पहाड़ी की कोख-कंदरा में पला सभ्यता-शिशु, क्रीड़ा करते तलहटी से मैदान में आ कर नदी के किनारे ठहरता है। यों सड़क और नदी, बसाहट के लिए परिवहन का रास्ता, नस-नाड़ी हैं। सड़क, स्थितिज है, जिस पर गति होती है और नदी गतिज, स्वयं भी चलायमान, जीवन-रेखा भी, संस्कृति-संवाहक।
‘छत्तीसगढ़ की संस्कृति संवाहक सरिताएं‘ राष्ट्रीय संगोष्ठी का अयोजन 16 से 18 सितंबर 2022 को संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ द्वारा घासीदास स्मारक संग्रहालय सभागार, रायपुर में किया गया। आयोजन के दूसरे दिन, छठें सत्र का संचालन डॉ. आशुतोष चौरे ने किया और अध्यक्षता, राहुल कुमार सिंह यानि मेरे जिम्मे थी। इस अवसर पर यहां प्रस्तुत मेरे वक्तव्य में थोड़ी दुरुस्ती की गई है। नदी-संगम वाले महादेव पाली का उलेला पूरा और मउहाडीह का भेड़ू प्रसंग वाला, जैसे कुछ अंश, जो समय-सीमा के कारण तब नहीं कहे गए थे, को शामिल किया गया है, मगर स्वरूप यथासंभव वक्तव्य जैसा ही रखा गया है-
आप सभी का सादर अभिवादन।
मुझे नदी पर कुछ बातें करनी थी, आयोजकों की ओर से प्रस्ताव आया कि सत्र की अध्यक्षता करूं और उसके साथ ही जोड़ कर अपनी बात कहूं। आयोजकों ने मेरे लिए यह संयोग बनाया, जो बातें कहना चाह रहा था, कुछ बातें सोन पर, कुछ हसदेव के लिए, संयोग कि उन्हीं विषयों पर इस सत्र में ज्यादातर परचे पढ़े गए। इसलिए आसानी होगी कि जो परचे पढ़े गए उन पर अलग-अलग कहने के बजाय, उनसे मिलती जुलती बातें और अपनी थोड़ी बात के साथ ... इस सत्र के निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास कर रहा हूं।
आज और कल के भी सत्रों में नदियों पर चर्चा हो रही थी, उस पर विचार आ रहा था कि हम अक्सर प्रकृति और जिसमें नदी भी है, उसके साथ कभी मानों शीत युद्ध और कभी आमने सामने मुकाबिल होने का प्रयास करते हैं और ऐसे प्रकृति पर विजय पाने जैसी भावना मन में लाते हैं। हमने कई जगहों पर नदियों पर उस तरह से ‘विजय‘ पाई है। नदी हमारा राह रोकती थी, बाधक थी, हमने उस पर पुल बना दिए। नदी में बाढ़ आती थी हमने बांध बना दिए, नहर बना दिए। हमने बहुत सारे इसी तरह के काम नदी-प्रकृति पर ‘विजय‘ पाने वाले किए हैं इसलिए स्वाभाविक ही सभ्यता जो एक तरह से गुमान में रहती है कि उसने नदियों पर विजय पा ली है, हम हर साल देखते हैं कि वह नालियों से हार रही है। नालियों का पानी बरसात में घर में घुस जाता है, पूरी कॉलोनी डूब जाती है, जीवन मुश्किल हो जाता है। बैगलोर शहर की खबरें आपने देखी होंगी कि वहां क्या स्थिति हुई है, पहली बार वहां ऐसा हुआ बताया जा रहा है। बंबई की स्थिति देखिए। कोई भी महानगर ऐसा नहीं है, जहां इस तरह की स्थिति न बनती हो। जैसाकि कहा जाता है कि प्रकृति को न तो विजेय रूप में देखा जा सकता है और न ही आराध्य रूप में। आशय कि सभ्यता के क्रम में, प्रकृति में मानवीय दखल तो होगा ही, मगर वह प्रकृति के साथ मेल वाला होना चाहिए। मानव उद्यम कहीं न कहीं प्रकृति को प्रभावित तो करेगा, लेकिन सभ्यता प्रकृति के साथ जितना सहजीवन में होगी, उससे मेल वाली होगी, उसके साथ मिल कर चलेगी, विकास उतना ही सम्यक होगा, संतुलित होगा।
आपका ध्यान गया हो, यों तो कालिदास का मेघदूत, पूरा ही प्रकृति-मैत्री का काव्य है। बादल को संदेश के लिए दूत बनाया गया है। इस काव्य के दो अंशों का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा। कवि मेघ से कहता है- जब तुम वहां पहुंचकर गरजने लगोगे तो सिद्धांगनाएं घबरा कर अपने-अपने प्रियतम के गले से लिपट जाएंगी। इस घबराहट भरे आलिंगन को पा कर सिद्धजन तुम्हारा उपकार मानेंगे (पूर्वमेघ, 23)। इसी तरह जो स्त्रियां अपने यारों से मिलने के लिए घनी अंधेरी रात में निकली होंगी, उन्हें जब सड़कों पर कुछ न सूझता हो, तुम कसौटी पर सोने के समान दमकने वाली अपनी बिजली चमकाकर उन्हें रास्ता दिखाना। मगर गरजना-बरसना नहीं, वरना वे घबरा जाएंगी (पूर्वमेघ, 41)। ऐसा ही कुछ वे कुमारसंभव में भी कहते हैं कि वर्षा के समय रात की घनी अंधियारी भयावह नगर-मार्गों पर बिजली की कड़क से डर जाने वाली कामिनियों को उनके प्यारों के घर अब तुम्हारे सिवाय कौन पहुंचाएगा (सर्ग-4, 11) यही बात 1945 की फिल्म ‘मेघदूत‘ के गीतकार फैयाज हाशमी ने इस तरह कहा है- ‘देख अंधेरा, पिया मिलन को, चलेगी छुप कर कोई गोरी। बस तुम बिजली चमका कर, खोल न देना उसकी चोरी‘। पं. मुकुटधर पाण्डेय द्वारा किया गया इस अंश का छत्तीसगढ़ी समर्थ अनुवाद है- ‘उहां रात म प्रीतम के घर जावत होहीं नारी, अउ मारग म छाए होही जब बिरबिट अंधियारी। चमक, कसौटी कसे सोन कस बिजली डहर देखाबे, डर म उठि हीं झझक, गरज के झन पानी बरसाबे।। बिजली चमकने को किस मित्र-भाव से देखने की हमारी परंपरा रही है। कालिदास का ही एक और उदाहरण कुमारसंभव से, जिसमें वे कहते हैं कि जब वहां किन्नरियां शरीर पर से वस्त्र हट जाने के कारण लजाने लगती हैं, तब बादल उन गुफाओं के द्वारों पर जा कर परदा का रूप धारण कर लेते हैं (सर्ग-1, 14)।
प्रकृति, चाहे नदी हो, पहाड़ हो उसके साथ हम अपने सहजीवन को किस तरह निभाते हैं। गंगा और यमुना यहां चित्र में हैं, प्रतीक रूप में मंदिरों में, यहां मल्हार का चित्र आप देख रहे हैं। माना जाता है कि हम दर्शन के लिए जाएं तो दोनों द्वार शाख पर गंगा और यमुना की प्रतिमाएं होती हैं यह मनस-शुद्धि है, अभिषेक और स्नान उतना आवश्यक नहीं होता है जितना मनस-शुद्धि, चित्त की शुद्धि आवश्यक होती है और उसके लिए प्रतीक रूप में गंगा और यमुना, प्रत्येक मंदिर के द्वारशाख पर होती हैं। इस संगोष्ठी में भी इसी तरह पवित्र विचार आएं, इसी उद्देश्य से आयोजित किया गया है। गंगा और यमुना पर एक-दो छोटी-छोटी बातें कहना चाहूंगा, थोड़े परिप्रेक्ष्य अलग हैं।
गंगावतरण की कहानी ... शिव को गंगाधर कहा जाता है, बातें आती हैं कि पार्वती उनसे सौतिया डाह भी रखती हैं कि गंगा को सिर पर चढ़ा रखा है, किस्म की बात लोक में और अन्यथा भी आती हैं, बहुत सुंदर ढंग से आती हैं, लेकिन शिव के जटाजूट में गंगा, गंगाधर शिव की एक बहुत सुंदर व्याख्या है, वह पर्यावाण का, उस क्षेत्र उत्तर भारत का, वहां जो पतले-नुकीले पत्ते वाले वृक्ष होते हैं, बरसात-पानी के लिए मुश्किल होते हैं, क्योंकि उन पर पानी रुकता नहीं है, जैसे पतले सुलझे बाल हों। जबकि जो जटाएं हैं, शिव की जटाएं हैं वह ऐसा चौड़े पत्ते वाले पेड़ का जंगल है, जिनके कारण बरसाती पानी पत्तों पर रुककर, ठहर कर आता है। सीधे जमीन पर नहीं आता, मिटटी नहीं कटती। आजकल एक बहुत कामचलाउ शब्द इस्तेमाल होने लगा है, ग्रीन कवर, इस ग्रीन कवर में हम हरियाली, शायद अपने बगीचे की उस घास को भी मान लेते हैं, जो सिंथेटिक लॉन है। यह महत्वपूर्ण है, जब हम पर्यावरण की बात करते हैं, कि वह ग्रीन कवर किस तरह का है, वह ब्रॉड लीफ है या कि वह पाइन है। ऐसे वृक्ष जिनके पत्ते बड़े-चौड़े और घने होते हैं, जब बरसात होती है, तब पानी देर तक पत्तों पर रुका रहता है, टपकते-रिसते उतरता है, इसी तरह गंगावतरण है, शिव के जटा-जूट में ठहरती हुई आती है। ऐसे वृक्षों वाले घने वन, इस तरह पर्यावरण की रक्षा में सहायक होते हैं।
यहां किसी ने नदी के किनारे वृक्षारोपण की बात कही, वह तो अच्छी बात है, उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन नदियों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक होता है हम उसके उद्गम के जंगल को, जो वनस्पतियां है, उद्गम स्थल पर, उसे कायम रखा जाए। हमारे गुरुतुल्य रायकवार साहब यहां है, हमलोग जब कभी सर्वेक्षण में जाते थे तो यह मैंने उनसे सीखा है और हमारे जितने भी पुराने अधिकारी थे वे बताया करते थे कि सर्वेक्षण में नदियों के उद्गम और संगम को जरूर देखें। मुझे यह समझ में नहीं आता था, मगर बाद में लगा कि यह पवित्र माने जाते हैं, प्राचीन आस्था के केंद्र होते हैं इसलिए पुरातत्व की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं हीं, हमारी संस्कृति, हमारी आस्था, हमारे पर्यावरण, इन सभी के लिए आवश्यक है। रायकवार साहब से अक्सर इस बात के लिए बहस हो जाती थी, नदी के आसपास से गुजर रहे हों तो बोलते थे कि नदी जल का स्पर्श किए बिना नहीं जाएंगे। लगता कि हम बेवजह आधे घंटे खर्च कर रहे हैं। अब मैं उसका महत्व समझ पाता हूं, उस समय अपनी नादानी से उनसे बहस कर लेता था, जबकि वे गुरु हैं, उन्होंने कई जगहों पर सिर्फ पुरातत्व ही नहीं, जीना भी सिखाया है।
एक दूसरी बात यमुना पर। यमुना के साथ बलराम भी याद आते हैं, बलराम का एक नाम संकर्षण है, कर्ष जो शब्द आता है। कर्ष का मतलब थोड़ी खींचतान, चालू भाषा में कहें, बलराम खींचतान वाले देवता हैं, हलधर, कृषि के तो देवता हैं ही, (कृष्टि, संस्कृति, संकर्षण, कृष्ण सभी शब्द कृषि से ही जुड़े बताए जाते हैं और किशन भी किसान के करीब ही है।) उनका एक उल्लेख आता है, संकर्षण नाम, क्योंकि गर्भ प्रत्यारोपण जैसी बात उनके साथ जुड़ी हुई है। उनका एक नाम यमुनाकर्ष भी है, इसलिए कि कहा जाता है कि व्याख्या होती है तो जो नारीवादी लोग हैं वे मान सकते हैं कि बलराम व्याभिचारी थे, कहा जाता है कि उन्होंने हल से या यमुना को पकड़ कर उसके साथ जबरदस्ती की और उसको मथुरा ले आए। हमारी इस तरह से पौराणिक कथाओं को देखना चाहिए, उसके प्रति जो दृष्टि होनी चाहिए। दरअसल इस पूरी कहानी में विष्णु पुराण में आई कथा सावधानीपूर्वक पढ़ें तो यह स्पष्ट है कि एक व्यक्ति जो कृषक है, जो हलधर है, वह कृषि की आवश्यकता के लिए, जल की व्यवस्था के लिए, यमुना के पानी की धारा को मोड़ कर, यमुना से कोई नहर निकालने का उद्यम कर रहा है। नारी विमर्श के नजरिए कथा पढ़ें तो लग सकता है कि बलराम ने यमुना नाम की कोई कन्या थी, उसका बलात्कार किया था। आधुनिक विमर्शवादी लोग हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है। हमारी परंपरा में यह कथा प्रतीक रूप में, सुंदर ढंग से आती है।
कुछ अन्य बातें, जिन पर चर्चा हुई है, सोन की बात हो रही थी। निसंदेह अमरकंटक में सोन और मुड़ा, दो नदियां हैं, कहा जाता है कि वह सोन का उद्गम है लेकिन भूगोल के जितने भी गंभीर अध्ययन हैं, उनमें यह सिद्ध और प्रमाणित है कि सोन बचरवार, बिलासपुर से रतनपुर हो कर जो रास्ता पेंड्रा को जाता है, उस पर कारीआम के पास है, वहां सोन का उद्गम है। हम आज भी चर्चा कर रहे थे कि एक जगह उद्गम होता है फिर सूख जाता है, फिर दूसरी जगह दिखता है। नदियों के उद्गम को ले कर गड़बड़ियां होती हैं, उनकी धार्मिक आस्था को ले कर, कि उद्गम है तो वहां पर दुकानदारी बन गई, फिर उसके भी पीछे एक जगह खोज ली गई कि इसका वास्तविक उद्गम तो यहां है। मैं जब महानदी का उद्गम, मुझे आज भी स्पष्ट नहीं है, मैं भूगोल वालों से बार-बार यह समझना चाहता हूं कि महानदी का उद्गम जिस जगह को बताया जाता है, सिहावा पहाड़ी के नीचे तो मुझे दिखता है कि नदी तो उसके बहुत पीछे से आ रही है, फिर इसको उद्गम क्यों माना जाता है।
नदियों का उद्गम न सिर्फ भौगोलिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक रूप से ध्यान कराती है और सोन की जो बात हो रही थी, देव कुमार मिश्र जी की पुस्तक है ‘सोन के पानी का रंग‘ मेरा ख्याल है हिंदी में लिखी हुई, नदियों पर जिस व्यापक दृष्टि से और जिस समग्रता के साथ, संस्कृति हो, पुरातत्व हो, पर्यावरण हो, धार्मिक आस्था हो, विभिन्न केद्र हों ‘सोन के पानी का रंग‘, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित पुस्तक है। देवकुमार मिश्र सोन की परिक्रमा किया करते थे। नर्मदा के परिक्रमा की अक्सर, बहुत चर्चाएं होती हैं, पुस्तकें भी हैं, ढेर सारा काम हुआ है, लेकिन सोन की जिस तरह परिक्रमा और प्रकाशन हुआ है। एक बहुत सुदर प्रकाशन, जब हम पुरातत्व की बात करते हैं, जो पुरातत्व के महानिदेशक रहे हैं, राकेश तिवारी साहब, वे शौकिया तौर पर नाव चलाया करते थे, किंतु उन्होंने 62 दिन में दिल्ली से यमुना, यमुना से गंगा से कलकत्ते तक की यात्रा उन्होंने बासठ दिन में की थी, खुद अकेले नाव चलाते हुए ‘सफर एक डोंगी में डगमग‘, इस तरह का जो साहित्य रचा गया है।
ऐसे साहित्य का और इस शोध संगोष्ठी की आवश्यकता क्यों है? हम अपने नदी से रिश्तों को पुनर्जीवित करने का, जैसा मैंने कहा पुल बन गए हैं, नदी से हमारा रिश्ता, हमने नदी को जीत लिया, नदी से हमारा ताल्लुक नहीं रहा, अब हमें पुल से गुजर जाना है, नदी जब तक हमारे जीवन का हिस्सा नहीं रहेगी अभी तक जो हो रहा था, नदी कि किनारे जो अनुष्ठान होते हैं, नदी की पूजा होती है जो सबसे ज्यादा स्वाभाविक है निषाद, आस्ट्रिक कुल के आग्नेयवंशी हैं उनके लिए नदी का सबसे ज्यादा महत्व है, उनका पूरा जीवन ... एक बहुत रोचक बात है कि हम भड़भूजा कहते हैं, चना, मुर्रा, लाई हम सभी हमारे यहां आती थीं केंवटिन बेचा करती थीं, करी लड्डू, मुर्रा लड्डू, चना, मुर्रा ये सब बेचा करती थीं, एक हमारे बुजुर्ग ने कही थी, जो मेरे ध्यान में कभी नहीं आई थी, जब एक केंवट, एक निषादराज, नाव ले कर नदी में समुद्र में हेल जाता है तो उसे कितना वक्त लगेगा, वह कितने दिन बाद आएगा मालूम नहीं, खाने का क्या इंतजाम होगा पता नहीं तो हम एक बहुत ही न्यूनतम प्रासेस से, हम बिना किसी प्रिजर्वेटिव के अगर कोई खाद्य सामग्री कई दिनों तक सुरक्षित रख सकते हैं तो वह चना-मुर्रा है, इसीलिए केवटिन एक्सपर्ट होती थीं, अपने केंवट पति को चना-मुर्रा, करी लड्डू दे पाती थीं। तो ये हमारी जीवन शैली में किस तरह, ऐसी बहुत सारी बातें, कल बात हो रही थी।
बात हो रही थी बइहा पूरा या उलेला पूरा की यानि उड़ेला पूरा, जैसे पानी उड़ेल दिया गया हो। उलेला पूरा पहाड़ी नदियों में होता है। नदी पाटो-पाट बहने लगती है, और लीलागर तो ऐसी नदी है, जिसमें उलेला पूरा आता है तो पानी, पाट के बाहर तक छलकता है। एक बहुत सुंदर प्रकरण है, देवधर महंत जी अपने परचे में हसदेव नदी की चर्चा कर रहे थे। इस संदर्भ में उस गांव का नाम आना चाहिए, जहां पर हसदेव या हसदो नदी का संगम महानदी से होता है, वह गांव है मउहाडीह। छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदियों में यह नदी का संगम इसलिए विशेष उल्लेखनीय है कि वह अकेला ऐसा संगम है, जहां हसदेव नदी, महानदी पर नब्बे अंश के कोण पर मिलती है। मेरे ध्यान में और कोई दो मुख्य नदियां ऐसी नहीं हैं जो नब्बे अंश के कोण पर संगम बनाएं। हसदेव धीरे-धीरे अब बहाव की दिशा बदल रही है, पुराना कोर्स भी दिखता है, नया कोर्स भी। तेज बहाव वाली यह नदी चोर बालू के लिए भी जानी जाती है। लोग बताते हैं कि कोरबा में दर्री बराज बन जाने के बाद बहाव की दिशा भी बदली और पूरा भी तभी आता है, जब गेट खोल दिया जाता है। हसदेव अपने बायीं ओर मउहाडीह की जमीन, मरार समाज के लोग हैं, वे लोग परेशान होते हैं, जमीन कटती है, पट्टा दिया जाता है। बहुत रोचक कि नदी हमारे जीवन का हिस्सा कैसे है, हम जब वहां गए थे, कुछ पुरातात्विक सामग्री और विद्यालय की बात जो महंत जी अपने परचे में कही, मउहाडीह ऐसा गांव था, जहां लगभग सौ साल पहले टेलीफोन की लाइन थी, और उसका कारण कि वहां पुराना चर्च था, उसकी बुनियाद आज भी वहां बची है। हमलोगों ने वहां से बिलासपुर संग्रहालय के लिए दुर्लभ ‘लज्जा-गौरी की प्रतिमा संग्रह की।
वहां एक बुजुर्ग से हमारी मुलाकात हुई। नदी कैसे हमारे जीवन का हिस्सा है, उन्होंने बहुत सारी बातें बताई उसमें से एक रोचक बात थी, जब हमने हसदेव और महानदी की बात कही तो उन्होंने ... देखिए एक साहित्यिक व्यक्ति होता तो कहता कि महानदी धीरा है, गंभीरा है, मैदानी क्षेत्र से आती है, लेकिन हसदेव पहाड़ी क्षेत्र से मैदान में आती है, उसके बाद बांगो हसदेव बांध है, आदि ... मगर यहां मिले वे याद कर रहे थे उसके पहले के समय को हम नदी को क्या महसूस करते हैं, हम तो कुछ देर समझ नहीं पाए उनकी बात को, वो बताने लगे हमन बसे हन हमन ल घुंचे बर परथे, अउ पानी चउमास म तो का बर, दुनों बहुरिया के झगरा, हमने पूछा क्या बहुरिया के झगरा, कहा कि बड़की हर तो थिराए रथे, बड़की हर नइ रिसावय, कतको कहिबे ओ हर सहत रथे, बिचारी बड़की हर। छोटकी फनफनही हे, एक घरी होइस तहां फनफन फनफन। बड़की बिचारी हर जतका सहे सकथे सहथे, लेकिन ओहू हर तो आखिर एक झन आदमिच्च आय। सहत सहत म कभू ओ कर मिजाज बिगड़ गे, त हमन कथन अब जी नइ बांहचय। अब दुनो बहुरिया के फदक गे। होता यह है कि तेज ढलान वाले उफनते हसदेव का पानी, आसानी से महानदी के चौड़े पाट में समाहित होता जाता है, मगर महानदी भी बढ़ी रही, तो पानी का ठेल, उलट मारता है और हसदेव अपने बायें तट पर दूर तक डुबाती-फैलती जाती है।
प्रसंगवश, यही कोई पैंतीस साल पुरानी दो घटना। दोनों महानदी की। एक मांद का संगम और दूसरा हसदेव संगम।
किसी बरसाती सुबह हमलोगों ने राह पकड़ी बालपुर की। मंजिल थी, पं. लोचन प्रसाद और पं. मुकुटधर जी का गांव। चंदरपुर पहुंचने के पहले ही रास्ते में लोगों ने बताया ऐसी बरसात है, नाले पूर होंगे, वहां तक नहीं पहुंच पाएंगे। हम आगे बढ़ते गए। महादेव पाली से आगे नाले ने रास्ता रोक लिया तो वापस महादेव पाली आ कर वहीं काम से लग गए। नाम रोचक था, महादेव और पाली भी। पूछताछ करते हुए पुराने अवशेषों की जानकारी मिली। प्राचीन कलात्मक स्थापत्य खंड मिल गए। बताया गया कि कुछ अवशेष नदी में अंदर भी हैं। इस तरफ नदी का पाट काफी उंचा था, मगर बांयें पाट से एक स्थान पर नदी में उतरने का रास्ता था, पानी बरस जाने के कारण, फिसलन भरा। किसी तरह नदी में उतरे। नदी के पाट की चौड़ाई में दो तिहाई रेत, उसके बाद महानदी संगगम की दिशा में एक तिहाई चौड़ाई में छिछली धारा। दाहिनी ओर पुल, जिसे पार कर महादेव पाली आए थे। कैमरा साथ था, तस्वीरें ले रहे थे, एक बुजुर्ग महिला नाराज हुई कि फोटो ले रहे हैं, कहीं-कहीं यह माना जाता है कि जिसकी फोटो उतारी जाती है, चित्र या पुतला बनाया जाता है, उसके साथ अनिष्ट होता है, उसकी उम्र कम हो जाती है। रेत-रेत काफी आगे जा कर पानी की धारा थी। कुछ आगे एक जगह थोड़े पत्थर इकट्ठे थे। कोई खास बात नहीं थी। चहलकदमी करते लौटने लगे। जल-प्रवाह का स्पर्श किया।
रायकवार जी ने तटस्थ भाव से, लेकिन भविष्यवाणी की तरह कहा नदी का पानी बढ़ रहा है। ध्यान से देखने पर समझ में आया, सचमुच पानी बढ़ रहा था, बहुत धीरे-धीरे। फिर उनकी दूसरी भविष्यवाणी हुई, हमें बाहर निकल जाना चाहिए, पानी तेजी से बढ़ सकता है। हमलोगों ने समझना चाहा कि ऐसा वे किस आधार पर कह रहे हैं। उन्होंने बताया कि बुलबुले तेजी से आ रहे हैं, हमें सावधानी बरतनी चाहिए। हंसी-ठिठोली होती रही, कि अचानक दूर पाट के उपर पेड़ पर चढ़े दो लड़के चिल्लाने लगे, अफरा-तफरी मच गई, हमें कुछ समझ में आए तब तक देखा कि हमारे साथ आ गया एक कुत्ता किनारे की ओर भाग रहा है। ध्यान गया, नदी का पाट सात-आठ फुट पानी सर्पफण लहरों के साथ भरता, घरघराता, गर्जन करता आ रहा है। सारे खतरे-आशंकाओं के बावजूद रायकवार जी, कैमरा के अपरचर पर राय करना चाह रहे थे और क्लिक कर के ही माने। सब के सब जान बचा कर भागे, स्थानीय मांझी-मल्लाहों की मदद से किसी तरह बाहर निकल पाए। वापस आ कर देखा कि हम नदी में जिस जगह पानी में बुलबुले आता देख रहे थे अब वहां पांच-सात फुट पानी था। बुजुर्ग महिला अब फिर से बड़बड़ाने लगी। किसी साथी ने पूछा कि न निकल पाले तो क्या होता, उन्होंने सहज भाव से कहा, कल आफिस बंगाल की खाड़ी में लगता।
दूसरा प्रसंग मउहाडीह का है, अधिकतर मरार जाति के सौ-एक परिवार का गांव। तिवारी जी मिले, इसी गांव के बाशिंदे। सब्जी-बाड़ी वाले मरार, जिनका उत्पादन वाया बिर्रा, कोरबा जाता हैै। हसदेव के बहाव की दिशा बदलने से इस गांव के सैकड़ों एकड़ जमीन नदी में समा गई है। गांव वालों ने बताया कि कोरबा के दर्री बराज की तैयारी में सन 1965-66 में पूरी बस्ती नदी के दूसरे पाट पर केरा गांव में जमीन पट्टा दे कर बसाई गई थी, मगर बात न बनी। इनलोगों को ठीक-ठीक पता नहीं कि उनका गांव, अब सरकारी रिकार्ड में है या नहीं और वे खुद कागजों में केरा में हैं, अपने गांव में या पड़ोस के गांव सिलादेही में। फिर गांव वाले 1980 की बाढ़ याद करते हैं, शायद बिना पूर्व सूचना के दर्री बराज के गेट खोल दिए गए और यह पूरी बस्ती दसेक दिन के लिए जल-मग्न हो गई थी, तब बिर्रा वालों ने आसरा दिया था। तिवारी जी बइहा पूरा और उसके साथ ‘भेंड़ू‘ ले कर उफनती नदी में हेल जाने का किस्सा सुनाने लगे। चाय, हमारे मना करने पर भी तय कर दिया दूध वाली, कम शक्कर की। भेंड़ू, सेमल की लकड़ी का तख्ता होता है, ‘फ्लोट बोर्ड‘, फाउंटेन पेन की निब के आकार का, लगभग चार फुट लंबा। एक बालक को कहते हैं और वह हमें दिखाने के लिए भेंड़ू दिखाने के लिए दौड़कर जाता है और भेंड़ू ले कर वापस आ जाता है। बाढ़ की मुश्किलों के साथ, उससे जूझने के आनंद की भी स्मृतियां कम नहीं हैं। बगल में बैठे बुजुर्ग की ओर इशारा कर बताते हैं, देखिए ‘पूरा‘ सुन कर कैसे इनकी आंखों में चमक आ गई है, अभी भी बाढ़ आ जाए तो कमर में रस्सी बांध, भेंड़ू ले कर बौराई नदी में छलांग लगा देंगे।
फिर बताने लगे कि किस तरह कोरिया राज के बड़े-बड़े पेड़ और ढेर कुछ बाढ़ में बह कर आता था। गांव के लोग भेंड़ू ले कर नदी में समा जाते और बह कर आ रह पेड़ के साथ बहते, कमर की रस्सी खोल उसे बांध लेते और भेंड़ू से चिपके तैरते-उतराते, मील-दो मील बहते धीरे-धीरे किनारे लगते। जमीन छूते ही टिक जाते। फिर आसपास जिस गांव में होते वहां के लोगों की मदद ले कर गाड़ा-भंइसा में सामान लाद कर गांव वापस लौटते। गड़हा को आग्रहपूर्वक एक रात रोक लेते, खाना-पीना होता फिर विदा। सामान्यतः नदी बहाव की दिशा में नीचे के निवासी, उपर वालों को अग्रज की तरह सम्मान देते हैं और उपर वाले उन पर, अनुज की तरह स्नेह लुटाते हैं। हमने पूछा बाढ़ में और क्या-क्या बह कर आता था। इस पर तिवारी जी ने याद किया कि एक बार किसी दुकानदार का पचासों टीपा तेल-घी बह कर आया था। कई भेंड़ू-वीर, भिड़ गए और सारा कुछ बचा लिया। तीन-चार दिन बाद व्यापारी अपना माल पता करते आया, तो उसे सारा माल लौटा दिया। कुछ टीपा खर्च हो गया था, बताने पर व्यापारी ने उतना ही और छोड़ दिया, बाकी माल ले कर वापस लौटा। फिर याद किया कि कभी एक बछिया बहते हुए आ गई थी, किसी तरह उसकी जान बची, मगर उसे लेने उसका मालिक नहीं आया, गांव में ही रह गई। तब तक चाय आ गई थी, पंडित जी ने कहानी को नाटकीय ट्विस्ट वाला क्लाइमेक्स दिया कि उसी बछिया के पीढ़ी के दूध की चाय आपलोग पी रहे हैं।
यहां पढ़े गए परचों में चर्चा हो रही थी, उस संदर्भ में एक जरूरी नाम, ठाकुर जगमोहन सिंह का है। वे शिवरीनारायण में तहसीलदार थे, महानदी में 21, 22 और 23 जून 1885 को आई बाढ़, जिसे उन्होंने बूड़ा या पूर कहा है, ‘प्रलय‘ शीर्षक लंबी कविता रची, जिसमें में तिथि बताई है- ‘रविवासर उजियार जेठ मास दूजो सुभग। ईकइस जून विचार सन पचासी-आठ दस।‘ इसी तरह महानदी के उससे भी पहले (1835?) के बड़ा पूर-बाढ़ का उल्लेख राजिम में दो पंक्तियों के शिलालेख में मिलता है- ‘जे दिन वियापेउ अंम्बु छुटत शिव गिरि गहि रहैउ जगतिराउ तहं षंभ, शंभु सुषासन रहेउ तहं।‘ बताया जाता है कि बड़ा पूर आने पर मंदिा में रहने वाले साधु ने पेड़ पर तीन दिन काटे थे और जिसे याद करते यह लेख खुदवाया था। ऐतिहासिक तथ्य है कि खरौद परगना, जो शिवरीनारायण तहसील बना था, 1891 में जांजगीर तहसील बना। इसी तरह सिमगा 1906 तक तहसील था, वह शिवनाथ नदी से प्रभावित होने के कारण बदल कर बलौदा बाजार चला गया।
और बात हो रही थी जोंक नदी की, खारुन नदी की। एक दौर था, जब नदियों की यात्रा, खारुन नदी की यात्रा, पेटेचुवां से सोमनाथ तक यात्रा की गई थी या जोंक (जोग, जौंगी, जुंगिया नाम भी मिलता है।) नदी की यात्रा या शिवनाथ के अंश की यात्रा की गई थी। जोंक का पुरातत्वीय सर्वेक्षण डॉ. शिवाकांत बाजपेयी और डॉ. अतुल प्रधान ने किया। इसी तरह शिवनाथ का सर्वेक्षण डॉ. केपी वर्मा ने किया है, जिसका प्रतिवेदन पुस्तक रूप में प्रकाशित भी है। बिलासा कला मंच के सदस्य अरपा यात्रा किया करते हैं। ‘बोलती नदी‘ वाले युवा आमिर हाशमी ने लगभग 90 किलोमीटर लंबी संकरी नदी की यात्रा कर, वृत्त-चित्र बनाया है। शिव राजपूत ने केलो की उद्गम-संगम यात्रा कर ‘केलो कपूत‘ बन गए हैं। ऐसी यात्राएं इन्टैक किया करती थी, लोग किया करते हैं, यह सब नदी से रिश्ता है। आपका नदी से रिश्ता नहीं रहा तो यह मान कर चलिए कि नदी का बचना संभव न होगा। पता नहीं, हो सकता है हम भविष्य में नदी के बजाय किसी दूसरी चीज के लिए बहुत रोमांटिक हो जांय, और दूसरी चीजें हमारे जीवन का हिस्सा बन जाएं, पांच सौ साल बाद क्या हो, पता नहीं, लेकिन जो अभी पिछले पचास साल में मेरे अनुभव में मैंने देखा है, नदी और सूखती नदियों की बात अशोक तिवारी जी कर रहे थे, वह ...।
यह मैंने महानदी पर देखा है, नांदघाट के पुल पर भी देखा है और बलौदा बाजार से कसडोल जाते हुए नाले आते हैं, उन पर भी। बहुत शांत ढंग से कुछ चीजें होती हैं, जिन पर अगर आपका ध्यान न जाए तो अच्छा है, अगर आपका ध्यान जाता है तो दिल दहल जाता है, दिल दहल जाने वाली बात यह कि उन पुलों पर तीर का निशान लगाया गया था और नीचे लिखा था, बहाव की दिशा। हम नदियों के, नालों के बहाव की दिशा पुलों पर दर्शाने के लिए मजबूर हो गए हैं, क्योंकि उसमें पानी नहीं होता, कि बहाव की दिशा देख सके, वह संकेत में आ गई है, नदी में बारहमासी पानी, इतिहास की बात हो गई है।
इस सिलसिले में 03 अगस्त 2016 को छपी खबर का उल्लेख, जिसमें बताया गया था- ‘छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के केवई नदी को हसदो नदी से जोड़ा जाएगा। इसके फलस्वरूप जल संरक्षण और संवर्धन के साथ ही चिरमिरी और मनेन्द्रगढ़ क्षेत्र में जल संकट की स्थिति नहीं आएगी। साथ ही ग्राम रोकडा, लोहारी, महाई, धरमपुर, बांही एवं ग्राम मुसरा को सिंचाई एवं निस्तारी सुविधा मिलेगी। उल्लेखनीय है कि केवई नदी का उद्गम कोरिया जिले के ग्राम बैरागी (विकासखंड मनेन्द्रगढ़) में और हसदो नदी का उद्गम इसी जिले के ग्राम मेन्ड्रा (विकासखंड सोनहत) में है।‘
नदियों को जोड़ने से क्या होगा, पता नहीं, यह जरूर कहा जा सकता है कि नदियों से खुद को जोड़े रखने से..., अपना रिश्ता महसूस करते रहें, उसकी संस्कृति, जीवन शैली, जो हमारी संवेदनाओं को, मानवता को बहुत समृद्ध करती है, मुझे लगता है कि यह पूरा सेमिनार इसी से संबंधित है। कई बार होता यह है कि लोग कहते हैं कि इस सबसे होता क्या है और मेरा हमेशा यह कहना होता है कि जन्मदिन मनाने से किसी की उम्र नहीं बढ़ जाती, लेकिन फिर भी जन्मदिन मनाया जाता है, मनाने के कई आशय होते हैं, वैसे ही इस आयोजन के भी।
धन्यवाद आप सभी का।