छत्तीसगढ़ के रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह संगीतज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। रायगढ़ का कथक घराना और संगीतशास्त्र की पुस्तकें, तबला वादन और कला-संगीत संरक्षक राजा के नाम पर रायगढ़ में प्रतिवर्ष गणेश पूजा के दौरान चक्रधर महोत्सव का आयोजन होता है। रायगढ़ के बारेननाथ बैनर्जी और अकलतरावासी कला-मर्मज्ञ ठाकुर गोलन सिंह, राजा चक्रधर सिंह के अच्छे शिकारी और लेखक होने की चर्चा किया करते थे, यह बस किस्सा लगता था, किन्तु भिलाई वाले आशीष दास के संग्रह की सामग्री देखते हुए 'माधुरी' के अंक जून 1932 में पृष्ठ 707 से 713 पर प्रकाशित यह लेख मिला, यहां वही प्रस्तुत है।
शिकार
(श्रीमान् राजा चक्रधरसिंह, रायगढ़-नरेश)
मैं इस लेख में निरीह पक्षियों के वध की बात न कहूँगा। आप लोग इसमें भोलेभाले हरिण, चीतल, साँभर आदि तृणचारी पशुओं के निधन की बात भी न पायेंगे। इस लेख में तो केवल हिंसक जीवों और उसमें भी विशेषकर शेर के शिकार ही की बात कही जायगी; क्योंकि शेष सब आखेट तो विशेषकर जिह्वा की तृप्ति के लिए किये जाते हैं, केवल यही शिकार ऐसा है जो अधिकतर लोक-कल्याण की दृष्टि से किया जाता है।
निस्तब्ध वनस्थली में हाँके के शब्द के साथ मृदु मंथर गति से अग्रगामी होता हुया जिस समय वह कानन-सम्राट् शिकारी के मचान के समीप आ पहुँचता है, उस समय उस शिकारी के हृदय का भाव देखते ही बनता है। मेरे सर्वप्रथम व्याघ्र के शिकार का दृश्य अब तक मेरी आँखों के सामने झूला करता है। कितने वर्षों की अनवरत आशा के बाद, कितने दिनों के अविश्रान्त परिश्रम के बाद, किस प्रकार एक दिन वह विश्वनाथ-पाली के हाँके में सहसा प्रकट हो गया, किस प्रकार वह मेरे मचान के समीप आ गया, किस प्रकार मैने उछलते हुए हृदय को रोकने की चेष्टा की, किस प्रकार मैंने भाव-भरे हाथों से निशाना साधा और किस प्रकार वह विशाल शक्ति का पहाड़ एक ही गोली खाकर धूल के ढेर के समान एकदम ढह पड़ा! वे सब बात भुलाये नहीं भूलतीं। वनराज का इस प्रकार साक्षात्कार होना भी एक बड़े कौतूहल और बड़े उल्लास का विषय होता है। शिकारी के धैर्य और स्थैर्य की यहीं परीक्षा होती है। यदि निशाना ठीक बैठा, तब तो शिकारी बाज़ी मार ले गया। यदि वह चूका और शेर घायल हो गया, तो फिर जो अनर्थ न उपस्थित हो जाय, वही थोड़ा है।
लोग शिकार को व्यसन कहा करते हैं। है भी यह ऐसा ही कुछ। जिसे इसका नशा हो गया, वह सर्दी-गर्मी और भूख-प्यास की परवा न करता हुआ इसी के पीछे पागल-सा रहता है। भयंकर जाना पड़ रहा हो, चाँदनी में प्रकाश के बदले हिम के कण ही क्यों न गिर रहे हों, सघन वनस्थली प्रेतों की आवासभूमि ही क्यों न बनी रहे- निशाचरों का क्रीड़ा-मंच ही क्यों न जान पड़े; परन्तु यदि शिकारी को शिकार की आहट मिलेगी, तो वह रात-रात भर जागता बैठा रहेगा और मुँह से उफ़ तक न करेगा। जेठ का सूर्य घाम के बदले चाहे अग्नि ही बरसा रहा हो, लू के बदले चाहे दावानल ही क्यों न चल रहा हो, प्यास लगने पर चाहे पानी की बूँद भी मिलने का ठिकाना न हो, परंतु यदि शिकार की आशा है, तो शिकारी इन सब कठिनाइयों की रत्ती-भर भी चिंता न कर अपने उत्साह में आगे ही बढ़ता चला जाता है। वह अँधेरे में भी भयावह जंगलों के बीच भटका करेगा, अपनी जान को हथेली पर लेकर शेरों की माँद में घुस पड़ने का दुःसाहस करेगा, गिरने-पड़ने की परवा न कर दुरूह घाटियाँ और विषम नदी-नाले पार करने की चेष्टा करेगा तथा मृत्यु को आँखों के आगे नाचते हुए देखकर भी अविचलित भाव से अपने लक्ष्य की ओर निशाना साधने में ही दत्तचित्त रहेगा। स्वयं मैंने एक बार इसी तरह का दुस्साहस कर लिया था। घुरा का बीहड़ वन था। शेर का पीछा करते हुए हम लोग दूर तक निकल गये थे। आगे चलकर देखा कि शेर एक गड्ढे में घुसा बैठा है। केवल उसकी पीठ दिखायी पड़ रही थी। सामने बड़ा गहरा खड्ढ था और पीछे इम लोग। शेर आगे उछले तो अप्राप्य हो जाय, और पीछे लौटे तो हमीं लोग साफ़ हो जायँ। बुद्धिमानी इसी में थी कि हम लोग चुपचाप लौट आयें। परंतु उत्साही हृदय बुद्धि की इस सीख को कहाँ मान सकता था। हृदय ने विवश कर दिया। मैं गया और अपनी बंदूक की नली उस विशालकाय हिंसक पशु की पीठ पर छुला दी। दुनाली का स्पर्श होते ही शेर उछला। इधर से गोलियाँ भी भनभनाती हुई निकल पड़ीं। जब तक शेर खड्ढ में गिरे, तब तक गोलियों ने अपना काम समाप्त कर दिया था! उस खड्ढ में जीवित शेर के बदले उसकी मरी हुई लाश ही गिरी। यह काम बड़ा कठिन था। निशाना पक्का सधा हुआ होना चाहिए था। हृदय तथा हाथ पर पूरा अधिकार होना चाहिए था, निरीक्षण तथा निश्चय सच्चे होने चाहिए थे। यदि कहीं भी त्रुटि होती तो अनर्थ ही हो जाता। इसी तरह तो आकस्मिक दुर्घटनाएँ हुआ करती हैं। ईश्वर की कृपा है कि लगभग ५० शेर तथा अनेकानेक इतर जीवों का शिकार कर चुकने पर भी मुझे अब तक किसी दुर्घटना का सामना नहीं करना पड़ा है। बात यह है कि मैं इस विषय में पूर्ण सावधान रहता हूँ। अपनी सवारियाँ, अपने मचान, अपने साथी, अपने शस्त्र, अपने अभ्यास और अपनी विचारशक्ति, सभी को भली भाँति तौलकर तब कहीं ऐसे कठिन प्रसंगों में अग्रसर होना चाहिए। यदि ऐसा न किया जायगा, तो शिकारी को किसी दिन धोखा उठाना पड़ेगा।
अति तो सभी कहीं वर्जित है; परंतु यदि नरेश लोग नियमित रूप से शेर के शिकार की ओर रुचि रक्खा करें, तो उन्हें बड़ा लाभ हो। इस अभ्यास से शरीर परिश्रमशील हो जाता है, शक्ति और साहस का संचार होता है, रमणीय वनस्थली के साथ विशेष संपर्क होते रहने से प्रकृति के साथ एकात्मता बढ़ती, स्वभाव में रमणीयता आती तथा स्वास्थ्य में विकास होता रहता है। इसी के बहाने उन्हें अपने राज्य के अनेकानेक स्थलों में घूमने का अवसर मिला करता है और इस प्रकार वे अपने प्रजाजनों की स्थिति का प्रत्यक्ष निरीक्षण कर सकते - - उनके सुख-दुःख का ज्ञान स्वयं उन्हीं से प्राप्त कर सकते हैं। वनवासी किसानों तथा उनके पशुओं की जीवनरक्षा तो इसमें प्रत्यक्ष है ही। राज-काज के पश्चात् जो समय बचता है, वह हानिकारक दुर्व्यथसनों में व्यर्थ बर्बाद होने के बदले मृगया सरीखे पौरुष-सापेक्ष क्षत्रियोचित कार्य में लग जाय तो उत्तम ही है। कहावत है-
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिक न गजे गजे।
साधवो नहि सर्वत्र चन्दनं न वने वने।अति तो सभी कहीं वर्जित है; परंतु यदि नरेश लोग नियमित रूप से शेर के शिकार की ओर रुचि रक्खा करें, तो उन्हें बड़ा लाभ हो। इस अभ्यास से शरीर परिश्रमशील हो जाता है, शक्ति और साहस का संचार होता है, रमणीय वनस्थली के साथ विशेष संपर्क होते रहने से प्रकृति के साथ एकात्मता बढ़ती, स्वभाव में रमणीयता आती तथा स्वास्थ्य में विकास होता रहता है। इसी के बहाने उन्हें अपने राज्य के अनेकानेक स्थलों में घूमने का अवसर मिला करता है और इस प्रकार वे अपने प्रजाजनों की स्थिति का प्रत्यक्ष निरीक्षण कर सकते - - उनके सुख-दुःख का ज्ञान स्वयं उन्हीं से प्राप्त कर सकते हैं। वनवासी किसानों तथा उनके पशुओं की जीवनरक्षा तो इसमें प्रत्यक्ष है ही। राज-काज के पश्चात् जो समय बचता है, वह हानिकारक दुर्व्यथसनों में व्यर्थ बर्बाद होने के बदले मृगया सरीखे पौरुष-सापेक्ष क्षत्रियोचित कार्य में लग जाय तो उत्तम ही है। कहावत है-
इस श्लोक की अंतिम पंक्ति में कुछ फेरफार कर कहा जा सकता है कि "आखेटं नहि सर्वत्र व्याघ्रो नैव वने वने।" वह जंगल का राजा ठहरा। सर्वत्र कहाँ सुलभ हो सकता है। आज वह इस जंगल में है, तो कल वही पचीस-पचीस कोस दूर के किसी जंगल में जा निकलेगा। लोग उसके पंजों के निशान देखकर उसकी खोज किया करते हैं, परंतु खोजियों की वह खोज अधिकांश में असफल ही रहा करती है। हाँ, यदि सौभाग्यवश कहीं शेर द्वारा खायी हुई ताज़ी लाश (जिसे "मरी" कहते हैं) मिल जाय, तो फिर शेर का मिलना कुछ सुगम हो जाता है; क्योंकि वह अपने भक्ष्या पदार्थ को इस प्रकार छोड़कर बहुत दूर नहीं जाता। मारे हुए पशु का कुछ मांस खाकर वह दिन भर मस्त पड़ा रहता है, और संध्या के अनंतर अवशिष्ट आहार-भक्षण करने के लिए वह फिर उसी 'मरी' के पास पहुँचता है। उस समय यदि शिकारी वहीं कहीं बैठा हो, तो शेर को आसानी से मार सकता है। लोग मरी पाकर अकसर वहीं खूँटे से बाँध दिया करते हैं, ताकि शेर उसे हटाकर ले न जा सके; और फिर वहीं मचान आदि बाँधकर इस प्रकार बैठ जाते हैं कि वह मरी ठीक निशाने के अंदर रहे। यदि उजेली रात हुई तब तो कुछ कहना ही नहीं है, और यदि अँधेरी रात हुई तो टार्चलाइट (बिजली की बत्ती) का सहारा लिया जा सकता है। शेर आकर मरी को खींचता है, खड़भड़ाहट की आवाज़ होती है। बस, शिकारी की दुनाली से दन् दन् की आवाज़ उस वन की निस्तब्धता को चीरती हुई पहाड़ों से टकरा कर भयङ्कर रूप से प्रतिध्वनित हो उठती है, और वह भीमकाय पशु ज़मीन पर चारों ख़ाने चित्त लोटने लगता है।
मरी पर का ऐसा सुवर्णावसर सदैव समुपलब्ध नहीं हुआ करता। इसीलिए कृत्रिम उपायों से मरी का प्रबन्ध किया जाता है। इस कृत्रिम उपाय को 'गारा' कहते हैं। व्याघ्र महोदय की क्षुधानिवृत्ति के लिए भैंसा, घोड़ा या ऐसा ही कोई पशु उपयुक्त वन के किसी अभीष्ट स्थल पर बाँध दिया जाता है। रात्रि के समय नैश पर्यटन करते हुए पंचानन महाराज यदि उधर से निकल पड़े, तो इस प्रकार का अनायास उपलब्ध आहार देखकर एकदम लालाक्लिन्न आनन से, विद्युद्गति के साथ उस पर झपट पड़ते हैं। पशु तो बँधा ही रहता है, इसलिए शार्दूल शर्माजी आतृप्ति भोजन कर अपने सौभाग्य की श्लाघा करते हुए समीप ही के किसी शयन योग्य सुस्थल पर पहुंचकर स्वप्नसंसार का आनंद लेने लगते हैं। इधर सबेरे खोजियों द्वारा गारा हो चुकने (पशु के मारे जाने) का पता पाकर शिकारी वहीं जा धमकता है और हाँका प्रारंभ हो जाता है। बस, हाँके का शब्द शेर की सुखनिद्रा में व्यतिक्रम उत्पन्न कर देता है और वह सालस्य नेत्रों को कभी खोलता कभी बन्द करता, खीझता, झुँझलाता, मन ही मन उस शब्द के उद्गमस्थल को कोसता हुआ, एक-दो पग आगे बढ़ता, फिर ठहर कर हाँफना हुआ विश्राम करने की चेष्टा करता है। परन्तु हाँके का वह निर्दय शब्द उसे विश्राम ही नहीं लेने देता।
अंकुशबिद्ध मातंग की भाँति वह फिर आगे बढ़ता और फिर रुक जाता है। इसी प्रकार वह क्रमशः ठीक मचान के पास आ जाता है। बेचारे को क्या पता कि गारेवाले पशु के वध का बदला इस प्रकार हाथोंहाथ चुकाना पड़ेगा --- कल जिस स्थान पर बद्ध पशु को तड़पाया था, आज वहीं स्वयं तड़पना पड़ेगा। कदाचित् वह उस समय भी यही विचार करता जाता है कि कब यह निष्ठुर शब्द बन्द हो और कब में सुख-शयन में खाये हुए आहार का परिपाक करके अवशिष्ट आहार को समाप्त करने योग्य बन जाऊँ। ठीक इसी समय दायँ-दायँ का वज्रनिनाद निर्घोषित हो उठता है और सहसा वह वनराज, वह पंचानन, वह प्रबल शक्ति का विशाल पुंज अपने को अशक्त, असहाय और काल के गाल में एकदम गिरा हुआ पाता है। इस अवसर पर कवि का निम्नलिखित श्लोक कितना चरितार्थ होता है---
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिस्यति पङ्कजश्रीः।इत्थं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार।।
अथवा--- बीतेगी रात प्रभात समय निकलेगी सूरज की लाली;
फिर से विकसित हो जायेगी पंकज की मतवाली प्याली;
भौंरा यों था जब सोच रहा उस सरसिज-कलिका में फँसकर,
हाथी ने जब से तोड़ उसे भर लिया गहन मुख के भीतर।
बस, सब मन के मनसूबे मन ही में रह गये और अपनी अभिलाषाएँ अपने साथ लिये वह दूसरे लोक का प्रवासी बन गया।
शेर को घोड़े का गारा बहुत पसंद है। यदि उसे घोड़े का गारा मिल जाय तो फिर वह उस जंगल को छोड़कर कहीं न जायगा। बहुत बड़े अफसरों के लिए जब शेर के शिकार का प्रबंध करना पड़ता है तब वह इसी तरह एक ही जंगल में पाल लिया जाता है। गारे पर गारा समाप्त करता हुआ वह उसी जंगल में पड़ा रहता है।
गारा हो जाने पर हाँके का प्रबंध एकदम हो जाना चाहिए। हाँका उस हल्ले को कहते हैं जो मनुष्यों द्वारा जंगल का घेरा डालकर किया जाता है। हाँकेवाले अधिकतर १०० से ५०० तक रहा करते हैं । वे दस-दस या बीस-बीस कदम के अंतर पर रहकर जंगल को घेर लेते और नगाड़ा, ताली या लकड़ी बजाते तथा हाँ-हाँ इत्यादि चिल्लाते हुए क्रमशः मचान की बढ़ते हैं। उस घेरे के भीतर फँसा हुआ जानवर भी क्रमशः उस हल्ले के कारण आगे बढ़ता जाता है और इस प्रकार वह मचान तक आ पहुँचता है। मचान अकसर ऐसी ही घाटी में बाँधा जाता है जहाँ होकर जानवर आया-जाया करते हैं। मचान के अगल-बग़ल, कुछ दूर हटकर, कुछ आदमी वृक्षों पर बैठा दिये जाते या कपड़े तानकर छिपा दिये जाते हैं। यदि जानवर मचान के पास न आया और कटकर इधर-उधर जाने लगा, तो इन मनुष्यों का (जिन्हें टोंकहार कहते हैं) काम होता है कि यह तालियाँ बजाकर या और भी किसी तरआवाज़ करके जानवर को चौकन्ना कर दें, ताकि वह अपना मार्ग बदलकर मचान की ओर चला जाय। यह सब प्रबंध बड़ी सावधानी से करना पड़ता है। यदि जानवर को शंका हो गई कि यह सब उसके फँसाने का जाल है, तो वह फिर न हँकहारों की परवा करता है और ना टोंकहारों की। वह मनुष्यों के घेरे को तोड़ता हुआ मनमानी दिशा में भाग निकलता है। गोली की आवाज़ सुनकर शेर अकसर भड़क उठता है और इधर-उधर भाग निकलता है। इसीलिए जिस हाँके में शेर के निकलने की आशा हो, उसमें दूसरे जानवर पर गोली नहीं चलाई जाती। हाँ, यदि कोई कौतूहलपूर्ण अथवा भयावह जीव पहले ही मिल जाय, तो फिर उसे छोड़ना भी ठीक नहीं रहता; क्योंकि अँगरेज़ी में कहावत है कि "हाथ आयी हुई एक चिड़िया घोंसले में बैठी हुई दो चिड़ियों के बराबर मूल्यवान है।" एक बार ऐसे ही शिकार में मुझे एक बड़ा भयंकर भालू देख पड़ा। उसे यों ही चले जाने देना मैंने उचित न समझा; क्योंकि कई अवसरों पर ऐसा भालू एक बड़े बाघ से भी अधिक हानिकर और हिंसक हो जाता है। इसलिए मैंने उसे ही पहिले साफ़ कर दिया। परंतु अकसर बाघ की आशा में ऐसे जानवरों को छोड़ देना ही अच्छा होता है।
हाँका जितना अधिक संगठित होगा, शिकार उतना ही सफल और निरापद होगा। अशिक्षित हाँकेवाले गोली चलाने पर अकसर भाग निकलते हैं और धक्कम-धक्के से एक दूसरे को गिराते चलते हैं। ऐसा करने से अकसर चोट लग जाती है और घायल शेर को भी आदमी पर झपटने का अवसर मिल जाता है। यदि बड़े जंगल का हाँका धीरे-धीरे किया गया, तो मचान तक पहुँचते-पहुँचते एकदम अंधेरा हो जाता है। ऐसी स्थिति में शिकार करना ख़तरे से खाली नहीं रहता। जाँगी-पहाड़ी के हाँके में मुझे एक बार ऐसा ही अवसर आ गया था। अंधेरी रात थी। जाड़े के दिनों के सात बज चुके थे। घनघोर अंधकार ने संपूर्ण वन को अपने काले लबादे से ढक लिया था। आँखों के आगे अभेद्य कालिमा के अतिरिक्त और कुछ दिखायी ही न देता था। हाँके की आवाज़ बराबर आ रही थी। इसलिए मैं मचान से उतर भी न सकता था। कुछ देर बाद मैंने कुछ खटका सुना। ईश्वर का नाम ले उसी शब्द पर लक्ष्य लगाकर मैंने गोली चला दी। फिर एकदम सन्नाटा हो गया। हाँकेवाले समीप आये तब प्रकाश किया गया और उसके आलोक में देखने से पता चला कि वहाँ एक शेर मरा पड़ा है। ईश्वरेच्छा से वह शब्दमेवी निशाना ऐसा भरपूर बैठा था कि शेर चीख़ तक न सका और एक ही गोली में ढेर हो गया। परंतु अँधेरे में ऐसा दुस्साहस अच्छा नहीं होता। अनभ्यस्त मृगया-प्रेमी तो ऐसा कदापि न करे, क्योंकि ऐसा करने पर शेर के घायल होकर भाग निकलने ही की सम्भावना अधिक रहती है। यदि ऐसा हुआ, तो अँधेरे में वह कई हँकहारों के प्राणों का ग्राहक बन सकता है। कभी-कभी हाँके में कई शेर निकल पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में उतावनी दिखाने से भरपूर गोली नहीं पड़ने पाती। निशाना ठीक साधकर जितने शेर मारते बने, उतने मार लेना चाहिए। झुनझुनी के जंगल में मैंने एक ही हाँके में तीन शेर तक मारे हैं। इससे अधिक मारने का मुझे अवसर नहीं मिला। दो शेर एक साथी तो कई हाँकों में मिले और मारे गये हैं।
केवल गारा और हँकहारों का विचार ही शिकार के लिए पर्याप्त नहीं है। मचान की ओर भी भली भाँति ध्यान रखना आवश्यक रहता है। मचान यदि बहुत ऊँचा रहेगा, तो गोली का निशाना ठीक न लगेगा। यदि बहुत नीचा हुआ, तो बैठनेवाले निरापद न होंगे। इसलिए मचान अक्सर सात से नौ फुट की ऊँचाई पर बाँधा जाता है, और पत्तों आदि से इस प्रकार ढक दिया जाता है कि आदि को किसी अस्वाभाविकता की शंका न हो। वह ऐसी घाटी पर बाँधा जाता है, जिसकी एक ओर तो अच्छा जंगल और दूसरी ओर सामान्य झाड़ी हो। जंगल का हाँका होने पर शेर आदि उस झाड़ी की ओर उसी घाटी की राह होकर जाना चाहेंगे। शेर के सामने आते ही गोली नहीं चला दी जाती। उसे बग़ल से निकलने का अवसर दिया जाता है और तब उसके सामने के पैर और वक्षःस्थल की जोड़ पर निशाना साधकर गोली चलायी जाती है। अन्य स्थितियों में गोली चलाने से अकसर निशाना चूकने का या शेर घायल होकर निकल भागने का डर रहता है। शिकार में हाथी रखना उत्तम है; क्योंकि यदि शेर घायल होकर निकल जाय तो हाथियों की सहायता से सफलतापूर्वक उसका पीछा किया जा सकता है।
शेर का शिकार जाड़े में अच्छा बन पड़ता है। उस समय हँकहारों को भी कष्ट नहीं होता और शेर गहन वनों को छोड़ गाँवों के समीप भी आ जाता है। इस समय का उसका चमड़ा भी सघन केशों से आच्छादित रहा करता है। इसीलिए अच्छे शिकारी इसी समय को बहुत पसंद करते हैं। वे बड़े दिनों आदि की छुट्टियों में शेर के शिकार के लिए दूर-दूर देशों का चक्कर लगाया करते हैं। फिर भी मैंने बहुत-से ऐसे बड़े-बड़े अफसर देखे हैं, जो जंगल-जंगल भटका करते हैं; परंतु सारी उम्र एक सामान्य बाघ भी शिकार के लिए नहीं पा सके हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि शेर अनायास ही नहीं मिला करते और हर एक जंगल में वे होते भी नहीं। उन्हें पाने के लिए न केवल प्रयत्न किंतु प्रारब्ध का भी सहारा ढूँढना पड़ता है।
शेर का चमड़ा भव्य भवनों की सजावट तथा साधुओं के सुखासन में काम आता है। उसकी चर्बी गठिया-वात रोगियों के रोगियों की प्रिय वस्तु है। उसका मांस डब्बे की बीमारी में बच्चों को दिया जाता है। उसकी हड्डी के लेप से उठते हुए फोड़े दब जाते हैं। उसके नाखून बच्चों के गले में पहनाये जाते हैं। उसके दाँत आँखों की ओषधि में काम आते हैं। उसकी मूछें विष का काम देती हैं। उसकी वीर हड्डियां बड़े सौभाग्य की वस्तुएँ मानी जाती हैं। इन सबसे बढ़कर उसका विनाश गृह-पशुओं को अभयदान देता और वनवासी दीन कृषकों के जीवन-पथ को कंटकरहित करता है। मचान पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा में जिस उत्तेजना-भरी उत्सुकता का तथा जिस आशा, निराशा, भय, उत्साह, सफलता, असफलता आदि के द्वंद्व का अनुभव होता है, उसका आनंद भुक्तभोगी ही जान सकते हैं। ऐसी स्थिति में यदि राजाओं और राजपुरुषों की प्रवृत्ति शेर के शिकार की ओर रहे, तो वह क्योंकर अनुचित कही जा सकती है।
शिकार का ऐसा साहित्यिक वर्णन सम्भवत: मैं पहली बार पढ़ रहा हूँ। शिकार के वर्णन में भी आलंकारिकता अपने-आप में अद्भुत है। वाह! पढ़ कर आनन्द आ गया। इस प्रस्तुति के लिये आपका अनेकानेक आभार राहुल सिंह जी।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और अत्यंत सराहनीय. आपका बहुत-बहुत आभार.
ReplyDeleteHelpfulGuruji