''अमरीका में 38% डॉक्टर, 12% वैज्ञानिक, 36% नासा वैज्ञानिक, 34% माइक्रोसाफ्ट कर्मी, 17% इंटेल कर्मी, 28% आइबीएम कर्मी भारतीय हैं, आइये गर्व करें कि हम भारतीय हैं''. शायद ही कोई भारतीय ईमेल आइडी या मोबाइलधारी होगा जिसके पास यह संदेश एकाधिक बार न पहुंचा हो. 'यह संदेश सारे भारतीयों को फारवर्ड कीजिए, सच्चे भारतीय बनिए' बार-बार संदेश आने पर लगा कि इसे फारवर्ड करना ही होगा, कहीं मेरी राष्ट्रीयता संदिग्ध न हो जाए लेकिन आशंकित मन में संदेह हुआ कि यह संदेश सेवा प्रदाताओं की 'बेच कर ही दम लेंगे' वाली 'स्थाई सेल' तो नहीं है.
गणितीय पद्धति से यह हिसाब नहीं लगाया है कि मुझे भारतीय होने पर क्यों गर्व है और वैसे भी इसमें कोई गणित लागू होता तो वह बीजगणित के 'मान लो' जैसा या टोपोलॉजी के 'आकार में अनाकार' का हिसाब लगाने जैसा होता. सभी को अपने-अपने मां के हाथ की रसोई सबसे स्वादिष्ट लगती है. ऐसा क्यों होता हैॽ क्या हमें वही स्वाद भाता है, जो बचपन से पहचाना हैॽ मां अच्छी कुक-शेफ हैॽ, याकि हमें मां पसंद होने के कारण उसके हाथ का बना खाना पसंद आता हैॽ पता नहीं. उद्दाम बौद्धिक भी सहमत होंगे कि कुछ ऐसे प्रश्न हो सकते हैं जो उठने नहीं चाहिए, उठे तो उनका उत्तर न तलाशा जाय और प्रयास करें तो यह सदा चलता रहे. मां की रसोई के स्वाद का या मातृभूमि के प्रेम रहस्य का संधान, इसी श्रेणी में होगा. संक्षेप में मुझे तो 'अकारण' ही भारतीय होने का गर्व है.
एक और हिसाब लगाकर देखें. हमारे देश में शक, यवन, हूण, तुर्क, मुस्लिम आए और यहां के रंग में रंग गए, आत्मसात हो गए. इस हिसाब-किताब में अंगरेजों को शामिल नहीं किया जाता. चुनांचे, अंगरेज नहीं लेकिन देश में कितनी अंगरेजियत जज्ब है, इस पर यहां चर्चा न किया जाना ही बेहतर होगा. समाज विज्ञान की विभिन्न शाखाएं, खासकर भाषाविज्ञानी और मानवशास्त्री मानते हैं कि प्राचीन काल में दक्षिण-पूर्व से आस्ट्रिक या आग्नेयवंशी निषाद, दक्षिण-पश्चिम से मेडेटेरेनियन या भूमध्यसागरीय द्रविड़, पूर्वोत्तर से मंगोल-किरात आए. आर्यों की उत्पत्ति, मूल निवास, आगमन की धार्मिक और राजनैतिक व्याख्याएं भी हैं और उन्हें आदि आर्य, नव्य आर्य कह कर किश्तों में पश्चिमोत्तर से भारत आना बताया जाता है. इस तरह से भारत के मूल निवासी के प्रश्न की पड़ताल भी ज्यादा बारीकी से करने पर यह प्याज का छिलका बन सकता है, जो छिलते हुए रुलाएगा और हासिल भी शून्य रहेगा.
इंग्लैण्ड के साउथहाल और लिवरपूल जैसा इलाका अहिंसक ढंग से भारतीयों का उपनिवेश बन गया कहा जाता है. कनाडा में पंजाबियों की संख्या और प्रभाव उल्लेखनीय है. मारीशस, फिजी के राष्ट्राध्यक्षों का भी स्मरण करें. ऐसे अनेक उदाहरणों की चर्चा होती रहती है. अब यदि अमरीका में भारतीयों के आंकड़े सही हैं फिर भी अमरीका चिंतित नहीं है जबकि हमारी गौरवशाली सनातन परंपरा के साथ अमरीका की कोई तुलना नहीं और हम अपने प्रवासियों पर गर्व करते हैं तो बाहर से आने वालों के लिए हमें चिंता नहीं, बल्कि अपनी परम्परा के अनुरूप विदेशियों के भारत में प्रवेश और प्रभाव का स्वागत करने को तैयार रहना होगा.
सुश्री तीजनबाई, हबीब तनवीर जी और छत्तीसगढ़ मूल के झारखण्ड में बस गए वरिष्ठ और प्रभावशाली राजनेता श्री रघुवरदास के छत्तीसगढि़या होने पर हम गर्व करते हैं. हमारे कलाकार राज्य से बाहर जाकर या विदेशों में प्रस्तुति देकर प्रशंसित होते हैं, हमें खुशी होती है. जमशेदपुर, नागपुर, भोपाल जैसे शहरों में छत्तीसगढि़यों की संख्या और प्रभाव का शान से जिक्र करते हैं, लेकिन बाहर से यहां आने वालों के लिए अपने दरवाजे बंद रखना चाहते हैं यहां तक कि ऐसे छत्तीसगढ़ी, जो न जाने कब से यहां रचे-बसे हैं और अपनी जड़ों को भूल चुके हैं, उन्हें भी सरयूपारी, कन्नौजिया (कई जाति-वर्ग के लिए प्रयुक्त) वर्गीकृत किया जाता है. 'खुंटिहर नो हय, बहिरहा आय' कह कर अनजाने ही अपमानित कर डालते हैं. यह दोहरा मानदंड राह का रोड़ा ही बनेगा. हम अस्मिता के साथ अपना प्रभुत्व परंपरा, प्रतिभा और उद्यम जैसी अहिंसक क्षमता से अर्जित करते आए हैं और करेंगे.
(इस पोस्ट का एक अंश 'नवभारत' समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर 'अभिमत' में आज, 30 अगस्त को प्रकाशित हुआ है.)
Sahi kaha sir...
ReplyDeleteMujhe apne bhartiy hone par garv karne ke liye kisi gadit ki zaroorat nahi...
मनुष्य धरती पर पसरता क्यों है ? और धरती का कोई अंश किसी खास मनुष्य समूह की पुश्तैनी जागीर क्यों हो जाता है ? किसी भूखंड पर अपनी आमद और अपनी रिहायश के एन बाद आने वाले लोग उसे बहिरागत लगने लगते हैं ? एक होकर भी उसकी पर्सोनालिटी इतना स्प्लिटिंग इम्पैक्ट क्यों देती है ? वो धरती को भी खण्ड खण्ड होकर क्यों देखता है ? उसनें अपने लिए राष्ट्रीयताएं और अकारण के गौरवबोध क्यों गढ़ डाले हैं ? स्वयं से इतर देशभक्ति के प्रमाणपत्रों का वितरणाधिकार उसकी हदूद में क्यों है ?...और...और...और भी !
ReplyDeleteसिंह साहब आज आपका आलेख पढकर कितना खुश हूं कह नहीं सकता ! हमारे अपने द्वैध को किस कदर ख़ूबसूरती से उधेड़ डाला है आपने ! मनुष्यता के एक्य और सोच का बड़प्पन ! कितने और बौद्धिक होंगे जो इतना सहज होकर अयाचित और अवांछित को ठुकराने का साहस रखते हों ! आपने अपनी बात तथ्यपरक ढंग से कही है, एक ऐतिहासिक और सम्यक दृष्टि बोध के साथ ! चिंतन के उथलेपन पर गहरी मार करते हुए आपके आलेख के लिये ! एक ही शब्द है मेरे पास ! साधुवाद ! साधुवाद ! साधुवाद !
आपने अन्तिम वाक्य में संस्कृति व पोस्ट का निचोड़ रख दिया।
ReplyDeleteअयं निजो परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
ReplyDeleteउदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
सृष्टि में कई लाख ग्रह हैं। परमात्मा की सृष्टि अनंत है। उनमें एक पृथ्वी है। इसलिए वह हमारा छोटा सा कुटुम्ब है। हम तो विश्व व्यापक हैं। हमारा कुटुम्ब दूर तक फैला है। चंद्र, मंगल, सब हमारे कुटुम्ब में आते हैं। पृथ्वी हमारा छोटा सा कुटुम्ब है- इतनी व्यापक दृष्टि हमारे पूर्वजों की थी। वेद में शब्द आया है- 'विश्वमानुष' अर्थात् 'मैं विश्व मानव हूं।'
लेकिन मनुष्य अपने छुद्र स्वार्थों की पूर्ती के लिए सीमाएं बांध कर उनका उपयोग शुरु कर दे्ता है। कहा गया है "स्वदेशे पुज्यते राजा, विद्वानं सर्वत्र पुज्यंते।
सारगर्भित पोस्ट के लिए आपको साधुवाद भाई साहब
...बेहद सार्थक व प्रभावशाली अभिव्यक्ति, बधाई !!!
ReplyDeleteवसुधैव कुटुम्बकम् का नारा देते-देते हम कहां आ पहुंचे!
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ReplyDeleteहम अस्मिता के साथ अपना प्रभुत्व परंपरा, प्रतिभा और उद्यम जैसी अहिंसक क्षमता से अर्जित करते आए हैं और करेंगे....गहन चिंतन...सामयिक प्रस्तुति....साधुवाद.
ReplyDelete________________
'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)
हम अस्मिता के साथ अपना प्रभुत्व परंपरा, प्रतिभा और उद्यम जैसी अहिंसक क्षमता से अर्जित करते आए हैं और करेंगे.
ReplyDelete...aapki puri baato se sahamat hun.
पढ़कर अच्छा लगा .
ReplyDeleteबधाई!
सहमत ..
ReplyDeleteचाचू,आपका पोस्ट पढ़कर कुछ बातें दिमाग में आई हैं. पहली बात- जब हम 'वसुधैव कुटुम्बकम' या 'ग्लोबल विलेज' की बात करते हैं, तो कहीं न कहीं हमको अपने दृष्टिकोण को ऊपर उठाना पड़ेगा और क्षेत्रवासी की जगह पृथ्वीवासी होने को अधिक प्राथमिकता देनी होगी. दूसरी बात - क्षेत्रवाद का बहुत बड़ा कारण लोगों का आर्थिक और अन्य किस्म का पिछड़ापन है, जिसके लिए वो खुद को दोष देने के बजाय बाहर से आने वालों को दोष देते हैं. खुद की योग्यता बढ़ाना मुश्किल काम है, किसी को अपने पिछड़ने के लिए दोष देना ज्यादा आसान. लोग आसान रास्ता अधिक चुनते हैं. तीसरी बात - प्रतिभा हर जगह, हर क्षेत्र में होती है. EVERY CHILD IS A GENIUS.
ReplyDeleteप्रतिभा का किसी जगह विशेष से संबंधित होना एक सांयोगिक घटना है, गर्व करना तब और अधिक उचित होगा जब उस प्रतिभा को तराशने में भी कुछ भूमिका हो. ये आंकड़े प्रतिभा पलायन को भी सूचित करते हैं. क्या हम अपनी प्रतिभाओं को सही वातावरण उपलब्ध करा पा रहे हैं, सोचनीय विषय है. अंतिम बात - यदि ये मेरी संकीर्णता हो तो माफी चाहूंगा, परंतु अंगरेजों के इस देश को जीतने में बहुत बड़ी भूमिका उन भारतीय सैनिकों की भी थी, जो रोजी-रोटी के लिए अंगरेजों की सेना में नौकरी करते थे. आज भी बहुत सारे भारतीय अपनी रोजी-रोटी के लिए यूएसए में काम करते हैं और उस देश को सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध बनाए रखने में अपना बहुत बड़ा योगदान देते हैं. वास्तव में ये यूएसए और आइबीएम के लिए गर्व का विषय ज्यादा है कि हमारे यहो के लोग वहां काम करना चाहते हैं, वो बढि़या,अच्छी रोजी-रोटी और उचित पारिश्रमिक दे सकते हैं. हमारे लिए तो सोचनीय विषय है कि ''हमारे देश का मानव संसाधन, किसी और देश को अमीर और शक्तिशाली बना रहा है, और मजे की बात तो यह है कि हम उस पर गर्व भी कर रहे हैं''. USA KNOWS HOW TO UTILIZE THE NATURAL N HUMAN RESOURCE, FOR SELF-BENEFIT, NOT ONLY OF THEIR COUNTRY, BUT OF ANY COUNTRY. WE ARE EVEN UNABLE TO UTILISE THE HUMAN RESOURCE OF OUR OWN COUNTRY. मुझे लगता है कि यह भी एक VICHAARNIYA विषय हो सकता है.
बहुत सुन्दर !!
ReplyDeleteश्रीकृष्णजन्माष्टमी की बधाई .
जय श्री कृष्ण !!!
Bahut accha hai.
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा!
पोस्ट में सार्थक गहन चिंतन प्रस्तुत किया है भईया आपने, आपकी भावनाओं को नमन।
ReplyDelete.
ReplyDeleteगर्व तो होता है की हम भारतीय हैं। लेकिन इस तरह देश की प्रतिभाओं का पलायन देखकर अफ़सोस भी होता है।
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मुझे स्वीकारने में कोई झिझक नहीं, बल्कि गर्व है कि यहां ऐसी भी टिप्पणियां आईं, जिनके सामने पोस्ट फीका और उनके बिना अधूरा सा ही लगने लगा. आदतन पीठ थपथपा देने वालों और दुआ-सलाम करते रहने वालों की टिप्पणी के साथ ऐसी एकाध-दो भी टिप्पणी पोस्ट पर आ जाए तो ब्लॉगिंग सार्थक है.
ReplyDeleteगर्वानुभूति हुई । आपको धन्यवाद ।
ReplyDeleteसहमत .. सौ फीसदी सही कह दिया आपने....!
ReplyDelete"बार-बार संदेश आने पर लगा कि इसे फारवर्ड करना ही होगा, कहीं मेरी राष्ट्रीयता संदिग्ध न हो जाए"
ReplyDeleteराष्ट्रीयता पर संदिग्धता के कारण मुझे तो पहला पैरा ही पसन्द आया और बालमुकुन्द की बातों में शुरु में कुछ कमी और बाद में कुछ सही सोच भी। ग्लोबल विलेज की बात पर और प्रतिभा की बात पर तो यहाँ नहीं कहना है।