Friday, August 30, 2024

नाम - गीत

‘काम से नाम‘ और ‘काम से भी बड़ा नाम‘। गीत चतुर्वेदी की किताब ‘अधूरी चीजों का देवता‘ का कवर देखकर यही पहले सूझा। अंग्रेजी पुस्तकों में ऐसा देखने में आता कि लेखक का नाम बड़े अक्षरों में और किताब का शीर्षक छोटा। हिंदी में भी यह अपनाया जाने लगा, शायद इसलिए कि ऐसे लेखक, जो पाठक-ग्राहक को नाम से लुभाते हों, इसलिए उनका नाम बड़े अक्षरों में हो।

गीत चतुर्वेदी की इस पुस्तक के कवर पर उनका इस तरह नाम और बैक कवर पर नामवर सिंह और अनिता गोपालन की, तारीफ वाली एक-एक पंक्ति और अशोक बाजपेयी की पांच पंक्तियां हैं, जिसमें उन्होंने लेखक के विस्तृत अध्ययन, अभिनव भाषा-शैली, सुलझी दृष्टि और वर्तमान विचारधारात्मक खेमों के शिकंजे से मुक्त बताया है, किताब का आरंभ में भरत मुनि, मिर्ज़ा ग़ालिब और फ्रीडरिश नीत्शे के उद्धरणों से इसका संकेत मिलता है, आगे भी किताब से इन बातों की पुष्टि होती है। साथ एक अखबारी टिप्पणी, इंडियन एक्सप्रेस की है- ‘भारत के दस सर्वश्रेष्ठ युवा लेखकों में से एक‘। इस टिप्पणी को अस्पष्टता के कारण अखबारी कहना पड़ा, अनुमान होता है यह बात ‘भारतीय‘, न कि सिर्फ हिंदी, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के और ‘लेखकों‘, न कि सिर्फ साहित्यकारों के लिए है। संभव है, यह किसी सर्वेक्षण का परिणाम हो या किसी समीक्षा/लेख का अंश हो, किंतु स्वतंत्र टिप्पणी है तो ‘युवा‘ का आयु-वर्ग (40+?) और अन्य नौ कौन हैं?, सवाल रह जाता है।

गीत चतुर्वेदी, पिछले वर्षों में रायपुर-छत्तीसगढ़ आते रहे हैं, उनसे परिचय हुआ, बार-बार मुलाकात हुई, मगर सहज बातचीत नहीं हो सकी। इसका एक कारण तो यह कि मैं उन्हें तब मुख्यतः कवि के रूप में जानता था (अब इस किताब के अलावा उन्हें यू-ट्यूब पर भी सुन लिया है।) और कविता की मेरी समझ सीमित है। जौन एलिया की प्रतिष्ठा शायरों के बीच जैसी भी हो, नई पीढ़ी में लोकप्रिय हैं, लगभग उसी वर्ग में कवि गीत का आकर्षण, ‘जवानी दीवानी‘ वाला दिखाई पड़ता है।

उनसे दूरी का एक अन्य कारण, उनकी बनावट और दिखावट था। रेडियो उद्घोषकों में मेरे कई परिचित रहे हैं और वे अनौपचारिक बातचीज भी उसी लहजे में करते, ज्यों रेडियो स्टेशन में माइक्रोफोन के सामने हों। नेता-प्रवक्ता अक्सर वक्तव्य देते जान पड़ते हैं और ज्यों पत्रकार प्रश्नाकुल। कई रंगकर्मियों के साथ भी मेरा ऐसा ही अनुभव है, यह स्वीकार करते कि हम सभी अपने जीवन में अभिनय ही करते रहते हैं। गीत बात करते हुए मुझे हमेशा यूं लगे कि वे मंच पर या कैमरे से सामने हों, अतिरिक्त सजग, सावधान। यों भी मुझे टोपी वालों और भरी-पूरी दाढ़ी वालों को देखकर पहले-पहल यही लगता है कि उनका असली हुलिया छुपा हुआ है, इसलिए उनके साथ खुलने में कुछ झिझक होती है, समय लग जाता है (किसी का लिखा याद आ रहा है कि लिपस्टिक/लिप-गार्ड, उन्हें ‘किस मी नाट‘ जैसा लगता था।)। मगर अब इनसे मुलाकात होने पर मेरी ओर से शायद ऐसा न हो और पहल कर, संवाद करूं। यह किताब भी इसका एक कारण है, जो पाठक को अपना पाठ बनाने के लिए आमंत्रित करती जान पड़ती है, तो अब किताब पर आएं।

‘यही अधूरेपन का अध्यात्म है।‘ वाक्य पर पूरी होती है यह किताब। यहां त्रिविक्रम का अढाइयवां पग, ‘आधा है चंद्रमा रात आधी‘ से लेकर ‘सब कुछ होना बचा रहेगा‘ जैसा कुछ-कुछ याद आता रहता है। अरुंधति रॉय के ‘मामूली चीज़ों के देवता‘ का जिक्र आता है और साहिर के- ‘वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।‘ का भी। यों खूबसूरत मोड़ देना भी एक अंजाम ही है, दूसरी तरफ मनुष्य का अधूरापन कि न पुरुष पूर्ण, न स्त्री और दोनों हों तो एलजीबीटीक्यू... का अनंत, ज्यों पाइ का मान।

तत्व का परमाणु, जितने इलेक्ट्रान ग्रहण करता या त्यागता है, वही ‘अधूरापन‘ तत्व की संयोजकता होती है। धनावेशित प्रोटान, मानव के पाजिटिव गुण और ऋणावेशित इलेक्ट्रान उसकी कमजोरियां हुईं, बाहरी कक्षा में जिनकी संख्‍या पूर्ण न होने के कारण अन्य के प्रति आकर्षण/पसंदगी और फलस्वरूप संयोजकता संभव होती है। पाठक के लिए ऐसा बहुत कुछ सोचने, भटकने, अपने पाठ के लिए गुंजाइश देती है यह किताब।

‘सांची में बुद्ध‘ पर कुछ बातें। उल्लेख आया है- ‘कहते हैं, बुद्ध के एक प्रवचन के बाद पाँच सौ भिक्षुओं ने आत्महत्या कर ली थी।‘ इसका अधिक विवरण होना आवश्यक जान पड़ता है। लेखक ‘पृथ्वी-स्पर्श‘ मुद्रा को सबसे प्रिय मूर्ति बताता है, यहां ‘भूस्पर्श या भूमि-स्पर्श‘ जैसा स्थापित शब्द प्रयोग न करने का कोई खास कारण है?, स्पष्ट नहीं होता। अपनी ओर से कुछ और जोड़ना है- जेम्स प्रिंसेप द्वारा ब्राह्मी को बूझने में सांची निर्णायक हुआ था, इसकी कहानी भी रोचक है, जिसमें स्तूप के साथ बड़ेरियों पर अभिलिखित विभिन्न दानों में बार-बार आए ‘स दानं‘ से स और द, उसके आगे ‘देवानां पिय पियदसि‘ का अनुमान कर, पूरी लिपि-वर्णमाला का रास्ता खुला। अलेक्जेंडर कनिंघम के लिए यह पुरास्थल एक रहस्य ही था, जिसे भेदने का गंभीर प्रयास ‘द भिलसा टोप्स‘ में विस्तार से दर्ज हुआ, इसके बाद सांची पर सर जॉन मार्शल ने सांची के उत्खनन और स्मारकों पर कई प्रकाशन कराए थे, जिनमें ‘द मॉन्युमेंट्स ऑफ सांची’ तीन खंडों का भारी-भरकम ग्रंथ है। बताया जाता है कि सांची में कराए गए उनके काम और प्रकाशन में हुए अत्यधिक व्यय को अनावश्यक मान कर आपत्ति ली गई थी, जिसका अंततः निराकरण उनके पक्ष में, हाउस आफ लार्ड्स से हुआ था।

सुधि पाठक को भाषा बरतने का अभ्यास हो तो मेघदूत जैसी रचना को पढ़कर और उस पर वासुदेव शरण अग्रवाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे विद्वानों के लिखे को पढ़ कर, पहले तो स्तब्ध उसी में डूबा-ठिठका रह सकता है, फिर कुछ न कुछ लिखने को मचलता भी है। यहां ‘मैं कालिदास का मेघ हूँ‘, सुरुचि संपन्न विद्यार्थीनुमा पाठक की अभ्यास पुस्तिका के नोट्स की तरह हैं, जिन्हें देखकर कोई सीनियर प्रगति पर संतोष करेगा और यह किसी जूनियर के लिए आगे की राह आसान करने वाला होगा।

‘लैला की उँगलियाँ‘ में लैला का अनजाना सा प्रसंग आता है, लेख के अंत में। ‘रात की देवी है -लैला।‘ लैला का अर्थ श्यामा बताते हुए लेखक उसे अंधेरी रात से जोड़ता है साथ ही जोड़ता है, ‘नाक और होंठ के बीच वह छोटी-सी जगह, दबी हुई‘ से, मगर हबीब तनवीर और ‘आगरा बाजार‘ के दर्शक को लैला की उँगलियाँ के साथ मजनूं की पसलियां, ककड़िया का तुक ही बैठा होता है। इसी लेख के आरंभिक हिस्से में श्रीहर्ष के श्रुतिधरता की चर्चा है। श्रुतिधरता के कई रोचक प्रसंग मिलते हैं, जिनमें से कुछेक अपनी ओर से जोड़ रहा हूं- वररुचि का नाम श्रुतिधरों में अग्रगण्य है। इसी तरह व्याडि का नाम द्विश्रुत और इंद्रदत्त बहुश्रुत, जाने जाते हैं। रामानुजाचार्य के सहयोगी, एकश्रुतिधर कुरेश का भी उल्लेख मिलता है। एक किस्सा राजा भोज का बताया जाता है, राज दरबार में सुनाई जाने वाली किसी भी रचना को दरबार के श्रुतिधर दुहरा कर सुनी हुई साबित कर देते थे। इसका तोड़ भेस बदल कर कालिदास निकाला, और राजदरबार में रचना पढ़ी, ‘राजन् श्रीभोजराज ... ... ... देहि लक्षं ततो मे।‘ आशय कि आपके पिता ने मुझसे निन्यान्बे करोड़ रत्न लिए थे, इसे बहुतेरे जानते हैं। अब सबकी बोलती बंद, दरबार में सन्नाटा छा गया। कहा जाता है कि कालिदास ने इस नयी रचना का एक लाख मुद्रा इनाम पा कर पूछा कि ‘बचे‘ रह गई रत्नों का हिसाब भी करेंगे कि आप भी आगे की पीढ़ी के लिए ‘बचा‘ कर रखना चाहते हैं।

चीनी यात्री इत्सिंग ने ऐसी परंपरा का उल्लेख किया है वहीं मार्क ट्वेन ने श्रुतिधर प्रसंग का उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने वाइसराय के किसी कर्मचारी की डायरी से लिया। मैसूर राजदरबार के इस संस्मरण में वाइसराय के साथ तीस व्यक्ति थे, राज दरबार में एक ब्राह्मण को, जिसे अपनी भाषा के अलावा सिर्फ अंग्रेजी आती थी फ्रेंच, जर्मन, ग्रीक, लैटिन, स्पैनिश, पोर्चुगीज, इटालियन तथा अन्य भाषाओं के वाक्यों से शब्द और आंकड़े टुकड़ों में दिए गए, दो घंटे चली इस कवायद के बाद ब्राह्मण ने टूटे-बिखरे शब्दों को व्यवस्थित करते हुए दुहरा दिया। घटना, अतिरंजित जान पड़ती है, लेकिन प्रज्ञाचक्षु गिरिधर मिश्र उर्फ जगद्गुरु रामभद्राचार्य वर्तमान दौर के एकश्रुत हैं।

‘डायरी के फुटकर पन्ने‘ लेखक के कहन का पसंदीदा ढंग है, इसमें फिल्म ‘द बैंड्स विजिट‘ के एक दृश्य पर मौन, मुद्राओं और संगीत पर सुंदर टिप्पणी है। ‘दिल के किस्से कहाँ नहीं होते‘ में आए विभिन्न शास्त्रीय उल्लेखों में ‘प्रतिभा-व्युत्पत्ति-अभ्यास‘ सिद्धांत की चर्चा प्रासंगिक होती, छूटी जान पड़ती है। कुंवर नारायण के लिए प्रयुक्त ऋषि शब्द की चर्चा है, इसे स्पष्ट भी किया गया है। इसी तरह कभी निर्मल वर्मा ने रेणु के लिए कहा था- ‘वह समकालीन हिन्दी साहित्य के संत लेखक थे।‘ और संत शब्द के अर्थ को समझाया था।

‘आप किसके लिए लिखते हैं‘ विभिन्न मनोमुद्राओं का पठनीय निर्वाह है, लेखक कहता है- ‘वह (लेखक/कथावाचक) सबसे पहले अपने आप से संवाद करता है।‘ स्मरणीय कि वैदिक साहित्य की आरंभिक कथाएं और नाट्य रूप में संवाद ही हैं। इसी लेख में गुणाढ्य के वृहत्कथा का उल्लेख आता है, कथावाचक और श्रोता के अभिन्नता और मौलिकता का प्रश्न। यहां शिव-पार्वती कथा प्रसंग कुछ अलग ढंग से आया है। यथासंभव अधिकृत स्रोतों में बताया गया है कि पार्वती की शिव से फरमाइश कि ऐसी कथा सुनाएं, जो पहले कभी किसी ने न कही-सुनी हो, शिव के चित्त में विद्याधरों की कथाएं प्रकाशित होने लगीं। कैलाश पर्वत की गुफ़ा में वे कथा सुनाते गए, द्वार पर नंदी पहरेदार थे। शिव से सुनी वही कथा पार्वती, जया, विजया आदि को सुनाने लगीं। जया बीच में टोक कर आगे की कहानी बता देतीं। जया ने यह अपने पति पुष्पदंत से सुनी थी। क्रोधित पार्वती से शिव ने कहा उन्होंने यह कथा किसी से नहीं कही है। पुष्पदंत ने बताया कि वह दर्शन के लिए आया था। नंदी के मना करने पर योगशक्ति से अदृश्य हो कर गुफ़ा में प्रवेश कर (सूक्ष्म रूप धर कर) कथा सुन ली थी।

‘नींद, मृत्यु का दैनिक अभ्यास है‘ में ‘स्मृति, कल्पना और स्वप्न‘ की चर्चा के साथ जुंग की ‘मेमोरीज, ड्रीम्स, रिफलेक्शन‘ की याद आती है। विभिन्न शास्त्रीय और प्रमुख साहित्य, अध्ययन ग्रंथों की धड़ल्ले से आते संदर्भों में यह क्यों छूटा है, छोड़ा गया है?

अंत में पुस्तक के आरंभ के ‘कारवी के फूल‘, ‘भुजंग, मेरा दोस्त‘ और सबसे पहला ‘बिल्लियाँ‘, जो इस पुस्तक की जान है। ‘कारवी के फूल‘ में हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘कुटज‘ की तरह ही उपेक्षित को विषय बनाया गया है, इसमें ‘कुटज‘ जैसा पांडित्य न हो, लालित्यपूर्ण चिंतन अवश्य है। इस लेख में सहकार-आम की चर्चा है, जिसके साथ मल्लिका लता के लिपटने का उल्लेख है। संयोग संभव है, यहां छाया दिखती है- अभिज्ञान शाकुंतलम में लता से परिणय और रामचंद्र मिश्र के ‘तरुकथा‘ में सहकार-आम और लता के लिपटने के प्रसंग की।

‘भुजंग, मेरा दोस्त‘, अनूठा संस्मरण है, इसमें वाक्य आया है- ‘मृत्यु के समय एक सितारा करीब दिखने लगता है‘, संभवतः यहां लेखक सप्तर्षि तारामंडल के अधिक रौशन वशिष्ठ के साथ (उनकी पत्नी) धूमिल अरुंधती को याद कर रहा है, जिसके लिए कहा जाता है कि जिसे अरुंधति दिखाई देना बंद हो जाए उसकी मृत्यु आसन्न है। भुजंग के साथ लेखक दिगनाग को याद करता है कि ‘शास्त्रार्थ के दौरान जब उन्हें जवाब न सूझता, तो मौखिक तर्क छोड़कर वह अपने प्रतिद्वंद्वी पर मुक्के बरसाने लगते थे।‘ ‘बहती गंगा‘ वाले शिवप्रसाद मिश्र रूद्र ‘काशिकेय‘ के बारे में प्रचलित है कि वे भांग घोंटते और पहलवानी करते और तर्क करते हुए, ताव में आने पर सामने वाले को धोबी पछाड़ से चित्त कर देते थे।

साहित्य में कुत्तों की प्रसिद्ध कहानियां हैं- लोक में प्रचलित बंजारा-नायकों के वफादार कुत्ते की कहानी। गुरुदेव ने अपने पालतू कुत्ते पर कविता लिखी, जिसका उल्लेख हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया है। कृष्ण बलदेव वैद की ‘कुकी की मौत‘ के कहने ही क्या। जैक लंडन की ‘द कॉल ऑफ द वाइल्ड‘ और प्रेमचंद की कम चर्चित ‘कुत्ते की कहानी‘। कुछ समय पहले डॉ. आरडी सैनी की ‘प्रिय ऑलिव’ चर्चा में रही। लेकिन बिल्ली पर अब तक मेरे पढ़ने में कुछ खास याद नहीं आता। (पद्मभूषण) मधुसूदन ढाकी कहा करते थे, बिल्ली, जो इठलाती है, नखरे करती है, दुलार, मनुहार चाहती है, हक मांगती-मानती है, जबकि कुत्ता तो गदहा होता है, भौंकने वाला गदहा। इस पुस्तक का आरंभ ‘बिल्लियाँ‘ है। यहां बिल्लियों पर ऐसा लेखन है, जो पूरी किताब पर भारी, लाजवाब, किताब को सार्थक करने सकने में अकेला सक्षम। 

पुनश्च- अब 12 सितंबर 2024 को वेब पत्रिका ‘समालोचन‘ पर, अरुण खोपकर के बिल्ली वाला संस्मरण ‘कोश्का‘ (मराठी) का रेखा देशपाण्डे द्वारा किया गया अनुवाद आया है।

Saturday, August 24, 2024

आईनासाज़

भाषाओं के रास्ते इतिहास में प्रवेश कर साहित्य की जिस दुनिया का साक्षात्कार हो सकता है, उसका एक उल्लेखनीय नमूना अनामिका का ‘आईनासाज़‘ है, जिसमें लेखक के लोक और शास्त्र, दोनों के प्रति स्वाभाविक और समान लगाव का सौंदर्य भी झलकता है। किताब के खंड-1 चाँदगाँव में ‘अथ खुसरो कथा‘ है, खंड-2 ‘बैक गियर‘ है। निष्कर्ष जैसा, संक्षिप्त सा खंड-3 ‘सिलसिले‘ का समापन ‘कलंदर‘ से होता है, जो दो खंडों में बंटी, अलग-अलग सी दो पुस्तकों को मानों एक जिल्द में रखने को सार्थक करता, निचोड़ है। 

किताब, मानों लेखक के दिल के आईने में झिलमिलाता अमीर खुसरो का अक्स है, ढेरों अरमानों और हसरतों से रंग कर आकार दिया गया, कहन का ढंग देखिए- ‘अवध जाओगे, वहीं की बोली तुम्हारी शायरी में फ़ारसी का तबोताब, बांग्ला की मिठास और पंजाबियत का सूफ़ी नूर पाकर ऐसी दमकेगी कि एक नई जबान पा लेगा ये हिन्दोस्तां।... जाओ मेरे अलमस्त कबूतर, कुछ देर आसमाँ में पंख तौलकर आओ। लौटकर आना तो मेरे ही कंधे पर बैठना। मेरा दिल ही घोंसला है तुम्हारा-मेरा दिल और ये देहली।‘ या ‘तौबा, सब्र, शुक्र, रज़ा, ख़ौफ़ और फ़कीरी- ये ही छः सीढ़ियाँ हैं जहाँ से हम उस छत पर पहुँचते हैं जहाँ चाँद, सूरज और यह पूरी कायनात जो हमारे भीतर है और हमारे बाहर भी-देह की बंदिशें तोड़कर एक-दूसरे की बाँहों में लीन हो जाती है....फना हो जाती है।’ 

इसी तरह खंड-1 के शीर्षक 13- निजाम पिया की बैठक... और शीर्षक 14- बादलों के चेहरे... में, छोटे-छोटे लाजवाब वाक्यों में खुसरो और उस देश-काल के प्रसंग उभारा गया है, ज्यों- ‘मेरे मन का काजी कहता है कि तू मर गया और वह विधवा है। कम-से-कम तेरे भीतर का शौहर तो उसी दिन मर गया जिस दिन तूने उस पर हाथ उठाया।‘ या ‘दीया जला है तो बुझेगा जरूर-तेल चुकने से बुझे याकि हवाओं के झोंके से।‘ दो अंश और, पहला- ‘या ख़ुदा ! पद्मिनी, मलिका या महरू-जैसी औरतें तेरा ही आईना हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने कायनात-जैसी पानीदार सूरतें पाई हैं बल्कि इसलिए कि उन्होंने समंदर- सा दिल पाया है जो सौ लहरों के उछाह से, सौगुना करके हर दान लौटा देता है और अपने हिस्से कुछ भी नहीं रखता। सब-कुछ लुटाकर खाली हो जाने का जज़्बा ही तो सच्ची इबादत है।‘ 

और दूसरा अंश- ‘घर-गृहस्थी और बच्चों की ओट तो खुद पचपन घूँघटों की ओट है। औरत चाहे तो इनके पीछे ऐसे जा छिपे कि मर्द को उसकी एक झलक भी मुहय्या न हो। औरत चाहे तो अपना जिस्म ऐसे परोसे, जैसे कोई बाह्मनी नाक पर आँचल रख गली के कुत्ते को बासी भात परोसती है और मुँह बिदोड़े घड़ियाँ गिनती है कि कब इसकी चप-चप बन्द हो और उसे वापस अपनी हाँड़ी मिल जाए जिसमें कल फिर से इसको खाना देना होगा। भूख लगे, तो और जाएगा भी कहाँ, दुम हिलाता यहीं आएगा। न आए तो इन्तजार भी करेगी, आकुल हो इधर-उधर देखेगी और अगर आ गया तो वही आक्-थू!‘ 

औरत-बहनापे की बात, बारीक अंतरंगता मगर ठेठपन के साथ आती हैं, खास कर ऐसे हिस्सों में जहां दो स्त्री पात्र आपसी एकांत में हैं, जैसे- ‘ठीक से देखो तो हर औरत अपने नैसर्गिक संवेगों में आदिवासी ही होती है...।’ एक स्थान पर यह कहा भी गया है- ‘एक स्त्री दूसरी स्त्री से जैसा सहज संवाद साध सकती है, शायद ही किसी पुरुष से- चाहे वह उसका कितना ही अपना क्यों न हो।‘ या ‘अस्सी प्रतिशत महिलाओं पर लागू है कि घर के भीतर प्रवेश करते ही उनकी बत्ती गुल हो जाती है और पब्लिक प्लेटफार्म पर भी वे शायद ही कभी सहज रह पाती हैं।‘ 

कहन का जादू ऐसा कि पाठक धीरे-धीरे उसमें डूबते, उसी रस में सराबोर हो जाता है, जिसमें लेखक रचते हुए या पात्र अपने जीवन में रहे हों। किताब पढ़ने में वही धीरज अपेक्षित है, जैसा इसमें एक जगह कहा गया है- ‘हम मनुष्य नहीं रह पाते, अगर भीतरी चेतावनियाँ सुनने का सूफी धीरज न हो।‘

Wednesday, August 21, 2024

प्रत्यक्षा

‘अतर‘, ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ और ‘बारिशगर‘। 

जिन लेखकों को जानते हैं, बल्कि कहें कि प्रत्यक्ष परिचित हैं, उन्हें पढ़ना कुछ अलग अनुभव होता है। कभी तो वह लेखक सामने आ जाता है और फिर-फिर ओझल होता रहता है। इसी आवाजाही में उसे पढ़ना होता है। सजग रहना होता है कि प्रतिक्रिया यथासंभव परिचय के प्रभाव, राग-द्वेष मुक्त, शुद्ध पाठकीय हो। 

प्रत्यक्षा को पढ़ना मेरे लिए ऐसा ही है। वे अपने (जिस तरह प्रत्यक्ष व्यवहार में भी) अनुभव संसार को समेटती जान पड़ती हैं, शायद जस का तस अलग-अलग फोल्डर में सहेजे रहती हैं और फिर उसे अपने लेखन में चुन-चुन कर करीने से बिठाते चलती हैं। इर्द-गिर्द से उपजी संवेदना का उन अनुभवों के साथ मेल कराती हैं, एकरस कर देती हैं, तब सारा निजत्व, समष्टि में व्यापक हो जाता है। 

‘अतर‘ संग्रह में ‘विद्या सिन्हा की मुस्कान‘ के बर-अक्स यह देखना आसान है, जिसमें इस दौर की साहित्य रचना, और उसके परिवेश के अनुभव, संवेदना, प्रतिक्रिया को विशिष्ट क्रम में अभिव्यक्त कर एक अलग-सा कथा-रूप रचा गया है। ठहरी हुई अनुभूतियों की मचलती अभिव्यक्तियों से इस संग्रह की कहानियों में (’दुनिया में क्या हासिल‘) मीठी टीस वाली महक लगातार बनी रहती है। 

जानी-अनजानी किताबें पढ़ने को सामने रखी हैं पहले ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ और ‘बारिशगर‘ को चुना है, बावजूद इसके कि प्रत्यक्षा का नये चाल का कविताई वाला लेखन, मेरी रुचि और समझ की सीमा में ठीक-ठीक अंट नहीं पाता। उनका लेखन अमूर्त शब्द-चित्र और चित्रों के कोलाज की तरह लगता है। उसके लिए क्या कहना ठीक होगा? सोचते हुए, उन्हीं से शब्द मिल जाते हैं, ज्यों ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ संग्रह की कहानी ‘कूचाए नीमकश‘ में- ‘सब तस्वीर की कहानियां हैं‘ ... ‘और तस्वीरों का तसव्वुर है।‘ या ‘व्हाई इज़ लाईफ सच अ कैरीकेचर ऑल टाईम?‘ 

‘शारुख ...‘, ऐसे विषय पर आमतौर पर जो लेखन होता है, ड्राइंग रुम जैसी बातें को स्टडी में बैठकर लिखा जाने वाला, यहां वैसा नहीं है, यह जमीनी हकीकत को जी कर, महसूस कर कही गई, बड़े वितान की बड़ी कहानी है, अंतिम वाक्य में शब्द आते हैं- समय, स्थान, धरम, जाति, काल, भाव, मगर कहानी के इस आखिरी वाक्य से लगता है कि पूरी कहानी कह लेने के बाद भी यह कहे बिना काम न चलेगा, जबकि पाठक पूरी कहानी में इसे महसूस करता रहता है। ‘ललमुनिया, हरमुनिया‘ में समष्टि-संस्कार से आए बदलाव का लालित्य और सौंदर्य ‘बन्नो तेरा मुखड़ा चांद सा‘ के साथ चमक उठता है। 

रोचक शिल्प वाली कहानी ‘केंचुल‘, मार्मिक ‘रिफंड‘। लेखक का मन पानी-बारिश में तो बार-बार भीगता है, ज्यों ‘सूरजमुखी ...‘ में। ‘स्वप्न गीत‘ निबंध-सा, जिसे संस्मरण-संवाद गति देते हैं और यह स्वप्न गीत, विलाप रहित शोकगीत बन जाता है। फिर ‘पानी का गीत‘, पद्य-गद्य, कविता सा बहाव। मीठा से खारा और फिर पराया होता पानी, एक पूरी कविता। कहानी ‘पहर दोपहर, ठुमरी‘ ध्यान से न पढ़ें तो पारो, जय और वे का तालमेल घालमेल लगे, और साथ बह सकें तो आदम और हव्वा की कहानी फिर वहीं पहुंच कर ठहरती है। 

‘बारिशगर‘ भी संगीत-रंग-चित्र-शब्द की तरह रचा गया है, ज्यों- ‘बिलास रिकॉर्डर चलाता है, चिड़ियों की चहचहाट, कैमरे में कैद नन्हीं तस्वीरें। धूप पीठ पर गिरती है, कैसी नरम मीठी!’ या ‘... तैमूर धूप में किसी पगलाई गरम जीवंत कंपकंपाता चित्र का मुख्य हिस्सा है। तैमूर की पीठ पर बाबुन का रंगा रंगीन धारियों का धड़कता संसार है।’ 

प्रत्यक्षा के लेखन से परिचितों के लिए इसमें कुछ अलग न लगे, अन्यथा उपन्यास की तासीर बताने के लिए एक अंश- ‘दीवा की आवाज कमरे में घुल रही है, अँधेरे को ओढ़ती, कभी काँपती, कभी गहराती, कभी बारिश, कभी धुंआ, कभी भीगे शाख़ पर कुकरमुत्ता, कभी तेज भूख में ऐंठती, कभी हल्की सेमल सी उड़ जाती, कभी बर्छी सी चोट लगाती, कभी हँसी की खिलखिलाहट छुपाती खुश, कभी वेदना से टूटती। 

इस दौर के और लेखकों की तरह यहां भी निर्मल-केबी की छाया तो है ही, कहीं विनोद कुमार शुक्ल और उनकी पहेलीनुमा बातें भी याद आती हैं, जैसे आरंभ का शीर्षक और पहला वाक्य- ‘घर जैसा घर नहीं‘, ‘घर घर था‘। या ‘घर जैसा घर था वैसा नहीं था‘। 

शीर्षक देख कर उपन्यास में बारिश का इंतजार हो तो- ‘हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी ... मगर यहां ‘अतर‘ के ‘बारिश के देवता‘ जैसी या ‘पहर ...‘ संग्रह की कहानियों जैसी बरसात तो नहीं है, शराब बेबरसात भी, हर उपयुक्त मौके पर है। यह नये चलन वाला ऐसा उपन्यास है, जिसे एक बार पढ़ लेने पर, बाद में समय-समय पर कहीं से, कोई हिस्सा दुहराया जा सकता है।