Sunday, October 31, 2021

बिलासपुर अंचल में पर्यटन

पचीसेक साल पहले समाचार-पत्र के लिए मेरे द्वारा लिखा गया लेख
बिलासपुर अंचल का विस्तृत भू-भाग प्राकृतिक विविधताओं से सम्पन्न है। इस अंचल की सीमा पर एक ओर छोटी-बड़ी, ऊंची-नीची पहाड़ी श्रृंखला है, तो वहीं दूसरी ओर अंचल का मध्यभाग छत्तीसगढ़ के विशाल मैदान का हिस्सा है जिसमें महानदी और उसकी मुख्य सहायक नदी शिवनाथ के साथ-साथ हसदेव, लीलागर, आगर, हांफ, मांद जैसी छोटी नदियां प्रवाहित होती है। इस अंचल के प्राकृतिक वैविध्य में घने वन विकसित हुए और धरती की कोख में खनिज संसाधन भरा है अंचल की यह विशिष्ट स्थिति, कन्दरावासी हमारे पूर्वज आदिमानव से लेकर आधुनिक औद्योगिक विकास तक के हर पड़ाव पर, सम्यता को आकर्षित करती रही है, और उस क्रम में हमारी प्राचीन सभ्यता के चिह्न अंचल की गौरवशाली धरोहर है।

प्राकृतिक विविधताओं के रंग से सराबोर इस अंचल में इतिहास के कला-प्रमाण मिलकर, यहां पर्यटन की प्रबल संभावना का स्पष्ट संकेत देते है। पर्यटन संभावनायुक्त क्षेत्रों स्थलों को मुख्यतः प्राकृतिक दृश्य यानि नदी, झील, झरने, पहाड़, और पठार, वन-सम्पदा और वन्य जीवन, पुरातात्विक-ऐतिहासिक स्थल और स्मारक, धार्मिक तीर्थ, और आधुनिक औद्योगिक तीर्थ- कल-कारखाने, इन भागों में विभक्त किया जा सकता है। बिलासपुर जिले के अंतर्गत और सीमावर्ती अंचल में ऐसे विभिन्न महत्वपूर्ण स्थान है, जो दर्शनीय और पर्यटन संभावनायुक्त है।

प्राकृतिक सौंदर्य के स्थलों में इस अंचल का प्रसिद्ध तीर्थ अमरकंटक, जिला-सीमा से संलग्न शहडोल जिले में स्थित हैं। यहां पुण्य सलिला नर्मदा का उद्गम है, जोहिला आदि कुल अन्य नदियों के उद्गम के साथ-साथ महत्वपूर्ण नदी सोन उद्गम की मान्यता, इस स्थल से संबद्ध है, सुरम्य प्राकृतिक, दृश्यावली के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्यप्रद जलवायु, वन और खनिज संसाधनों की सम्पन्नता, प्राचीन मान्य पुण्य क्षेत्र नर्मदा कुण्ड, प्राचीन कर्णेश्वर मंदिर समूह के अतिरिक्त विभिन्न धर्म संप्रदायों के निर्माणाधीन तीर्थ, मठ और आश्रम, प्रत्येक रूचि के पर्यटकों का मन मोह लेने में सक्षम हैं।

बिलासपुर जिले के अंतर्गत खूंटाघाट, खुड़िया जलाशय, बांगो-हसदेव परियोजना, केन्दई प्रपात, दमऊदहरा-गुंजी-ऋषभतीर्थ आदि स्थल विशेष उल्लेखनीय हैं, खूंटाघाट और खुड़िया मूलतः प्राकृतिक सरोवर है, जिन्हेें लोक कल्याणकारी सिंचाई व अन्य योजनाओं के अंतर्गत विकसित किया गया हैं। खूंटाघाट, इस अंचल की प्राचीन राजधानी रतनपुर के निकट है और प्राचीन अभिलेखों में रतनपुर के पूर्व में पर्वत और उसके तल में बांध निर्मित कराये जाने की चर्चा है, अर्थात यह स्थल लगभग ढाई सौ वर्ष पहले चतुर्थाश में वर्तमन रूप दिया गया हैं। बांगो-हसदेव परियोजना स्थल तहसील मुख्यालय कटघोरा के निकट स्थित हैं। यहां हसदेव नदी की मनोरम-प्राकृतिक धारा को बांधकर जिले की मुख्य सिंचाई योजना को आकार देकर कृषि विकास के माध्यम से हरित-क्रांति का स्वप्न मूर्त हो रहा है। जहां खुड़िया और खूंटाघाट में विशाल जलराशि नयनाभिराम दृश्य उपस्थित होता है वहीं बांगो-हसदेव में नदी तट की ऊंचाई, तटबंध और संकरी हो गई नदी की गहराई दर्शकों का मन बांध लेती है।

बिलासपुर-अंबिकापुर सड़क मार्ग पर निजी वाहनों से यात्रा करने वालों का प्रिय स्थान हसदेव नदी का सड़क पुल और आगे चलकर नदी-प्रपात केन्दई है। वर्षाऋतु में केन्दई प्रपात की चौड़ी धारा और पानी की उड़ती बूंदे चित्र-सदृश्य प्रतीत होती है तथा ऊंचाई से गिरती जलराशि का गर्जन दर्शकों को मौन दृश्य रसपान के लिए विवश करता हैं। अन्य ऋतुओं को जलधारा पतली हो जाने से स्थल का सामान्य आकर्षण तो कम हो जाता है, किंतु वर्षाऋतु में यहां से गुजरा दर्शक, स्थिति विपर्यय का आकर्षण जरूर महसूस करता है।

दमऊदहरा, सक्ती तहसील मुख्यालय के निकट स्थित महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धार्मिक व प्राकृतिक-सौंदर्य पूर्ण स्थल पर सघन वनस्पति और पहाड़ी के साथ, जैसा कि नाम से स्पष्ट है, दहरा अर्थात् प्राकृतिक जल भराव का कुंड है। ऐतिहासिक ऋ़षभ तीर्थ की धार्मिक महत्ता का उल्लेख महाभारत में हैं और ईसा की आरंभिक सदी का चट्टान लेख भी यहां है, जिससे स्थल पर सहस्रों गायों के दान दिये जाने की जानकारी शिलांकित हैं। जिला सीमा से संलग्न रायगढ़ जिले में एक अन्य आकर्षण पर्यटन स्थल रामझरना है। जो सौ कि.मी. से भी अधिक दूरी के पर्यटकों में पिकनिक के लिये लोकप्रिय स्थल है। राम-झरना में प्रस्तावित ‘राम-गार्डन’ विकसित होने से, स्थल का महत्व अधिक हो जावेगा।

वन और वन जीवन की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत सम्पन्न रहा है। इस अंचल धन के कटोरे का मैदानी समतल चारों ओर पहाड़ियों और वन से परिवेष्टि है। वर्तमान में जंगल विरल हो जाने से वन्य जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है, किंन्तु शासन द्वारा वनों की हरीतिमा बनाए रखने और उसे पुनर्जीवित करने के पुरजोर प्रयास किए जा रहे हैं । वन और वन्य जीवन अन्योन्याश्रित है, और इस अंचल में प्रचलित ‘आरे’ के निषेध की मान्यता में, संभवतः वन-पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से, इस परम्परा में, आधुनिक विचार के बीज दिखाई देते है। कुछ अशासकीय संस्थाओं ने भी वन, पर्यावरण तथा वन्य जीवन संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है।

इस अंचल का केन्दा क्षेत्र पिछली सदी तक हाथियों के लिये पूरे देश में प्रसिद्ध था और हाथियों के तत्कालीन सामरिक राजनैतिक महत्व के कारण पूर्व राजधानी रतनपुर की पहचान थी। वर्तमान मंर जिले के अंतर्गत एकमात्र महत्वपूर्ण वनक्षेत्र, अचानकमार अभयारण्य हैं, अन्य वन क्षेत्रों की वानिकी तथा वन्य-जीवन की संख्या व विस्तार सीमित है। अचानकमार अभयारण्य हैं, अन्य वन क्षेत्रों की वानिकी तथा वन-जीवन की संख्या का विस्तार सीमित है। अचानकमार अभयारण्य क्षेत्र में शेर, चीता, भालू, सांभर, चीतल आदि प्राणियों के साथ-साथ सामान्य पशु-पक्षियों से यह वन क्षेत्र परिपूर्ण है, इसके अतिरिक्त यहां कुछ विलक्षण ‘एल्बिनोज’ की जानकारी भी मिलती हैं।

पक्षियों की दृष्टि से शीतऋतु के प्रवासी पक्षी, इस अंचल में विशेष उल्लेखनीय हैं, अंचल के बहुसंख्य सरोवर शीतऋतु में इन आगन्तुक सालाना मेहमानों से भर जाते हैं। प्रवासी पक्षी शीत क्षेत्रों से अत्याधिक लंबी उड़ान भर कर यहां गुनगनी धूप सेंकने आते हैं महानदी की रेत में शिवरीनारायण और चंद्रपुर-बालपुर क्षेत्र में प्रसिद्ध विशाल कुररी, विचरण करने प्रवास पर आते है, इनका आगमन, उड़ान और रेत पर उतरना, मानो सम्मोहन कर देता है।

स्थानीय पर्यटन संभावना की दृष्टि से बिलापुर शहर के निकट के स्थल कानन पेंडारी और स्मृति वन का उल्लेख किया जा सकता हैं यह दोनों स्थल शासकीय, अर्धशासकीय योजनाओं के अंतर्गत विकसित वनोद्यान क्षेत्र है। कानन पेंडारी में शहर के निकट वन के वातावरण की अनुभूति और वन्य जीवों का दर्शन आकर्षण है। स्मृति वन शहर के मध्य से गुजरती अरपा नदी के बायें तट पर विकसित होते शहर का छोर है, जहां, शहर में प्रवास पर आये प्रमुख व्यक्तियों द्वारा वृक्षारोपण कराया गया है, यहां विकासशील बच्चों का पार्क, मछली घर आदि निकट भविष्य में स्थानीय पर्यटक महत्व का स्थान प्राप्त कर लेंगे।

पर्यटन संभावनायुक्त ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थलों की सूची इस अंचल में पर्याप्त लंबी है, इसमें विशेष महत्व के स्थलों में संक्षिप्त विवरण क्रम में जिला सीमा से संलग्न रायगढ़ जिले का स्थल सिंघनपुर है, जहां हमारे पूर्वज गुफावासी आदि मानव के बर्बर स्थितियों से अगल अपनी कलाप्रियता का प्रमाण अंकित किया है। सिंघनपुर के चित्रित शैलाश्रयों का रंग अब धुंधला पड़ता जा रहा है, किंतु यहां पहंुच कर आदिम जीवन स्थितियों की कल्पना और उसका रोमांच महसूस होता है और प्रागैतिहासिक आदि मानव से अपनी समाष्टिगतता के सूत्र जुड़ने की प्रच्छन्न किंतु सहज अनुभूति में दुर्लभ क्षणों की जीवन स्मृति सुरक्षित रह जाती है।

जिले की सक्ती तहसील में सातवीं सदी इस्वी के अवशेषयुक्त प्राचीन स्थल अड़भार है, जिसकी पहचान पुराने अभिलेखों के ‘अष्टद्वार’ नामक स्थल व क्षेत्र से की गई है। यहां विशिष्ट तारकानुकृति प्रकार के शैव स्थापत्य अवशेष तथा जैन धर्म से संबंधित प्रतिमाएं भी ज्ञात है। मंदिर स्थल पर रखी प्रतिमाओं में महिषासुरमर्दिनी की भव्य विशाल प्रतिमा, लास्य व शास्त्रीय भंगिमा युक्त नटराज शिव तथा जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की सप्त सर्पफण छत्र युक्त प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। यहां से ऐतिहासिक महत्व के प्राचीन अभिलेख व प्राचीन मृजिका दुर्ग या गढ़ भी प्रकाश में आया है। 

जांजगीर तहसील में खरौद सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी के पुरावशेषों से सम्पन्न हैं। यहां प्राचीन लक्ष्मणेश्वर मंदिर पुनर्सरचित स्मारक है, जिसमें मूल शिवलिंग स्थापित है। द्वार शाख पर नदी देवियां व द्वारपाल मूलतः विद्यमान है। मंडप में रामकथा अंकित स्तंभ तथा दो शिलालेख है। मंदिर परिसर में हिंदू धर्म से संबंधित प्रतिमाएं, जैन तोरण खंड तथा पंडित दामोदर की अभिलिखित प्रतिमा हैं। यहां दो अन्य ईट निर्मित मंदिर इन्दल देउल तथा शबरी मंदिर विशिष्ट प्रकार के शिल्प व तत्कालीन मूर्तिकला की दृष्टि से आकर्षण दर्शनीय उदाहरण है। खरौद के निकट स्थित शिवरीनारायण महानदी के बायें तट पर स्थित अंचल का प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां के प्राचीन मंदिरों और प्रतिमाओं में शिल्पगत सौंदर्य-अलंकरण की कलचुरिकालीन कला की विशिष्ट छाप है। शिवरीनारायण मेें विभिन्न भक्त-श्रद्धालुओं और जाति समाजों के बनावाए आधुनिक मंदिर भी है इन स्थलों पर क्रमशः शिवरात्रि व माघ पूर्णिमा के अवसर पर विशाल मेला भरता है। जांजगीर का विष्णु मंदिर अधूरा होने के बावजूद स्थापत्य की दृष्टि से संपूर्ण विकसित शैली एवं तत्कालीन कला का समर्थ प्रतिनिधि हैं।

बिलासपुर तहसील में स्थित ताला पंाचवीं-छठीं सदी ईस्वी के कलावशेषों तथा विशेषकर रूद्र-शिव की विस्मयकारी प्रतिमा के कारण विश्वविख्यात हैं। यहां स्थित दो शिव मंदिर- स्थानीय नामों देवरानी व जिठानी मंदिर से जाने जाते हैं। जेठानी मंदिर का भव्य अभिकल्प और विशिष्ट स्थापत्य योनजा में विशाल अलंकृत स्तंभ, विभिन्न मुद्राओं में भारवाहक गण, वरूण, अर्द्धनारीश्वर, शिव मस्तक, महिषमर्दिनी, उपासक आदि प्रतिमाएं हैं। स्थल से लघु प्रतिमा फलकों और प्राचीन मुद्राओं की प्राप्ति विशेष उल्लेखनीय है। देवरानी मंदिर का प्रवेश द्वार मुग्धकारी है। यहां गणेश, मेष मुख गण, सूर्य, उपासक आदि प्रतिमाएं हैं, द्वार शाख के अंकन में कथानकों की जीवन्नता और कीर्तिमुखों की प्रभावोत्पादकता, अपनी सानी नहीं रखता, मनियारी तट के इस पलाश क्षेत्र का वसंत में दर्शन आल्हादित करता है।

मल्हार अंचल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल कहा जाता है, क्योंकि यहां ईस्वी पूर्व आठवीं सदी से तेरहवीं सदी ईसवीं और उसके बाद के विभिन्न राजवंशों, कला शैलियों से संबंधित जैन, बौद्ध व हिंदू धर्म संप्रदायों की प्रतिमाएं, सिक्के, अभिलेख आदि बहुलता से प्राप्त है। स्मारकों में पातालेश्वर, देउर व डिडिनेश्वरी देवी का मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण का स्थल संग्रह भी देखने योग्य है। रतनपुर, सुदीर्घकाल तक इस अंचल का प्रशासनिक मुख्यालय रहा है, यहां पुरावशेषों के साथ-साथ धार्मिक दर्शननार्थियों की बड़ी संख्या पूरे वर्ष भर पहंुचती है और पर्वो के अवसर पर विशाल मेला भर जाता है। यहां प्रत्येक तीसरे साल बसना के निकट गिधली ग्राम से पैदल आने वाले यादव परिवार की निष्ठा अद्वितीय है, जो इस लंबी दूरी को लगभग छः माह में पूर्ण करके समलाई की भेंट उसकी बहन महामाई से कराते हैं।

कटघोरा तहसील में प्राचीन महादेव मंदिर पाली के निर्माण व उद्धार में क्रमशः बाणवंशी शासक विक्रमादित्य प्रथम के पुत्र मल्लदेव तथा कलचुरि नरेश जाजल्लदेव का नाम अभिलिखित है। विभिन्न प्राचीन अभिलेख युक्त यह मंदिर शिव, सरस्वती, चामुण्डा, सूर्य, अष्ट दिगपाल, योगी, नर्तकी, व्याल तथा मिथुन प्रतिमाओं से सज्जित है। लाफा का चैतुरगढ़ तथा कोसगई अथवा गढ़ कोसंगा, अंचल के दो पर्वत दुर्ग हैं, चैतुरगढ़ की गणना क्षेत्र के दुर्गमतम किलों में की गई है। किले में तीन प्रवेश द्वार हैं, किंतु लाफा बगदरा होकर मुख्य प्रवेश अपेक्षाकृत आसान बना दिया गया है किले के भीतर परवर्ती कलचुरिकालीन महिषमर्दिनी का मंदिर है। मंदिर के निकट ही तालाब है जिसमें सदैव जल रहता है। यही पहाड़ी श्रृंखला जटाशंकरी-अहिरन नदी का उद्गम है।

बिलासपुर नगर में संस्कृति विभाग का पुरातत्व संग्रहालय हैं। संग्रहालय में पांचवीं सदी ईस्वी से तेरहवीं सदी ईस्वी तक का प्रतिमाएं है जो जिले के ताला, रतनपुर, गनियारी, पंडरिया, मदनपुर, सेतगंगा, सीपत आदि स्थानों से एकत्र की गई है। संग्रह में कुछ महत्वपूर्ण और दुर्लभ शिलालेख-ताम्रपत्र तथा प्राचीन सिक्के भी है। अन्य प्रदर्शित सामग्रियों में मुख्यतः शिलालेख एवं मानचित्र, सारिणी, चित्र, प्रादर्श आदि है।


No comments:

Post a Comment