Friday, December 7, 2012

ब्‍लागरी का बाइ-प्रोडक्‍ट

आप सभी वेब परिचित, प्रत्‍यक्ष मुलाकात तक अन्‍तरिक्षीय देवों की तरह होते हैं, इसलिए यहां, आपके 'सामने' ईमानदार बना रह सकना आसानी से संभव हो जाता है, ज्‍यों कन्‍फेशन बाक्‍स की सचबयानी।

पड़ोसी और अजनबी-परदेसी से बात छुपाने का औचित्‍य नहीं होता, पड़ोसी को पता चलनी ही है, अजनबी को क्‍या लेना-देना बातों से और उसके साथ सब बातों को परदेसी हो जाना है। आप सब तो बगल में होकर भी परदेसी हैं, फिर आपसे क्‍या दुराव-छिपाव।

माना कि दीवारों के भी कान होते हैं मगर 'आनेस्‍टी इज द बेस्‍ट पालिसी' ... कभी सच भी तो सर चढ़कर बोलने लगता है, प्रियं ब्रूयात से अधिक जरूरी सत्‍यं ब्रूयात हो जाता है।

वैसे सच और ईमानदारी के पीछे अगर कोई कारण होते हैं, वह सब लबार के लिए भी लागू हो जाते हैं, ज्‍यों शराबी बाप के दो बेटों में एक शराब पीने लगा, क्‍योंकि उसका बाप शराबी था और दूसरा शराब से नफरत करता, कारण वही कि उसका बाप शराबी था। या दार्शनिक वाक्‍य- 'जो सुख का कारण है, वही दुख का कारण बनता है।' बहादुरशाह ज़फर की कही-अनकही है-
कहां तक चुप रहूं, चुपके रहे से कुछ नहीं होता,
कहूं तो क्‍या कहूं उनसे, कहे से कुछ नहीं होता।

परोक्ष मुलाकात की धूमिल ही छवि है स्‍मृति में। चलिए आपसे प्रत्‍यक्ष होने के अवसर की प्रतीक्षा रहेगी। आपकी टिप्‍पणी में प्रशंसा है, अस्‍वीकार कैसे करूं, लेकिन सचाई यह है कि साहित्‍य से सीधा कुछ रिश्‍ता रहा नहीं। कभी लिपि की दिशा से, कभी संस्‍कृति तो कभी इतिहास-पुरातत्‍व के माध्‍यम से लिखना-पढ़ना साधने की कोशिश करता हूं, मुझे पता है जैसा चाहता हूं वैसा ठीक सधता नहीं, लेकिन मैं भी पीछा छोड़ता नहीं। 

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लेकिन कुछ समय के लिए तुम्‍हें सचमुच नास्तिक मान बैठा था, तुम तो पक्‍के आस्तिक निकले, साम्‍यवाद पर ऐसी आस्‍था, चकित हूं मैं।

मैं तो मंदिर जाता हूं, कुछ कर्मकाण्‍डों का अनुकरण भी कर लेता हूं मन नहीं रमता उसमें, लेकिन लगता है कि कुछ चीजें जिनसे न लाभ न हानि, उनसे सहमति-असहमति से निरपेक्ष रह कर नकल निभा लेने में हर्ज नहीं, क्‍योंकि गांठ बांधकर विरोध भी तो एक तरह का आकर्षण है, आसक्ति है, वह सिर्फ विरोधी नहीं रह जाता। निरासक्‍त रहना ही सच्‍ची नास्तिकता है और तभी वह आस्तिकता जैसी पवित्र और सम्‍मानजनक है। हां, मैं ताबीज, गंडा नहीं बांधता, भौतिक या वैचारिक दोनों तरह के, अंगूठी, नग-पत्‍थर नहीं धारण करता और नाम जपन, नियमित दीप-धूप-अगरबत्‍ती भी नहीं करता यह सूचना के बतौर बता रहा हूं, क्‍योंकि इसकी घोषणा भी आसक्ति और आस्तिकता ही है, ''न के प्रति आसक्ति।''

कुछ संस्‍थाएं हैं आसपास, एक सद्यजात छोड़े बच्‍चों को पालती है, एक मानसिक विकलांग महिलाओं की देखरेख करती है और एक बुजुर्गों का जतन। जब भी मन खिन्‍न होता है, कमजोर होता है या किसी भौतिक, मानसिक जीत का जश्‍न मनाने का उत्‍साह बेकाबू होता है तो इन्‍हीं तीन का स्‍मरण करता हूं या अवसर निकाल कर स्‍वयं जाता हूं। मंदिर जा कर या भगवान को याद कर वैसा नहीं महसूस कर पाता, जैसा औरों से सुनता हूं, पढ़ा है। यह भी स्‍पष्‍ट कर दूं कि इनमें पहली हिन्‍दू संस्‍था द्वारा, दूसरी इसाईयों की और तीसरी नाम ध्‍यान न रही संस्‍था, वहां के एक सक्रिय मुस्लिम सदस्‍य का जिक्र हुआ था, द्वारा संचालित है, संयोगवश। 

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पत्रकार अक्‍सर 'खोजी' होते हैं और उनकी खोज अपने-अपने 'सत्‍य की खोज' की तरह नित नूतन पहली बार ही होती है यानि जिसे उसने पहली बार जाना, वह पहली बार ही जाना गया है और वही इसे उजागर कर यह 'सत्‍यार्थ प्रकाश' फैला रहा है। अखबारों का 'दुर्लभ', 'पहली बार', 'नया', 'एक्‍सक्‍लूसिव-बाइलाइन' और अब तक अनजाना- 'रहस्‍योद्घाटन' अक्‍सर ऐसा ही होता है, लेकिन शायद यही शोध और खोज का फर्क है। यह पत्रकारों की मेहनत को कमतर आंकना नहीं है, लेकिन आम प्रवृत्ति लगभग इसी तरह प्रकट होती रहती है, यह मीडिया की विश्‍वसनीयता को कम करती है। इन सबके पीछे समय सीमा का तर्क होता है यानि अखबार, जो रोज छपते हैं और चैनल, जिन्‍हें 24 घंटे कुछ न कुछ परोसना है और सबसे पहले। 'एक-दिवसीय इतिहास बन रहा है और अखबार क्‍या तवारीख भी रद्दी में बिक रहा है।'

इम्‍पैक्‍ट फीचर, साफ्ट स्‍टोरी और पेड न्‍यूज के बीच की क्षीण सी रेखा कभी आभासी मात्र जान पड़ती है। रील-रियल से रियलिटी शो और लाइव का गड्ड-मड्ड... ठीक-ठाक प्रूफ (रीडिंग) न होने से भी एडवरटोरियल, एडिटोरियल हो सकता है। 'जब मिल बैठेंगे तीन यार...', जैसे उद्घोष के साथ शराब निर्माता मिनरल वाटर और सोडा भी बनाते-बेचते हों तो शराबी को थोड़ी आसानी हो जाती है लेकिन पानी के ग्राह‍क को शराबी समझ लेने की गलती भी आसानी से हो सकती है।

समाचार-पत्र/मीडिया, पत्रकारों की छवि और चरित्र, उनके आक्रामक तेवर और आतंक के लिए 'पीपली लाइव' का हवाला देने वालों के ध्‍यान में नवम्‍बर, 1894, वाशिंग्‍टन में स्‍वामी विवेकानंद की लेखी का यह उद्धरण भी रहे- ''भारत में मेरे नाम पर काफी हो-हल्‍ला हो चुका है। आलासिंगा ने लिखा है कि देश भर का प्रत्‍येक गांव अब मेरे विषय में जान चुका है। अच्‍छा, चिर शान्ति सदा के लिए समाप्‍त हुई और अब कहीं विश्राम नहीं है। मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि भारत के वे समाचार-पत्र मेरी जान ले लेंगे। अब वे लिखेंगे कि मैं किस दिन क्‍या खाता हूं, कैसे छींकता हूं। भगवान उनका कल्‍याण करे।'' 

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मेल, टिप्‍पणी और प्रति-टिप्‍पणियों का बचा-खुचा, प्रयोग है एक पोस्‍ट यह भी।

26 comments:

  1. आपके कथन और उदगार ने मन के कई गाँठ खोल दिए , इतना कुछ सहेज दिया है आपने कि चिंतन करने को मन दौड़ गया . एक बार में मन भरा नहीं फिर पड़ना बाकि है . आपके चिंतन को प्रणाम .

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  2. बड़ी गहरी और सच्ची बातें ...मुझे समझने में वक्त लगेगा ..पर फिर भी कोशिश करता रहूँगा ..आप जो भी लिखते हैं ,,बहुत अच्छा लिखते हैं ..इतना तो समझ आता ही है |
    स्वस्थ रहें!

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  3. मौलिक प्रयोग है सर, सूरज का सातवां घोड़ा दौड़ सकता है

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  4. असम्बद्ध होकर भी अद्भुत सम्बद्धता..... प्रयोग के गद्य कवि की पदवी पर हाथ फेर लिया आपने तो

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  5. यह बायप्रोडक्ट बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा है ... अभिनव प्रयोग ।

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  6. likhan ki shaili.....soch ko chal....rook...chal...rook lag raha hai...........swadhyay itna nahi ki kahan ke sar-sandarbh atmsat kar
    sakoon........tip-pratitip.....se kuch adhik samajhne ki gunjayas
    bane, aisa lag raha hai........


    pranam.

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  7. बहुत से नये टोपिक मिल गये हमें तो इस कोलाज में:)

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  8. ऐसा ही बहुत सा गड्डम होता रहता था तो हार कर लधुकथाओं का ब्‍लॉग बनाया था मैंने

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  9. बढ़िया प्रयोग है..पढ़ा-पढ़ा सा, जाना-जाना सा।

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  10. मन को जो भावे, वह शब्दों में भी आवे।

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  11. आपकी सोच का फलक बहुत विस्तृत है लेकिन है बिल्कुल पारदर्शी, पोस्ट ने आपको जानने के बारे में पाठकों की जिज्ञासा का एक एक फलक तो खोल ही दिया है आभार

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  12. बेहतरीन सोचों को कम शब्दों में कह गए जनाब..
    बहुत अच्छा लगा यह प्रयोग.. और नए प्रयोगों की अपेक्षा है अब..

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  13. वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  14. पहचान हुई, आगे बढ़ी, और प्रगाढ़ हो ... शुभकामनायें!

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  15. ये तो 'उध्‍दरणीय उध्‍दरण' बन गए - बाई-प्राडक्‍ट से प्राडक्‍ट बन गए।

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  16. बहुत बेहतरीन पोस्ट है...

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  17. @ "कुछ चीजें जिनसे न लाभ न हानि, उनसे सहमति-असहमति से निरपेक्ष रह कर नकल निभा लेने में हर्ज नहीं, क्‍योंकि गांठ बांधकर विरोध भी तो एक तरह का आकर्षण है, आसक्ति है, वह सिर्फ विरोधी नहीं रह जाता। निरासक्‍त रहना ही सच्‍ची नास्तिकता है और तभी वह आस्तिकता जैसी पवित्र और सम्‍मानजनक है।"

    स्वर्णिम सूक्त सम वाक्य!!

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  18. सच एक है। विप्र उसे विविध प्रकार से कहते हैं।

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  19. रसूल हमजातोव की "मेरा दागिस्तान" याद आ गया.आशा है कि शैली और उत्कृष्ट होगी.

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  20. भाषा गड़मड़ लगी शिरा पकड़ते ही छूट जाता है।

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    1. यह प्रयोग जैसा ही है, उबड़-खाबड़पन को दुरुस्‍त करने का प्रयास भी नहीं किया है. भाषा की गड़मड़ (गड़बड़ या गड्ड-मड्ड) कुछ हद तक मंजूर, आभार.

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  21. आपका यह पोस्ट अच्छा लगा। मेरे नए पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी। धन्यवाद।

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  22. साहित्य से सीधा कोई रिश्ता नहीं, फिर भी एक नयी विधा का जन्म हो गया ..
    कमाल है !

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  23. जाने भी दो यारो.....हिन्‍दी फ़िल्म याद आ गई!!!!

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  24. अब लग रहा है ..वानप्रस्थ की मानसिकता बन गयी है। चिंतन की दिशा बता रही है कि कुछ ही दिन में आपको लिखना पड़ेगा "वानप्रस्थ से सन्यास की ओर"

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