Sunday, February 20, 2022

आत्म परिचय - पं. लोचनप्रसाद पांडेय

मेरा जन्म चन्द्रपुर अंचल के बालपुर ग्राम में विक्रम संवत् 1943, पौष शुक्ल दशमी (तदनुसार 4 जनवरी सन् 1887) को हुआ था। चन्द्रपुर अंचल उस समय सी.पी. के छत्तीसगढ़ संभाग में उड़िया भाषी जिले सम्बलपुर में सम्मिलित था। मेरे प्रपितामह पं. शालिग्राम पाण्डेय इस अंचल के जाने-माने प्रतिष्ठित जन सेवी नागरिक थे। उनका निवास स्थान पहले चन्द्रपुर था। उनके पूर्वज अयोध्या सरवार से यहां आये थे। बाद में उन्होंने चन्द्रपुर छोड़ दिया और ग्राम बालपुर चले आये। बालपुर में उनका कृषि फार्म था। यहां वे अपने इकलौते पुत्र चिंतामणि के साथ रहने लगे।

बालपुर ग्राम महानदी के बायें किनारे पर बसा हुआ है। महानदी का दक्षिणी पाट लगभग एक मील तक सारंगढ़ रियासत के ग्रामों की उत्तरी सीमा को छूता हुआ अत्यंत मनोरम दृश्य उत्पन्न करता है। चन्द्रपुर अंचल में पं. शालिग्राम के तीन और ग्राम हैं।

कालांतर में, मैं अपने पिता चिंतामणि द्वारा बालपुर में संस्थापित निजी प्राथमिक पाठशाला में प्रविष्ट हुआ और जनवरी 1898 में प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण की।

स्वामी रामदास नामक एक वैष्णव मद्रासी साधु हमारे जिले के इस अंचल में भ्रमण करते हुए आ पहुंचे। उन्हीं से मैंने तथा मेरे अग्रज और अन्य लोगों ने अंग्रेजी सीखी। समीपस्थ नगर रायगढ़ में उन दिनों कोई अंग्रेजी-पाठशाला नहीं थी अतः मुझे मेरे मामा (माताजी के चचेरे भाई) पंडित अनंतराम पाण्डेय के पास रखा गया। वे उन दिनों रायगढ़ की माध्यमिक पाठशाला में प्रधान अध्यापक थे। उन्होंने मुझे हिन्दी और अंग्रेजी में शिक्षा दी।

रायगढ़ प्रवास के दिनों में पं. कृपाराम मिश्र, जो मेरे पिता के शिष्य रह चुके थे, ने मेरी विशेष रुप से देखभाल की।

आगामी अध्ययन के लिए मैं शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला, सम्बलपुर में प्रविष्ट हुआ।

मैंने माध्यमिक अंग्रेजी की परीक्षा फरवरी 1902 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सम्पूर्ण जिले में मेरा स्थान प्रथम रहा।

मैने एन्ट्रेंस परीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1905 में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। परीक्षा केन्द्र मिदनापुर (बंगाल) था। शासकीय उच्च शाला सम्बलपुर के अपने विद्यार्थी जीवन में मैं ‘म्युचुअल इम्प्रूवमेंट सोसायटी‘ का अवैतनिक मंत्री था। इस सोसायटी के अध्यक्ष पद पर रेव्हरेंड हेवरलेट मिशनरी दो वर्षों तक रहे। मेरा पहला अंग्रेजी लेख ‘टोबैको एण्ड स्टूडेंट्स‘ 1904 में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज बनारस की पत्रिका, जिसकी संपादिका महान विदुषी श्रीमती एनी बिसेन्ट थीं, में प्रकाशित हुआ था।

हिन्दी भाषा में ‘धर्म‘ पर लिखा गया मेरा पहला लेख सरस्वती-विलास प्रेस नरसिंहपुर सी.पी. से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘हिन्दी मास्टर‘ में छपा था।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मैं सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज बनारस गया था, पर घर की विषम परिस्थितियों के कारण मुझे बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर घर लौटना पड़ा। मैने पिताजी द्वारा संचालित पाठशाला का कार्यभार अपने ऊपर लिया और अपने चार अनुजों सहित कुछ अन्य लड़कों को अंग्रेजी, हिन्दी के साथ-साथ पढ़ाने लगा। इन दिनों मैं अपने फुरसत के समय को स्वाध्याय तथा अंग्रेजी व हिन्दी में लेख लिखने में व्यतीत करता था।

‘लेटर्स टू माई ब्रदर्स‘ और ‘दि वे टू बी हैप्पी एण्ड गे‘ मेरे द्वारा क्रमशः 1909 तथा 1911 में लिखे और प्रकाशित किये गये। 1911 में ही मैंने राधानाथ राय का, अंग्रेजी भाषा में एक छोटा सा जीवन चरित लिखा और उसे ‘राधानाथ, दि नेशनल पोयेट ऑफ उड़ीसा‘ के नाम से अपने ही खर्च पर प्रकाशित किया। मेरा पहला हिन्दी उपन्यास ‘दो मित्र‘ 1906 में लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद (उ.प्र.) से प्रकाशित हुआ। कालांतर में इस उपन्यास को, सी.पी. की पाठ्यपुस्तक समिति ने, सी.पी. एवं बरार की हिन्दी पाठशालाओं में बच्चों को पुरस्कृत करने के लिए तथा पुस्तकालयों में रखने के लिए स्वीकृत किया। 

खड़ी बोली में लिखी गई मेरी लघु-कविताओं का संग्रह ‘नीति-कविता‘ शीर्षक से मेरे मित्र श्री रामनारायण राठी द्वारा अपने मारवाड़ी प्रेस, नागपुर से 1909 में प्रकाशित किया गया। यह संग्रह भी सी.पी. एवं बरार की पाठ्य पुस्तक समिति द्वारा स्वीकृत किया गया। नागरी प्रचारणी सभा बनारस ने इसे ‘उत्तम-प्रकाशित-उपयोगी-पुस्तक‘ निरूपित किया। शिक्षाविद् व विद्वान रायबहादुर हीरालाल एवं छत्तीसगढ़ संभाग के एजेन्सी इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल श्री गणपति लाल चौबे के द्वारा भी यह पुस्तक प्रशंसित हुई।

हिन्दी कविता संग्रह - ‘बालिका विनोद‘, ‘बाल विनोद‘ तथा ‘कृषक बाल सखा‘ - युवा विद्यार्थियों के उपयोग के लिए लिखे गये। मेरे पिता उड़िया एवं बंगला जानते थे। काशीराम दास लिखित बंगला-महाभारत की कुछ पंक्तियों (जैसे)

‘महाभारत कथा अमृत समान,
काशीराम दास कहे, सुने पुण्यवान‘ 

को पढ़ने व सुनने में बड़ा आनंद आता है। मेरे अग्रज को उड़िया भाषा के (ग्रंथ) ‘विचित्र- रामायण‘ तथा ‘मथुरा मंगल‘ (लोकप्रिय गीति पुस्तिका) बहुत प्रिय थे। जब मैं सम्बलपुर में, अपने सहपाठी नारायणनन्द के घर पर रहता था तब उनसे राधानाथ राय की उड़िया कविताएं, विशेषकर ‘दरबार‘ सुनता था । इन्हीं नारायणनन्द से मुझे उड़िया भाषा में रचना करने की प्रेरणा मिली।

मेरे मित्र प्रसन्न कुमार पुजारी ने (जो सम्बलपुर के प्रसिद्ध पुजारी घराने के थे) मेरी उड़िया कविताओं के संग्रह की पाण्डुलिपि को उड़िया भाषा के प्रसिद्ध कवि गंगाधर मेहर जी को दिखाया। गंगाधर मेहर जी सौभाग्य से हिन्दी लिपि (देवनागरी) जानते थे। मैं अपनी उड़िया कविताएं उड़िया लिपि की अपेक्षा हिन्दी लिपि (देवनागरी) में लिखना अधिक पसंद करता था। गंगाधर मेहर ने मुझे उत्साहित किया और मेरी कविताओं को सराहा। उन्हीं के उत्साहित किये जाने पर मैने अपना उड़िया कविता संग्रह ‘कविता- कुसुम‘ 1910 में प्रकाशित किया। यह संग्रह उड़ीसा के महत्वपूर्ण कवियों, जैसे- फकीर मोहन सेनापति, भक्त कवि मधुसूदन दास, श्री शशिभूषण राय (काली गली, कटक) तथा बाबू अखिल चन्द्र पालित (कूच बिहार, बंगाल) के द्वारा बहुत प्रशंसित हुआ। जागरूक एवं सुसंस्कृत राजा सच्चिदानंद त्रिभुवन देव, फ्यूडटरी चीफ, बामरा स्टेट (जो पहिले छत्तीसगढ़ संभाग में था) ने इन रचनाओं पर मुग्ध होकर मुझे ‘काव्य विनोद‘ की उपाधि प्रदान की। यह, मुझे प्राप्त हुई पहली साहित्यिक उपाधि थी। इस समय तक मेरी कविताएं तथा लेख- ‘हिन्दी प्रदीप‘ (प्रयाग), ‘सरस्वती‘ (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित), ‘कमला‘ (कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका) और ‘देवनागर‘ (जो कलकत्ता से ‘लिपि, विस्तार परिषद‘ के द्वारा प्रकाशित तथा कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शारदा चरण मित्र के द्वारा नियंत्रित होता था) में प्रकाशित होने लगे थे।

‘देवनागर‘ में मेरी उड़िया कविताएं ‘प्रार्थना सप्तक‘, ‘भारत वंदना‘ तथा ‘हिन्दी र विनय‘ पहले-पहल 1907-1908 में प्रकाशित हुई। इसके तुरंत बाद मेरी उड़िया कविता ‘महानदी‘ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक को मैंने बामरा नरेश, राजा सच्चिदानंद त्रिभुवन देव को समर्पित किया था।

सन् 1905-1906 में मैंने रे. लाल बिहारी डे-कृत ‘फोक टेल्स ऑफ बंगाल‘ का हिन्दी में अनुवाद करना प्रारंभ किया, जिसके कुछ अंश हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छपे और कुछ बाद में ‘हरिदास एण्ड कंपनी लिमिटेड कलकत्ता‘ के द्वारा सन् 1910 में प्रकाशित मेरी रचना ‘आनंद की टोकनी‘ में समाविष्ट किये गये। इसी प्रकाशक ने ही मेरी रचनाओं- ‘मेवाड़ गाथा‘, ‘माधव मंजरी‘ एवं ‘चरित माला‘ को भी प्रकशित किया तथा मेरे पूज्य पिता पं. चिन्तामणि के जीवन वृत्तांत ‘मेरे पूज्यपाद पिता‘, का सन् 1914 में सचित्र प्रकाशन कर मेरी बड़ी मदद की। इस पुस्तक में मेरे पूज्य पिता की संक्षिप्त जीवनी सरल हिन्दी में लिखी गई है। उनका दुखद निधन सन् 1907 में हमारे ग्राम बालपुर में हुआ। उस समय उनके न केवल वृद्ध पिता पं. शालिग्राम एवं माता जीवित थीं बल्कि उनकी शतवर्षीया प्रपितामही भी जीवित थीं। उनके वृद्ध माता-पिता को अनेक वर्षों तक अपने इकलौते पुत्र के निधन की विरह-व्यथा को सहन करना पड़ा। 

मैं अपने अनेक मित्रों के साथ अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन दे(ख?)ने कलकत्ता गया था। प्रसिद्ध राष्ट्रभक्त दादाभाई नौरोजी इस अधिवेशन का सभापतित्व कर रहे थे। मेरे पूज्यपाद पिता पं. चिन्तामणि पाण्डेय, पं. कृपाराम मिश्र तथा अनंतराम पाण्डेय भी हम लोगों के मार्गदर्शक के रूप में हमारे साथ थे। वहाँ मुझे बड़े-बड़े देशभक्तों एवं वक्ताओं के दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। यह, कलकत्ता की मेरी दूसरी यात्रा थी। (मैं पहली बार मार्च 1905 में, सम्बलपुर निवासी मेरे मित्र नारायणनंद व पं. प्रसन्न कुमार पुजारी के साथ यहां आया था)। जिनं देशभक्तों व वक्ताओं के दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ उनमें अखिल भारतीय ख्याति प्राप्त बाबू एस.एन. बैनर्जी, सर फिरोजशाह मेहता, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, पं. मदन मोहन मालवीय, गोपालकृष्ण गोखले आदि बंगाल तथा अन्य प्रान्तों के नेतागण थे। 

मेरी पुस्तक ‘स्वदेशी-पुकार‘, जिसमें स्वदेशी आंदोलन तथा बहिष्कार पर लिखे गये राष्ट्रीय गीतों का संग्रह था, उस समय तैयार थी, यह संग्रह ‘भारत जीवन प्रेस, बनारस‘ को छापने के लिए भेजा गया, पर कोई प्रकाशक उसे छापने के लिए तैयार नहीं था। मुझे सलाह दी गई कि मैं उसके प्रकाशन के लिए कष्ट न उठाऊं। मेरे द्वारा लिखित नाटक ‘छात्र-दुर्दशा‘ और प्रहसन ‘साहित्य-सेवा‘ किसी प्रकार प्रकाशित हुए। 

सन् 1908 में मैंने कालीदास के मेघदूत में वर्णित ‘रामगिरी‘ के स्थान के निर्णय के सम्बन्ध में विचार किया और इस संदर्भ में श्री हीरालाल बी.ए. (बाद में रायबहादुर हीरालाल, डी. लिट्.) से पत्र व्यवहार किया। उस समय डॉ. हीरालाल, नागपुर में असिस्टेंट सुपरिन्टेन्डेन्ट, गजेटिर सी.पी., के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने बड़ी तत्परता से इस संबंध में मुझे वांछित जानकारियां दीं। मेरा आलेख ‘छत्तीसगढ़ में मेघदूत-वर्णित रामगिरी‘ शीर्षक से, सितम्बर 1914 में मासिक पत्र ‘इन्दु‘ (काशी) में प्रकाशित हुआ। इस मासिक पत्रिका के संपादक थे-श्री अंबिकाप्रसाद गुप्त। मेरा दूसरा लेख ‘छत्तीसगढ़ में रावण की लंका‘, जिसे मैंने इन्दौर के, सरदार कीबे के लेख के उत्तर में लिखा था, लखनऊ की मासिक पत्रिका ‘माधुरी‘ में छपा। ‘माधुरी‘ में ही मेरा एक अन्य लेख- ‘मेघदूत में पुरातत्व‘ भी प्रकाशित हुआ। सन् 1910 में मेरी प्रतिनिधि हिन्दी कविताएं ‘कविता कुसुममाला‘ के रूप में ‘इण्डियन प्रेस‘, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई। आम जनता तथा प्रेस ने इस पुस्तक का हार्दिक स्वागत किया। इंडियन प्रेस ने इस पुस्तक के तीन संस्करण प्रकाशित किये। चौथा संस्करण जबलपुर के मिश्र बंधु-कार्यालय ने 1932 में प्रकाशित किया। 

सन् 1915 में ‘पद्य-पुष्पांजलि‘ में मेरी जन उपयोगी और सुधारवादी कविताएं छपी। इस संग्रह में महात्मा गांधी पर मेरी कविता ‘कर्मवीर मिस्टर गांधी‘ भी संकलित थी। संभवतः यह महात्मा गांधी पर लिखी गई प्रथम हिन्दी कविता है। इस संग्रह का प्रकाशन श्री नारायण प्रसाद अरोड़ा, बी.ए. कानपुर ने किया था। श्री अरोड़ा ‘कानपुर का इतिहास‘ के रचयिता थे।

राजा भूपदेव सिंह, रायगढ़ स्टेट (छत्तीसगढ़) ने सितम्बर 1911 में मुझे अपने निजी सचिव और संदेशवाहक की हैसियत से रीवां दरबार में भेजा। मुझे इस अनुमति के साथ भेजा गया था कि राजा साहब का पत्र, रीवां महाराज सर वेंकटरमण सिंह को देकर मैं इलाहाबाद में हो रहे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के द्वितीय अधिवेशन में सम्मिलित हो सकता हूं। किन्तु रीवां नगर में अचानक बीमार हो जाने के कारण मैं अधिवेशन में सम्मिलित होने से वंचित रह गया। मेरी अनुपस्थिति में मेरे द्वारा खड़ी बोली में लिखित- ‘स्वागतम गान‘ (कविता), मेरे मित्र पं. जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, आयुर्वेद पंचानन, संपादक मासिक पत्रिका ‘सुधांशु‘ द्वारा पढ़ा गया। मेरी कविता, अन्य कविताओं के साथ, अधिवेशन के विवरण (रिपोर्ट) में समाविष्ट की गई।

सन् 1913 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन का केन्द्र बनी प्रसिद्ध कलकत्ता नगरी। मैं, इस अधिवेशन में मध्य प्रांत (सेंट्रल प्राविंस) के प्रतिनिधि के रुप में अपने चतुर्थ भ्राता बंशीधर पाण्डेय तथा एक अन्य सम्बन्धी शुक्लाम्बर प्रसाद पाण्डेय के साथ सम्मिलित हुआ। यहां मुझे हिन्दी मां के दो सपूतों- बाबू राजेन्द्र प्रसाद, एम.ए. एम.एल., जो इस अधिवेशन की स्वागत समिति के मंत्री थे तथा बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन, एम.ए., एल.एल.बी. जो इस अधिवेशन के महामंत्री थे, से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वागत समिति ने मेरा स्वागत गीत अधिवेशन में पढ़ने के लिए स्वीकार कर लिया। उचित समय पर मुझे विशिष्ट विशाल श्रोता समुदाय के सम्मुख स्वागत गीत पढ़ने के लिए बुलाया गया। यह मेरे जीवन का एक अपूर्व अनुभव था। कलकत्ता के आंग्ल दैनिक समाचार पत्रों ने अधिवेशन के प्रथम दिन की रिपोर्ट में मेरे नाम का उल्लेख किया। बंगीय साहित्य समाज ने, ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन‘ में पधारे प्रतिनिधियों की अभ्यर्थना हेतु स्वागत समारोह का भी आयोजन किया। इस समारोह में मुझे बंगाल के बहुत से साहित्यिक जनों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रथम बार मेरी भेट महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय, व्याकरणाचार्य पंडित रामावतार पाण्डेय ‘शर्मा‘, एम.ए., बाबू शिवनंदन सहारा, स्वामी सत्यदेव, पं. शकल नारायण शर्मा, पं. अम्बिका प्रसाद बाजपेई और बाबू गोपालराय गहमर से हुई। प्रो. विनय कुमार सरकार, एम.ए. ने कृपा कर अपनी बंगला एवं अंग्रेजी पुस्तकों का सेट अधिवेशन के अधिकांश प्रतिनिधियों को भेंट किया मुझे भी एक सेट प्राप्त हुआ। मेरा इनसे पत्र-व्यवहार पूर्व से था तथा मैं उनके ‘गृहस्थ-जर्नल‘ का नियमित ग्राहक भी था। प्रो. सरकार वर्षों तक अमेरिका में रहने के बाद जब भारत लौटे तब मेरी उनसे भेंट 1938 में कलकत्ता में हुई। उनके साथ उनकी अमेरिकन पत्नी व बेटी भी थीं। 

दिसम्बर 1913 के अंतिम सप्ताह में मेरा पुनः कलकत्ता जाना हुआ। इसी सप्ताह ठाकुर रवीन्द्रनाथ (टैगोर) शांतिनिकेतन, बोलपुर, से के.सी.आई.ई. की उपाधि लेने कलकत्ता आये हुए थे। इस बात की जानकारी मुझे एक युवक कलाकार से मिली, जिससे बामरा (उड़िसा) के राजा सच्चिदानंद त्रिभुवन देव, चित्रकला सीख रहे थे। राजा साहब उस समय पार्क-स्ट्रीट की एक विशालकाय इमारत में ठहरे हुए थे। वहीं उस युवक कलाकार से मेरी भेंट हुई। उसका टैगोर बंधुओं से घनिष्ठ सम्बन्ध था। उसने मुझे शांति निकेतन के गुरुदेव के दर्शन करने को प्रोत्साहित किया। उसी की सलाह पर मैं 25 दिसम्बर 1913 को गुरुदेव से मिलने उनके ‘जोरासांको‘ राजवाड़ी में गया। गुरुदेव ने कृपा कर मुझे भेंट का समय दिया। उनके पुत्र रथिन्द्रनाथ भी उनेक साथ थे। गुरुदेव का मैंने अभिवादन किया और अपनी हिन्दी, अंग्रेजी और उड़िया की रचनाएं उन्हें भेंट करने की अनुमति मांगी। उनकी आज्ञा मिलने पर मैंने अपनी रचनाएं- ‘रघुवंश सार‘, ‘वीर भ्राता लक्ष्मण‘, राधानाथ राय- ‘दि नेशनल पोयेट आफ उड़ीसा‘, ‘दि वे टू बी हैप्पी एण्ड गे‘ एवं ‘कविता-कुसुम माला‘ उन्हें भेंट स्वरुप दी, जिन्हें उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मेरी उस उड़िया कविता को जिसे मैंने एक माह पूर्व उनके पास भेजा था, उन्होंने याद किया और मुझसे मेरी उड़िया रचनाओं के विषय में पूछताछ की। हिन्दी और उड़िया में, उनको बधाई के रुप में लिखी और भेजी गई मेरी कविताओं पर उनका पत्र देवनागरी लिपि में, मेरे जन्म ग्राम बालपुर में दि. 3 दिसम्बर 1913 को मिला। हिन्दी जगत ने इसका बड़ा स्वागत किया, क्योंकि गुरुदेव के द्वारा हिन्दी में लिखित यह प्रथम पत्र था। 

कांग्रेस का जो अधिवेशन सन् 1917 में कलकत्ता में हुआ, वह अपने आप में बड़ा महत्वपूर्ण था। इस अधिवेशन की अध्यक्षता डॉ. एनी बिसेन्ट ने की। इस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक, महामना मालवीय, भारत कोकिल सरोजनी नायडू, व्याख्यान वाचस्पति दीनदयाल शर्मा (झामर) और कर्मवीर महात्मा गांधी तथा अन्य नेताओं ने भाग लिया। महात्मा गांधी ने ‘सोशल सर्विस कान्फेरेन्स‘ में अपना भाषण अंग्रेजी में, हिन्दी के सवाल की वकालत करते हुए दिया। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, कलकत्ता ने लोकमान्य तिलक की अध्यक्षता में बैठक की, जिसमें मैं भी सम्मिलित हुआ। इस बैठक में महामना मालवीय, महात्मा गांधी तथा सरोजनी नायडू ने भी भाग लिया। राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जो अपने आकर्षक गाउन और टोपी से सज्जित थे, कांग्रेस के खुले अधिवेशन में राष्ट्र को संदेश दिया। यह भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आये प्रतिनिधियों और संपूर्ण श्रोता समुदाय के लिए एक अपूर्व दृश्य था। 

पं. शकल नारायण पाण्डेय ने एन.पी. साहा (आरा) के जरिए मेरे प्रथम उपन्यास ‘दो मित्र‘ की पाण्डुलिपि का संशोधन, प्रेस में जाने के पूर्व किया था। उनकी मुझ पर बड़ी कृपा थी। उन्हीं के द्वारा उत्साहित होकर मैं उनके बताए हुए मार्ग पर चलता रहा। इसी प्रकार स्व. श्री गंगा प्रसाद अग्निहोत्री (तिभुरनी), पं. श्यामबिहारी मिश्र, एम.ए. डी.लिट. तथा राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण कवि‘, हाईकोर्ट वकील कानपुर, ने भी समय समय पर मेरी कविताओं की पाण्डुलिपियों का अवलोकन कर मेरा बड़ा उपकार किया। मैं इन सभी महानुभवों का अत्यंत अभारी हूं। राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण कवि‘ ने मेरे तथा मेरे प्रकाशक के अनुरोध पर मेरी काव्यकृति ‘पद्य-पुष्पांजलि‘ (जो सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी) की भूमिका लिखने की कृपा की। 

श्री काशीप्रसाद जायसवाल से सन् 1908 से मेरा पत्र व्यवहार था। तब वे लन्दन के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कानून पढ़ रहे थे। उस समय मैंने उनसे अनुरोध किया था कि वे इंग्लैण्ड व यूरोप में हिन्दी में समाचार पत्र निकालें। मैंने सत्यदेव जी से भी ऐसा ही अनुरोध तब किया था जब वे सन् 1907-08 में शिकागो (अमेरिका) में विद्याध्ययन कर रहे थे। मैंने उन्हें अपनी एक लंबी हिन्दी कविता ‘स्वराज लेंगे, स्वराज लेंगे‘ भी भेजी थी। इन दोनों महानुभावों की मुझ पर बड़ी कृपा थी। जब वे अपने-अपने विश्वविद्यालयों से घर लौटे तब कलकत्ते में मेरी उन दोनों से भेंट हुई। 

एक समय मैं श्री जायसवाल जी के यहां उनके अमर स्ट्रीट (कलकत्ता) स्थित निवास में ठहरा था, स्वामी सत्यदेव की सहायता से मुझे, सन् 1907 में प्रकाशित, थामस पैनर की पुस्तक ‘मानव-अधिकार‘ (Rights of man) प्राप्त हुई। इस पुस्तक के आधार पर हिन्दी में एक पुस्तक लिखने का विचार किया गया। स्वामी सत्यदेव द्वारा लिखित पुस्तक ‘मनुष्य के अधिकार‘ का प्रकाशन, बाद में, उनके अमेरिका प्रवास से लौटने पर हुआ। 

सन् 1909-10 में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए एक हिन्दी सम्मेलन शुरु करने का निर्णय लिया गया। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं. गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने मुझे इस प्रकार के संस्थान की आवश्यकता को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से छोटे-छोटे लेख लिखने का दायित्व सौंपा। खंडवा के बाबू माणिक्य चन्द्र जैन ने इस कार्य के लिए स्वेच्छा से अपनी सेवाएं हिन्दी साहित्य सम्मेलन को देने की इच्छा प्रकट की। ‘सम्मेलन‘ का प्रथम अधिवेशन काशी में महामना पं. मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ। बाद में जबलपुर सम्मेलन के लिए हम लोगों ने छत्तीसगढ़ में कठिन परिश्रम किया। पं. रविशंकर शुक्ल ने अपनी ओर से रायपुर जिले तथा पड़ोसी फ्यूडटरी रियासत के नवजवानों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। छत्तीसगढ़ में हम लोग पं. विष्णुदत्त शुक्ल, बी.ए., सीहोर वाले के मार्गदर्शन में कार्य कर रहे थे। बाद में वे, सी.पी. से प्रथम व्यक्ति के रुप में पटना अधिवेशन का सभापतित्व करने के लिए आमंत्रित किए गए। अपने परिवार में बीमारी के कारण, बड़ी इच्छा रखते हुए भी मैं शुक्ल जी के साथ पटना नहीं जा सका। ‘पाटली-पुत्र‘ देखने की मेरी बड़ी इच्छा थी।

नागपुर के रामनारायण राठी, हिन्दी के ही प्रेमी सज्जन थे। उनके ‘मारवाड़ी‘ साप्ताहिक का मैं नियमित ग्राहक था। उन्होंने ही मेरी लघु पुस्तिका ‘लेटर्स टू माई ब्रदर्स‘ का प्रकाशन सन् 1909 में अपने मारवाड़ी प्रेस नागपुर से किया। जब काशी के मेरे परम मित्र बाबू गंगाप्रसाद गुप्त जी को नागपुर ‘मरवाड़ी‘ का संपादन करने के लिए बुलाया गया तब उन्होंने बड़ी इच्छा जाहिर की कि मैं उनके संपादक-मंडल में सम्मिलति हो जाऊं। गुप्त जी हिन्दी के प्रमुख लेखकों में से थे। हिन्दी में उनकी अनेक पुस्तकें हैं। उन्होंने झांसी की महारानी की जीवनी का भी हिन्दी में अनुवाद किया था। नागपुर में जब प्लेग का प्रकोप था तब उन्हें मजबूरी में एक दूर-दराज के गांव में रहना पड़ता था। यहां उनके 17-10-1909 के पत्र का एक अंश उद्धृत है -

“मैं तो आपको यहां आने का कष्ट देना चाहता था, परन्तु भयंकर प्लेग के कारण यह विचार त्याग देना पड़ा। उपर्युक्त योजना की आशा में ही मैंने आपके काव्य, लेखादि संपादकीय स्तंभों में छापना शुरु कर दिया था। कहिए, प्लेग कम होने पर आप यहां आ सकते हैं? या वहीं से सहायक संपादक के रुप में ‘मारवाड़ी‘ को अपना समझ कर इसकी सहायता कर सकते हैं?“ 

प्रसिद्ध विद्वान पं. गंगाप्रसाद अग्निहोत्री (नागपुर वाले) आगरा से मासिक पत्र ‘स्वदेश बांधव‘ निकालते थे। इस पत्र के 5 एवं 8 नवम्बर 1909 के अंकों में मेरी कृति ‘बालिका विनोद‘ (जो बालिकाओं के लिए लिखी गई थी) की समालोचना जब श्री गुप्ता जी ने पढ़ी तब वे स्वयं को, अपना अभिमत, अंग्रेजी में प्रकट करने से न रोक सके, जो कि निम्नानुसार था -

"The lethargy and negligence shown by sons of C.P. in the matter should be abhored in the face of your disinterested services and enthusiasm for Hindi"

इसके साथ इस आत्मकथा के कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रसंगों में एक, सारंगढ़ के प्रहलाद दुबे द्वारा रचित एक अप्रकाशित ग्रंथ्ज्ञ ‘जयचंद्रिका‘ को सारंगढ़ से तथा सम्बलपुर के गंगाधर मिश्रा द्वारा रचित एक संस्कृत रचना ‘कोशलानंद काव्यम‘ (जिसमें संबलपुर और पटना के राजाओं का इतिहास वर्णित है) की उनके द्वारा खोज का उल्लेख है। इसी प्रकार ब्राह्मी लिपि उत्कीर्ण किरारी के काष्ठ स्तंभ के बारे में स्पष्ट किया है कि ‘रासायनिक परीक्षण से ज्ञात हो गया है कि स्तंभ की लकड़ी मधुक (महुआ) है न कि साल या सरई- जैसा कि किरारी ग्राम के लोगों की धारणा थी।‘ एक अन्य प्रसंग पुरी और कोणार्क मंदिरों की मूर्तियों के बारे में है, जिसके संदर्भ में वे याद करते हैं- ‘महाकोशल स्थित बिलासपुर जिले के कवर्धा राज्य का एक राजा, ऐसे अश्लील चित्रों को भोरमदेव के मंदिर में देख कर इतना विचलित हुआ कि उसने इन चित्रों को नष्ट करने का आदेश ही दे डाला था।‘ गनीमत कि यह आदेश कार्यरूप में परिणित नहीं हुआ औैर भोरमदेव के मंदिर की मिथुन प्रतिमाओं के कारण ही उसकी प्रसिद्धि, मिनी खजुराहो या छत्तीसगढ़ का खजुराहो के रूप में हुई। एक अन्य महत्वपूर्ण उल्लेख है कि शांति निकेतन में हिन्दी अध्यापक के रूप में कार्य करने के लिए उन्हें, प्रयाग के पं. रामनरेश त्रिपाठी का तार मिला था, किंतु स्वास्थ्य संबंधी तथा पारिवारिक समस्याओं के कारण उन्होंने असमर्थता व्यक्त की। ‘कालांतर में बनारसीदास चतुर्वेदी शांति निकेतन में प्रथम हिन्दी अध्यापक हुए। बाद में पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी उनके उत्तराधिकारी हुए।‘ 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस से संबंधित एक रोचक और महत्वपूर्ण उल्लेख यहां है।

जानकारी मिलती है कि पं. लोचन प्रसाद पांडेय जी की जन्मशती आयोजन समिति ने तय किया था कि उनके पुरातत्व पक्षों का संकलन और प्रकाशन पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा किया जाएगा, जिसके अनुरूप 1988 में ‘कोसल कौमुदी‘ का प्रकाशन में हुआ। और उनके साहित्यिक अवदान तथा व्यक्तिगत पक्षों पर गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर द्वारा प्रकाशन किया जाएगा, इस क्रम में ‘समय की शिला पर ....‘ (पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय की आत्मकथा)का प्रकाशन, उनकी 110 वीं जयंती पर पर स्मरणांजलि, 4 जनवरी 1997 को प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में आयोजन समिति या ऐसे किसी निर्णय का उल्लेख तो नहीं है किंतु भूमिका में कहा गया है- ‘कौशल कौमुदी‘ का प्रकाशन कर रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर ने पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय के पुरातात्विक तथा इन्डोलॉजी सम्बन्धी कार्य को सुधी पाठकों तक पहुंचाया था।

पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय की आत्मकथा उनकी हस्तलिखित अंग्रेजी पांडुलिपि, जिसका हिंदी में शाब्दिक अनुवाद उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री प्यारेलाल पांडेय द्वारा किया गया था, उसका यह हिन्दी भावानुवाद ‘समय की शिला पर‘ उनके ‘साहित्यकार‘ से पाठकों का साक्षात्कार करायेगा, उनकी समाज सापेक्षता का परिचय देगा। यह प्रकाशन गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर के तत्कालीन कुलपति श्री रामकृपाल सिंह की अगुवाई में, डॉ. बी.एम. मुखर्जी, प्रो. सरोजकुमार मिश्र, प्रो. डी.एस. बल, प्रो. हेमलता महिस्वर के संपादन में हुआ था। इसके लिए सामग्री संकलन विनोद कुमार पाण्डेय ने तथा अनुवाद ईश्वरशरण पाण्डेय व हेमचंद्र पाण्डेय ने किया था।


यहां प्रस्तुत अंश ‘समय की शिला पर‘ पुस्तक का प्रथम अध्याय है।

3 comments:

  1. कभी खुशी होती है जानकर उन व्यक्तियों के बारे में जिन्होने छत्तीसगढ़ के इतिहास को लिखने और जानने की कोशिश की मगर अगले पल ये सोच के दुख होता है कि आज की पीढ़ी को इन्हें जानना ही नहीं चाहती

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