डेढ़ सौ साल पहले पैदा हुए व्यक्ति को क्योंकर याद करना जरूरी हो जाता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह पितरों में है, फिर भी पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ। 150 वीं जयंती के अवसर पर मुड़वारा-कटनी वाले रायबहादुर डा. हीरालाल की जन्मतिथि 1 अक्टूबर 1867 तक लौटते हुए देखा जा सकता है कि वे किस तरह इतिहास, पुरातत्व, जाति-जनजातियों से जुड़े, इस माध्यम से पूरे समाज की परम्परा, संस्कृति और उसकी भाषा-बोलियों में सराबोर हो कर अस्मिता, आत्म-गौरव की अभिव्यक्ति का नित-नूतन रस-संसार रचा। 67 वर्ष के जीवन सफर में इतिहास-परम्परा के न जाने कितने अनजाने-अनचीन्हे रास्तों को नाप लिया, शिक्षक से डिप्टी कमिश्नर (कलेक्टर) बनते तक अपने समकालीन परिवेश और समाज के दैनंदिन कल्याण के समानांतर, भविष्य का मार्ग प्रशस्त करते हुए। अब यह मौका है देखने का, कि उनके इंगित राह पर उनकी स्मृतियों को उंगली पकड़े हम कहां पहुंच पाए हैं।
रामकथा और मानस, भारतीय समाज में धर्म-अध्यात्म का सर्वप्रिय साधन है साथ ही साहित्य और ज्ञान-प्रकाश का स्तंभ बन कर कथावाचकों-टीकाकारों के माध्यम से 'सुराज', स्वाधीन और पराधीन के व्यापक अर्थ भी रचता है। महोबा के पास सूपा गांव की एक कलवार बिरादरी व्यापार के लिए बिलहरी आ बसी। इनमें एक, नारायणदास रामायणी हो कर पाठक कहलाए, मुड़वारा-कटनी आ बसे। इनके वंश क्रम में आगे मनबोधराम, ईश्वरदास और फिर हीरालाल हुए। शिवरीनारायण में तहसीलदार रहे 'श्यामा-स्वप्न' के रचयिता ठाकुर जगमोहन सिंह मुड़वारा मिडिल स्कूल में आए और तब तीसरी कक्षा के विद्यार्थी हीरालाल की प्रतिभा को पहचान कर बालक को संस्कृत पढ़ाने की बात शिक्षक से कही और चले गए। विद्या-व्यसनी बालक हीरालाल ने संस्कृत पढ़ने की जिद ठान ली, शिक्षक ने किसी तरह अपना पिंड छुड़ाया, लेकिन बालक हीरालाल के मन में पड़ा यह बीज आगे चलकर वट-वृक्ष बना।
शासकीय सेवा में विभिन्न दायित्वों के निर्वाह में उनकी विशेष योग्यता के अनुरूप कार्यों में संलग्न किया गया। उन्होंने शिक्षा और अकाल संबंधी काम तो किया ही, भाषा सर्वेक्षण, जाति-जनजाति अध्ययन, जनगणना और गजेटियर के लिए तैयारी करते हुए उन्होंने भाषा-साहित्य, प्राचीन इतिहास और परम्पराओं पर अतुलनीय कार्य किया। आपके सहयोग से आर.वी. रसेल ने चार खंडों में 'द ट्राइब्स एंड कास्ट्स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया' (सन 1916) तैयार किया, इसकी जानकारियां और तथ्य, प्रामाणिकता की मिसाल है। एक पुराने ताम्रपत्र के अपरिचित अक्षरों में खुदी लिपि को स्वयं के प्रयास से पहले-पहल समझ कर उसका संपादन किया, जो प्राचीन अभिलेखों की सबसे प्रतिष्ठित शोध पत्रिका 'एपिग्राफिया इंडिका' में प्रकाशित हुआ। फिर तो यह सिलसिला बन गया और वे इस शोध-पत्रिका के विशिष्ट व्यक्ति बन गए, इस क्रम में उन्होंने सन 1916 में 'डिस्क्रिप्टिव लिस्ट्स आफ इन्स्क्रिप्शन्स इन द सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार' पुस्तक में छत्तीसगढ़ सहित मध्यप्रान्त और बरार के तब तक ज्ञात सभी प्राचीन अभिलेखों की सूची तैयार कर प्रकाशित कराया।
मैदानी छत्तीसगढ़ में नांगा बइगा-बइगिन के अलावा विभिन्न बइगा ग्राम देवता यथा- सुनहर, बिसाल, बोधी, राजाराम, तिजउ, ठंडा, लतेल आदि हैं, इन्हीं में एक सुखेन भी हैं, जिनकी पूजा-स्थापना, अब कौशिल्या माता मंदिर के लिए प्रसिद्ध ग्राम चंदखुरी में है, इस जानकारी को सुषेण वैद्य से रोचक ढंग से जोड़कर आपने शोध लेख लिखा। इसी तरह लोकनायक नायिकाओं सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन और बहादुर कलारिन की तरह बिलासा केंवटिन के बारे में जाना तो देवार गीत- 'छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार। खोपा पारे रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।...' का अभिलेखन कर अंगरेजी अनुवाद करते हुए शोध लेख लिखा। बीसवीं सदी के पहले दशक में प्राचीन अभिलेखों संबंधी उनके शोध लेखों से छत्तीसगढ़ और विशेषकर बस्तर का प्राचीन गौरव उजागर हुआ।
31.12.1987 को जारी डाक टिकट |
जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने आपके निधन पर श्रद्धांजलि देते हुआ रचा- 'हीरा मध्यप्रदेश के, भारत के प्रिय लाल, कीर्ति तुम्हारी अमर है, पंडित हीरालाल।' और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘सरस्वती‘ के लिए लिखा- 'अयि अतीत तेरे ढेले भी, दुर्लभ रत्न तुल्य चिरकाल, पर तेरा तत्वज्ञ स्वयं ही, एक रत्न था हीरालाल।'
यह लेख 1.10.2016 को ‘नवभारत‘ में प्रकाशित हुआ। |
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