Wednesday, June 29, 2022

तद्भव

समसामयिक साहित्य/लेखन का नियमित पाठक कभी-कभार ही, संयोगवश रहा। इस दौर की पत्रिकाएं से भी ताल्लुक न के बराबर है। तब ‘तद्भव‘ का जनवरी 2022 अंक मिला। लगा कि ऐसी अच्छी चीज, बिना शोर-शराबे के, शांति से निभ रही है, जिसे अपना औचित्य और उस पर टिके रहना अच्छे से आता है। रचना चयन से संपादकीय कौशल का अनुमान करना चाहें तो संपादक की क्षमता, धीरज और दृढ़ता देखी जा सकती है। पत्रिका के अंत में लेखकों के मोबाइल नंबर दिए गए हैं, मगर संपादक का नंबर मुझे पत्रिका से नहीं, ‘हिंदी समय‘ से मिला। अंक की सारी सामग्री महत्वपूर्ण है, उनमें से कुछ पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया-


विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने ‘जलजोग‘ को दशाश्वमेध घाट की दुकान लिखा है। बनारस की मेरी यादें 1964-65 तक पुरानी हैं और मेरी याद में गोदौलिया की गिरजाघर चौमुहानी और जंगमबाड़ी वाली मुख्य चौमुहानी के आसपास ही कहीं यह दुकान होती थी। लक्सा से आगे बढ़ते मजदा टॉकीज पार कर शायद गिरजाघर चौमुहानी के पहले दायें हाथ की ओर यह दुकान थी। (इस पर बांग्ला में जलजोग लिखा होता था, यह पढ़ लेने पर मुझ जैसे नागरी पढ़ने वाले को भी लगता था कि बांग्ला पढ़ लेता हूं।) इसलिए जिज्ञासा कि क्या 1964-65 के पहले कभी यह दुकान दशाश्वमेध पर थी।

गीतांजलि श्री पर बातें होना शुरु हुईं, अर्पण कुमार ने उसके पहले उनसे बातचीत की थी, जो पत्रकारों वाला साक्षात्कार न हो कर सचमुच बातचीत है। अर्पण कुमार की ओर से बात का जो सूत्र पकड़ा जाता है, वह कितना औचित्यपूर्ण है यह गीतांजलि श्री के जवाब से रेखांकित होता है, उनका सहज लेखकीय व्यक्तित्व भी उस रूप में उभरकर आया है, जैसा संभवतः वे स्वयं चाहेंगी। एक जगह बात छिड़ती है- ‘अक्सरहां अपनी धुन में आप हमें रमी हुई दिखती हैं‘ तो वे कहीं ‘रेत समाधि‘ के लिए बताती हैं कि ‘बरसों लगे उस उपन्यास को पूरा करने में‘ ...। सोशल मीडिया पर बेताबों वाले इस दौर में रचे जा रहे साहित्य में धैर्य और ठहराव की गंभीरता, उसका महत्व, जिस तरह से इस पूरी बातचीत में उभरा है, वह किसी भी व्यक्ति/रचनाकार के लिए प्रेरक हो सकता है।

राहुल सिंह का लेख साहित्यकार का नहीं बल्कि तटस्थ इतिहासकार का लेखा है, शायद यह उनके आलोचक होने के कारण इस रूप में संभव हुआ है। ठेठ किस्म के साहित्यकार शायद ही कोई हों, जो इस सजगता से, स्रोतों के समुचित उपयोग और आधार पर बात स्थापित करें, जिसमें व्याख्या की वह दृष्टि हो, जो संभावनाओं के लिए जगह बचाए रखती है। वे जिस शोध परियोजना पर काम कर रहे हैं, निसंदेह वह गंभीर परिणाममूलक होगा। उन्होंने भूमि व्यवस्था को पूरे परिप्रेक्ष्य, यानि इतिहास, संस्कृति और तत्कालीन राजनैतिक-प्रशासनिक संदर्भों के साथ रख कर देखा है, इस पर आया निष्कर्ष आवश्यक नहीं कि सहमति योग्य हो, मगर स्पष्ट-तार्किक होने के कारण मील का पत्थर होगा।

अनुपम ओझा के फिर सियरा... में ऐसा सच्चा और ईमानदार लोक है, जहां न तो नैतिकता का आडंबरी आग्रह होता और न उसकी खास परवाह ही। चित्तू पंडित के साथ यह बात है और चूंकि वे नायक हैं, इसलिए उनमें घनीभूत है, मगर पूरा समाज भी बेपरवाह है, उनके या ऐसे किसी भी चरित्र के प्रति। मुखर और अधिक प्रकट यही प्रवृत्ति, स्थिति और घटनाएं, जहां बस आई-गई होती हैं, मगर शायद यही वजह है, समाज-लोक की गतिशीलता, जीवंतता का। आदर्शों को रेखांकित करने, उभारने का यह भी एक तरीका है कि उन गलित-पलित की बातें करें, वही हास्यास्पद, कुछ समय बात त्रासद का असर पैदा कर देता है। रेणु, राग दरबारी से लपूझन्ना तक के सफर के साथ और उसके बाद, ऐसा लेखन, अभिव्यक्ति की अपनी ताजगी सहित पठनीय तो है ही, महत्वपूर्ण भी कम नहीं।

इस कहानी में आता है- ‘समत झरोखा बैठ कर जग का मुजरा लेय।‘ थोड़ी गड़बड़ की ‘समझ झरोखा‘ पत्रिका ने, कि लोगों ने समत को समझ मान लिया। और समत शब्द जिनके लिए अजनबी था, सुधार लिया ‘राम झरोखा...‘। समत मैंने सुन रखा था, मगर थाह न पा सका था, परिचितों से बात होने लगी, पता लगा कि समत का अर्थ है, होलिका की आग, सम्मत या संवत? (नेट पर 'समत' का अर्थ ‘न्याय, शांति, दया‘ मिला और अरबी 'सम्त' यानि दिशा, ओर, तरफ़, रास्ता, दिशा की ओर, सरल मार्ग) कहा जाता है- ‘जिये तो खेले फाग, मरे ओ कर लेखा लाग।‘ स्पष्ट है- साल का अंत, नये साल में फिर अगली होली होगी, तब तक जीते रहे तो फाग खेलेंगे और वह तो मरा, जिसका लेखा चित्रगुप्त के खाते में लग गया। कबीर अपना घर बारने और लुकाठी हाथ में ले कर चलने का आह्वान करने वाले हैं, वही ऐसा प्रयोग कर सकते हैं, जिसकी व्याख्या बूझे तो सहज, वरना दुरूह। समझ-समझ का फेर। विद्यानिवास मिश्र अपने निबंध ‘होरहा‘ में ‘सम्मति मैया‘ (संवत् माता) का उल्लेख करते हैं। बताने-बुझाने के लिए अनुपम ओझा जी और डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद जी का आभार।

हिलाल अहमद का लेख स्थायी महत्व का है। किसी के साथ आस्तिक-नास्तिक, धर्म-निरपेक्ष, अनास्थावादी, धर्मांध जैसे फिजूल विशेषण लगा देने में कितनी सनक और बेताबी होती है, यह इस लेख में बिना ढोल-ढमाके रेखांकित हुआ हैै। किसी धर्म का मानने वाला, कोई भी धर्मप्राण उनके इस लेखन में अपनी आवाज पा सकता है।

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30.6.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4476 पर दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

    ReplyDelete
  2. बेबाक राय।
    अप्रतिम।

    ReplyDelete