यही कोई आधी सदी पहले। मंचीय कवि-सम्मेलन के दौर में काका हाथरसी और नीरज के बाद नाम आता था, बालकवि बैरागी का, मगर यह भी कोई नाम हुआ, खैर। मालवी बैरागी जी कवि के अलावे मध्यप्रदेश में मंत्री भी रहे, 1969 में। उनकी आत्म-कथा ‘मंगते से मिनिस्टर‘ शायद अब भी अप्रकाशित है और दूसरा खंड, जिसकी योजना थी और शीर्षक तय था, मगर यह शायद लिखी ही नहीं गई- ‘मंत्री से मनुष्य‘। उनकी आत्म-कथा का एक अंश याद आता है- ‘मेरी माँ ने मुझे सबसे पहला खिलौना दिया, वह था- भीख मांगने का कटोरा, जो हमारे परिवार की आजीविका का साधन था।‘ ‘ईदगाह‘ का चिमटा बरबस याद आता है। उनके भाई विष्णु बैरागी रतलाम निवासी हैं, अपना घर बनाने के लिए बेहिचक मित्रों से आर्थिक सहयोग के आग्रह का पत्र लिखा, आशा से अधिक सहयोग मिला, अधिक को लौटा दिया और घर बन गया तो नाम रखा- ‘मित्र-धन‘।
1973, अकलतरा। गणेशोत्सव पर स्कूल में आयोजित कवि-सम्मेलन में शैल चतुर्वेदी आए थे, अकलतरा के अपने सहपाठी प्रताप सिंह जी को याद किया, गले मिले। माणिक वर्मा थे, सुनाया- ‘जिस शाम को तुम मिलती हो वो शाम हरी हो जाती है, जिस ठूंठ को छू देती हो, वो ठूंठ हरी हो जाती है‘, आदि। परंपरा थी कि मंच पर एक-दो स्थानीय कवियों से भी कविता पढ़वाई जाए। ऐसे एक कवि ने कविता पढ़ना शुरू किया, लोग बार-बार वही कविता सुनते रहे थे, हूटिंग होने लगी। बालकवि माइक पर आए और कहा कि जो घर-आंगन की तुलसी को नहीं पूज सकता वह वट-पीपल को क्या पूजेगा, बस सन्नाटा खिंच गया।
आज मैंने सूर्य से बस यूँ कहा,
आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यूँ रहा?
तमतमाकर वो दहाड़ा, मैं अकेला क्या करूँ?
तुम-निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो।
संग्राम ये घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ, कुछ तुम लड़ो।
उनकी ऐसी रचनाओं के साथ ‘तू चंदा मैं चांदनी...‘ लोकप्रिय हुआ था। तब बांग्लादेश युद्ध की स्मृति तब एकदम ताजा थी, बैरागी जी ने ‘लगे हाथ निपटा ही देते पिंडी और लाहौर को‘ सुनाया। बाद में उनकी ‘पनिहारी‘ की बारी आई। इसके पहले वे कुछ पंक्तियों से माहौल बनाते, जैसे- ‘मैं मरूंगा नहीं, क्योंकि ऐसा कोई काम करूंगा नहीं‘ और ‘मुझे सपने नहीं आते, क्योंकि मैं बुझकर नहीं थककर सोता हूं- ताली वाली ऐसी बातें। फिर पनिहारी, मगर उसके पहले चार पंक्तियां सुनाते, डिस्क्लेमर सहित कि नोट मत कर लेना, कुछ कर-करा लिया तो जिम्मेदार ठहराया जाऊंगा, वह पंक्तियां थीं-
आज भले ही पत्थर बनकर तू मुझको ठुकराएगी,
मुझे छोड़कर किसी और के नैनों में बस जाएगी,
तुझसे जितना हो तू कर ले लेकिन ये भी सुन लेना,
मैं तो पनघट तक आया था तू मरघट तक आएगी।
हमने बैरागी जी की बात मानी, नोट नहीं किया, मगर दूसरी सुबह मिल जुलकर याद कर लिया, याद भी रखा, और संदेश की तरह नहीं, कविता की तरह यहां-वहां अपने काव्य-प्रेम और रसिकता के बतौर प्रमाण कहते-सुनाते रहे। फिर शुरू हुआ, पनिहारी।
नवी उमारिया नवी डगरिया नवा पिया की नवी प्यारी (राम)
नवी नगरी मैं नवी गगरी ले पनघट जईरी ओ पनिहारी।
मालवी शब्दों को बीच-बीच में समझाते चलते, मगर रसिक श्रोता शब्दों के पार जा चुके होते, आह-वाह होता रहता।
बैरागी जी के इस राग-विराग, नींद और सपने पर अर्ली टु बेड ... के साथ कुछ अपनी बात। जल्दी नींद तभी आ सकती है, जब संतोष हो कि आज भर के लिए कुछ कमाई कर ली है और जल्दी नींद तभी खुलती है, जब फिर से नया कुछ करने का उत्साह हो, और कुछ नहीं तो सुबह जल्दी उठकर घंटे भर का योग-ध्यान, व्यायाम, पैदल-कसरत जैसा कुछ कर लिया जाए, लगे कि इतनी तो कमाई कर ही ली। जहां तक सपनों की बात है, सपने तो मन की चुगली हैं। मन से दोस्ती रखें, कुछ उसकी मान लें, कभी अपनी के लिए उसे मना लें। हर बार मनाही-मना ही न हो, न ही हमेशा मनमानी। यानि मन का और मन भर कर सकने की हसरत हो तो उसका हौसला और हिम्मत हो, उसका असर बर्दाश्त करने के लिए तैयार रहें, इतनी हैसियत भी हो।
चंचल मन दुश्मन नहीं बच्चा है, जिद करता है, शैतान है, मगर उसका साथ मौज है, वह आड़े-टेढ़े वक्त पर आपको बहलाता भी है। मन के गुलाम न हों, न ही लगाम कसे रहें। उससे दोस्ती करें, मन से अच्छा मीत और कोई नहीं। भगवद्गीता बताती है- उद्धरेदात्मनात्मानं... आत्मनो बन्धु..., शुद्ध मन ही जीवत्वाभिमानी बुद्धि का उपकारक मित्र है, आदि। और धम्मपद पहली ही पंक्ति में कहता है- मनोसेट्ठा मनोमया... यानि मन श्रेष्ठ है, स्वच्छ मन के वचन-कर्म का सुख कभी साथ न छोड़ने वाली छाया की तरह अनुगमन करता है।
गुरुदेव आपने यादों की बारात सजा दी अकलतरा का कवि सम्मेलन और कवियों की रचनाएं , याद आ गए बड़े बुजुर्ग और लाल, पीली जीप संग अकलतरा हाई स्कूल का मंच ,,,, कुछ और भी लिखूंगा एक और टिप्पणी चित्र सहित
ReplyDeleteअरे वाह! क्या बात है! अपना नाम इस तरह सन्दर्भित देख/पढ़ कर गुदगुदी हुई। राहुलजी जिन्दाबाद।
ReplyDeleteसुन्दर
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