Wednesday, June 29, 2022

तद्भव

समसामयिक साहित्य/लेखन का नियमित पाठक कभी-कभार ही, संयोगवश रहा। इस दौर की पत्रिकाएं से भी ताल्लुक न के बराबर है। तब ‘तद्भव‘ का जनवरी 2022 अंक मिला। लगा कि ऐसी अच्छी चीज, बिना शोर-शराबे के, शांति से निभ रही है, जिसे अपना औचित्य और उस पर टिके रहना अच्छे से आता है। रचना चयन से संपादकीय कौशल का अनुमान करना चाहें तो संपादक की क्षमता, धीरज और दृढ़ता देखी जा सकती है। पत्रिका के अंत में लेखकों के मोबाइल नंबर दिए गए हैं, मगर संपादक का नंबर मुझे पत्रिका से नहीं, ‘हिंदी समय‘ से मिला। अंक की सारी सामग्री महत्वपूर्ण है, उनमें से कुछ पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया-


विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने ‘जलजोग‘ को दशाश्वमेध घाट की दुकान लिखा है। बनारस की मेरी यादें 1964-65 तक पुरानी हैं और मेरी याद में गोदौलिया की गिरजाघर चौमुहानी और जंगमबाड़ी वाली मुख्य चौमुहानी के आसपास ही कहीं यह दुकान होती थी। लक्सा से आगे बढ़ते मजदा टॉकीज पार कर शायद गिरजाघर चौमुहानी के पहले दायें हाथ की ओर यह दुकान थी। (इस पर बांग्ला में जलजोग लिखा होता था, यह पढ़ लेने पर मुझ जैसे नागरी पढ़ने वाले को भी लगता था कि बांग्ला पढ़ लेता हूं।) इसलिए जिज्ञासा कि क्या 1964-65 के पहले कभी यह दुकान दशाश्वमेध पर थी।

गीतांजलि श्री पर बातें होना शुरु हुईं, अर्पण कुमार ने उसके पहले उनसे बातचीत की थी, जो पत्रकारों वाला साक्षात्कार न हो कर सचमुच बातचीत है। अर्पण कुमार की ओर से बात का जो सूत्र पकड़ा जाता है, वह कितना औचित्यपूर्ण है यह गीतांजलि श्री के जवाब से रेखांकित होता है, उनका सहज लेखकीय व्यक्तित्व भी उस रूप में उभरकर आया है, जैसा संभवतः वे स्वयं चाहेंगी। एक जगह बात छिड़ती है- ‘अक्सरहां अपनी धुन में आप हमें रमी हुई दिखती हैं‘ तो वे कहीं ‘रेत समाधि‘ के लिए बताती हैं कि ‘बरसों लगे उस उपन्यास को पूरा करने में‘ ...। सोशल मीडिया पर बेताबों वाले इस दौर में रचे जा रहे साहित्य में धैर्य और ठहराव की गंभीरता, उसका महत्व, जिस तरह से इस पूरी बातचीत में उभरा है, वह किसी भी व्यक्ति/रचनाकार के लिए प्रेरक हो सकता है।

राहुल सिंह का लेख साहित्यकार का नहीं बल्कि तटस्थ इतिहासकार का लेखा है, शायद यह उनके आलोचक होने के कारण इस रूप में संभव हुआ है। ठेठ किस्म के साहित्यकार शायद ही कोई हों, जो इस सजगता से, स्रोतों के समुचित उपयोग और आधार पर बात स्थापित करें, जिसमें व्याख्या की वह दृष्टि हो, जो संभावनाओं के लिए जगह बचाए रखती है। वे जिस शोध परियोजना पर काम कर रहे हैं, निसंदेह वह गंभीर परिणाममूलक होगा। उन्होंने भूमि व्यवस्था को पूरे परिप्रेक्ष्य, यानि इतिहास, संस्कृति और तत्कालीन राजनैतिक-प्रशासनिक संदर्भों के साथ रख कर देखा है, इस पर आया निष्कर्ष आवश्यक नहीं कि सहमति योग्य हो, मगर स्पष्ट-तार्किक होने के कारण मील का पत्थर होगा।

अनुपम ओझा के फिर सियरा... में ऐसा सच्चा और ईमानदार लोक है, जहां न तो नैतिकता का आडंबरी आग्रह होता और न उसकी खास परवाह ही। चित्तू पंडित के साथ यह बात है और चूंकि वे नायक हैं, इसलिए उनमें घनीभूत है, मगर पूरा समाज भी बेपरवाह है, उनके या ऐसे किसी भी चरित्र के प्रति। मुखर और अधिक प्रकट यही प्रवृत्ति, स्थिति और घटनाएं, जहां बस आई-गई होती हैं, मगर शायद यही वजह है, समाज-लोक की गतिशीलता, जीवंतता का। आदर्शों को रेखांकित करने, उभारने का यह भी एक तरीका है कि उन गलित-पलित की बातें करें, वही हास्यास्पद, कुछ समय बात त्रासद का असर पैदा कर देता है। रेणु, राग दरबारी से लपूझन्ना तक के सफर के साथ और उसके बाद, ऐसा लेखन, अभिव्यक्ति की अपनी ताजगी सहित पठनीय तो है ही, महत्वपूर्ण भी कम नहीं।

इस कहानी में आता है- ‘समत झरोखा बैठ कर जग का मुजरा लेय।‘ थोड़ी गड़बड़ की ‘समझ झरोखा‘ पत्रिका ने, कि लोगों ने समत को समझ मान लिया। और समत शब्द जिनके लिए अजनबी था, सुधार लिया ‘राम झरोखा...‘। समत मैंने सुन रखा था, मगर थाह न पा सका था, परिचितों से बात होने लगी, पता लगा कि समत का अर्थ है, होलिका की आग, सम्मत या संवत? (नेट पर 'समत' का अर्थ ‘न्याय, शांति, दया‘ मिला और अरबी 'सम्त' यानि दिशा, ओर, तरफ़, रास्ता, दिशा की ओर, सरल मार्ग) कहा जाता है- ‘जिये तो खेले फाग, मरे ओ कर लेखा लाग।‘ स्पष्ट है- साल का अंत, नये साल में फिर अगली होली होगी, तब तक जीते रहे तो फाग खेलेंगे और वह तो मरा, जिसका लेखा चित्रगुप्त के खाते में लग गया। कबीर अपना घर बारने और लुकाठी हाथ में ले कर चलने का आह्वान करने वाले हैं, वही ऐसा प्रयोग कर सकते हैं, जिसकी व्याख्या बूझे तो सहज, वरना दुरूह। समझ-समझ का फेर। विद्यानिवास मिश्र अपने निबंध ‘होरहा‘ में ‘सम्मति मैया‘ (संवत् माता) का उल्लेख करते हैं। बताने-बुझाने के लिए अनुपम ओझा जी और डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद जी का आभार।

हिलाल अहमद का लेख स्थायी महत्व का है। किसी के साथ आस्तिक-नास्तिक, धर्म-निरपेक्ष, अनास्थावादी, धर्मांध जैसे फिजूल विशेषण लगा देने में कितनी सनक और बेताबी होती है, यह इस लेख में बिना ढोल-ढमाके रेखांकित हुआ हैै। किसी धर्म का मानने वाला, कोई भी धर्मप्राण उनके इस लेखन में अपनी आवाज पा सकता है।

Friday, June 24, 2022

सीधी सी फिल्मी बात

पुराना फिल्मी गीत है, ‘सीधी सी बात न मिर्च मसाला, कह के रहेगा कहने वाला, दिल का हाल सुने दिलवाला।‘ यहां बात, हो सकता है सीधी न लगे, कुछ मसालेदार लग सकती है, मगर इरादा दिलवालों को दिल का हाल सुनाने का है। बात बस इतनी कि कविता और संगीत की मेरी समझ, आम फिल्मी गीतों के स्तर वाली, सीमित है।

हुआ कुछ यूं कि मधुसूदन ढाकी जी (बाद में पद्मभूषण सम्मानित) कभी बिलासपुर आए थे। भारतीय कला और चिंतन परंपरा के मूर्धन्य, अभ्यास से हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में सिद्ध थे। मानते थे कि पारंपरिक कला की समझ के लिए संस्कृत और संगीत आना चाहिए। मैं यह अच्छी तरह जानता था कि मुझे संस्कृत नहीं आती और संगीत से भी कोई यों रिश्ता नहीं है। उन्होंने जोर दे कर पूछा, संगीत नहीं आता!, कुछ भी पसंद नहीं?, सुनते भी नहीं? संकोचवश, थोड़ी अपनी इस लाचारी पर स्वयं क्षुब्ध मैंने कहा, फिल्मी गीत सुनता हूं, पसंद भी हैं। उन्होंने पूछा, उसमें क्या, कौन? यों सहगल साहब और बेगम अख्तर पसंद आने लगे थे, पर अब पास-फेल की परवाह नहीं थी, सो पहला नाम जबान पर आया, कह दिया- किशोर कुमार। कुछ समय सोचते खामोश रहे, फिर उन्होंने पूछा- ‘जगमग जगमग करता निकला, चांद पूनम का प्यारा‘ सुना है?, मेरे इनकार पर बताया कि यह किशोर कुमार का गाया गीत उन्हें बेहद पसंद है और मुखड़ा गा कर भी सुना दिया।

घर में यदा-कदा फिल्मी चर्चा पर रोक-टोक नहीं थी। कमाल अमरोही, गुरुदत्त और राजकपूर की क्लासिक फिल्में और उनके गीतों की बातें सुनने को मिलतीं। फिल्मी गीत सुनते-गुनते अपनी काव्य-संगीत रुचि को इतना चलताउ मानता रहा कि उसे रुचि कहने में भी संकोच होता था। मगर इस तरह धीरे-धीरे, पता नहीं कब अपनी यह सोच बदली।

फिल्मी गीतों जैसी सीधी-सी बातें याद करते हुए कुछ पंक्तियां ध्यान आती है।

सरल, सपाट, संक्षिप्त-
सुनो, कहो, कहा, सुना, कुछ हुआ क्या।
अभी तो नही, कुछ भी नहीं।
चली हवा, झुकी घटा, कुछ हुआ क्या
अभी तो नही, कुछ भी नहीं।
(आपकी कसम-1974, आनंद बक्शी)

और यही यहां कुछ औपचारिक सा-
सुनिए, कहिए, कहिए, सुनिए
कहते सुनते, बातों बातों में प्यार हो जाएगा।
(बातों बातों में-1979, अमित खन्ना)

एक कहा-सुनी ऐसी भी-
ये तूने क्या कहा, कहा होगा
ये मैंने क्या सुना, सुना होगा
अरे ये दिल गया, गया होगा।
(इंसाफ-1966 अख्तर रोमानी)

इसी तरह गीत है-
‘बैठ जा, बैठ गई, खड़ी हो जा, खड़ी हो गई,
घूम जा, घूम गई, झूम जा, झूम गई, भूल जा, भूल गई‘।
गीत का पूरा मुखड़ा बस इतना सा।

ऐसे ही थोड़े से साफ-सीधे शब्दों का मुखड़ा है -
मैं जो बोलूं हां तो हां मैं जो बोलूं ना तो ना
मंज़ूर, मंज़ूर मुझे है मेरे सजना
तू जो बोले हां तो हां तू जो बोले ना तो ना।

दूसरी तरफ-
हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है।
एक मेम शाब है, शाथ में शाब भी है।

कभी गाया गया था-
ओ बाबू साब, ओ मेम साब
क्या रखा इस तक़रार में
ज़रा तो आंखें देखो मिला के
बड़ा मज़ा है प्यार में।

और बातचीत की तरह -
अच्छा तो हम चलते हैं
फिर कब मिलोगे? जब तुम कहोगे
जुम्मे रात को, हां हां आधी रात को
कहां? वहीं जहाँ कोई आता-जाता नहीं
अच्छा तो हम चलते हैं।

फिर रोमांटिक होता सवाल-जवाब -
की गल है, कोई नहीं
तेरी आंखों से लगता है
कि तू कल रात को सोई नहीं
नींद है क्या है कौन सी चीज़
जो मैंने तेरे प्यार में खोई नहीं
की गल है, कोई नहीं।

थोड़े से शब्दों वाला एक मुखड़ा-
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी मेरे घर आना, आना ज़िन्दगी
ज़िन्दगी मेरे घर आना, आना ज़िन्दगी
ज़िन्दगी, ओ, ज़िन्दगी मेरे घर आना, आना...

तब विरक्त गमगीनी के ऐसे बोल -
ये क्या हुआ, कैसे हुआ,
कब हुआ, क्यूं हुआ,
जब हुआ, तब हुआ
ओ छोड़ो, ये ना सोचो। 

या - 
कभी न कभी, 
कहीं न कहीं, 
कोई न कोई

बात प्रेम, प्यार, इश्क, मुहब्बत की, जो इलु इलु तक पहुंची। न जाने कितने रंग दिखे-

वो हैं ऐसे बुद्धू ना समझे रे प्यार/
दिल विल, प्यार व्यार/
प्यार किया तो डरना क्या/
खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे/
धीरे-धीरे प्यार को बढ़ाना है/
यदि आप हमें आदेश करें, तो प्यार का हम श्रीगणेश करें/
प्यार दीवाना होता है, मस्ताना होता है/
मैं तेरे प्यार में क्या क्या न बना दिलबर/
हम बने तुम बने इक दूजे के लिए/
दिल धड़के, नजर शरमाए तो समझो प्यार हो गया/
मिलो न तुम तो हम घबराएं/
क्या यही प्यार है, हां यही प्यार है/
क्या प्यार इसी को कहते हैं/
तू ये ना समझ लेना कि मैं तुझसे मुहब्बत करता हूं/
तुमको भी तो ऐसा ही कुछ होता होगा/
मेरे घर के आगे मोहब्बत लिखा है/
दिल एक मंदिर है, प्यार की जिसमें होती है पूजा/
छोटा सा फसाना है तेरे मेरे प्यार का/
वो जवानी जवानी नहीं, जिसकी कोई कहानी न हो/
चलो दिल में बिठा के तुम्हें, तुमसे ही प्यार किया जाय/
मैं प्यार का राही हूं/
आओगे जब तुम ओ साजना, अंगना फूल खिलेंगे/
कस्मे वादे प्यार वफा सब बात है बातों का/
आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे/
हंस मत पगली प्यार हो जाएगा...

सच बता तू मुझपे फिदा, क्यूं हुआ और कैसे हुआ... प्यार के इजहार के बाद, प्रेमी युगल एक-दूसरे से पहला सवाल ऐसा ही कुछ करते हैं, दुहराते रहते हैं। जवाब नहीं जानते, बता नहीं पाते या बताना नहीं चाहते। वैसे तो क्लिक, बेस्ट सेलर, बॉक्स ऑफिस हिट का फार्मूला होता नहीं लेकिन यहां आशंका कि अगला इसे फिर से न आजमाने/दुहराने लगे। 

इस सबके साथ ऐसा सबको लगता है, लगता रहेगा- ‘तेरे मेरे प्यार का अंदाज है निराला ...

Friday, June 17, 2022

समालोचक सप्रे

माधवराव सप्रे की एक सौ पचासवीं जयंती पर गत वर्ष सार्ध शती समारोह के आयोजन हुए। साल बीत जाने पर यहां उनकी जन्मशती 1971 का स्मरण है। 1968 के दौर में हिंदी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी‘ के लेखक के नाते सप्रे जी की चर्चा होती थी। उनकी जन्मशती के अवसर पर आई.ए.एस. डॉ. सुशील त्रिवेदी, जो तब सुशीलकुमार त्रिवेदी नाम से जाने जाते थे, ने उस दौर की सबसे प्रतिष्ठित धर्मवीर भारती संपादित साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग‘ में सप्रे जी के समालोचक पक्ष को भुला दिए जाने या उपेक्षा/नजरअंदाज? किए जाने पर गंभीर कटाक्ष करते हुए लेख लिखा था। 

‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के प्रथम अंक, जनवरी 1900 में स्पष्ट किया गया था कि- ‘आजकल भाषा में बहुत-सा कूड़ा-करकट जमा हो रहा है। वह न हो पाए इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करें।‘ सप्रे जी कहते थे कि ‘न्यायाधीश और समालोचक के कार्य कुछ साम्य भी है और कुछ भिन्नता भी है।‘ उनके एक कथन का उल्लेख मिलता है- ‘हिंदी समालोचना के विकास के लिए नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक समालोचक समिति की स्थापना हो और नागरी समालोचक नाम की पत्रिका भी निकले।‘ किंतु बाद में सभा के द्वारा प्रस्तावित समालोचना समिति से अपना नाम वापस ले लिया था। 

प्रसंगवश, यों तो ‘आलोचना, समीक्षा, समालोचना‘ के शाब्दिक और रूढ़ अर्थ में घालमेल होता रहा है। सप्रे जी ने ‘भारत गौरव’ पुस्तक की समीक्षा करते हुए लिखा है कि- ‘समालोचक शब्द का अर्थ यद्यपि बहुत अच्छा है, परंतु साधारणतः कई लोग उससे बुरा अर्थ ही लेते हैं। कहते हैं कि किसी के छिद्र ढूंढना और समालोचना करना एक बराबर है। ... ऐसा कोई न समझे कि समालोचक की कृति में कभी त्रुटि ही नहीं रहती। नहीं, समालोचक भी एक मनुष्य है और मनुष्य से प्रमाद हो जाना स्वाभाविक है। ‘लव कुश चरित्र‘ की समीक्षाओं पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘केवल प्रशंसा कर देना ही यदि समालोचना है तो अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।‘ उनकी समालोचना दृष्टि का असर ‘सरस्वती‘, जुलाई 2001 अंक के उद्धरण में मिलता है- ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ की देखा-देखी समालोचना की चाल हिंदी भाषा में चल पड़ी है ... उसकी समालोचना प्रणाली प्रशंसनीय है। 

स्मरणीय कि गंगाप्रसाद अग्निहोत्री का नाम मिलता है, जो जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ के संपर्क में आए और चिपलूणकर शास्त्री के ‘समालोचना‘ शीर्षक मराठी निबंध का हिंदी अनुवाद कर नागरी प्रचारिणी पत्रिका में 1896 में प्रकाशित कराया था। इसी प्रकार अगस्त 1902 से जयपुर से बाबू गोपालराम गहमरी ने ‘समालोचक‘ मासिक पत्र आरंभ किया, जिसमें कहा गया कि ‘समालोचना बिना हिन्दी की अतिहीन दशा है। अब साहित्य वाटिका में पड़ा कूड़ा कर्कट का ढेर अपने उदर से दूषित और अस्वास्थकर वाष्प फेंकने लगा है।‘ इस पत्र के प्रवेशांक में श्री वेंकटेश्वर समाचार द्वारा प्रस्तावित समालोचक समिति की स्थापना और उसके सभापति पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र निर्वाचित होने की सूचना प्रकाशित हुई है। समालोचक में गुलेरी जी की भूमिका भी विशेष उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में श्याम बिहारी-शुकदेव बिहारी मिश्र बंधुओं का ‘हिन्दी नवरत्न‘ उल्लेखनीय है, जिसे श्यामसुंदरदास ने इसे कवियों की समालोचना का सूत्रपात कहा था। 

यह संयोग है कि हिंदी में समालोचक को पहले-पहल प्रतिष्ठित करने वाले माधवराव सप्रे तथा विशाल ग्रंथ ‘गांधी मीमांसा‘ तथा अंग्रेजी ‘GANDHI-ISM X-RAYED‘ के रचयिता, समर्थ समालोचक उपाधि-भूषित पं. रामदयाल तिवारी, की कर्मभूमि छत्तीसगढ़ है। पं. रामदयाल तिवारी ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के लिए 1932 में कहा कि ‘उनका समालोचना विभाग, जिसमें स्वयं सप्रे जी प्रेषित ग्रंथों की आलोचना किया करते थे, आज भी पढ़ने योग्य है।‘ इसी प्रकार मावलीप्रसाद श्रीवास्तव ने 1933 में लिखा था कि वे ‘समालोचना-संसार में एक नये अवतार‘ थे। 

उल्लेखनीय कि मावली बाबू द्वारा एकत्र और सहेजी सामग्री के आधार पर पं. माधवराव सप्रे (जीवनी) पुस्तक, पं. गोविंदराव हर्डीेकर (समर्पण और निवेदन में नाम ‘गोविन्द नारायण हर्डीकर आया है तथा देवीप्रसाद वर्मा ‘हार्डीकर‘ लिखते हैं।) ने तैयार की, जिसका प्रकाशन सन 1950 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, जबलपुर द्वारा किया गया तथा इसका पुनर्प्रकाशन पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केंद्र द्वारा, संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन के अनुदान से 2008 में किया गया। 

प्रसंगानुकूल इस भूमिका के साथ त्रिवेदी जी का उक्त लेख यहां यथावत प्रस्तुत- 

हिंदी के समालोचकों द्वारा भुला दिये गये पहले समालोचक: माधवराव सप्रे 

सुशीलकुमार त्रिवेदी 

जन्म-शताब्दी (१९ जून) के अवसर पर 


दोष किसका है, कुछ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन स्थिति यही है कि एक मराठी-भाषी जीवन भर निष्ठा तथा एकाग्रता से हिंदी की सेवा करता रहा, और हिंदी के इतिहासकारों ने उसे भुला दिया. जिस व्यक्ति ने हिंदी में समालोचना-लेखन की परंपरा की नींव डाली, सशक्त निबंधों की रचना की और कई महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, उसी व्यक्ति- पं. माधवराव सप्रे का नाम पंडित रामचंद्र शुक्ल और उनके ग्रंथ को आधार बना कर ‘नकल नवीस इतिहासकार‘ बननेवालों को याद नहीं रहा. यह एक भूल है या साहित्य इतिहासकारों की साधन-दरिद्रता है? 

पिछड़े इलाके का अगुआ
 
मध्यप्रदेश, जो आज भी पिछड़ा माना जाता है उसी का एक और पिछडा इलाका छत्तीसगढ़ सप्रे जी की कर्मभूमि रहा. इसी क्षेत्र में उन्होंने आज से लगभग ७५ वर्ष पूर्व हिंदी-आंदोलन शुरू किया था. उन्हें छत्तीसगढ़ की सोंधी मिट्टी से इतना ममत्व था, इतना अनुराग था कि उन्होंने अपने साहित्यिक मासिक पत्र का नाम ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ रखा. यह वही ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ है, जिसमें सबसे पहली बार हिंदी-ग्रंथों की समालोचना प्रकाशित हुई. बनती-संवरती रूप लेती हिंदी में प्रकाशित होनेवाले पहले ग्रंथों की पहली समालोचना को लिखने वाले सप्रे जी ही थे. 

पेंड्रा (जिला-बिलासपुर) के राजकुमारों को पढ़ाने से मिलनेवाले वेतन में से पैसा बचा कर सप्रे जी ने जनवरी, १९०० में ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन आरंभ किया. पं. श्रीघर पाठक, जिन्हें आचार्य शुक्ल ने ‘सच्चे स्वच्छंदतावाद का प्रवर्त्तक‘ माना है, की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों- ऊजड़ ग्राम, एकांतवासी योगी, जगत सचाई सार, घन-विजय, गुणवंत हेमंत तथा अन्य, की विस्तृत विश्लेषणात्मक और विवेचनात्मक वैज्ञानिक समालोचना इसी पत्र में पहली बार प्रकाशित हुई. इसी प्रकार मिश्रबंधु तथा पं. कामताप्रसाद गुरु आदि तत्कालीन महत्वपूर्ण साहित्यकारों की कृतियों की समालोचना सप्रे जी ने ही लिखी. इसके अतिरिक्त पं. महावीरप्रसाद मिश्र, पं. कामताप्रसाद गुरु, पं. गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पं. श्रीघर पाठक आदि की रचनाएं प्रायः ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ में प्रकाशित होती रहीं. 

कुछ वर्ष पूर्व एक ख्याति प्राप्त कहानी-मासिक (सारिका) पत्रिका में एक परिचर्चा प्रकाशित हुई, जिसमें माधवराव सप्रे द्वारा लिखित ‘एक टोकरी मिट्टी‘ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी बताया गया था. यह कहानी ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ में सन् १९०१ में प्रकाशित हुई थी. 

अर्थाभाव के कारण ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन दिसंबर, १९०२ में बंद हो गया. पहले एक साल तक इसका मुद्रण रायपुर कैयूमी प्रेस में हुआ, किंतु बाद में यह नागपुर के देशसेवक प्रेस में मुद्रित होता था. 

सप्रे जी का जन्म मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में १९ जून, १८७१ को हुआ था. रायपुर से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. उन्नीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने रेलवे की ठेकेदारी साझेदारी में की, किंतु अनुभवहीनता के कारण ठोकर खायी. फिर वे ग्वालियर चले गये, जहां से उन्होंने इंटर की परीक्षा पास की. सन् १८९८ में सप्रे जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने एल एल. बी. का अध्ययन पूरा किया, किंतु जिस दिन परीक्षा शुरू हुई, उस दिन वे परीक्षा भवन तक जा कर वहां से वापस आ गये. उन्होंने सोचा कि यदि वे वकील बन गये, तो वे साहित्य-साधना नहीं कर पायेंगे. और इसके बाद ही उन्होंने हिंदी के उन्नयन के लिए जीवन समर्पित कर दिया. 

‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के अवसान से सप्रे जी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हो गये. वे नागपुर आ गये और उन्होंने देशसेवक प्रेस में नौकरी करनी शुरू कर दी. इस प्रेस से ‘देशसेवक‘ नामक एक साप्ताहिक प्रकाशित होता था. तीन वर्ष बाद सप्रे जी ने एक प्रकाशन संस्थान खोला, जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी ग्रंथमाला‘ का प्रकाशन किया. जान मिल स्टुअर्ट द्वारा लिखित ‘लिबर्टी‘ नामक ग्रंथ का आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया अनुवाद इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत हुआ था. इसके अलावा कई महत्वपूर्ण हिंदी लेखकों द्वारा किये गये अनुवाद तथा उनकी अन्य कृतियां भी सप्रे जी ने संपादित तथा प्रकाशित कीं. 

काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने विज्ञान कोश के निर्माण का कार्य सन् १९०२ में प्रारंभ किया था. इस योजना में सप्रे जी को अर्थशास्त्र विभाग का कार्य सौंपा गया. 

उन दिनों भारत के राजनीतिक क्षितिज पर तिलक का सूर्य जगमगा रहा था. चौंतीस वर्षीय सप्रे जी लोकमान्य तिलक के संपर्क में आये, और उन्होंने नागपुर से ‘हिंदी केसरी‘ प्रकाशित करने का निश्चय किया. ‘हिंदी केसरी‘ का प्रकाशन एक साप्ताहिक के रूप में सन् १९०७ में प्रारंभ हुआ. महान स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुंदरलाल ने कहा था कि ‘सप्रे जी के ‘हिंदी केसरी‘ से मुझे देश-भक्ति की स्फूर्ति मिली. सप्रे जी की विद्वत्ता, आध्यात्म के अभ्यास, अकृत्रिम निष्ठा, स्पष्ट व्यवहार, सादगी तथा स्वार्थ त्याग के लिए मेरे मन में बहुत आदर है. खेद इतना ही है कि उन सरीखे योग्य पुरुष महात्मा गांधी के उदात्त राजनीतिक तत्वज्ञान का आकलन पूरी तरह से न कर सके.‘ 

बलि के बकरे की तलाश 

‘हिंदी केसरी‘ ने सन् १९०८ में ‘राष्ट्रीय आंदोलन का हिंदी भाषा से क्या संबंध है?‘ विषय पर एक निबंध प्रतियोगिता आयोजित की. इस प्रतियोगिता में पं. माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध सर्वाेत्तम ठहराया गया और उन्हें १५ रुपये का पुरस्कार दिया गया. सन् १९१५ में इटारसी स्टेशन पर सप्रे जी की माखनलाल जी से अचानक भेंट हो गयी. सप्रे जी ने उनसे कहा, ‘मुझे मध्यप्रदेश के लिए एक बलि की जरूरत है. अनेक तरुण मुझे निराश कर चुके हैं, अब मैं तुम्हारी बर्बादी पर उतारू हूं. माखनलाल, तुम वचन दो कि अपना समस्त जीवन मध्यप्रदेश के उठाने में लगा दोगे.‘ इस पर माखनलाल जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि ‘यदि प्रांत के लिए मेरा उपयोग किया जा सकता है, तो मैं आप के दरवाजे पर ही हूं.‘ 

‘हिंदी केसरी‘ की उत्कट राष्ट्र भक्ति तथा चेतना से अंग्रेजी सरकार क्षुब्ध हुई और अगस्त सन् १९०८ में सप्रे जी ‘राज्य-विरोधी लेख‘ प्रकाशित करने के आरोप में गिरफ्तार किये गये. 

इसके बाद के कुछ वर्ष उन्होंने सार्वजनिक जीवन से अवकाश में बिताये. इसी दौरान उन्होंने आध्यात्मिक साधना की, और मराठी संत कवि श्री रामदास रचित ‘दास बोध‘ तथा तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य‘ का हिंदी अनुवाद किया. 

हिंदी के प्रसार-प्रचार के लिए हिंदी में व्याख्यान माला आयोजित करने की आवश्यकता पर विचार कर सप्रे जी ने सेठ गोविंददास के सहयोग से ‘शारदा भवन‘, योजना चलायी. इस योजना के अंतर्गत हिंदी-ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य भी किया गया. महाकोशल क्षेत्र में ‘शारदा भवन‘ योजना का स्मरण आज भी बड़े सम्मान के साथ किया जाता है. 

युगबोध से समन्वित वह महान व्यक्तित्व
 
सप्रे जी का व्यक्तित्व कभी भी साहित्य के स्वप्निल लोक तक ही सीमित नहीं रहा. वह सदैव युग-बोध से स्पंदित होता रहता. जीवन के यथार्थ को उन्होंने न केवल देखा, वरन् भोगा भी था. बार-बार राजनीति तथा पत्रकारिता में सक्रिय भाग लेने पर मजबूर होते थे. यही कारण है कि वे सदैव राष्ट्रीय चेतना संपन्न समाचारपत्र से संबद्ध हो जाते थे. 

सन् १९२० में पं. माखनलाल चतुर्वेदी के संपादकत्व में जबलपुर से ‘कर्मवीर‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ. इस पत्र के पीछे सारी प्रेरणा और मेहनत सप्रे जी की थी. सप्रे जी ने माखनलाल जी को आगे आने के लिए प्रेरित किया था. इसी वर्ष सप्रे जी ने जिला राजनीतिक परिषद का आयोजन किया और जबलपुर जिला कांग्रेस समिति का गठन किया. यह वर्ष एक और दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सागर में आयोजित मध्य प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष सप्रे जी चुने गये, किंतु उन्होंने सेठ गोविंददास के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया. 

सन् १९२४ में देहरादून में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का १५वां अधिवेशन आयोजित किया गया. सप्रे जी ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की. यहीं उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया. इस अस्वस्थता के बाद वे उठ नहीं सके और २३ अप्रैल, १९२६ को रायपुर उनका स्वर्गवास हो गया. 

हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास की दिशा में सप्रे जी का योगदान अत्यंत गौरवशाली और महत्वपूर्ण है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करने के अतिरिक्त उन्होंने चौदह पुस्तकें लिखीं तथा अनूदित की हैं. उनके अस्सी से भी ज्यादा निबंध ‘सरस्वती‘, ‘मर्यादा‘, ‘अभ्युदय‘, ‘श्री शारदा‘ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. श्री सप्रे द्वारा लिखित ‘जीवन संग्राम में विजय पाने के उपाय‘ नामक पुस्तक आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित ‘आदर्श जीवन‘ की भांति ही श्रेष्ठ है. सप्रे जी ने गंभीर उपयोगी विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध लिखे जो आज भी तरोताजा लगते हैं. उस युग में उनकी भाषा इतनी प्रांजल तथा प्रवहमान थी, जो द्विवेदी जी के अतिरिक्त किसी की भी नहीं थी. 

आचार्य द्विवेदी ने सप्रे जी का स्मरण करते हुए लिखा है, ‘वे हिंदी के अच्छे लेखक ही नहीं, उसके अच्छे उन्नायक थे.‘ और मिश्रबंधु ने ‘सरस्वती‘ में (जुलाई, सन् १९०१) मत व्यक्त किया था कि ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘, की देखा-देखी समालोचना की चाल हिंदी भाषा में भी चल पड़ी. इन दो महत्वपूर्ण व्यक्तियों के मत, जो बाईस वर्ष के अंतराल में व्यक्त किये गये हैं, सप्रे जी की प्रतिष्ठा के सूचक हैं और साथ ही साहित्य के इतिहासकारों की संकुचित दृष्टि के भी! 

धर्मयुग ★ १३ जून १९७१ ★ २१
 

डॉ. सुशील त्रिवेदी
1942 में जन्मे त्रिवेदी जी 1964 से शासकीय सेवा में रहे। 1971 में जनसंपर्क विभाग की सेवा से प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी में आए थे। पुरोधा पत्रकार पिता स्वराज प्रसाद त्रिवेदी और इतिहासकार शंभुदयाल गुरु का सानिध्य उन्हें सहज प्राप्त था, इसलिए उन्हें प्राथमिक स्रोत उपलब्ध थे, जिसके फलस्वरूप यह लेख आया। डॉ. त्रिवेदी, साहित्य के ऐसे पक्षों को उजागर करने के लिए संकल्पित रहे हैं, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ पर उनका शोध और उनकी पुस्तक इसका प्रमाण है। इसी तरह उनके द्वारा अब लगभग 5000 पृष्ठों वाला ‘माधवराव सप्रे समग्र‘ तैयार कर लिया गया है।