Tuesday, March 23, 2021

राग मारवा

‘राग मारवा‘ संग्रह की कहानियों का विराग-अनुराग अपनेपन से बांध लेता है। इन कहानियों की कमी या खूबी यही है कि यहां कुछ भी नया और अलग नहीं जान पड़ता। रचनाकार का अनुभव संसार उसका अपना निजी होते हुए भी, इतना आत्मीय और समावेशी है कि वह अगल-बगल घटते जान पड़ता है। खास यह कि भाव ऐसी न्यायपूर्ण संगति से शब्दों में बदलते हैं, वह रस-सृष्टि अपने साथ चलने के लिए रोक रखती है।

संग्रह की पहली दमदार कहानी ‘राग मारवा‘ और आगे भी पढ़ते हुए लगा कि बगल से गुजरती कोई जिंदगी, समानांतर अक्सर ओझल रह जाती है, लेकिन एक धीमी कराह पर ध्यान अटके, तो वह राग मारवा की तरह मन में झरने लगता है। मनोहर श्याम जोशी की कहानी, ’सिल्वर वेडिंग’ याद आती है। पता हो कि यह रचनाकार का पहला संग्रह है तब शायद पाठक का नये परिचित लेखन पर ध्यान अलग ढंग का होता है और बुक मार्क लगाते हुए दीख पड़ता है कि कहानियों में भाषा, भाव, अनुभव, सजग दृष्टि, अवलोकन, संवेदनशील मन और अभिव्यक्ति, यह सब किसी प्रौढ़ रचनाकार की कलम की तरह सधा हुआ है, जिसमें संतुलन ऐसा कि सहज प्रवाह बना रहे। पहला संग्रह है लेकिन अनगढ़ता कहीं नहीं। रचनाएं, अभ्यस्त लेखन की करीने से प्रस्तुति है।

कहानी में अरमानों का ‘गुलाबी दुपट्टा‘ इस तरह लहराता है कि त्रास का सपाटपन, बयां करते और भी त्रासद हो जाता है। कहानी में सुघड़ परिपक्वता है। ‘जनरल टिकट‘ में भाषा का बढ़िया इस्तेमाल, कहानी के मूड को संभाले हुए है। ‘फैमिली ट्री‘, बच्चे के मन में बच्चों-सा सहज हो कर उसमें उतरा-पढ़ा गया है। कहानी का शीर्षक जरूर मिसमैच लगता है। कहानी ‘आवाज में ...‘ तसल्ली से की गई महीन बुनावट, जिसके चलते इस प्रेम कहानी में दरार भी, तल्खी के साथ नहीं, स्वाभाविक आता दिखता है।

कहानी ‘धुँध‘, मन में बसा घर, समय के साथ टू बीएचके और फिर कम्पार्टमेंट होता जाता है। तीन अलग सेट के टुकड़ों वाला जिगसा पजल। बच्चों में बंटवारा तो करना ही होता है, लेकिन वह मां-पिता को कैसे मंजूर हो। बुकमार्क लगाते हुए ध्यान जाता है कि किस तरह अगल-बगल से गुजरती जिंदगी, नजर भर देखा, नब्ज टटोला कि अफसाना बन जाती है। कहानी ‘आसमानी कागज...‘ और ‘सुरमई‘ में कहे-अनकहे के बीच पनपते-मुरझाते रिश्ते हैं तो ’विदाई’ में भी सीमित पात्रों से बुना गया सघन समीकरण है। ‘पानी पे लिखा...‘ मन में फूटा-बहता यादों और भाव का सोता, न जाने क्या और कहां बहा ले जाए, कब किनारे टिका दे।

विविध भारती की रेडियो सखी ममता सिंह की कहानियां, महानगर, रेडियो, विविध भारती, गीत-संगीत से सराबोर हैं। राग मारवा में डूबते-उतराते कहानी ‘आखिरी कॉन्ट्रैक्ट‘ के आखिरी शब्दों के साथ, रुपहला ख्वाब मानों बदल जाता है सुनहरा सबेरा में- ‘...उसमें हम घोलेंगे प्यार का गुलाबी रंग... ।‘

5 comments:

  1. Aapka yeh sameekshatmak aalekh katha-sangrah ko padhne ke liye baadhya karta hai. Aabhar.

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  2. कितना सुंदर विवेचन किया है आपने। इसे कहते हैं तल्लीनता के साथ पढ़ना और खरा लिखना। आभार और बधाई।

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  3. कितना सुंदर विवेचन किया है आपने। इसे कहते हैं तल्लीनता के साथ पढ़ना और खरा लिखना। आभार और बधाई।

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  4. कितना सुंदर विवेचन किया है आपने। इसे कहते हैं तल्लीनता के साथ पढ़ना और खरा लिखना। आभार और बधाई।

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  5. You have discussed so beautifully It is said to be engrossed in reading and writing perfectly. Thank you and congratulations. you may also read my blog Headline Insider

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