बात से बात पैदा कर पाने का हुनर हर किसी के पास वैसा नहीं होता, जैसा कृष्ण बलदेव वैद के ‘दूसरा न कोई‘ या ‘कुकी की मौत‘ में आता है। साहित्य रचना के लिए एक तरह की किस्सागोई, फर्राटेदार सफर ‘फसाना-ए-आज़ाद‘ जिसका अनुवाद ‘आजाद कथा‘ है तो दूसरे छोर पर वह, जिसका उदाहरण है- 'एक आदमी अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान पाकर ट्रेन में चढ़ता है। ट्रेन चलते-चलते एक स्थान पर रुक जाती है। वह आदमी पूछता है कि ट्रेन कहाँ रुकी है। जवाब मिलता है- नो व्हेयर! जवाब सुनते ही वह उठता है और यह कहते हुए उतर जाता है कि यहीं तो उसे जाना था।' (प्रभात रंजन की ‘पालतू बोहेमियन‘ से) या स्वदेश दीपक की कहानीनुमा एक रचना का आरंभिक वाक्य- 'गाड़ी ने उस स्टेशन पर नहीं रुकना था। रुक गई, पता नहीं क्यों? उसने वहां नहीं उतरना था। उतर गया। पता नहीं क्यों?' गोया, जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर...
साहित्य में कवि-कविता की प्रतिष्ठा सर्वोपरि, फिर गिनती में गद्यकार, कहानी-उपन्यासकार, निबंधकार, लेखक (लेख लिखने वाले) आदि, तब कहीं नंबर लगाया जाता है, यात्रा वृत्तांत और हास्य-व्यंग्य का। बहरहाल, कुछ ‘लेखक‘ ऐसे होते हैं, जिन्हें किस्सागोई के लिए, बात बनाने और बढ़ाने के लिए, सफर का सहारा-आसरा होता है। दृश्य बदलता जाता है, उसके साथ भाव भी, वही रवानी, वही कहानी। इस करोना दौर में सारी चहलकदमी स्थगित हो तो यात्रा संस्मरणों की ओर मन दौड़ता है, राहुल सांकृत्यायन याद आते हैं और देवकुमार मिश्र की ‘सोन के पानी का रंग‘ को माथे से लगा लिया है। हाथ में हैं ऐसे सफरनामे, जिनका साहित्यिक दरजा तो पता नहीं, लेकिन हिन्दी के जिस पाठक से चूका हो... साहित्यिक समझ के चलते नहीं, बल्कि बहैसियत रसिक पाठक कहूंगा, कि अब तक जिससे यह चूका, वह मेरी निगाह में वंचित श्रेणी में होगा, जैसा कुछ समय पहले तक मैं था।
राकेश तिवारी की 'सफर एक डोंगी में डगमग' दुहरा ली। पहली बार इसे पढ़ने में शुरुआत यात्रा की तरह ही ठिठक कर चली, लेकिन एक बार धारा में लय बन जाने के बाद मुकाम तक पहुंचते देर न लगी। भाषा, लाजवाब। कहीं दुहराव नहीं। हिन्दी के साथ बोलियों का मिश्रण और प्रयोग, लगातार रस-वृद्धि करता है। धार में बहते-तिरते कैसी 'तटस्थता' होती है, होनी चाहिए, महसूस कर रोमांच होता है।
दिल्ली के ओखला हेड से यमुना, गंगा होते कलकत्ता की हुगली तक के 62 दिन के पूरे सफर में स्वयं प्रेक्षक हों और विवरण में खुद को शामिल करना हो, तो स्व का इतना ही स्व-रहित होना आवश्यक है। बीच-बीच में दो किताबें याद आती रहीं, देवकुमार मिश्र की 'सोन के पानी का रंग' और कुबेरनाथ राय की 'निषाद बांसुरी' (कहीं 'किरात नदी में चन्द्र मधु भी), और फिर बनारस के जिक्र के साथ शिव प्रसाद मिश्र ‘रूद्र‘ काशिकेय की 'बहती गंगा' की भी याद आई।
अभ्यस्त साहित्यकार और हिन्दी के विश्वविद्यालयीन उपाधिधारकों के लेखन की भाषा और बुनावट का सप्रयास सपाटपन अखरता है, उससे इस पूरी कृति की- भाषा, मुहावरे, रूपक, चित्रण- एक-एक पंक्ति मुक्त है। अध्याय-योजना और उसके अंतर्गत खंड, लेखन के मूड के अनुरूप हैं, इन्हीं टुकड़े में प्रस्तुत यह यात्रा-संस्मरण निरंतरता और प्रवाह बनाए रखने में सहायक हुआ है। इसके उद्यम और रोमांच के लिए तो बस औरों की तरह मेरा भी सैल्यूट। और सैल्यूट के उतने ही हकदार यात्रा के साथी भी।
अब 'पवन ऐसा डोलै...' के लाजवाब सफर पर हूं।
अजय सोडानी के ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर‘ के आरंभ ‘आलाप‘ में लेखक की खास साफगोई कि- ‘मैं और मेरे सहयात्री गाहे-बगाहे औपन्यासिक पात्रों में तब्दील हों, भीतर के नाद को शब्दों में बांधते दिखाई दें तो क्या आश्चर्य!‘ न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर-लेखक की पुस्तक आरंभ होती है- ‘‘आप चाहे न मानें पर ‘घुमक्कड़ी‘ को रोगों की फेहरिस्त में शुमार न कर विश्व स्वास्थ्य संगठन वालों से चूक तो हुई ही है।‘‘ कभी एक डॉक्टर मित्र ने कहा था कि मार्निंग वॉक ऐसा रोग है कि अगर लगा तो और किसी रोग को पास फटकने नहीं देता। ‘आलाप‘ में अपने वाले बिलासपुर के डॉ. रहालकर युगल (सुश्री अलका और चन्द्रशेखर जी, जो अजय जी की तरह अब तक मोबाइल फोन मुक्त हैं।) और जानकी पुल वाले प्रभात रंजन जी भी मिल गए। इंदौर वाले, कभी बिलासपुर रहे कवि- डॉक्टर शिरीष ढोबले की संगत याद आई।
पूरी किताब लोगों, नजारों और बतकही के साथ अनजाने रास्तों का ऐसा मोहक सफर, जो एक बार शुरू हो और पता न लगे कि कितने मुकाम और कब मंजिल। पुराली और पहाड़ी देवी-देवताओं की चर्चा में केसकाल, बस्तर की देवी भंगाराम से परम्पराओं की समानता, अनायास-अप्रत्याशित है। झाला का अध्याय अरुणोदय से थोड़ा पहले, पंछियों के साथ आरंभ होता है। आगे चलकर बात आती है- ‘‘ध्वनि है तो कारक हैं, कारक हैं तो कारण होंगे। अतः कारकविहीन निर्जन स्थलों पर अनपेक्षित ध्वनि हमें चौंकाती है। ... इस मामले में जंगलों में रहनेवाला कॉमन हॉक कुक्कू (केतकी, पपीहा) बहुत पाजी है। वह अंग्रेजी में पारंगत को ‘ब्रेन फिवर‘, महाराष्ट्रियनों को ‘पावस आला‘, आसामवासियों को ‘मोई केतकी‘ तथा मय के कद्रदानों को ‘वन मोर बॉटल‘ कहता सुनाई देता है।‘‘
'इरिणा लोक' का मेरा सफर शीघ्र आरंभ होगा।
दोनों पुस्तकें राजकमल प्रकाशन के उपक्रम ‘सार्थक‘ से प्रकाशित हुई हैं, पहले-पहल ‘सार्थक‘ से परिचय हुआ था, राकेश तिवारी की ‘सफर एक डोंगी...‘ पा कर। अब इससे ‘सार्थक‘ पर भरोसा मजबूत हुआ है।
रोचक और प्रेरक !!!����
ReplyDeleteFalguni��
माननीय राहुल सिंह जी, सचमुच मै तो "वंचितों" की श्रेणी में हूँ। कारण, अपने "लोक साहित्य" के काम में जुटे रहने के कारण मैं अध्ययन के लिये समय ही नहीं निकाल पाता। 1996 से मैंने न तो कोई पुस्तक पढ़ी है और न ही कोई पत्रिका। जो कुछ पढ़ा, 1996 से पहले ही। बस! फिलहाल "तीजा जगार" और "लछमी जगार" के दूसरे वर्ज़नों का पद्यात्मक अनुवाद का काम हाथ में है। फिर "लछमी जगार" के ही हल्बी-अंग्रेजी संस्करण पर भी काम चल ही रहा है। ऐसे में अध्ययन के लिये समय निकाल पाना कठिन ही हो गया है। आपकी लेखनी से "सफर एक डोंगी डगमग" और "दरकते हिमालय पर दर-ब-दर" से भिज्ञ हुआ। इसके लिये आपका आभार।
ReplyDeleteआपके लेखनी हमेशा से ही चमत्कृत करने वाली रही है मेरे लिए तो। बहुत ही कमाल का लेखन
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