जहां यक्ष, यक्षिणी ‘बन्धु‘ का प्रयोग करता है- ‘विधिवशात् दूरबन्धुः- भाग्यवश जिसका बंधु (प्रियजन) दूर है। रवींद्रनाथ टैगोर अपने पत्रों में संबोधन ‘भाई‘ का प्रयोग करते थे, अपनी पत्नी के लिए भी- ‘भाई छुटि‘।

कालिदास के परवर्ती भवभूति के ‘उत्तररामचरित‘ का अंश उल्लेखनीय है, जिसके आरंभ में ही लक्ष्मण, राम से कहते हैं- ‘अर्जुनेन चित्रकरेणास्मदुप-दिष्ठमार्यस्य चरितमस्यां वीथ्यामभिलिखितम्। तत् पश्यत्वार्यः। ’ - अर्जुन चित्रकार ने हमारे आदेशानुसार आपके चरित्र को इस चित्रमय श्रेणी में चित्रित किया है। अतः आप इसे देखें। राम चित्रवीथि में जाने से पहले पूछ लेते हैं कि चरित्र कहां तक चित्रित किया गया है?, आगे वीथि में लक्ष्मण, सीता को चित्रों से परिचित कराते हैं। मांगलिक कृत्य कर विवाह के लिए दीक्षित चारों भाइयों का चित्र देख कर सीता कह पड़ती हैं- ‘ऐसा लग रहा है कि उसी स्थान एवं उसी समय में हूं।‘ आगे बढ़ते सीता-वियोग प्रसंग आते राम लक्ष्मण को टोकते हैं और लक्ष्मण कहते हैं ‘(गर्भवती) आर्या भी थक गई हैं, इसलिए निवेदन करता हूं कि विश्राम करें। यहीं नाटकीय पेंच आता है, सीता कहती हैं ‘मुझे लगता है कि फिर स्निग्ध और निस्तब्ध वनवीथियों में विहार करके पवित्र, स्वच्छ और शीतल जलवाली भगवती में स्नान करूं। और नाटक का अगला संवाद राम का है- ‘वत्स, अभी ही गुरुजनों का संदेश मिला है कि गर्भवती सीता की अभिलाषा शीघ्र पूर्ण होनी चाहिए। अतः अबाध गति वाला रथ उपस्थित करो।

उत्तररामचरित की चर्चा में नाटक के पांचवें अंक में राम पर व्यंग्यात्मक आक्षेप से कटाक्ष का उल्लेख होता ही है, जिसमें पात्र लव से कहलाया गया है- ‘वृद्धास्ते(वन्द्याः) न विचारणीयचरितास्तिष्ठन्तु किं(हुं) वर्ण्यते ... वे (राम) वृद्ध गुरुजन हैं, अतः उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, उनके लिए क्या कहें, सुन्द-पत्नी का (ताड़का-स्त्री पर शास्त्र-निषिद्ध प्रहार) वध कर देने पर भी निर्दोष कीर्ति वाले वे लोक में महान ही हैं। खर से युद्ध में तीन पग पीछे हटाए (वस्तुतः सन्निकट होने से बाण में तीव्रता नहीं आती, इसलिए पीछे हट कर संधान किया था) थे, इंद्र-पुत्र (वाली) के वध में जिस कौशल (ताल वृक्षों के ओट में छुप कर वार) का प्रयोग किया, उससे तो सभी परिचित हैं। परवर्ती टीकाकारों में इस अंश का खंडन-मंडन होता रहा है। इतना ही नहीं नाटक के पहले अंक में सीता निर्वासन का फैसला करने को मजबूर, व्यथित राम स्वयं के लिए ‘अतिवीभत्सकर्मानृशंसोऽस्मि, छद्मना परिददामि, अपूर्वकर्मचण्डालमयि‘ तक पहुंच जाते हैं।

वापस उत्तररामचरित, जहां चित्रवीथि है और प्रसंगवश, कालिदास के पूर्ववर्ती भास के प्रतिमा नाटक में प्रतिमाएं हैं। नाटक के तृतीय अंक में भरत, पिता दशरथ की मृत्यु से अनभिज्ञ अयोध्या लौट रहे हैं और नगर प्रवेश के पहले देवकुलिकाओं की प्रतिमा से परिचित होते हैं, जिनमें क्रमशः दिलीप, रघु, अज की प्रतिमा है, आगे बढ़ने से भरत घबरा कर पूछते हैं ‘क्या जीवितों की भी प्रतिमा स्थापित की जाती है?, जवाब मिलता है, ‘नहीं, केवल मृतकों की।‘ यह सुन कर भरत जाने की बात कहते हैं, मगर देवकुलिक कहता है- ‘ठहरो, जिन्होंने स्त्री शुल्क के लिए अपने राज्य और प्राण सब कुछ त्याग दिए, उन महाराज दशरथ की प्रतिमा के विषय में आप क्यों नहीं जानना चाहते।‘ यह सुनते ही आशंकित भरत मूर्च्छित हो जाते हैं। भास के दूसरे नाटक अभिषेक के अंत में राम, राज्याभिषेक के अवसर पर लक्ष्मण से कहते हैं- मंगलसूत्र बंध जाने पर और भद्रासन पर आरूढ़ करके भी जिन्होंने अम्बा की इच्छापूर्ति के लिए मेरा अभिषेक रोक दिया, वही हमारे पिता स्वर्गीय हो कर आज प्रसन्न हृदय से मेरा अभिषेक कर रहे हैं। प्रतिमा नाटक, रघुवंशम् और उत्तररामचरित के उपरोक्त उद्धरणों की नाटकीयता है कि राम के वन-गमन में सीता का अनजाने वल्कल धारण करना और गर्भवती सीता का वनवीथियों में विहार की दोहद-साध से उनका निर्वासन परोक्ष ही सही, उत्तरदायित्व स्वयं सीता पर है।

भवभूति के उत्तररामचरित के पूर्व का रामचरित उनका ‘महावीरचरित‘ है, जिसमें सीता-स्वयंबर से रावण-वध तक की कथा है। आरंभ में कथन है ‘वाल्मीकि ने रघुपति का चरित वर्णन किया है, भक्त होने के कारण हमारी वाणी भी उस पर अनुरक्त हो गई है।‘ राम-लक्ष्मण दोनों कुमारों ने जनक के बारे में सुन रखा है, विश्वामित्र से पूछते हैं- ‘जिनके घर में उस माहेश्वर धनुष की पूजा होती है।‘ तथा यह भी कि ‘वहां के बारे में यह भी अचरज सुना जाता है कि वहां अयोनिजा कन्या है।‘ राम धनुष-भंग के पूर्व सीता को देख कर कहते हैं- ‘सुंदर मूर्ति, ब्रह्मज्ञानी राजा पिता, यज्ञभूमि से उत्पत्ति, यह सब मुझे इस पर स्नेह करने को प्रेरित कर रहा है।‘ आगे राम और लक्ष्मण क्रमशः सीता और उर्मिला के प्रति- ‘ये कौन हैं जो अमृतवर्ति की तरह हमारी आंखों को आनंदित कर रही हैं।‘ उधर सीता और उर्मिला उन दोनों के प्रति- इन नेत्र हर्ष-जनकों की ओर दृष्टि क्यों लग रही है?‘ आगे यहां शूर्पणखा को मंथरा के शरीर में प्रविष्ट हुई बताया गया है और वही वन-गमन का आज्ञापत्र राम के हाथों सौंपती है।

कालिदास के रघुवंश का आरंभ सदाचारी राजा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा की संतान-कामना से होता है और समापन दिलीप-राम के उन्तीसवीं पीढ़ी वंशज दुराचारी अग्निवर्ण के संतानोत्पत्ति प्रसंग से होता है, यहां अनूठापन है कि अग्निवर्ण की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसकी पत्नी को गर्भ धारण किए देखकर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया। मान लें कि ऐसा गर्भस्थ शिशु को राजसिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में अनुमान करते किया गया हो, किंतु यह निश्चय कि गर्भस्थ शिशु पुत्र ही होगा, पुत्री नहीं, जो उत्तराधिकार प्राप्त करे, साथ ही किसी महिला के राज्याभिषिक्त होने का यह प्रसंग विशिष्ट है। स्त्री के राज्याभिषिक्त होने का उल्लेख वाल्मीकि करते हैं, जहां वसिष्ठ कैकेयी को फटकारते हुए यह भी कहते हैं कि देवी सीता वन में नहीं जाएंगी, राम के वन जाने पर उनके लिए निर्धारित राजसिंहासन पर सीता बैठेंगी।

वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड के तिहत्तरवें सर्ग में शंबूक वध प्रसंग में ‘अप्राप्तयौवनं बालं पंचवर्षसहस्रकम्‘ आया है, यानि पांच हजार वर्ष का बालक, जिसे यौवन प्राप्त नहीं हुआ है‘ चौंकाता है। मगर इसकी व्याख्या में बताया जाता है कि वर्ष का अर्थ यहां दिन समझना चाहिए। इस प्रकार बालक की आयु होगी तेरह वर्ष साढ़े आठ माह। बालकांड के प्रथम सर्ग में रामचंद्र दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च’ इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करने का उल्लेख आता है, इन वर्षों को दिन मानने पर अवधि लगभग साढ़े तीस वर्ष होगी और इसमें राज्याभिषेक के समय उनकी आयु के इकतालीस वर्ष जोड़ दें तो राम की आयु साढ़े इकहत्तर वर्ष बनती है। यहां उल्लेखनीय कि युद्धकांड के अंतिम एक सौ अट्ठाइसवें सर्ग में ‘‘राज्यं दशसहस्राणि प्राप्य वर्षाणि राघवः‘ आता है यानि राघव ने राज्य पा कर दस सहस्र वर्षों तक राज्य किया, यहां टीकाकार दस को ग्यारह बोधक मान लेते हैं।

ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जहां ठिठकना होता है, उनमें से एक वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के नवें सर्ग में सीता का कथन है- दूसरों के प्राणों की हिंसारूप जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं। वही दोष आपके सामने भी उपस्थित है ... मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूं तथा यह शिक्षा भी देती हूं कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना वैर के ही दण्डकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। युद्धकांड के एक सौ सोलहवें सर्ग में सीता के संभवतः सबसे कठोर वचन, राम के लिए कहती हैं- पहले ‘जैसे कोई निम्न श्रेणी का पुरुष निम्न कोटि की ही स्त्री से न कहने योग्य बातें भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे हैं और ‘‘लघुनेव मनुष्येण ... (ओछे मनुष्यों की भांति- गीताप्रेस के अनुवाद में) कह पड़ती हैं। इसी तरह तुलसी लंका कांड-110 में चौंकाते हैं यह कह कर- ‘आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी।।‘ - तदंतर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानों बड़े परमार्थी हों। और फिर दोहावली 349 में यह कह कर- ‘बलि मिस देखे देवता, कर मिस मानव देव। मुए मार सुबिचार हत, स्वारथ साधन एव।।‘ - बलिदान के बहाने देवताओं को और राज्य-कर (दण्ड) के बहाने राजाओं को देख लिया। दोनों ही स्वार्थ साधने वाले विचार शून्य और मरे को मारने वाले हैं।

वाल्मीकि रामायण के अन्य कई प्रसंग बहुत रोचक और विशिष्ट है। सुंदरकांड के तीसवें सर्ग में हनुमान-सीता के बीच वार्तालाप का प्रसंग, चूंकि उनका आपस में परिचय नहीं होता, हनुमान सोचते हैं कि वानर होकर भी मैं संस्कृत वाणी का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे छद्मवेशधारी रावण समझ लेंगी, ऐसी दशा में मुझे अयोध्या के आसपास की साधारण जनता वाली सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए, फिर भी मेरे वानर-रूप मुख से मानवोचित भाषा सुन कर वे भयभीत हो जाएंगी, अंततः बहुत सोच-विचार कर हनुमान ने रास्ता निकाल लिया। कहन के ढंग का एक नमूना अयोध्याकांड के चौंवालीसवें सर्ग में है- ‘सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्नि प्रभोः प्रभु ...‘ राम सूर्य के भी सूर्य, अग्नि के भी अग्नि, प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की भी उत्तम लक्ष्मी और क्षमा की भी क्षमा हैं। वे देवताओं के देवता और भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वैसा ही एक और कहन युद्धकांड के एक सौ सातवें सर्ग में है- ‘गगनं गगनाकारं सागरसागरोपमः ...‘ गगन गगन जैसा और सागर सागर की तरह वैसे ही राम और रावण के बीच युद्ध, राम-रावण युद्ध जैसा ही है। उत्तरकांड के बहुचर्चित और विवादित शंबूक वध प्रसंग में इस अजीबपन की ओर कम ध्यान दिया गया है कि धनुर्धारी राम ने ‘भाषतस्यस्य शूद्रस्य खड्गं सुरुचिाप्रभम् ..., संभवतः यहीं एकमात्र बार तलवार का इस्तेमाल किया है।

रामकथा साहित्य के कुछ अन्य ग्रंथों के रोचक अंशों को देखते चलें-

छठीं सदी का ‘रावणवध‘ रचयिता के नाम पर ‘भट्टिकाव्य‘ के रूप में जाना जाता है। इस पर पांचवीं सदी के प्राकृत ‘रावणवह‘ का प्रभाव देखा गया है। ग्रंथ में रामकथा निर्वाह से अधिक व्याकरण नियमों के उदाहरण दिए जाने पर जोर है। भट्टि स्वयं को महावैयाकरण कहते हैं। और अपनी इस कृति के लिए कहा है- ‘जिनकी दृष्टि व्याकरण के सूत्रों पर है उनके लिए यह काव्य दीपक का काम करेगा। पर व्याकरण के बिना ऐसा लगेगा जैसा अंधे के हाथ में दर्पण। वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा इसका कथासार तैयार किया गया था, विष्णु प्रभाकर द्वारा जिसका संपादन किया गया है, 1956 में प्रकाशित है। इस कृति का एक विशेष उल्लेखनीय प्रसंग अठारहवें सर्ग में रावण-वध के बाद सहोदर विभीषण का विलाप है, कुछ इस तरह- ‘उत्तम शय्या पर सोने वाले जमीन पर सो रहे हैं, मुझसे बात भी नहीं कर रहे हैं। ... मैं कैसे स्वस्थ रहूंगा, कैसे प्राण धारण करूंगा। ...(रावण के सपिण्डों के मांस को सियार नोच रहे हैं, लहू को जमीन पी रही है, चरबी आदि आमिष को चील-कौवे खा रहे हैं।) ... देवगण दर्पयुक्त दिशाओं में व्याप्त होंगे,आपसे की गई मर्यादा को छोड़कर, क्षुद्र वे लोग आपकी हंसी करेंगे और आपको क्षुद्र कहेंगे। ... आपके अतिरिक्त बंधुप्रिय अन्य कोई नहीं इसलिए उस स्थान के रिक्त होने पर रो रहा हूं, शोक के उदय को कैसे हटाऊं। आप जैसे बांधव से बिछुड़ कर, अनाथ मैं अपने लिए विलाप कर रहा हूं। मैं आपे उपकारों की इयत्ता नहीं जान रहा हूं। ... आप मुझसे बात नहीं कर रहे हैं तो मैं अपने शरीर को नष्ट कर डालता हूं। ... बांधवों के नष्ट होने के कारण विह्वल होकर मैं मुहूर्त के अनंतर ही निश्चय मर जाऊंगा... और यह कहते हुए जोड़ता है- हे महाराज! मैंने मंत्रविचार के समय में हित वचन कहा था, आपका अप्रिय नहीं किया था। तब रा उसे समझाते हैं- दानशील, शत्रुओं के सिर में रहने वाले, यज्ञ और पितरों को तर्पण करने वाले, युद्ध में सामना कर प्राणत्याग करने वाले रावण के विषय में क्यों शोक कर रहे हो। ... राज्य के धुरंधर तुम्हारे शोक से नष्ट होने पर राज्यभार धारण नहीं किए जाने से नष्ट हो जाएगा।

सातवीं सदी का ‘जानकीहरण‘ कुमारदास का काव्य है। इस पर राजशेखर का रोचक कथन है- जानकीहरणं कर्तुं रघुवंशे स्थिते सति। कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमौ।।‘ यानी ‘रघुवंश‘ (कालिदासकृत और रघुकुल) के रहते ‘जानकीहरण‘ (कुमारदास रचित काव्य और रावण द्वारा सीताहरण) संभव हुआ। दूसरे शब्दों में कालिदास के रघुवंश के रहते कुमारदास ही जानकीहरण रच सकते थे, ज्यों रघुवंश के होते हुए भी रावण ने सीताहरण कर सकता था। (राजशेखर उन्हें कालिदास के साथ खड़ा कर रहे हैं, मगर क्या रावण की तरह!) छठें सर्ग में विश्वामित्र जनक से पूछते हैं- ‘यह स्वर्ग में ले जाने वाला यज्ञ आप स्वार्थ के लिए कर रहे हैं या बिना किसी लालच के, गरीबों के प्रति उदारता से कर रहे हैं। धनी वर्ग से कर ले उसे गरीबों को देते हैं, जैसे मेघ नदियों से पानी ले कर पृथ्वी पर बरसाता है।‘ ... जनक को मालूम हुआ कि राम और लक्ष्मण, शंकर से परित्यक्त धनुष को देखना चाहते हैं। ... धनुष-भंग होता है। राम के लिए कहा गया है- ‘ज्ञानं विलोचनमिति प्रथिते तदीये नेत्रे उभे ...‘ निर्मल गुण और स्वभाव से युक्त, उनकी प्रसिद्ध आंखें थीं। एक दृष्टि चक्षु और दूसरी ज्ञान चक्षु। पहिली केवल कान तक पहुंचती थी, पर दूसरी समस्त वेदों के पार जाती थी। ... सातवां सर्ग सीता के सौंदर्य-वर्णन से आरंभ होता है, राम के मन में भाव उठ रहे हैं- ‘सीता जैसे रत्न को देख कर कामदेव ठीक ही अपने ऊपर बाण छोड़ता है और इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि वह मुझ पर भी बाणों का तीव्र आघात करता है।‘

दिंग्नाग के नाटक ‘कुन्दमाला‘ का काल, सातवीं से दसवीं सदी के बीच का, अनिश्चित है। कथा सीता-निर्वासन से आरंभ होती है इसलिए इसकी चर्चा रामायण के उत्तरकांड पर आधारित उत्तररामचरित के साथ होती है। सीता लक्ष्मण से पूछती हैं- माता कैकेयी ने पुनः वनवास की आज्ञा दी है? लक्ष्मण कहते हैं वनवास की आज्ञा तो हुई है, पर माता की ओर से नहीं, यह आज्ञा आर्य ने दी है। सीता व्यथित हैं, पर राम के लिए संदेश देती हैं- उनको नम्र निवेदन करना, मुझ अभागिनी के विषय में शोक करने से चारों वर्णों तथा चारों आश्रमों के पालन की उपेक्षाकरते हुए अपने आपको दुखी न बनाएं। ... भाई के स्वास्थ्य के प्रति भी सावधान रहना। लक्ष्मण के लौट जाने पर वाल्मीकि मिलते हैं। सीता गंगा से प्रार्थना करती हैं कि कुशल प्रसव पर प्रतिदिन कुन्द पुष्पों की माला अर्पित करूंगी।

नाटक का दूसरा अंक प्रथमा और वेदवती के संवाद से आरंभ होता है, जिससे पता चलता है कि सीता के दो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, जिनमें बड़े का नाम कुश और छोटे का नाम लव है। ... अब वाल्मीकि रचित रामायण पढ़ रहे हैं। ... राम-लक्ष्मण वनमार्ग में गोमती नदी में कुन्द पुष्पों की माला देखते हैं और उसके गूंथने का ढंग पहचान लेते हैं। ... प्रथमा, सखी यज्ञवेदी को बताती है कि तिलोत्तमा ने उससे कहा है कि वह दिव्य शक्ति से सीता का रूप बना कर राम के सम्मुख जाना चाहती है। ... राम सीता को वापस अपनाते हैं, वाल्मीकि उन्हें सीता का हाथ अपने हाथ में लेने को कहते हैं, राम लजाते हैं, तब वाल्मीकि कहते हैं लज्जा मत करो तुमने सबके सामने हाथ पकड़ा था। ... अब राम लक्ष्मण का अभिषेक करना चाहते हैं, मगर लक्ष्मण के आग्रह पर महारथी कुश सम्राट पद पर अभिषिक्त होते हैं और लव युवराज।

बालवाल्मीकि नाम से ख्याति वाले मुरारि का ‘अनर्घराघव‘ आठवीं सदी का नाटक है। नांदीपाठ के बाद सूत्रधार कहता है- ... किसी अन्य द्वीप से आए हुए कलहकंदल नामक नट ने रौद्र, वीभत्स तथा भयानक रस से ओतप्रोत कोई प्रबंध नित्यप्रति दिखला कर उद्वेजित कर दिया है। अतः आप मुझ नट को आज्ञा देकर कृतार्थ करें ... आगे सूत्रधार से वार्तालाप में कहता है- ‘सभी कविगण वाल्मीकि की कविता रूप मूलधन का ही तो उपजीवन करते हैं। ... यदि प्राचीन कवियों द्वारा वर्णित होने के कारण रामचंद्र के चरित को अपनी काव्यकला का आधार न बनावें, तो दूसरा रामचंद्र समान चरितनायक इस संसार में कहां पाया जाएगा...।‘ तीसरे अंक में धनुष-भंग की भूमिका बन चुकी है और रावण का पुरोहित शौष्कल आता है और रावण की प्रशंसा में यह भी कहता है कि त्रिपुरारि शिव के प्रसन्न हो जाने पर भी जब अनायास सभी सिर काट दिये, रावण वर प्राप्त करना चाहता भी था, परंतु याचनादैन्य-विमुख उसके सभी मुख ‘तुम मांगो, तुम मांगो‘ कह कर आपस में झगड़ने लगे ... उस रावण ने आपसे आपकी अयोनिजा कन्या सीता की याचना के लिए मुझे खुद भेजा है।

चौथे अंक में शूर्पणखा कहती है- मैंने यद्यपि कपट से यह मानुष रूप धारण किया है जो मेरे लिए घृणित है, फिर भी इससे मुझे यह बड़ा लाभ हुआ कि सुंदर विवाह वेष से वर्धित इन रघुकुमारों के दर्शन से धन्य हो गई, गुणों का यह स्वभाव होता है कि वह शत्रुनिष्ठ होकर भी सुखप्रद होते हैं। शूर्पणखा और माल्यवान की वार्ता के बाद परशुराम का प्रवेश और पात्र-जामदग्न्य के रूप में संवाद आरंभ होता है। कुपित परशुराम, राम से संवाद कर, याज्ञवल्क्य आश्रम जाने की बात होती है। ... ... ... वैदेही विवाहोत्सव के साथ दशरथ कहते हैं कि जामदग्न्य की जीत का आनंदोत्सव ही राम्र के अभिषेक का उत्तम अवसर है। तभी जनक-दशरथ के समक्ष आकर लक्ष्मण ‘आर्या मध्यमा अम्बा‘ की पत्री सौंपते हैं। ... नाटक का समापन राम के कथन से कराया गया है कि- ‘... विकसित होने वाले सूक्ति स्तवकों के रस से कविगण अनवरत धारा स्नान प्राप्त करें, और शब्दब्रह्म के रहस्य को बिना समझे लोग कवियों के गंभीर वचन में गुण-दोष का निर्धारण न किया करें।‘

केरल के महाकवि शक्तिभद्र का काल नवीं सदी स्वीकृत है। उनका संस्कृत नाटक आश्चर्यचूडामणि दक्षिण देश का सर्वप्रथम नाटक माना गया है। कहा जाता है कि यह नाटक आग में जल कर नष्ट हो गया था, किंतु शंकराचार्य ने अपनी स्मृति से समग्र पुनः लिखवा दिया। व्यक्ति की अक्षर-रूप पहचान उसके हस्ताक्षर से होती है। इसके पहले उसकी पहचान वस्तु-रूप मुद्रिका-अंगूठी से होती थी, प्राचीन साहित्य और लोककथाओं और परंपरा में यह स्थापित है। इसी का नाटकीय निरूपण आश्चर्यचूडामणि में है। नाटक के आरंभ में नटी दक्षिण दिशा से आए ‘आश्चर्यचूडामणि‘ नाटकरूप काव्यबंध जान कर आश्चर्य करती है। इससे जान पड़ता है कि यह दक्षिण का आरंभिक नाटक है और लोकप्रिय हो कर उत्तर में भी इसका प्रदर्शन होता था नाटक का आरंभ रामकथा के अरण्यकांड से होता है, जहां लक्ष्मण तपोवन में निवास के लिए पर्णकुटी बना रहे हैं।

नाटक में खर-दूषण वध के उपरांत ऋषिगण लक्ष्मण को कवच, राम के लिए अंगूठी और सीता के लिए चूडामणि देते हैं। रश्मि-समूह से व्याप्त यही मणि, ‘आश्चर्य चूडामणि‘ है और राम द्वारा धारण की गई अंगूठी अद्भुत है, जिससे माया-छल का भेद पा कर मूल ज्ञात हो जाता है, मायावी राक्षस तुरंत अपने स्वरूप में आ जाते हैं। सीताहरण के लिए सारथि, लक्ष्मण का रूप में है, शूर्पणखा, सीता का रूप धरती है और रावण राम का रूप धरता है और सीता को अपने रथ में बिठाकर हरण कर ले जाने लगता है। इस दौरान राम के साथ सीता रूप धरी शूर्पणखा और राम रूप धरे रावण और उनके प्रति शंकाजनित भ्रम में उलझाव है। सीता के चूडा-केश स्पर्श करते ही अपने वास्तविक रूप में आ जाता है। ऐसी रोचक नाटकीय परिस्थितियां नाटक में बनती हैं। मूल कथा अनुरूप ही अशोक वाटिका में मुद्रिका-चूडामणि विनिमय में हनुमान माध्यम बनते हैं। नाटक के अंतिम चरण में पुष्पक विमान पर सवार होते सीता रावण-माया का स्मरण कर आशंकित होती हैं, तब राम अंगूठी दिखा कर उन्हें आश्वस्त करते हैं।

नवीं-दसवीं सदी के राजशेखर का ‘बालरामायण‘ दस अंकों का विशाल नाटक है, जो एक बार में खेले जाने लायक नहीं है। इसे खेलने-देखने से अधिक पढ़ने वाला नाटक माना गया है। नाटक में ‘कोहल‘ पात्र है, जिन्हें उपरूपक या लोकनाट्यों का आचार्य माना जाता है। इससे राजशेखर का लोक-नाटकों से लगाव दिखता है। एकाधिक छद्मवेशी यहां भी हैं और नाटक के अंदर नाटक है। नाटक के तृतीय अंक में रावण स्वयं भरताचार्य कृत नया नाटक ‘सीता स्वयंबर‘ दिखाने को कहता है। नाटक के स्वयंबर में पांड्य, महिष्मती, चेदि, सिंहलेश्वर, मथुरा, अवन्ति, क्रथकैशिकराज, कुंतलेश्वर, कांचीपुर, लाट, मध्यदेश, ओण्ड्र, मगधेश्वर, काम्बोज, सौराष्ट्र, शकराज, नेपाल नरेश, आंध्रनरेश आदि अधिपति असफल होते हैं। रावण कहता है- मैंने उस समय जो शंकर का धनुष समझ कर तुझे छोड़ दिया था, उससे तुझे अपनी कठोरता का दर्प न हो ...। ऐसा कह कर रावण उठना चाहता है, इस पर पात्र प्रहस्त कहता है- ‘देव! नेयं जानकी न चेदमेन्दुशेखरं धनुः। रावण- तत्किमिदम्। प्रहस्त- प्रेक्षणकमिदम्।‘ देव! न तो यह जानकी है न यह शिव का धनुष है। नाटक के दृश्य के असर में विभोर रावण पूछता है, तो यह क्या है? प्रहस्त कहता है, यह तो नाटक है। नाटक में जनक सीता का हाथ राम को सौंपते हैं, यह दृश्य पर पुनः रावण को असह्य होता है। तब प्रहस्त स्वगत कहता है- रंगभूमि में प्रेम से मिथ्या जनक से प्रदत्त मिथ्या मैथिली को नट राघव के द्वारा हाथ से पकड़ा देखकर सहसा लंकेश्वर महाराज रावण के, जिनकी आँखें क्रोध से लाल हो गई हैं, हाथ अस्त्र लेकर उतावले हो रहे हैं और मुखों में दाँत पीसे जा रहे हैं। प्रकट में कहता है- राक्षसराज! नाटक प्रायः समाप्त हो गया अतः आप नर्तकों के अभिनय में चतुर बुद्धि और रस वृद्धि को देखें। तब रावण स्मरण कर लज्जित, स्वगत कहता है- क्या यह नाटक है! इसी अंक के अंतिम चरण का पद, जहां ऐसी रस-वृष्टि है कि बरबस ठिठकना होता है- ‘दिवससन्ध्यावरवध्वोर्वहति विवाहाग्निविभ्रमं भानुः। लाजायते च साक्षादुत्तरलस्तारकानिकरः।।' यानी सूर्य दिन और संध्या रूप वर-वधू के विवाहाग्नि का विभ्रम धारण कर रहे हैं तथा चमकता तारा-समूह लाजा का रूप धारण कर रहा है।

नाटक के पांचवें अंक में बताया गया है कि मंदोदरी के पिता मायाचार्य मय के प्रथम शिष्य विशारद नामक यंत्रकार द्वारा सीता की प्रतिकृति, यंत्र-जानकी बनाई गई, लकड़ी के शरीर वाली यंत्र निर्जित, सूत्रधार द्वारा चलेगी और मुख में स्थित सारिका द्वारा बोलेगी, सत्यभूत जानकी जैसी ही है। यही नहीं सीता की धाय सिन्दूरिका भी बनाई गई है। छठें अंक में यहां शूर्पणखा माया से कैकेयी बनी, मायामय दशरथ बना और शूर्पणखा की मंथरा नामा सेविका कैकेयी की प्रिय मुंहलगी मंथरा बनी। (महावीरचरित और अनर्घराघव में भी शूर्पणखा मंथरा का रूप बनाती है) इस तरह राम को वनवास का आदेश देने वाले वास्तविक नहीं छद्म दशरथ, मायामय था। इसलिए नाटककार ने इस अंक का शीर्षक ‘निर्दोष दशरथ‘ रखा है।

दामोदर मिश्र संकलित ‘हनुमन्नाटक‘ का एक अन्य संस्करण मधुसूदन मिश्र संपादित ‘महानाटक‘ है। इनका काल दसवीं सदी माना गया है, जिसमें बाद में प्रक्षेप भी जोड़े गए हैं। इसी नाम से 17 वीं सदी का हृदयराम कृत हिंदी रचना भी है। संस्कृत नाटक के लिए प्रचलित किस्सा में, इसे स्वयं हनुमान रचित बताया जाता है। कहा जाता है कि हनुमान ने इसे अपने नखों से शिलाखंडों पर उकेरा था। इसे वाल्मीकि ने देखा तो सोचा कि इस विशद रचना के सामने उनके रामायण की क्या महत्ता रह जाएगी और उनकी यह सोच जान कर हनुमान ने उदारतापूर्वक, कहीं राम के निर्देश पर और कहीं खिन्न मन हनुमान ने शिलाखंडों को समुद्र में डुबा दिया, जिसका उद्धार भोज विक्रमादित्य ने कराया। सूत्रधार या विदूषक रहित इस नाटक को लीला मंडलियों द्वारा खेले जाने वाला माना जाता है। मैक्समूलर ने इसे नाटक विकास की प्रारंभिक अवस्था का रूप माना है।

हनुमन्नाटक का अंक 2 निषिद्ध जैसा अतएव चर्चित है, इसमें राम-सीता के एकांत विहार का चित्रण, आस्थावान भक्त पाठकों की भावना आहत कर सकने वाला है। यहां उसके एक अंश का उल्लेख, जिसमें राम के मुंह में चंदन, कपूर, सुपारी आदि मसाला वाले पान का बीड़ा है। पान-बीड़ा के चार कौर को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप हैं, मूल इस प्रकार है- ‘मेने तस्यास्तदनु कवलान् धर्मकामार्थमोक्षान्। रामः कामं मधुरमधरं ब्रह्म पीत्वाऽपि तस्या।। फिल्म ‘सौदागर‘ का गीत ‘क्यों लाए सैंया पान ...‘ की पंक्तियां संभवतः इसी से प्रभावित है। अंक 3 में राम के अभिषेक की तैयारी हो रही है। तभी सीता के हाथ से सोने का कलश छूट कर सीढ़ियों पर गिरता है- ‘रामाभिषेके मदविह्वलायाहस्तच्युतो हेमघटस्तरुण्याः। सोपानमार्गे प्रकरोति शब्दं ठंठं ठठंठंठठठंठठंठः।। इस पर कैकेयी, बहू सीता को अमंगली बताते अपनी बात के लिए भूमिका तैयार करती है। (‘टटंटटंटं...‘ के प्रयोग वाला ऐसा ही पद सोलहवीं सदी के बल्लालसेन रचित 'भोज-प्रबंध' में कालिदास द्वारा समस्यापूर्ति के रूप में आया है।) समापन होता है- ‘पवनकुमार हनुमान जी द्वारा प्रणीत, जिस ‘महानाटक‘ को अमर समझ कर, वाल्मीकि ने सागर में स्थापित करवा दिया, नीतिज्ञ राजा भोज ने जिसका उद्धार कराया एवं दामोदर मिश्र ने जिसका क्रमबद्ध संकलन किया वह निखिल जगत का कल्याण करे।।‘

विदर्भ वाले जयदेव का नाटक ‘प्रसन्नराघव‘ 13 वीं सदी रचना है। लंबी भूमिका के बाद नाटक-कथा, सीता-स्वयंबर से आरंभ होती है। नट-सूत्रधार संवाद में आता है कि दक्षिणी अधम नट ने रंगविद्याधर पदवी का अपहरण कर लिया था, दक्षिणी राजाओं की सभा में उससे रंगयुद्ध होता था। आगे नट कहता है, ‘उन्होंने (नाटककार जयदेव ने) इस सूक्तिरत्न कृति की चोरों से रक्षा करना।‘ इस पर नट कहता है- कर्णे निधाय च पिधाय च कण्ठपीठे ...‘ इसे कान में रख कर, कण्ठ स्थान में छिपा कर, सिर पर धारण कर और विनम्र हृदय में रख कर सदैव सुरक्षित रखूंगा।‘ दूसरे अंक में राम-सीता फुलवारी प्रसंग विस्तार से है। इसमें सखी, सीता से पूछती है, तुम्हारा चित्त कहां लगा हुआ है। सीता जवाब देती हैं, आराम (बगीचा) में। सखी हंस कर कहती है, ‘अहो! ते चातुर्यम्, यत् आकारप्रकटनेनैवाकारगुप्तिं कृतवत्यसि।’ तुम्हारा चातुर्य, जो ‘आ‘ अक्षर के प्रकाशन से ही अपने भाव को छिपा लिया। तीसरे अंक में धनुष-भंग के पहले ही जनक से संवाद में विश्वामित्र कह देते हैं कि दशरथ ने चन्द्र-सदृश सुंदर शरीर वाले राम को और आपने कुमुदिनी-सी लोगों के नेत्र को आकृष्ट करने वाली सीता को पैदा किया है।

धनुष-भंग की भूमिका वामनक-कुब्जक के वार्तालाप में है। स्वयंबर के दृश्य का विवरण मंजीरक-नूपुरक संवाद में है। धनुष-भंग और वरमाला का चित्रण प्रतीहारी-कंचुकीी संवाद से किया गया है। पांचवें अंक में पात्र गंगा-यमुना, वन-गमन और बालि-सुग्रीव प्रसंग की चर्चा में गंगा कहती है कि ‘ब्रह्मलोक से आई सरस्वती के मिलन-सुख में व्यग्रचित्त होने के कारण वृत्तांत ज्ञात नहीं। आओ! सरयू निकट ही है, उन्हीं के मुख से जान लें। सरयू के माध्यम से राम वन-गमन का प्रसंग बताया गया है आगे की कथा हंस बताता है। इसी क्रम में सागर, गोदावरी, तुंगभद्रा पात्र भी आते हैं। छठें अंक में लक्ष्मण, रत्नशेखर-चम्पकापीड की वार्ता सुनकर, राम का ध्यान आकृष्ट कराते हैं, जिस वार्ता में इन्द्रजाल से दृश्य उपस्थित हो रहा है। इस ऐन्द्रजालिक दृश्य में राम, सीता को देख कर उतावले हो जाते हैं और कहते हैं ‘प्राप्तेयं प्रेयसी‘, प्रियतमा मिल गई। तब लक्ष्मण, राम से कहते हैं, भ्रमित न हों, यह तो विद्याधर द्वारा प्रकट किया इंद्रजाल है। सातवें अंक में राम-रावण युद्ध का विवरण भी विद्याधर-विद्याधरी संवाद के माध्यम से है।

संत सूरजदास-कृत भोजपुरी-अवधी ‘रामजन्म‘ (संभवतः अन्य नाम ‘सीतापद‘) लगभग 1470 ईस्वी की रचना है। यह तिथि तुलसी मानस से एक सदी पूर्व की है, इसी काल का एक अन्य ग्रंथ लालचदास कृत ‘हरिचरित‘ ज्ञात है। ‘रामजन्म‘ की कथा दशरथ के आखेट, श्रवण, श्रृंगी ऋषि का यज्ञ और हविःशेष रानियों को देने के आदेश के साथ आरंभ होती है। कुछ अंश- श्रवणकुमार के माता-पिता के लिए बढ़ई ने तीन दिन, तीन रात में कांवर तैयार किया। ... ‘कांवर गढ़ि बढ़ई लेइ आवा। दूनो कान के सोना पावा।। एहि सोना से मोहि न कामा। देहु असीस अमर होए धामा।। सुनि के अंधा दीन्ह असीसा। जियो बढ़ई तुम लाख बरीसा।। खेती मति करहु बेनिज जनि जाहू। काठ कमाइ घर बैठे खाहू।।‘

स्वयंबर के धनुष-भंग प्रसंग में ‘छूवे पारे कहु ना, जो छूवे तेहि खाए। दीप-दीप के राजा, छुइ छुइ गए लजाए।।‘ विभिन्न द्वीपों के राजा आए हैं, धनुष को छू-छू कर (असमर्थ पा) लजा रहे हैं। ... सीता को मां ने गिरिजा पूजन के लिए भेजा है, पूजा कर के बाहर आती सीता को देख कर राम कहते हैं यही जनक-सुता हैं, ‘भुजा फरकि मोहि सगुन जनाई’ यह बात सुन कर सीता अपने हृदय में विधाता से मनाती हैं, और ‘दीन्ह असीस उमा तब, मनवांछित होए काम। सामी मिली हैं तोहि कह, अब आए श्रीराम।।‘ राम धनुष-भंग करते हैं- ‘बीरन देखा राम जब, मनुख धरा तब तान। बाएं कर धरि राम तब, तोरु पिनाक पुरान।।‘ ... विवाह होने लगा, राम, सीता के मांग में सिंदूर भरते हैं, ‘सेंदुर बंधन सो भए बिबाहा। हरख आनंद सुनैना मांहा।।‘ ... विवाह उपरांत नववधू आई है, दशरथ की रानियां, राम की माताएं असमंजस में हैं- सीता-राम, जगन्माता-जगत्पिता हैं- ‘सभ रानी अस बोलहीं, बटा कहौं तो पाप। सीता सभकी माता, राम सभन के बाप।।‘ और यहीं यानी राम के अभिषेक और वन-गमन प्रसंग के पहले पोथी पूरी हो जाती है।

रामराजा मंदिर वाले ओरछा के भक्तिकाल के ‘उडुगन‘ केशवदास की रामचंद्रिका की विशेष चर्चा रावण-अंगद संवाद के लिए होती है। अध्येताओं ने माना है कि तुलसी के संवादों पर हनुमन्नाटक का प्रभाव है वहीं केशव पर प्रसन्नराघव का। बहरहाल इस चर्चित संवाद का एक अंश-
कौन के सुत? बालि के, वह कौन वालि न जानियै?
काँख चाँपि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानियै
है कहाँ वह? वीर अंगद देवलोक बताइयो
क्यों गयो? रघुनाथ-यान-विमान बैठि सिधाइयो।

किष्किंधा कांड के अंत में दूत हनुमान के वाल्मीकि रामायण वाला संवाद-कौशल उल्लेखनीय है, उसी तरह अब की राम ने अंगद पर भरोसा जताते दूत बना रावण के पास भेजा है। अंगद के वाक्चातुर्य के अलावा रावण का संवाद भी कम नहीं, जहां वह अंगद को उसके ‘पितृहन्ता‘ राम के विरुद्ध करने का प्रयास करता है- ‘नील, सुखेन, हनू उनके नल ... अंगद संग लै मेरो सबै दल आजुहिं क्यों न हतौ वपु मारे।‘ नील, सुखेन, हनुमान और नल चार ही वीर तो उनके पक्ष में हैं और समस्त कपि-सेना तो तेरी है। अतः आठों को आठों ओर बलिदान करके तू अपने बाप को मारने का बदला लें। ... यदि तू डरता है तो मेरी समस्त सेना को ले जाकर आज ही अपने बाप के हत्यारे को क्यों नहीं मारता। अविचलित अंगद इस भेद-नीति से अप्रभावित है, कहता है पहले अपने सिरों और भुजाओं की रक्षा कर लो, तब और किसी की रक्षा की सोचना। इस पर रावण फिर कहता है- ... तेरो कह्यो दूत सबै सहौं रे, वै जो सबै चाहत तोहि मार्यो ... राम-सुग्रीव तो तुझे मुझसे मरवाना ही चाहते हैं, इसीलिए तुझे दूत बनाकर यहाँ भेजा है ... तू शत्रुओं के बीच घिरा रहता है, किसी दिन जरूर मारा जाएगा।

केशव अतियों के कवि माने जा कर आलोचना के पात्र भी बनते हैं। अग्नि में बैठी सीता के लिए पचीसों उत्प्रेक्षाएं हैं, जिनमें पिता की गोद में कोई पवित्राचारिणी कन्या, महादेव के नेत्र की पुतली, कमल में कमलकंद, कमल के बीजकोष पर लक्ष्मी सूर्यमंडल में कमलिनी, कमल पर बैठी सरस्वती, तक्षक के फण पर मणि-ज्योति, अशोक वृक्ष पर बैठी बनदेवी आदि और अंत में ज्यों केशव के हृदय में रामभक्ति।

असम के कार्बी या कारबि समुदाय का उन्हीं की भाषा में गाया जाना वाला रामायण ‘छाबिन (साबिन) आलुन‘ है। यह गाथा माधव कंदली रामायण से प्रेरित मानी जाती है। गाथा में छिनता कुंरी (सिंता या चिंता कुंगरी) यानी सीता कुमारी का जन्म मोरनी के अंडे से होता है, जो अंडा ग्वालों को गाय चराते हुए मिला, जिसे राजा को सौप दिया गया था। स्वयंबर की खबर पा कर राम और लक्ष्मण स्वयं वहां जाने का निर्णय लेते हैं। स्वयंबर में रावण असफल होता है और राम धनुष को उसी प्रकार तोड़ डालते हैं, जैसे हाथी गन्ने को। विवाह पश्चात घर लौटते राम-छिनता-लक्ष्मण के रास्ते में जंगल के पशु-पक्षी अवरोध पैदा करते हैं। लक्ष्मण उन्हें खदेड़ते हैं और राम शाप देते हैं कि संसार में मनुष्यों की संख्या में वृद्धि होगी और उससे प्रभावित हो कर पशु-पक्षियों की संख्या घट जाएगी। ... वनवासी छिनता, थेछ‘माहादि (सबिन या साबिन?) यानी शूर्पणखा की प्रशंसा करते हुए लक्ष्मण को उससे शादी कर लेने को कहती हैं। यह भी कहती हैं कि राम-लक्ष्मण बाहर चले जाते हैं तो वे अकेली रह जाती हैं, भोजन पकाने और अन्य कामों में मदद के लिए उन्हें सहेली की आवश्यकता है। ... सीताहरण हो जाने पर लक्ष्मण, राम को स्वयं भोजन बनाने को और एक ही थाली में भोजन करने की बात कहते हैं। भोजन बनाने के लिए राम एक लकड़ी से आग जलाने का असफल प्रयास करते हैं, लक्ष्मण उन्हें तीन लकड़िया जलाने का सुझाव देते हैं और पकाने के लिए बर्तन रखने के लिए तीन जागि-ठिहां की जरूरत होती है। इस पर लक्ष्मण कहते हैं कि इसी तरह हम दो नहीं रह सकते हमारे साथ भाभी को भी रहना चाहिए। इसलिए हमें जल्दी भोजन कर भाभी की खोज में निकलना चाहिए। ... कहानी इसी प्रकार स्थानीय परिवेश में रंगी, आगे बढ़ती है।

‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि’ कह कर तुलसी ने छूट ली है अन्यत्र-लोक से लेने या मौलिक रचने की। ऐसी छूट लेते कुछ प्रसंग, जैसा मैंने किसी कथा वाचक से सुना है- लंका विजय के बाद सबको विदा करते हुए हनुमान की बारी आने का है। रामचंद्र जी हनुमान के प्रति शायद सर्वाधिक ‘थैंकफुल‘ हैं। वे अपनी भावना हनुमान से व्यक्त करने के लिए सोचते हुए ठहर जाते हैं। बहुत बारीक बात आती है, रामचंद्र जी कहना चाहते हैं कि मुझ पर आए संकट में जिस तरह तुम सहायक बने वैसा तो और कोई हो नहीं सकता। राम के लिए हनुमान ‘तुम मम भरत सम भाई’ और ‘तुम मम प्रिय लछिमन ते दूना‘ हैं ही। मगर उन्हें यह भी लगा कि प्रत्युपकार सोचने में निहित होता है, उपकारी पर विपत्ति आएगी ‘मय्येव जीर्णता यातु यत् त्वयोपकृतं ..., यह ठीक नहीं, इसलिए राम काष्ठ मौन, निःशब्द हैं।

कृत्तिवास रामायण में राम के अभिषेक के बाद सीता, हनुमान को भोजन परोसती हैं, मगर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पातीं। ध्यान लगाकर समझ पाती हैं कि हनुमान शिव के अवतार हैं और शिव-वंदना कर हनुमान को भोजन-तृप्त करा पाती हैं। सीता रसोई से जुड़ी दो कथाएं, जिनका संदर्भ मेरी जानकारी में किसी ग्रंथ में नहीं, इन्हें मैंने लोक में प्रचलित सुना है। पहली, जिसमें कहा जाता है कि रामभक्तों को कटहल नहीं खाना चाहिए, क्योंकि भगवान राम ने स्वयं अपने भक्तों को इसे खाने से मना किया है। हुआ यों कि रामचंद्र को सदल-बल ससुराल में भोज का न्योता मिला। भोज में सारी ऋक्ष-सेना को तो जाना ही था। रामचंद्र जी को चिंता हुई कि पंगत में बैठे बंदर किस तरह पंगत-अनुशासन का पालन करते हुए भोजन करेंगे। हनुमान से मशविरा हुआ और नेता जामवंत को जिम्मा सौपा गया। जामवंत ने वानर-यूथ को समझाया कि पंगत में मेरी ओर नजर रखना, जैसा मैं करूं, तुम सब भी वैसा ही, अनुकरण करना। पंगत बैठी, भोज आरंभ हुआ। अनुशासनबद्ध बंदर कसमसाते रहे, भोजन स्वादिष्ट मगर उसमें उन्हें कोई आनंद नहीं, खाने से अधिक ध्यान जामवंत पर। भोज में कटहल की सब्जी परोसी गई थी। जामवंत कटहल के बीज से गिरी खाने के लिए उसे बीच से दो भाग करते हैं और गिरी निकालने के लिए बीज को नीचे से दबाते हैं, यहीं गड़बड़ हो जाती है, गिरी का टुकड़ा उछल जाता है, इस चूक को संभालने के लिए जामवंत गिरी के उछले टुकड़े को लपकने की कोशिश करते हैं, जो और भारी चूक साबित होती है। सारे बंदरों को लगता है कि कटहल की गिरी को इसी तरह खाना है, बस उछल-कूद शुरू और सारी पंगत, सारा भोज मटियामेट। ससुराल में जगहंसाई हो जाती है। और फिर रामचंद्र जी का अपने भक्तों के लिए फरमान जारी ...

दूसरी कहानी पाक-पारंगत सीता जी की, जिसमें सारे ऋषि-मुनियों को भोज पर आमंत्रित किया गया है। पाकशाला की सारी जिम्मेदारी स्वयं सीता जी ने अपने पर ले रखी है। तरह-तरह के सुस्वादु व्यंजन। पंगत बैठती है, सारे आगंतुक एक-एक व्यंजन का स्वाद लेकर भोज का आनंद लेने लगे। सभी ‘आइटम‘ एक से बढ़ कर एक। एक अपवाद थे, जिन्होंने परोसा गया सारा भोजन-व्यंजन एक साथ मिला दिया था, ‘सड्ड-गबड्डा‘ और ‘जेंव‘ रहे थे। जिन्होंने देखा, भृकुटि तन गई, ऐसे सुस्वादु व्यंजनों के साथ ऐसी जाहिलाना हरकत! हालत आ गई कि उनसे पूछ लिया गया कि आप ऐसा गड़बड़ क्यों कर रहे हैं?, ऐसे में व्यंजनों के स्वाद का क्या ही पता लगेगा, सारी रसोई का अपमान है यह। उन्होंने कहा- मैं पूरा स्वाद लेकर खा रहा हूं, दरअसल दाल में शायद चुटकी भर नमक कम है। सब लोग हैरान। बात सीता जी तक पहुंची। सीता ने उन ऋषि को आ कर प्रणाम किया और बताया कि मेरी रसोई की सच्ची परीक्षा इन्होंने ही की है, वास्तव में दाल बनाते हुए नमक कम पड़ गया था, जब तक नमक आता, तब तब पंगत बैठने लगी तो जितना नमक था, एक चुटकी कम, उतना ही डालकर दाल बनी और परोस दी गई।

टीकाकारों ने लोक-मन को समझने की कोशिश की होगी? पता नहीं। कटहल-निषेध और नमक-अल्पता पर तुक्का भिड़ाने की कोशिश की जा सकती है, क्यों न दूर की कौड़ी हो। अधिकतर तो कली, कली से फूल और फिर फल आता है, पर एक गुलाब है, जो फूलता है, मगर उसके फल का पता नहीं लगता। वहीं गूलर और बेल की तरह कटहल के फूलों का ठीक पता नहीं लगता, सीधे फल दिखता है, वह भी तने पर और कई बार जड़ से जुड़ा। तो क्या रामजी की समझाइश है कि सीधे फल की आशा से बचो, फूलो तब फलो, ज्यों फलो-फूलो का आशीर्वचन। या किसी कल्पनाशील रामभक्त के प्रत्यक्ष अनुभव, भोगे हुए यथार्थ को ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं‘ ..., के भरोसे राम के नाम पर गढ़ दिया। या कि भोजन का षटरस संतुलन वही है, जब वह समरस हो। तब लगता है कि गांधी के अस्वाद में शायद समरसता का रामरस होता था।

एक बार कुंभकर्ण ने रावण से पूछा- तुम माया द्वारा राम का वेश धारण करके क्यों नहीं सीता को छलपूर्वक भोगते हो? रावण का उत्तर था- क्या करूं, रामरूप धारण करने पर, मेरी वासना ही शांत हो जाती है, सारी कामतृषा ही समाहित हो जाती है। अब इस युग में तो रूप धरने की भी जरूरत नहीं, ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।‘

इसी तरह हरि अनंत, हरि कथा अनंता ..., राम चरित सत कोटि अपारा ... और ‘यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत् तिष्ठति मेदिनी। यावच्च मत्कथा लोके ... जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, जब तक पृथ्वी रहेगी, संसार में यह कथा प्रचलित रहेगी...‘ यों यह सारा संसार दृश्य-प्रपंच ‘सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे‘ है, जिसे कोई सत्य, कोई मिथ्या और कोई दोनों को जगत का कारण रूप सत्य मानते हैं, तो तुलसी कहते हैं- कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ,जुगल प्रबल कोउ मानै। तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै।।

तो फिर इसी तरह सीता की रसोई हो न हो, षटरस-समरस हो न हो, रामनाम रस पीजै मनवा ...

राम का नाम लिख दो,
कैसा भी पत्थर तैर जाता है,
पार लग जाता है,
जैसे मेरी यह चौपदी।
000
टीप :

0 ध्यान जाता है कि वाल्मीकि रामायण या तुलसी मानस के मूल! तक पहुंच कैसे हो और पहुंच भी गए तो अपने समझ की सीमा है। पता लगता है कि वाल्मीकि रामायण के मुख्य तीन- दाक्षिणात्य, गौड़ीय और पश्चिमोत्तरीय (एक अन्य, बंबई का देवनागरी संस्करण) पाठ हैं, जिनके आधार पर गीता प्रेस वाला सर्वसुलभ संस्करण तैयार किया गया है। चित्रमय पांडुलिपि-प्रति वाला रामचरितमानस अब 2024 में यूनेस्को के ‘मेमोरी ऑफ वर्ल्ड एशिया-पैसिफिक, रीजनल रजिस्टर‘ में शामिल की खबर के साथ जिज्ञासा होती है कि वह कौन सा संस्करण है, सर्व-मान्य या कोई विशिष्ट पाठ वाला। यों, गीता प्रेस गोरखपुर से छपे मानस का संस्करण मानक की तरह स्थापित है, मगर यहां तक पहुंचने की यात्रा का अनुमान मानस की विभिन्न प्रतियों-स्रोतों और उनका चयन, पाठालोचन को देखने से पता लगता है। तुलसी स्वयं अपना स्रोत ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि‘ के साथ ‘मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत‘ बताते हैं।

0 विभिन्न स्रोतों की जानकारी के लिए एक प्रमुख, हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा 1949 में प्रकाशित, मूर्धन्य पाठालोचक माताप्रसाद गुप्त सम्पादित ‘राम चरित मानस का पाठ‘ (तुलसी ग्रन्थावली, भाग 1, खण्ड 2) पुस्तक है। पुस्तक की प्रस्तावना में सम्पादक ने भारत कला भवन काशी, श्री शंभुनाथ चौबे, श्री कमलाकर द्विवेदी, काशी नरेश महाराज श्री विभूतिनारायण सिंह, श्रावण कुंज के महंत श्री जनक किशोरी शरण, राजापुर के श्री मुन्नीलाल उपाध्याय, मिर्ज़ापुर के श्री हरिदास दलाल, बहोरिकपुर के श्री धनंजय शर्मा, और मुँगरा बादशाहपुर की हिंदू सभा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है, जिन्होंने अपनी प्रतियों के उपयोग की सुविधा उन्हें दी। साथ ही पुस्तक के आरंभ में अन्य महत्वपूर्ण विभिन्न प्रतियों की परिचयात्मक सूची दी है, जिनके अधार पर मानस का ‘मूल-शुद्ध‘ पाठ तैयार करने का उद्यम हुआ। अब नयी खोज और तथ्यों के साथ 2019 में ‘रामचरित मानस की पांडुलिपियां, ज्ञात-अज्ञात तथ्य‘, उदय शंकर दुबे और डॉ. विजय नाथ मिश्र की पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिससे इस विषय पर और प्रकाश पड़ता है।

0 क़ामिल बुल्के की ‘रामकथा-साहित्य की तालिका‘ में पौराणिक ग्रंथों को छोड़कर भी 1700 ई. तक के शताधिक रामकथाओं की कालक्रमवार सूची है। ए.के. रामानुजन का लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायंस ...’, वस्तुतः शोध-निबंध है, पाठ्यक्रम में होने से इसकी पहुंच विद्यार्थी और अध्येता तक थी, 2011 में इस पर हुआ विवाद उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा, नतीजा कि इसके बाद यह आम पाठकों तक मूल और अनुवाद सहित, सहज पहुंच गया। तुलसी कहते हैं- रामकथा कै मिति जग नाहीं ... ... रामायन सत कोटि अपारा। इस विवरण के पीछे मंशा यह है कि किसी शब्द-पद को ले कर भावुक या उत्तेजित हो जाना ठीक नहीं। इन ग्रंथों से इतिहास, भूगोल और समाज की झलक मिलती है, किंतु उन्हें इन विषयों का पाठ्य-पुस्तक नहीं मान लेना चाहिए। जो इन ग्रंथों में निहित काव्य, भक्ति और अध्यात्म का रस ले सके, बुद्धिभेद से भावअभेद तक पहुंच सके, वही इनका सत्पात्र पाठक हो सकता है। 

0 लोकापवाद, रामकथा से जुड़ा रहा है। लंका विजय के पश्चात लोकापवाद की उपेक्षा न करते हुए सीता-निर्वासन का निर्णय लेते हैं। राम का अन्य जाति-वर्ग के सदस्यों के साथ सम और आदर का व्यवहार रहा है। दूसरी तरफ खल, संत-असंत, साधु-असाधु, भल-अनभल वंदना करते हुए तुलसीदास यह भी जोड़ते हैं- ‘कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना।।‘ ‘कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना।।‘ और ‘एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका।।‘ एक उल्लेख यह भी कि- ‘शैतान बाइबल के उदाहरणों और वचनों का इस्तेमाल खुद के पक्ष में कर सकता है, जैसा उसने यीशु को प्रलोभन देते समय किया था, लेकिन वह हमेशा शास्त्रों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है; इसलिए, विश्वासियों को परमेश्वर के वचन (बाइबल) को गहराई से जानना और उस पर टिके रहना चाहिए ताकि उसके झूठ और आरोपों का सामना कर सकें। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में मेरी आस्था विशेषकर इसलिए है कि इनमें संदेह, जिज्ञासा, प्रश्न, आपत्ति, छल-प्रपंच, भ्रम और अन्य दृष्टिकोण समानांतर चलता है, ताकि पाठकीय तर्कना और विवेक उन्नत हो। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते वाल्मीकि के प्रति कौसल्यायन की पुस्तक, तुलसी पर विश्वनाथ संपादित पुस्तक और आचार्य तुलसी की पुस्तक ‘अग्नि परीक्षा‘ की संक्षिप्त चर्चा-

भदंत आनंद कौसल्यायन की ‘राम कहानी राम की जबानी‘ 1970 में प्रकाशित हुई और विवादों रही। पुस्तक की ‘राम-कहानी क्यों?‘ शीर्षक भूमिका में लिखते हैं- ‘यदि श्रीराम अपनी प्राण-प्रिया सीता के रावण द्वारा हर लिये जाने पर एक प्राकृतिक जन की तरह रोते बिलखते हैं, तो उसी में तो उनकी मानवीय संवेदन-शीलता के दर्शन होते हैं। वाल्मीकी की जिस तूलिका ने मानवीय ‘राम‘ के इस अद्भूत स्वरूप को अपने छंदो में आबद्ध किया, वह तूलिका ही भारतीय अक्षर-परम्परा की धरोहर है।‘ आगे राम-कहानी कहते उनकी टिप्पणियों से लगता है कि उन्होंने विवरणों की साहित्यिक अभिव्यक्ति को इकहरेपन में देखा है और अधिकतर थोथे तर्कों का सहारा लेते हैं, जिसका उद्देश्य कुल जमा धार्मिक-भावनाओं पर आघात करना ही रह जाता है।

फिर भी नमूने के लिए पुस्तक से एक उदाहरण लेते हैं, जिसमें वे ‘राम की जबानी‘ लिखते हैं- ‘मेरी माता कौशल्या के ही साथ राज्याभिषेक हुआ था। वह क्षत्रिय जाति की थी। मेरी दूसरी माता अर्थात् सुमित्रा वैश्य जाति की थी, और मेरी तीसरी माता कैकयी शुद्र जाति की थी। मेरी अपनी मां राज-महिषी कहलाती थी, दूसरी मां वैश्य जाति की होने से ‘वावाता‘ कहलाती थीं और मां कैकेयी शुद्रा होने से ‘परिवृति‘ कहलाती थीं।‘ वाल्मीकि रामायण का श्लोक है- होताध्वर्युस्तथोद्गाता हस्तेन समयोजयन्। महिष्या परिवृत्त्यार्थं वावातामपरां तथा।। यानी तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उद्गाता ने राजा की (क्षत्रियजातीय) महिषी ‘कौसल्या‘, (वैश्यजातीय स्त्री) ‘वावाता‘ तथा (शूद्रजातीय स्त्री) ‘परिवृत्ति‘- इन सबके हाथ से उस अश्वका स्पर्श कराया।। इसे पाद टिप्पणी में स्पष्ट किया गया है कि ‘जाति के अनुसार नाम अलग-अलग होते हैं। दशरथ के तो कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा तीनों क्षत्रिय जाति की ही थीं।‘ किंतु कौसल्यायन के उल्लेख पर विचार करें तो पहले, कवि राम के माध्यम से भिन्न वर्णों की रानियां होना स्पष्ट कर रहे हैं और यह भी क्यों न माना जाए कि कवि ने दिखाया है कि दशरथ और राम वर्ण-भेद के प्रति सहज और उदार थे। यह भी स्मरणीय कि दशरथ के दरबार में भिन्न विचारधारा के अज्ञात कुल के जाबालि को भी पूरा सम्मान था, उनकी गणना मंत्री के रूप में की गई है। राम वनवास प्रसंग में भिन्न मत का प्रतिपादित करते न सिर्फ जाबालि समझाइश देते हैं, वसिष्ठ भी राम को राज्य ग्रहण का सुझाव देते हैं। जाबालि कहते हैं, ‘एको हि जायते जन्तुरेक एव विनश्यति‘, तो क्या इसे बीसवीं सदी के पाश्चात्य चिंतन के अस्तित्ववाद का आदि-वाक्य मान लें?

इस प्रकार की दूसरी पुस्तक विश्वविजय प्रकाशन की ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास‘ 1972 में प्रकाशित हुई थी। पुस्तक के संपादक विश्वनाथ हैं। पुस्तक में सुदर्शन चोपड़ा, भदंत आनंद कौसल्यायन, और गंगा सहाय ‘प्रेमी‘ के लेख हैं। इस पुस्तक में कहा गया है कि ‘तुलसी ने मूल रामकथा के तथ्यों को भी बेतरह तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि ने तो राम कथा के माध्यम से राम के चरित्र पर परोक्ष रूप से व्यंग्य ही किया है। दूसरे शब्दों में हम वाल्मीकि ‘रामायण‘ को अप्रत्यक्ष शैली में लिखी गई एक व्यंग्य रचना भी कह सकते हैं।‘ इस तरह यहां एक तरफ वाल्मीकि रामायण को मूल माना जा रहा है, दूसरी तरफ तुलसी की रामकथा को नकल और व्यंग्य रचना ठहराया जा रहा है। स्पष्ट है कि मंशा दोनों के प्रति आक्षेप की है, इसलिए यहां रामकथा के धार्मिक, आध्यात्मिक और साहित्यिक विशेषताओं को साथ ही रामकथाओं में आए व्यक्ति के आचरण में शील, मर्यादा, अनुशासन जैसे स्वभाव के प्रकटन और नीति-विषयक को नजरअंदाज किया गया है। इसी क्रम में एक अन्य पुस्तक आचार्य तुलसी की ‘अग्नि परीक्षा 1961 में आई, विवादित हुई और बाद में लेखक ने इसे वापस ले लिया था।

0 गिरधारी लाल रायकवार जी अक्सर रामकथा और साहित्य के अनूठे प्रसंगों की चर्चा किया करते हैं और किसी भी प्रसंग से जुड़े स्रोत का अनुमान बताते रहे हैं। विभिन्न ग्रंथों और टीकाओं पर बार-बार उनकी चर्चा से प्रेरित हो कर स्वयं तलाश करने का मन बना। अक्सर रामकथा और साहित्य के अनूठे प्रसंगों की चर्चा किया करते हैं और किसी भी प्रसंग से जुड़े स्रोत का अनुमान बताते रहे हैं। वैदिक संदर्भों से ले कर डोंगरे जी, करपात्री जी, मानय पीयूष होते हुए राधेश्याम रामायण, रामवन के बाबू शारदा प्रसाद और जगदलपुर के बसंतलाल झा तक की चर्चा, किसी भी प्रसंग के दौरान कर सकते हैं। तुलसी के मानस के अलावा उनकी अन्य कृतियों पर भी विनम्र अधिकारपूर्वक प्रकाश डालते हैं। विभिन्न ग्रंथों और टीकाओं पर बार-बार उनकी चर्चा से प्रेरित हो कर स्वयं तलाश करने का मन बना। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित चित्रों पर आधारित सुंदर संक्षिप्त ‘राम-कथा‘ का प्रकाशन 2002 में हुआ, आलेख डा. दलजीत का है। यह पुस्तिका वरिष्ठ सहकर्मी वेइप्रकाश नगायच जी ने उपलब्ध कराई। इस क्रम में सी. राजगोपालाचारी की ‘रामायण‘, प्रेमचंद की ‘रामचर्चा‘ और रस्किन बांड की ‘हनुमान आए बचाने‘ देखने का अवसर मिला।

0 गुरु डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम का मार्गदर्शन सदैव मिलता है, इसमें परोक्षतः और गुरु-पत्नी डॉ. शोभा निगम की पुस्तक ‘वाल्मीकि कथा‘ से प्रेरणा मिली। किसी दिन मन में जिज्ञासा ले कर गुरु-द्वारा गया कि बॉडी लैंग्वेज जैसे आधुनिक व्यवहार विज्ञान के लिए हिंदी शब्द क्या हो?, चर्चा के दौरान वे अनायास (मेरी प्रश्नाकुल जिज्ञासा को बूझ कर?) रामायण में आए शब्द ‘इंगितज्ञ‘ और हनुमान के वार्ता-कौशल की चर्चा करने लगीं। यह शब्द बॉडी लैंग्वेज, फेस एक्सप्रेशन, वाइस माड्युलेशन और नान वर्बल कम्युनिकेशन, सभी का (अभिव्यक्ति में अंतर्निहित) आशय समेटे हुए है। इसी तरह के अन्य संदेह-निवारण के साथ मुझे रामकथा साहित्य के अधिकतर ग्रंथ भी उनके निजी संग्रह से उपलब्ध हुए।

0 रामचरितमानस संबंधी मेरे लिए अपने आसपास घटित होने वाला सबसे बड़ा आश्चर्य हमारी अम्मा के साथ होता था। वे प्रतिदिन मानस का पाठ करती थीं। उन्हें मानस कंठस्थ था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता मगर किसी भी दोहा-चौपाई के आरंभिक दो-तीन शब्द बोलने पर वे उसे पूरा कर सकती थीं, इसी तरह वे मानस में उसका कोई भी पद पलक झपकते खोज कर निकाल सकती थीं और ग्रंथ सामने न हो तो किस कांड में, किस प्रसंग में वह पद आता है, बताती थीं। मुझे बचपन में में यह जितना आश्चर्यजनक लगता था, याद आने पर अब उससे कहीं अधिक अजूबा लगता है।

0 राम-साहित्य की विभिन्न कृतियों का एकाकी रसपान से होने वाले अपराध-बोध के कारण उसके अंश यहां सुधिजनों का साथ पाने के लिए दिए गए हैं। यह भी कि इसे पढ़ते हुए इन अंशों के पूर्वापर और मूल को स्वयं देखने की उत्सुकता हो जाए तो और भी अच्छा। वैसे यह ‘स्वान्तः सुखाय रधुनाथ गाथा‘ अवगाहन ही है।

इस लेख को तैयार करने में असमी, तेलुगु रामायण जैसे कुछ ग्रंथों के अलावा लगभग सभी संदर्भ प्राथमिक स्रोतों, मूल ग्रंथों से लिए गए हैं। डॉ. सुशील त्रिवेदी ने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के शिव सहाय पाठक के निर्देशन में आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ पर शोध कार्य किया है। यहां उल्लिखित भानु जी की पुस्तकों की मूल प्रति उनके अनुग्रह से देखने का सुयोग बना। भोगहा जी विषयक जानकारी डॉ. अश्विनी केशरवानी और रवीन्द्र सिसोदिया जी के सौजन्य से मिली।