Wednesday, August 21, 2024

प्रत्यक्षा

‘अतर‘, ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ और ‘बारिशगर‘। 

जिन लेखकों को जानते हैं, बल्कि कहें कि प्रत्यक्ष परिचित हैं, उन्हें पढ़ना कुछ अलग अनुभव होता है। कभी तो वह लेखक सामने आ जाता है और फिर-फिर ओझल होता रहता है। इसी आवाजाही में उसे पढ़ना होता है। सजग रहना होता है कि प्रतिक्रिया यथासंभव परिचय के प्रभाव, राग-द्वेष मुक्त, शुद्ध पाठकीय हो। 

प्रत्यक्षा को पढ़ना मेरे लिए ऐसा ही है। वे अपने (जिस तरह प्रत्यक्ष व्यवहार में भी) अनुभव संसार को समेटती जान पड़ती हैं, शायद जस का तस अलग-अलग फोल्डर में सहेजे रहती हैं और फिर उसे अपने लेखन में चुन-चुन कर करीने से बिठाते चलती हैं। इर्द-गिर्द से उपजी संवेदना का उन अनुभवों के साथ मेल कराती हैं, एकरस कर देती हैं, तब सारा निजत्व, समष्टि में व्यापक हो जाता है। 

‘अतर‘ संग्रह में ‘विद्या सिन्हा की मुस्कान‘ के बर-अक्स यह देखना आसान है, जिसमें इस दौर की साहित्य रचना, और उसके परिवेश के अनुभव, संवेदना, प्रतिक्रिया को विशिष्ट क्रम में अभिव्यक्त कर एक अलग-सा कथा-रूप रचा गया है। ठहरी हुई अनुभूतियों की मचलती अभिव्यक्तियों से इस संग्रह की कहानियों में (’दुनिया में क्या हासिल‘) मीठी टीस वाली महक लगातार बनी रहती है। 

जानी-अनजानी किताबें पढ़ने को सामने रखी हैं पहले ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ और ‘बारिशगर‘ को चुना है, बावजूद इसके कि प्रत्यक्षा का नये चाल का कविताई वाला लेखन, मेरी रुचि और समझ की सीमा में ठीक-ठीक अंट नहीं पाता। उनका लेखन अमूर्त शब्द-चित्र और चित्रों के कोलाज की तरह लगता है। उसके लिए क्या कहना ठीक होगा? सोचते हुए, उन्हीं से शब्द मिल जाते हैं, ज्यों ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ संग्रह की कहानी ‘कूचाए नीमकश‘ में- ‘सब तस्वीर की कहानियां हैं‘ ... ‘और तस्वीरों का तसव्वुर है।‘ या ‘व्हाई इज़ लाईफ सच अ कैरीकेचर ऑल टाईम?‘ 

‘शारुख ...‘, ऐसे विषय पर आमतौर पर जो लेखन होता है, ड्राइंग रुम जैसी बातें को स्टडी में बैठकर लिखा जाने वाला, यहां वैसा नहीं है, यह जमीनी हकीकत को जी कर, महसूस कर कही गई, बड़े वितान की बड़ी कहानी है, अंतिम वाक्य में शब्द आते हैं- समय, स्थान, धरम, जाति, काल, भाव, मगर कहानी के इस आखिरी वाक्य से लगता है कि पूरी कहानी कह लेने के बाद भी यह कहे बिना काम न चलेगा, जबकि पाठक पूरी कहानी में इसे महसूस करता रहता है। ‘ललमुनिया, हरमुनिया‘ में समष्टि-संस्कार से आए बदलाव का लालित्य और सौंदर्य ‘बन्नो तेरा मुखड़ा चांद सा‘ के साथ चमक उठता है। 

रोचक शिल्प वाली कहानी ‘केंचुल‘, मार्मिक ‘रिफंड‘। लेखक का मन पानी-बारिश में तो बार-बार भीगता है, ज्यों ‘सूरजमुखी ...‘ में। ‘स्वप्न गीत‘ निबंध-सा, जिसे संस्मरण-संवाद गति देते हैं और यह स्वप्न गीत, विलाप रहित शोकगीत बन जाता है। फिर ‘पानी का गीत‘, पद्य-गद्य, कविता सा बहाव। मीठा से खारा और फिर पराया होता पानी, एक पूरी कविता। कहानी ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ ध्यान से न पढ़ें तो पारो, जय और वे का तालमेल घालमेल लगे, और साथ बह सकें तो आदम और हव्वा की कहानी फिर वहीं पहुंच कर ठहरती है। 

‘बारिशगर‘ भी संगीत-रंग-चित्र-शब्द की तरह रचा गया है, ज्यों- ‘बिलास रिकॉर्डर चलाता है, चिड़ियों की चहचहाट, कैमरे में कैद नन्हीं तस्वीरें। धूप पीठ पर गिरती है, कैसी नरम मीठी!’ या ‘... तैमूर धूप में किसी पगलाई गरम जीवंत कंपकंपाता चित्र का मुख्य हिस्सा है। तैमूर की पीठ पर बाबुन का रंगा रंगीन धारियों का धड़कता संसार है।’ 

प्रत्यक्षा के लेखन से परिचितों के लिए इसमें कुछ अलग न लगे, अन्यथा उपन्यास की तासीर बताने के लिए एक अंश- ‘दीवा की आवाज कमरे में घुल रही है, अँधेरे को ओढ़ती, कभी काँपती, कभी गहराती, कभी बारिश, कभी धुंआ, कभी भीगे शाख़ पर कुकरमुत्ता, कभी तेज भूख में ऐंठती, कभी हल्की सेमल सी उड़ जाती, कभी बर्छी सी चोट लगाती, कभी हँसी की खिलखिलाहट छुपाती खुश, कभी वेदना से टूटती। 

इस दौर के और लेखकों की तरह यहां भी निर्मल-केबी की छाया तो है ही, कहीं विनोद कुमार शुक्ल और उनकी पहेलीनुमा बातें भी याद आती हैं, जैसे आरंभ का शीर्षक और पहला वाक्य- ‘घर जैसा घर नहीं‘, ‘घर घर था‘। या ‘घर जैसा घर था वैसा नहीं था‘। 

शीर्षक देख कर उपन्यास में बारिश का इंतजार हो तो- ‘हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी ... मगर यहां ‘अतर‘ के ‘बारिश के देवता‘ जैसी या ‘पहर ...‘ संग्रह की कहानियों जैसी बरसात तो नहीं है, शराब बेबरसात भी, हर उपयुक्त मौके पर है। यह नये चलन वाला ऐसा उपन्यास है, जिसे एक बार पढ़ लेने पर, बाद में समय-समय पर कहीं से, कोई हिस्सा दुहराया जा सकता है।

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