Wednesday, December 15, 2021

तुमान सम्मेलन - 1995

नवभारत, बिलासपुर में 14.02.1995 को प्रकाशित सतीश जायसवाल जी की यह रपट लीक से हटकर है। तुमान के भरत सिंह जी के अलावा लाल कीर्तिकुमार सिंह जी और ज्योर्तिभूषण प्रताप सिंह जी से मेरा संपर्क था, और इस ‘सम्मेलन‘ के अवसर पर मैं भी वहां उपस्थित था।

तुम्मान सम्मेलन में नये ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत
जमींदार के वंशज प्रवासी राजदूत हैं, आदिवासी नहीं


(नवभारत समाचार सेवा)

बिलासपुर. जिले की आठ पुरानी रियासतों के प्रमुखों ने दस फरवरी से १२ फरवरी के बीच तुम्मान में तीन दिवसीय सम्मेलन के दौरान अपने वंश गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये इतिहास पुनर्लेखन की दिशा में पहल की है। सम्मेलन के समापन दिवस पर उक्त प्रमुखों ने यह भी स्पष्ट किया कि उन्हें आदिवासी समझे जाने की भ्रांति दूर की जानी चाहिये, क्योंकि उनके पूर्वज मूलतः क्षत्रिय राजपूत रहे, जो दिल्ली अथवा ग्वालियर से यहां आये.

अपने इस मंतव्य की पुष्टि में इन प्रमुखों ने, इस त्रिदिवसीय सम्मेलन को ‘सतगढ़ क्षत्रिय सम्मेलन‘ कहा है. इस सतगढ़ सम्मेलन में पेण्ड्रा, केन्दा, मातिन, पोंड़ी-उपरोड़ा, लाफा, छुरी तथा कोरबा के अतिरिक्त चांपा जमींदारी के वंशज भी शामिल हुये. सात गढ़ों को मिलाकर गठित जमींदारियों के इस समूह में चांपा का समावेश बाद में हुआ. इसे ‘मदनगढ़‘ के नाम से जाना जाता रहा है. ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार तुम्मान को छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी माना जाता रहा है, लेकिन तुम्मान सम्मेलन में लाफा राज्य को विशेष महत्व दिया गया. इस कथित ‘लाफा राज्य‘ के वंशज तथा पूर्व विधायक लाल कीर्ति कुमार सिंह ने बताया कि कल्चुरि राजवंश की ओर से जिन प्रवासी क्षत्रिय राजपूतों को यहां जमींदारी की सनदें की गई, उनमें सबसे पहली मान्यता ‘लाफा गढ़‘ को मिली. इस आधार पर आठ जमींदारियों के समूह में लाफा राज्य को सबसे प्राचीन माना जाता है. लाल कीर्ति कुमार ने बताया कि उनके वंशज ग्वालियर से यहां आये थे. उन्होंने कहा कि उन्हें आदिवासी समझा जाना एक भ्रांत धारणा है. वे मूलतः तोमर राजपूत हैं लेकिन कल्चुरियों द्वारा उनके पूर्वजों को जो जमींदारियां सौंपी गई थीं, वे आदिवासी बहुल जमींदारियां हैं, इसलिये इन जमींदारों को भी आदिवासी समझ लिया गया. आदिवासियों के लिये सुरक्षित तानाखार विधानसभा क्षेत्र से विधायक रह चुके श्री कीर्ति कुमार ने कहा कि वे लोग स्थानीय आदिवासियों से मिलकर उनमें इतना रच-बस गये हैं कि अब उन्हें आदिवासियों से अलग नहीं माना जा सकता, फिर भी यह सच है कि आदिवासियों के साथ उनके ‘रोटी बेटी के रिश्ते‘ नहीं होते. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जन्म-मरण तथा वैवाहिक संस्कारों से संबंधित उनके रीति-रिवाज स्थानीय आदिवासियों से अलग हैं. लाल कीर्तिकुमार ने कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों को भी चुनौती दी है, जिनसे उनके वंशवृक्ष अथवा उनके वंश की प्राचीनता को लेकर मतभेद की स्थितियां बनती है. तुम्मान सम्मेलन के उत्प्रेरक, पोंड़ी-उपरोड़ा तथा कोरबा जमींदारियों से संबंधित ज्योर्तिभूषण प्रताप सिंह भी इसी मत के हैं कि दिल्ली तथा ग्वालियर से आकर यहां के आदिवासियों पर शासन करने वाले जमींदारों के शौर्य तथा उनके प्रवास से संबंधित घटनाओं का इतिहास में ठीक-ठीक समावेश होना चाहिये. श्री ज्योर्तिभूषण इस दृष्टि से इतिहास लेखन के लिये प्रामाणिक दस्तावेजों को जुटाने के काम में लगे हुए हैं.

तुम्मान से पहले ऐसा सम्मेलन पेंड्रा में सम्पन्न हुआ था. उससे भी पहले श्री ज्योर्तिभूषण ने पूर्व मध्यप्रदेश की बकाया पुरानी रियासतों के वर्तमान प्रमुखों से मिलकर इस विषय में एकमत होने के प्रयास किये थे. ऐसी जानकारी मिली है, लेकिन इसके साथ यह भी पता चला है कि बकाया के जमींदार इस अभियान में शामिल होने के लिये अपने मन नहीं बना पाये. इसका कारण भी समझ में आने वाला है कि उन्हें इस अभियान में वे सुविधाएं तथा वे राजनैतिक प्रावधान खतरे में पड़ते दिख रहे होंगे, जिनके चलते जमींदारियां खत्म हो जाने के बाद भी राजनैतिक सत्ता के केन्द्र में बने रहे हैं. स्वयं श्री ज्योर्तिभूषण प्रतापसिंह को भी अभी तक कांग्रेस (इ) के सत्ता गलियारों में एक आदिवासी नेता के रूप में मान्यता हासिल है.

मान्यता की यह एकतरफा स्थिति है. इसके दूसरे तरफ यह प्रश्न है कि क्या ये जमींदार आज स्थानीय आदिवासियों में भी उतने मान्य हैं? इसके उत्तर में हमें यह ध्यान रखना पड़ता है कि श्री ज्योर्तिभूषण प्रताप सिंह कांग्रेस प्रत्याशी की हैसियत से विधानसभा के लिये लड़े गये चुनाव में (तब) निर्दलीय बोधराम कंवर (आदिवासी) से तथा लाल कीर्ति कुमार सिंह (कांग्रेस इ) भी भाजपा के पूर्व विधायक हीरासिंह मरकाम से चुनाव हार चुके हैं. इधर, पश्चिमोत्तर बिलासपुर जिले में श्री मरकाम ‘गोंडवाना महासंघ‘ के लिये चलाये जा रहे अपने अभियान के जरिये जो जनाधार विकसित कर रहे हैं, वह कहता है कि स्थानीय आदिवासियों ने भी अपने पूर्व प्रमुखों से अपनापन तोड़ लिया है.

तुम्मान सम्मेलन में कुछ संवैधानिक विसंगतियां भी नजर आई. उदाहरण के लिये, इस सम्मेलन में आमंत्रितों का स्वागत लाफा राज्य की ओर से किया जाना आज, जब रजवाड़े नहीं रहे, तब इस लाफा राज्य की संवैधानिक स्थिति को कैसे समझा जाये? यह समझ में नहीं आया. लाल कीर्तिकुमार सिंह ने भी कहाकि लाफागढ़ को जिसे चैतुरगढ़ भी कहा जाता है, वे आज भी अपना ... ... ही मानते हैं, यद्यपि उसकी देखभाल ... ... रखाव के लिये उसे पुरातत्व विभाग के जिम्मे सौंप दिया गया है. इस दुर्ग के साथ आदिवासियों के लोक नायक दामा-धुरवा की शौर्य गाथा जुड़ी हुई है. लाल कीर्ति कुमार सिंह ने बताया कि दामा धुरवा को मारने के एवज में उनके पूर्वजों को लाफा जमींदारी की सनद मिली थी और लाफा का किला इस जमींदारी के आधिपत्य में आया. एक ध्वन्यांकित साक्षात्कार में श्री ज्योर्तिभूषण प्रताप सिंह ने भी यही बताया कि उनके पूर्वजों ने यहां के बागी आदिवासियों को मारकर जिस शौर्य का प्रदर्शन किया था उसके ही एवज में कल्चुरियों से उन्हें जमींदारियां हासिल हुई. अभी ये जमींदार प्रमुख अपने अभियान को प्रचारित प्रसारित नहीं करना चाहते. इसके बदले अपनी ताकत जातीय संगठन तथा सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में लगाना चाहते हैं. तुम्मान सम्मेलन में पेंड्रा जमींदारी के प्रतिनिधि नहीं पहुंच पाये थे तथा श्री ज्योर्तिभूषण प्रताप सिंह ने एक साथ दो जमींदारियों का प्रतिनिधित्व किया, पोंड़ी उपरोड़ा तथा कोरबा. अन्य लोगों में केंदा से श्री दुखभंजन सिंह, चांपा से श्री भिवेन्द्र प्रताप सिंह, छुरी से श्री किशोर चंद्र प्रदाप सिंह तथा मातिन से सूर्य कुमारी देवी ने प्रतिनिधित्व किया. श्री कीर्ति कुमार ने बताया ... ... जमींदारियों का कुल फैलाव बिलासपुर ... ... मात्र १३९ गांवों तक सीमित है, इससे अधिक नहीं.

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