Monday, August 22, 2016

त्रयी


रहस्य को भेदने का अपना आकर्षण होता है और रोमांच भी, इसलिए खतरों, चुनौतियों, आशंकाओं के बावजूद व्‍यक्ति अनदेखे, अनजाने, अंधेरे, उबड़-खाबड़ रास्तों को चुन लेता है, कुछ नया, अलग, खास, ‘बस अपना’ पा लेने के लिए, भले यह सफर 'तीर्थ नहीं है केवल यात्रा' साबित हो।

इतिहास में कालक्रम और वंशानुक्रम की सीढ़ी पर घटित जय-पराजय, निर्माण-विनाश और मलिन-उज्ज्वल कहानियों को महसूस कर सकें तो यही अनगढ़ कविता भी है। यह कविता पढ़ लिये जाने पर काल और पात्र के भेद को मिटाती, इतिहास का शुष्क विवरण न रह कर मानव-मन का दस्तावेज बन जाती है। प्राचीन इतिहास की टोही सुस्मिता, शोध-अध्येता के रूप में काल की परतों में दबे इतिहास में झांकते हुए भूत के अंधे-गहरे कुएं में थाह लगाने के पहले से उतरने को उद्यत रहती हैं और वह भी बिना कमंद के।

मानव-मन, जीवन-निर्वाह करते तर्क और खोया-पाया में ऐसा मशगूल होता है कि अपने अगल-बगल बहती जीवन धारा से किनाराकशी कर लेता है। इस धारा को स्पर्श करने या देखने का भी साहस वह नहीं जुटा पाता, इसमें उतर जाने की कौन कहे। ऐसा करना अनावश्यक, कभी बोझिल और कई बार खतरनाक जान पड़ता है, लेकिन व्यक्ति का कवि-मन बार-बार इस ओर आकृष्ट होता है। सुस्मिता की कविताएं, साहित्यिकता के दबाव से मुक्त, किसी कवि नहीं बल्कि एक ऐसे आम व्यक्ति की अन्तर्यात्रा और महसूसियत की लेखी है, जिसने इस धारा को भी समानान्तर अपना रखा है।

एक तरह का संकट यह भी है कि साहित्य की भाषा अधिक से अधिक टकसाली होने लगे और मनोभाव रेडीमेड-ब्रांडेड, जब कविताएं शब्दकोश और तुकांतकोश के घालमेल का परिणाम दिखें, ऐसे दौर में सुस्मिता की कविताओं का साहित्यिक मूल्यांकन सिद्धहस्त समीक्षक करेंगे, हो सकता है ये कविताएं 'अकवि की गैर-साहित्यिक सी रचनाएं' ठहराई जाएं लेकिन इसमें दो मत नहीं कि 'कविता में गढ़ने का उद्यम जितना कम हो और सृजन की सहज निःसृति जितनी स्वाभाविक, कविता उतनी ही ईमानदार होती है', जो इन कविताओं में है, इसलिए पाठक के लिए इनमें अपनेपन के साथ ताजगी तो है ही, गहरी उम्मीदें भी।

'एक टुकड़ा आसमां' शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं-
छत से सूखे हुए कपड़े उतार लाते हुए
एक टुकड़ा आसमां भी तोड़ लाये हम ... ... ...
सितारे थककर एक दिन
जुगनू बनकर उड़ गए

'जामदानी' शीषर्क कविता की कुछ पंक्तियां-
घरों में उनके रोटियों के लाले हैं
हाथों में उनके सिर्फ छाले हैं
पहनने वालों को कभी न समझ आएगा
इन फूल पत्तों में छिपे कितने निवाले हैं

आज बुन रहा है वो जामदानी
दो महीने बुनने पर होगी आमदनी... ... ...
आँखों की रौशनी से नींद में उसने
मांगा सिर्फ एक वादा है
और कुछ दिन रोक ले मोतियाबिंद को
बेटे ने अब शहर का रुख साधा है

और 'हिसाब के कच्चे हैं हम (२)' शीर्षक कविता की पंक्ति है-
चाँद जोड़ा आज हमने, सूरज घटाकर
तेरे इंतज़ार में

एक कविता है- 'मन बावरा', जो पढ़ने से अधिक सुनने की है, (नाम पर ऑडियो-विजुअल लिंक है.)

सुरुचिपूर्ण छपाई वाली पुस्तक "TRIANGULAM", ISBN 978-93-5098-112-2 सुस्मिता बसु मजुमदार, राजीव चक्रवर्ती और सुष्मिता गुप्ता की क्रमशः हिन्दी, बांग्ला और अंगरेजी कविताओं का संग्रह है, उक्त टिप्पणी हिन्दी कविताओं के लिए है। इस पुस्तक में मेरे नाम का भी आभार-उल्लेेख है।

Tuesday, August 9, 2016

अखबर खान

फक्क गोरिया, कुसुवा मुहां बड़े भारी मुड़ वाला अंगरेज रहंय डांक गाड़ी के ड्रैभल, तोर-हमर जांघ बरोबर तो यंह (दोनों हाथ की तर्जनी और अंगूठे के बीच बित्ते भर का अंतर रखते), ओ कर भुजा रहय, अउ इहां ले छाती भर के लीले फुलपेंट पहिरे रहंय, गेलिस वाला। बेर बुड़तहूं, कभी टेम नइ झुकय, उड़नताल पया मेरा हबरय, तहां चिचियाय, किल्ली पारे बर धर लय, सिवनाथ पुलिया के नाहकत भर ले धडांग खडांग, गुंजा जाय पूरा इलाका।

तओ भइ गे एक दिन अखबर खान ल ताव चढ़ गे, कहिस रहि तो रे अंगरेजवा, ओतका कस के भगाथस गाड़ी ल, धन्न रे तोर पावर, फेर ओ आय तो मसीन के बल म। त मैं देखाहंव तो ल एक दिन। फेर होइस का के चिहुर पर गे पूरा इलाका म। रेस बद देहे हे मालिक ह, ओती डांक गाड़ी अउ एती ओ कर घोड़ी। अउ अपन घोड़ी म सवार मंझनिया ले आ गे पया मेरा। इलाका भर के मन्से सकलाय रहंय, इहां-उहां ले, घुंच देव रे लइका-पिचका मन, झोरसा जाहा, लाग-लुगा दिही। चिहुर मत पारो, खमोस खाओ, सब खबरदार, गाड़ी का टेम हो गया है। ऐ जी, जड़ा रस्ता छोड़के, आस्ते न धिल्लगहा। बस, धक धक धइया, तिहां ले तडांग भडांग। डांक गाड़ी पया ल नहाक ले लिस त एक घरी चुको के अखबर खान के घोड़ी ढिलाइस। गै रे बबा, पछुआही झन। इहां ले उहां, बेल्हा टेसन के हबरत ले सल्लग मन्से। कोइ टाइम नइ लगिस फैसला टुट गे। अखबर खान बेल्हा टेसन के बाहिर म हबर ले लिस, त थिरका दिस अपन घोड़ी ल। अउ लहुट के देखिस जेवनी बाजू ल, इंजिन रहय, नहीं भी त, बीस हांथ पाछू। तओ। अउ का तओ, लुआठ ल चाट ले अंगरेज। ड्रैभल दांत निपोर के हांथ हलाइस, टा टा। अउ अखबर खान घोड़ी के चुंदा ल अंगठी म खजुआत, कोरत रहय।

हं! फेर अंगरेज रहंय बात के सच्चा, कानून के पक्का। कहिस के आज ले अखबर खान के नांव के एक फस्क्लास के डब्बा लगिही डांक गाड़ी में, तिसमें उसका घर परिवार कुटुम, बेडाउस, जब चाहय, जिहां चाहय, जा आ सकत हे। लेकिन कई झन कथें कि तेहि डब्बा खाली रथे त कई बार रेलवाही के बड़े साहब मन सीट नइ पांय त ओइ म लुका के बइठे भी रथें।

मजा आ गे बबा, जोरदार किस्सा। हौ ग, फेर किस्सा नो हय, असली बात आय, सिरतो, ओ कर नांव के डब्बा ह सबूत आय, आज भी। पतियास नहीं त बेलासपुर टेसन म जा के देख लेबे, गाड़ी ठढ़ा होही तओ। हौ, हौ, अउ कस ग, घोड़ी के का नांव रिसे। वह दे, घोड़ी भाई घोड़ी, ते कर का नांव। हं, रेस के थोड़े दिन म गुजर गए रिसे। गजब सुग्घर, सात हांथ के घोड़ी, चिक्कन, फोटो बरोबर। चल जान्धर सुरता नइ आत होही त, आने कहूं ल पूछ लीहंव। अउ का ल पूछबे, हमर जंवरिहा तो रुख-राई नइए ग इलाका भर म। त कस ग बबा मन, अउ ए ह कब के बात होही, तइहा के गोठ आय ग। तभो ले कोन सन के। वो दे, चार कच्छा पढ़ का लिस तिहां ले तो ओ कर से गोठियाए के धरम नइए, तइहा के बात ए ग ते जमाना म कहां के सन पाबे, अउ कहां के संबत, हं, फेर लबारी नोहय, पतियाबे तओ।

हिंदी में कुछ यूं कह सकते हैं-
फक्क गोरे, भूरे-से, बड़े सिर वाले अंगरेज होते थे डाक गाड़ी के ड्राइवर, तुम्हारे-हमारे जंघा के बराबर तो इतना (दोनों हाथ की तर्जनी और अंगूठे के बीच बित्ते भर का अंतर रखते), उनकी भुजा होती, और यहां तक छाती तक चढ़ा फुलपैंट पहने होते, गेलिस वाला। दिन ढलते, कभी समय नहीं टलता था, उड़नताल के पुल के पास पहुंचते, शोर होने लगता, शिवनाथ पुल पार करते धड़ांग-खड़ांग पूरा इलाका गूंज जाता। 

फिर तो बस, अकबर खान को ताव आया, कहा, रुको रे अंगरेज, इतना तेज दौड़ाते हो गाड़ी को, बहुत पावर है तुम्हारा, लेकिन है तो वह मशीन के बल पर। तो मैं तुमको दिखाऊंगा एक दिन। फिर हुआ क्या कि पूरे इलाके में शोर हो गया। मालिक रेस करेंगे, उधर डाक गाड़ी और इधर उनकी घोड़ी। और अपनी घोड़ी पर सवार दोपहर से ही आ गए पुल के पास। पूरे इलाके के लोग इकट्ठा थे, यहां-वहां तक, सरक जाओ बच्चे-कच्चे, चपेट में आ जाओगे, चोट लग जाएगी। शोर मत मचाओ, खमोश रहो, सब खबरदार, गाड़ी का समय हो गया है। ए जी, रास्ता छोड़के, धीरज से, संभल के। बस, धक-धक धइया, फिर तडांग-भडांग। डाक गाड़ी पुल से निकल गई उसके बाद पल भर रुक कर अकबर खान की घोड़ी छूटी। बाबा रे, पिछड़ न जाए। यहां से वहां, बिल्हा स्टेशन तक लगातार लोग। समय नहीं लगा और फैसला हो गया। अकबर खान बिल्हा स्टेशन के बाहर पहुंच चुके, तो अपनी घोड़ी को रोका। और पीछे मुड़ कर दाहिनी ओर देखा, इंजन था, नहीं भी तो बीस हाथ पीछे। तो! और क्या तो, ठेंगा चाट ले अंगरेज। ड्राइवर खीस निपोरते हाथ हिलाया, टा टा। और अकबर खान घोड़ी के अयाल पर उंगलियां फिराते, संवारते रहे।

हां! अंगरेज थे बात के सच्चे, कानून के पक्के। कहा कि आज से अकबर खान के नाम का फस्क्लास का डब्बा लगेगा, डाक गाड़ी में, जिसमें उसका घर-परिवार, कुटुम्ब, मुफ्त बिना टिकट, जब चाहे, जहां चाहे, आ-जा सकता है। लेकिन कई लोग कहते हैं कि वह डिब्बा खाली रहता है तो कई बार रेलवे के बड़े अधिकारी, सीट न मिलने पर उसी में छिप कर बैठते भी हैं।

मजा आ गया बाबा, जोरदार किस्सा। हां! लेकिन किस्सा नहीं यह असल बात है, सचमुच, उयके नाम का डिब्बा सबूत है, आज भी। विश्वास नहीं तो बिलासपुर स्टेशन में जा कर देख लेना, गाड़ी खड़ी होगी तब। हां, हां, और क्यों भई, घोड़ी का नाम क्या था। ये देखो, घोड़ी भई घोड़ी, उसका क्या नाम। हां, रेस के कुछ दिन बाद चल बसी। बहुत सुंदर, सात हाथ की घोड़ी, चिकनी, मानों तस्वीर। ठीक है, रहने दो याद नहीं आ रहा हो तो, और किसी से पूछ लूंगा। और किसको पूछोगे, हमारे हमउम्र तो पेड़ भी नहीं इलाके भर में। तो क्यों बाबा लोग, और यह कब की बात होगी, पुरानी बात है भई। फिर भी किस सन की। ये लो, चार कक्षा पढ़ लिए फिर तो उससे बात करने का भी धर्म नहीं, पुरानी बात है। उस जमाने में कहां सन पाओगे और कहां का संवत, हां, लेकिन झूठ नहीं है, भरोसा करो तो।
सरगांव के मालगुजार अकबर खान 11 दिसंबर 1944 को जन्नतनशीं हुए, जिनके नाम पर सरगांव का अकबर खान का बाड़ा, बिलासपुर में अकबर खान की चाल और अमेरीकांपा का टुकड़ा गांव अमेरी अकबरी है, की ऐसी ढेरों कहानियां उस पूरे इलाके में चाव से सुनी-सुनाई जाती हैं, उनके और भी कई किस्से हैं, जैसे- मालगुजार अकबर खान का मुख्तियार खान मालिक रेल की पटरी के उपर सायकिल चलाता था... ... ... हाजी मोहम्मद अकबर खान देवी भक्त थे, उन पर देवी आती थी, उनके पांव में पदुम था, जिसे लात मार देते थे, उसकी बरक्कत होती थी ... ... ... अकबर खान के पास 57000 एकड़ जमीन थी, सरगांव में पथरिया के रास्ते जाने पर दाहिनी ओर 100 एकड़ रकबा वाला एक चक खेत था ... ... ... एक बार शिवरीनारायण मठ वाले ओनहारी का बोरा बिछाते गए तो मुकाबले में मलार के साव ने टक्कर ली धान के बोरे बिछाते गए तब सरगांव के अकबर खान के नगदी पैसा के बोरे बराबरी में बिछाए थे ... ... ... मृत्यु के समय उनके खजाने में सवा दो लाख रुपये नगद और चांदी की एक-एक मन की चालीस सिल्ली थी ... ... ... अकबर खान की मृत्यु बैतलपुर अस्पताल में हुई, वहां आज भी उनकी फोटो लगी है, जो उनकी एकमात्र तस्वीर है। 

हलीम खां जी से मिली जानकारी- हाजी मोहम्मद अकबर खां के पुत्र जनाब मजीद खां की डायरी के अनुसार मो. अकबर खां का निधन बैतलपुर अस्पताल में 11-12-1944, सोमवार शाम 6 बजे को हुआ, जिन्हें अगले दिन सरगांव मस्जिद में दफन किया गया। इसी डायरी के अनुसार अकबर खां के ज्येष्ठ पुत्र, बड़े सरकार, मो. मसूद खां का हिस्सा 27042.14 एकड़ तथा उनके कनिष्ठ पुत्र, छोटे सरकार, अब्दुल मजीद खां (हलीम खां जी के बाबा) का हिस्सा 19238.72 एकड़ था।

अकबर खान का बाड़ा, सरगांव 

सीत बावा-देउर, ताला के पुजेरी मूरितदास वैष्णव, खन्तहा के समारू गोंड़ और पंवसरी के मिलउ साहू से सन 1987 में सुनी कहानी, जितनी और जैसे याद रही। 15 अगस्त के आसपास अक्सर याद आती है। इन सुनी-सुनाई की होनी-अनहोनी, मैंने अपने मन का मान जस का तस रखा है।

Monday, August 1, 2016

स्थान-नाम

‘छत्तीसगढ़‘ नाम छत्तीस घर से या छत्तीस किलों के आधार पर नहीं, बल्कि कलचुरियों के मैदानी खालसा क्षेत्र के छत्तीस प्रशासनिक-राजस्व मुख्यालयों/केन्द्रों के कारण हुआ। फिर भी अन्य मतों का उल्लेख होता है और इस क्रम में सामाजिक विज्ञान के विभिन्न अनुशासन जीवन्त होते हैं। वर्तमान छत्तीसगढ़ में स्थान नामों की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय कि पिछले सौ सालों में सर्वाधिक नाम परिवर्तन शायद सरगुजा अंचल में हुए हैं। स्थान-नाम अध्ययन का आरंभ तलाशें तो हिन्दी में इसकी शुरुआत ही छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों पर विचार के साथ हुई। रायबहादुर हीरालाल ने जबलपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका हितकारिणी के लिए 1915-16 में ‘मध्यदेशीय ग्रामनाम अर्थावली‘ शीर्षक से लेख लिखे, जो 1917 में ‘मध्यप्रदेशीय भौगोलिक नामार्थ-परिचय‘ पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। 
हितकारिणी का अंक, जिसमें रायपुर, बिलासपुर
स्थान नामों की चर्चा है.

हिन्दी में प्रकाशित स्थान-नामों की इस पहली-पहल पुस्तक में सी पी एंड बरार यानि मध्यप्रांत या मध्यप्रदेश और बरार, जिसका एक प्रमुख भाग छत्तीसगढ़ था, के विभिन्न स्थान नामों पर व्यवस्थित और सुबोध चर्चा है।

स्थान-नाम का अध्ययन भाषाविज्ञान का महत्वपूर्ण और रोचक हिस्सा है। छत्तीसगढ़ में इसके अध्येताओं में महत्वपूर्ण नाम है, प्रो. एन एस साहू। स्थान-नामों पर ‘ए लिंग्विस्टिक स्टडी आफ प्लेसनेम्स आफ द डिस्ट्रिक्ट आफ रायपुर एंड दुर्ग‘, डा. साहू का शोध प्रबंध है, अन्य संदर्भों में इसका वर्ष 1974 या 1977 उल्लेख मिलता है, लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि यह शोध 1974 में प्रस्तुत किया गया था, जिस पर 1975 में डाक्टरेट उपाधि मिली। यह शोध 1989 में ‘टोपोनिमी‘ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ है। मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ में इस दिशा में यह पहला शास्त्रीय अध्ययन है। डा. साहू द्वारा उपलब्ध कराई गई प्रति को देख कर लगा कि पूरे काम में विषय और शोध अनुशासन का अत्यधिक दबाव है। कई नामों की व्याख्या गड़बड़ लगती है, एक उदाहरण साजा+पाली है, जिसे लेखक ने 'डेकोर'+'शिफ्ट' से बना बताया है, जबकि साजा, वृक्ष और पाली, बसाहट का आशय अधिक मान्य होगा। साथ ही पुस्तक में कुछ चूक है। डा. साहू जैसे बापरवाह (एलर्ट और केयरफुल) अध्येता के काम में विसंगति खटकती है, जैसे रायबहादुर हीरालाल का कोई उल्लेख नहीं है, कुछ अन्य गंभीर अशुद्धियां हैं, जिसके बारे में उन्होंने बताया कि पुस्तक प्रकाशन के पूर्व उन्हें प्रूफ नहीं दिखाया गया था। मजेदार यह कि नाम पर किए गए इन शोधार्थी का पूरा नाम जानने में भी मशक्कत हुई, उन्होंने स्वयं बताया कि वह ‘एन एस‘ से जाने जाते हैं, वस्तुतः ‘नारायण सिंह‘ हैं, लेकिन मुझे कहीं उनका नाम ‘नरसिंह‘ भी मिला।

1981 में डा. चित्तरंजन कर का शोध ‘छत्तीसगढ़ के अभिलेखों का नामवैज्ञानिक अनुशीलन‘ - ‘एन ओनोमेस्टिक स्टडी आफ द इंसक्रिप्शन्स आफ छत्तीसगढ़‘ आया, अब तक यह पुस्तक रूप में मुद्रित नहीं हुई है, लेकिन 1982 में ‘नामविज्ञान‘ शीर्षक से हस्तलिखित चक्रमुद्रित (साइक्लोस्टाइल) रूप में प्रकाश में आई है। प्रकाशन का यह स्वरूप अपने आप में अनूठा और उल्लेखनीय है। इसमें शोध-प्रबंध के दृढ़ निर्धारित प्रारूप और उसकी सीमाओं के चलते बौद्धिक उपक्रम के मशीनी हो जाने की मजबूरी झलकती है, लेकिन शोध-प्रविधियों के आदर्श-पालन के फलस्वरूप शोध के अनुशासन और मर्यादा का निर्वाह अनुकरणीय है। इस अध्ययन में नामों के कई रोचक पक्ष उजागर हुए हैं, एक उदाहरण में स्पष्ट किया गया है कि शर्करापद्रक और शर्करापाटक में कैसे 'शर्करा' का आशय बदल जाता है।

1984-85 के डा. विनय कुमार पाठक के डी-लिट शोध प्रबंध से मेरा परिचय सन 2000 में ‘छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘ शीर्षक वाली पुस्तक के माध्यम से हुआ। उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण इस शोध में छत्तीसगढ़ की समग्रता के साथ विषय-अनुशासन और शोध-प्रविधि प्रभावशाली है। यह कार्य विचार के कई अवसर देता है लेकिन इसमें असहमतियों की भी गुंजाइश पर्याप्त है। कुछ उदाहरण- पृष्ठ 55 का ‘नार‘ वल्लरि के बजाय नाला/पतली जलधारा होना चाहिए। पृष्ठ 56 का ‘बीजा‘ बीज से नहीं बीजा वृक्ष से संबंधित होना चाहिए। पृष्ठ 65 का ‘देवर‘ रिश्ता नहीं देउर, देउल, देवल, देवालय है। पृष्ठ 67 का ‘भतरा‘, ‘भुजिया‘ खाद्य पदार्थ से नहीं बल्कि जनजातियों से और ‘करी‘ संभवतः करही वृक्ष से संबंधित है। पृष्ठ 69 का ‘गाड़ाघाट‘ जाति के अर्थ में नहीं गाड़ा वाहन आशय का होगा। पृष्ठ 70 का मानिकपुर, मानिकचौरी, भंडार कबीरपंथियों/सतनामियों से और लाख संख्यात्मक गिनती के बजाय लाखा बंजारा से संबंधित होगा। पृष्ठ 73 का जयरामनगर (पुराना नाम पाराघाट) सेठ जयरामवाल के कारण है। पृष्ठ 74 का ‘अखरा‘, लाठी चलाने का, करतब प्रशिक्षण स्थल, व्यायाम शाला, स्पष्टीकरण आवश्यक है। पृष्ठ 77-79 पर सद्गुण-संबंधी स्थान-नाम और दुर्गुण-संबंधी स्थान-नाम सूची में बड़ा, सीधा, चोरा, गुंडा, जलील आदि शब्द या आशय के ग्राम नामों पर असहमति होती हैं, जैसे मोहलई और मोहलाइन पत्तल बनाने वाले पत्ते-वनस्पति से संबंधित है न कि मोह से। चौरेल, चतुष्टय से और चोरिया मछली पकड़ने के उपकरण से तथा चूरा, चूड़ी आभूषण से संबंधित है। पृष्ठ 130 का छापर, छावनी-छप्पर के बजाय सलोनी मिट्टी के अधिक करीब है।

एक मजेदार ग्राम-नाम की चर्चा अपनी ओर से करना चाहूंगा, वह है 'बैकुंठ'। यह रायपुर-भाटापारा के बीच सेंचुरी सीमेंट कारखाना का रेलवे स्टेशन है और तीन गांवों 'बहेसर-कुंदरू-टंडवा' की जमीन संलग्न होने के कारण उनके पहले अक्षरों को जोड़ कर 'मुख-सुख' से बैकुंठ बन गया। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के ग्राम-नामों पर हुए इन शोधों को देख कर लगा कि स्थान-नामों में आए नगर, पुर, पारा, पार, गांव के अलावा डांड, केरा, केला, पदर, पाली, नार, डोल, दा, उद, उदा, तरा, तरी, तराई, वंड, गुंडा, मुड़ा, खेड़ा, डीह, कांपा, गहन, डेरा, दादर जैसे कई शब्द हैं, जिनकी समानता अपने पड़ोसी प्रदेशों के ग्राम-नामों से है तथा उनकी भाषा से प्रभावित है, इसी तरह मसाती, दमामी, कलां-खुर्द पर भी ध्यान जाता है और केन्द्री-बेन्द्री, हिर्री-सिर्री, चेऊ-मेऊ, खोरसी-बोरसी, कल्ले-मुल्ले, चर्रा-मर्रा तुकबंद जोड़े ग्राम नाम भी कई-एक हैं, इन्हें आधार बनाना बेहतर निष्कर्ष पर पहुंचा सकता है। अंगरेजी स्पेलिंग के कारण भी ढेरों ग्राम नाम अब बदल गए हैं, ये परिवर्तन अचंभित करने वाले और मजेदार भी है- लमाइनडीह लभांडी बन गया तो जबड़ नाला, जब्बार नाला बन जाता है, डंड़हा या डाढ़ा पारा, दाधापारा हो जाता है, मांढर, मांधर बन जाता है, भंवरटांक अब भनवारटंक प्रचलित है। इस कारक का भी ध्यान रखना आवश्यक है। यह एक पूरा अध्याय हो सकता है। रायपुर-सरायपाली राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऐसे ढेरों ग्राम-नाम नमूने देखे जा सकते हैं। ठीक (या प्रचलित) वर्तनी सहित ग्राम-नाम राजस्व नक्शों में तो है, लेकिन आसानी से उपलब्ध होने वाले मेरी जानकारी के अन्य स्रोतों में ग्राम-नाम रोमन में ही मिलते हैं।

इन अध्येताओं के स्थान-नामों की चर्चा जरूरी मानते, राय बहादुर हीरालाल, मुड़वारा (कहीं मुरवाड़ा लिखा मिलता है) से संबंधित हैं, जो रेलवे के बाद कटनी नदी के आधार पर इसी स्टेशन-जंक्शन नाम से जाना गया और अब मुड़वारा भी संलग्न किन्तु पृथक जंक्शन है। डा. एन एस साहू, सुरपा-भनसुली, जिला दुर्ग निवासी हैं। डा. चित्तरंजन कर पैकिन, सरायपाली निवासी हैं, ग्राम नाम की बात आते ही पैकिन से पदातिक, पाइक, पैदल सैनिक, पैकरा का उल्लेख करते हैं। डा. विनय कुमार पाठक का पुश्तैनी मूल स्थान मुंगेली के पास बइगाकांपा, कोंदाकांपा है, लेकिन परिवार पाठकपारा, मुंगेली में रहा और उनका जन्म-बचपन पचरीघाट, जूना बिलासपुर का है।

अध्येताओं के स्थान-नामों के साथ-साथ तीन, यथा नाम तथा गुण, ‘हीरालाल‘ का उल्लेख प्रासंगिक, बल्कि आवश्यक है। छत्तीसगढ़ी बोली-भाषा-व्याकरण की चर्चा होने पर सबसे पहले हैं- सन 1885 में छत्तीसगढ़ी का व्याकरण तैयार करने वाले धमतरी के व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय, जिनके बारे में पोस्ट छत्तीसगढ़ी में उल्लेख है। दूसरे रायबहादुर हीरालाल, जिनका जिक्र यहां है और तीसरे भाषाविज्ञानी (बघेलखंडी, छत्तीसगढ़ होते हुए अब भोपालवासी) डा. हीरालाल शुक्ल, अस्मिता की राजनीति और बस्तर में रामकथा, पोस्ट जिनसे संबंधित है।