भोरमदेव महोत्सव 2006 के अवसर पर प्रकाशित विवरणिका में फणिनागवंश की उत्पत्ति पर आधारित ऐतिहासिक आख्यायिका का सांकेतिक उल्लेख प्रथम बार लिखित रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। समकालीन राजनीतिक इतिहास में फणिनाग वंष के स्थान एवं महत्व को रेखांकित करने वाले कुछ-एक सन्दर्भों का भी निर्देष विवरणिका में लेखक द्वारा प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। फणिनाग वंश के विभिन्न नरेशों के राजत्वकाल में राजधानी चउरापुर में किये गये निर्माण कार्यों का भी मात्र एक शिलालेख के आधार पर संक्षिप्त में उल्लेख है। पाठकों में सब कुछ सही-सही जानने की तीव्र उत्कण्ठा जगा रही है यह विवरणिका। सम्भवतः लेखक का यही उद्देश्य हो।
राजनीतिक इतिहास के ही समान फणिनागवंशीय शासन काल के मध्य ‘‘स्थापत्य एवं शिल्प कला’’ का भी सर्वांगपूर्ण प्रकाशन अपेक्षित है। राज्य तथा देश के इतिहासकार एवं कला अध्येता इन अपेक्षाओं को पूर्ण करने के लिए सामने आयेंगे इस आशा के साथ-प्रस्तुत है यह विवरणिका ...
भोरमदेव
छत्तीसगढ़ के कबीरधाम (कवर्धा) जिले के मुख्यालय से उत्तर-पश्चिम दिशा में 17.6 कि.मी. की दूरी पर राजस्व ग्राम चौरा स्थित है। यह सम्पूर्ण ग्राम पुरातत्वीय महत्व के टीलों, तीन प्राचीन मन्दिरों, सतखण्डा महल नामक स्मारक के समाप्तप्राय भग्नावषेशों तथा प्राचीन दुर्ग के नष्टप्राय प्राचीन स्थापत्य अवशेष को अपने क्रोड़ में समेट गौरवशाली प्राचीन इतिहास का मूकसाक्षी बना आज भी अपनी भौतिक सत्ता बनाये हुए है। यहाँ के ऐतिहासिक वास्तुरूपों में निम्न मन्दिर विशेष उल्लेखनीय महत्व के हैं –
(अ) मड़वा महल मन्दिर- इसका निर्माण फणिनागवंशी महाराज रामचन्द्र के शासन काल में चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। यह मन्दिर मड़वा महल अभिलेख के अनुसार राम के उपास्य पशुपति रामेश्वर शिव को समर्पित था।
(आ) छेरकी महल मन्दिर - फणिनागवंशी नरेश महाराज रामचन्द्र के द्वारा एक विष्णु मन्दिर के निर्माण किये जाने का उल्लेख मड़वामहल अभिलेख में हुआ है। छेरकी महल मन्दिर के प्रवेश द्वार के सिरदल पर तीन छद्म देवपीठ मूर्तांकित है। इनके मध्य में बायीं से दायीं दिशा की ओर क्रमशः अर्धपर्यंकासन में बैठे गणेश, मध्य में पद्मासन मुद्रा में बैठी दोनों हाथों पद्मपुष्प धारण की हुई श्री लक्ष्मी तथा दक्षिण में अर्धपर्यंकासन में वीणावादन करती सरस्वती का मूर्तांकान है। प्रवेश द्वार के मध्यवर्ती ललाट बिम्ब पर लक्ष्मी के मूर्ताकंन से इस मन्दिर को मूलतः विष्णु को समर्पित मन्दिर स्वीकार करना साक्ष्यसिद्ध कहा जा सकता है।
(इ) भोरमदेव मन्दिर - चौरा में उपलब्ध ऐतिहासिक महत्व के मन्दिरों में स्थापत्य एवं शिल्प निदेशित शैलीगत वैशिष्ट्य की दृष्टि से भोरमदेव मन्दिर को चौरा के मुकुट का मूल्यवान मणि सम्बोधित किया जा सकता है।
इस मन्दिर के महामण्डप के अन्तराल से संलग्न अर्धमण्डप के दाहिने ओर गर्भगृह की बाहरी भित्ति से सटाकर एक सम्मुखाभिमुख मूर्ति रखी हुई है। इस मूर्ति में राजपुरुष और राजमहिषी का करबद्ध मुद्रा में मूर्तांकन है। इस मूर्ति के पादपीठ पर ‘‘संवत् 840, राणक श्री गोपाल देव राज्ये’’ उत्कीर्ण है। संवत् 840 को समकालीन कोसल में प्रचलित कलचुरि संवत् की तिथि माना गया है। अर्थात् इस मन्दिर का निर्माण फणिनागवंशी महाराज श्री गोपाल देव, जो रत्नपुर के कलचुरि नरेश के अधीनस्थ सामन्त थे, द्वारा कलचुरि संवत् 840 अर्थात् ई.स. 840$248=1088-89 में किया गया। सामान्यतः इस मन्दिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जाता है। इस प्रकार की तुलना का प्रमुखतम कारण मन्दिर के बाह्य अंगो में बैठायी गई अथवा उकेरी गयी मूर्तियों में मैथुन मूर्तियों की उपस्थिति है। उल्लेखनीय है कि जो भी मन्दिर तांत्रिक उपासना से सम्बद्ध थे उनकी बाह्य भित्ति पर मैथुन मूर्तियाँ पाई जाती हैं। मात्र मैथुन मूर्तियों के कारण इसे खजुराहो कहना इसकी शिल्पगत वैशिष्ट्य पर पर्दा डालने जैसा है। इस मन्दिर के स्थापत्य शैली पर कोसलीय शैली के अतिरिक्त किसी बाहरी शैली का प्रभाव है तो वह है परमार मन्दिर स्थापत्य शैली।
भोरमदेव मन्दिर से लगभग 3 मी. दूरी पर ईंटों का एक भग्न मन्दिर विद्यमान है। इस मन्दिर में विमान तथा छोट सा मुख मण्डप दो अंग है। विमान का अधिष्ठान ताराकृति वाला है। यह मन्दिर 8-9 वीं शताब्दी ई. सन की निर्मिति है। भोरमदेव मन्दिर परिसर के बाहर उत्तर दिशा में लगभग 10 मी. की दूरी पर एक विशाल तालाब विद्यमान है। मड़वामहल अभिलेख में इसे ‘‘महास्तडागः’’ कहा गया है। चौरा गाँव के पुरा स्थल के दक्षिण दिशा में संकरी नामक नदी है। मड़वा महल अभिलेख में इसे ‘‘हरिशंकरी’’ कहा गया है। इस हरिशंकरी के दक्षिण तट में स्वयम्भू हटकेश्वर शिव प्रकट हुए है। हटकेश्वर शिव फणिनागवंश के आराध्य कुल देवता थे।
चौरा का भोरमदेव मन्दिर छत्तीसगढ़ अंचल में अपने ढंग की वास्तु योजना का एकाकी उदाहरण है। इस मन्दिर की वास्तु योजना का अनुकरण करते हुए 13 वीं 14 वीं शताब्दी में देव बलौदा के शिव मन्दिर का निर्माण फणिनागवंशी शासकों द्वारा कराया गया है। कालगत अन्तर का स्पष्ट प्रभाव वास्तु अंगों के प्रस्तुतीकरण में दिखाई पड़ता है।
तांत्रिक शैवोपासना का केन्द्र होते हुए भी भोरमदेव मन्दिर की देव प्रतिमाओं में सर्व समन्वयात्मक धार्मिक प्रवृत्ति की जीवन्तता देखने में आती है। यहाँ के शिल्पों का गहन अध्ययन तत्कालीन सांस्कृतिक दशा के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।
द्वादश महोत्सव
भोरमदेव महोत्सव का यह बारहवाँ वर्ष था। दिनांक 27 मार्च 2006 से दिनांक 28 मार्च 2006 को इस वर्ष दो दिवसीय महोत्सव आयोजित किया गया। छत्तीसगढ़ के महामहिम राज्यपाल माननीय के.एम. सेठ के कर कमलों द्वारा महोत्सव का विधिवत उदाघाटन किय गया। अपने उद्बोधन में महामहिम राज्यपाल ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा पुरातत्वीय महत्व के धरोहरों का संरक्षण और उससे सम्बद्ध परम्परागत विष्वासों तथा जन आस्था के पक्षों को अनुरक्षित करते हुए उसके लोकसम्मत संवर्धन की दिशा में राज्य शासन के प्रयासों का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी स्थान से जुड़ी परम्परागत आस्था-विश्वास को संरक्षित रखते हुए उसके सम्वर्धन की दिशा को गति प्रदान करने के लिए अध्येताओं, जिज्ञासुओं, शोधार्थियों, सुरूचि सम्पन्न पर्यटकों को इसकी ओर आकर्षित करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया से स्थान विशेष के इतिहास एवं संस्कृति के बहुआयामी स्वरूप का उद्घाटन कर पाना सम्भव हो जाता है।
उद्घाटन के पश्चात् देर रात तक सांस्कृतिक कार्यक्रम होता रहा।
दूसरे दिन 28 मार्च को समापन समारोह के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ शासन के मुख्यमंत्री माननीय रमन सिंह के मुख्य आतिथ्य में आरम्भ हुआ। माननीय मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह ने लोगों को बताया की भोरमदेव को पर्यटन केन्द्र के रूप में विकासित करने हेतु एक योजना राज्य शासन ने केन्द्र शासन को भेजा है। इस प्रस्तावित योजना पर 12 करोड़ रू. की लागत व्यय अनुमानित है। आगामी दो वर्षों में इसका परिणाम यहाँ दिखाई पड़ने लगेगा।
इस अवसर पर माननीय महेन्द्र कर्मा एवं माननीय प्रेमप्रकाश पाण्डेय ने भी अपने विचार रखे। अन्त में संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने आगामी वर्ष से महोत्सव को अधिक व्यापक बनाये जाने की बात कही। उपरान्त अतिथियों एवं उपस्थित लोगों ने अनुराधा पोडवाल के भजनों तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द उठाया।
लेखकीय
भोरमदेव नाम स्मरण के साथ ही कबीरधाम जिला मुख्यालय कवर्धा से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर लगभग 17.6 कि.मी. की दूरी पर हरिशंकरी (संकरी) नदी के उभय तटों पर फैले जनशून्य ग्राम चौरा की विस्तार सीमा अन्तर्गत पद्मसरोवर नामक महातडाग के दक्षिण में 30 मी. की दूरी पर स्थित ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरभारतीय नागर प्राकर की मन्दिर स्थापत्य शैली में प्रस्तर निर्मित जिस मन्दिर विशेष की ओर ध्यान केन्द्रित होता है, उसके निर्माण का श्रेय प्राचीन चउरापुर वर्तमान चौराग्राम को राजधानी बनाकर अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक पहिचान स्थापित करने वाले फणिनागवंशीय नरेशों के उत्तराधिकार क्रम में छठे क्रम पर राज्य करने वाले राजा श्री गोपालदेव को रहा है। वास्तु रूप की सर्वांगपूर्णता, विशालता, भव्यता, अलंकरणात्मक अभिकल्पों की अभिव्यंजना में गतिमयता, अभिरामता, चारूता, लयात्मकता तथा प्रतीकात्मक भावबोध, षिल्पों में निदेशित विषयगत विविधता, विराटता, समग्रता, भावाभिव्यंजना की प्रौढ़ता, सहजता, क्रमबद्धता के साथ-साथ अपरिमित सम्प्रेषणशीलता को अपने अंग-अंग में भास्वर करते इस मन्दिर का छत्तीसगढ़ के ‘प्राचीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प’ के इतिहास में अपना विषिष्ट स्थान एवं महत्व है।
प्राचीन चउरापुर वर्तमान चौरा का राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ समसामयिक सांस्कृतिक इतिहास के समस्त पक्षों पर महत्वपूर्ण साक्ष्यों को संरक्षित रखने वाले स्थान के रूप में अनुपेक्षणीय महत्व है।
प्रस्तुत लघु विवरणिका के आरम्भ में चउरापुर को केन्द्र स्थानीय मानते हुए यहाँ के मन्दिरों, ऐतिहासिक स्मारकों के उल्लेख के साथ-साथ सम्पूर्ण परिवेश का दृश्यांकन प्रस्तुत किया गया है। यहाँ के मड़वामहल मन्दिर से प्राप्त शिलालेख में दिये गये विवरण के आधार पर फणिनागवंश के इतिहास पर प्रसंगानुरूप प्रकाश डाला गया है।
विवरणिका में महोत्सव पर्व के उदघाटन तथा समापन सत्रों पर आधारित विवरण ही वर्तमान कृति के आलेखन का मुख्य प्रयोजनीय पक्ष रहा है। आशा है विवरणिका का वर्तमान प्रकाशन भावी अपेक्षाओं का पथ प्रदर्शक सिद्ध होगा।
माननीय संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन मन्त्री श्री बृजमोहन अग्रवाल जी मेरे अभिन्न हैं। उनके द्वारा व्यक्त विचार एवं भावना इस लघु विवरणिका के सृजन के कारक आधार रहे हैं। अगर शरीर साथ देता रहा तो भविष्य में फणिनाग वंश और उनका काल शीर्षक से राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पर स्वतन्त्र पुस्तक छत्तीसगढ़ को अर्पित करने की अभिलाषा है।
इस लघु विवरणिका को उसके प्रस्तुत स्वरूप देने में वैचारिक स्तर पर मुझे राज्य पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के अधिकारी वर्ग का पूर्ण सहयोग रहा है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनसे प्राप्त सहयोग की भरपाई नहीं की जा सकती। मैं उन सबका ऋणी रहूंगा। कम्प्यूटर टाइपिंग से लेकर इसके प्रस्तुत रूप सज्जा को समूर्त रूप देने में सर्वश्री पी.सी. पारख, श्री तापस बसक, श्री संजय सिंह, श्री रविराज शुक्ल का उल्लेखनीय सहयोग रहा है। मैं इन्हें अपना हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हॅू।
सुधि जनों को समर्पित है मेरा यह प्रयास ...
भवदीय
विष्णु सिंह ठाकुर