''रामकथा की ऐसी पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है जिसमें 32 पंक्तियों में रामायण के समस्त सर्गों को छंदबद्ध किया गया है। रामकथा पर उपलब्ध यह सबसे लघुकाय कृति है। यह रचना खैरागढ़, सिंगारपुर ग्राम में अगहन सुदी 07 संवत 1945 को जन्मे भक्त कवि गजराज बाबू विरचित है, जो पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीजी के सहपाठी थे।'' यह जानकारी दैनिक नवभारत समाचार पत्र में 28 जनवरी 1981 को प्रकाशित हुई थी, जिसमें उल्लेख था कि डॉ. बृजभूषण सिंह आदर्श को यह कृति मिली है। मुझे इसकी प्रति राम पटवा जी के माध्यम से (वाया डॉ. जे.एस.बी. नायडू) मिली, जिसके दूसरे पेज पर लंका कांड की चौपाई व अन्य कुछ हिस्सा क्षत, इस प्रकार है-
श्री गणेशाय नमः
अथ रामायणाष्टक प्रारंभः
चौपया छंद
शंकर मन रंजन, दुष्ट निकंदन, सुन्दर श्याम शरीरा।
सुर गण सुखदायक, खल गण घाय(ल)क, गुण नायक रघुबीरा॥
मुनि चित रोचक, सब दुःख मोचक, सुखधामा रणधीरा।
बिनवै गजराजा, हे रघुराजा, राखहु निज पद तीरा॥१॥
जन्मे रघुनाथा, शक्तिन साथा, दशरथ नृप गृह आई।
करिमख रखवारी, खलगण मा(री) ताड़कादि दुखदाई॥
तारी रिषि नारी, भंजि धुन भारी, व्याह्यो सिय जग माई।
विनवै गजराजा, सिय रघुराजा, देहु परम पद साईं॥२॥ (इति बालकांड)
कुबरी मति मानी, दशरथ रानी, दियो राम बन राजा।
सीता रघुराई, सह अहिराई, गये बनहि सुर काजा॥
त्यागा नृप प्राना, भरत सुजाना, गये निकट रघुराजा।
समुझाय खरारी, अवध बिहारी, सह पांवरिं गजराजा॥३॥ (इति अयोध्या कांड)
तजि जयन्त नैना, सुखमा ऐना, पंचवटी पुनि धारी।
खर भगनी, आई, नाक कटाई, मारयो खर दनुजारी॥(मारे खर भुवि भारी)
कंचन मृगमारी, अवध बिहारी, खोयो जनक दुलारी।
भाखत गजराजा, पुनि रघुराजा, गीध अरु शबरी तारी॥४॥ (इति आरण्यकांड)
सुग्रीव मिताई, करि रघुराई, हते बालि कपि भारी।
हनुमत चित दीन्हा, लै प्रभु चीन्हा, खोजन जनक दुलारी॥
नारी तपधारी, सिय सुधि सारी, कही वास बन चारी।
खोजत गजराजा, तट नदराजा, आये वानर सारी॥५॥ (इति कृषकिंधा कांड)
सुरसा मद भाना, कपि हनुमाना, आयो सागर पारा।
लखि रमा दुखारी, गिरिवर धारी, धरि लघुरूप निहारा॥
सब बाग उजारी, अच्छहि मारी, कियो लंकपुर छारा।
तरि निधि बारी, सह कपि सारी, वन गजराज सिधारा॥६॥ (इति सुन्दरकांड)
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..........................................-धारी।
मुर्छित अहिराया, हनुमत लाया, द्रोणाचल ...
..........................................-धारी।
मुर्छित अहिराया, हनुमत लाया, द्रोणाचल ...
लखन मुरारी, रिपु हति अवध सिधारी ॥७॥ (इति लंका कांड)
सिय हरि अहिनाथा, सब कपि साथा, पहुंचे अवध मुरारी।
मिलि भरत सुजाना, राम सयाना, मिले सकल महतारी॥
राजे रघुराया, मंगल छाया, टारि सब दुख भारी।
विनवै गजराजा, वसु रघुराजा प्रियसः जनक दुलारी॥८॥ (इति उत्तर कांड)
नृप दशरथ लाला, मख रखवाला, शिव धनुभंजन हारी।
पितु आज्ञा धारी, बनहि सिधारी, खरदूषण दनु जारी॥
शबरी गिध तारी, रावण मारि, पुर गजराज निहारी।
यह अष्टक गावे, प्रभु पद पावे, कटैं पाप कलि भारी॥
''इति गजराजकृत रामायणाष्टक सम्पूर्णम्॥
कुछ अन्य भी मिले, जिनमें श्री परमहंस स्वामी ब्रह्मानंद विरचित श्रीरामाष्टकम् का पहला श्लोक है-
कृतार्तदेववन्दनं दिनेशवंशनन्दनम्। सुशोभिभालचन्दनं नमामि राममीश्वरम्॥
कृतार्तदेववन्दनं दिनेशवंशनन्दनम्। सुशोभिभालचन्दनं नमामि राममीश्वरम्॥
और आठवां श्लोक है-
हृताखिलाचलाभरं स्वधामनीतनागरम्। जगत्तमोदिवाकरं नमामि राममीश्वरम्॥
हृताखिलाचलाभरं स्वधामनीतनागरम्। जगत्तमोदिवाकरं नमामि राममीश्वरम्॥
इसी प्रकार श्रीव्यास रचित श्रीरामाष्टकम् का पहला श्लोक है-
भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम्।
स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव राममद्वयम्॥
और आठवां श्लोक है-
शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम्।
विराजमानदेशिकं भजे ह राममद्वयम्॥
एक रामायणाष्टकम्, स्तुतिमंडलसंकलन से, जिसके कवि के रूप में अनिमेष नाम मिला, इस प्रकार आरंभ होता है-
रामं संसृतिधामं सर्वदनिष्कामं जगदारामं
क्षीरे पंकजमालाशोभितश्रीधामं भुवनारामम्।
मायाक्रीडनलोकालोकतमालोकस्वननारम्भं
वन्देऽहं भुजगे तल्पं भुवनस्तम्भं जगदारम्भम्॥
और अंतिम पंक्ति है-
वन्देऽहं श्रुतिवेद्यं वेदितवेदान्तं हरिरामाख्यम्॥
वन्देऽहं श्रुतिवेद्यं वेदितवेदान्तं हरिरामाख्यम्॥
अब आएं एकश्लोकि रामायणम् पर-
आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं,
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम्।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं,
पश्चाद्रावणकुम्भकर्णहननमेतद्धि रामायणम्॥
एक छत्तीसगढ़ी बुजुर्ग ने शायद किसी मालवी की पंक्तियां सुन कर, अपने ढंग से रामायण याद रखा था, सुनाया-
एक राम थो, एक रावन्नो।
बा ने बा को तिरिया हरी, बा ने बा को नास करो।
इतनी सी बात का बातन्नो, तुलसी ने कर दी पोथन्नो।
भदेस सी लगने वाली इन पंक्तियों का भाव राममय तो है ही।