इंटैक INTACH रायपुर अध्याय द्वारा अजय चंद्रवंशी की पुस्तक ‘भोरमदेव क्षेत्र‘ का प्रकाशन किया गया है। अजय जी की समीक्षा दृष्टि से मैं प्रभावित रहा हूं और पुरातत्व-संस्कृति से जुड़े होने के कारण, इंटैक का सदस्य न होते हुए भी, उस परिवार का सदस्य रहा हूं। किसी विशेषज्ञ-दृष्टि और शास्त्रीय अध्ययन के साथ स्थानीय सूचना-संदर्भों का महत्व आवश्यक होता है, इसे यह पुस्तक भी प्रमाणित करने वाली है। इस पुस्तक के लिए अजय जी ने मुझे भूमिका लिखने को कहा, और समय की कुछ मोहलत भी दी, इसलिए इस संदर्भ में अपनी सोच-समझ को ‘भूमिका‘ के रूप में अभिव्यक्त करने का संयोग बना, वही यहां प्रस्तुत-
माना जाता है कि भारतीय धार्मिेक क्रिया-कलाप और मान्यताओं में पूजा-उपासना वैदिक यज्ञ-याग की परंपरा में बलि-आडंबर, कर्मकांड बढ़ता गया और छठीं शताब्दी ईस्वी पूर्व का बौद्ध-जैन काल इसकी परिणिति थी, जब लोग अन्य आचार-विचार की ओर आकृष्ट होने लगे। इधर उपनिषदों के बाद पुराणों में वैदिक इंद्र-वरुण और रूद्र-आदित्य का महात्म्य ब्रह्मा-विष्णु-महेश में बदलने लगा और शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर और गाणपत्य संप्रदाय विकसित हुए। सनातन धर्म के मूल्य वही रहे, किंतु बदलती मान्यताओं के साथ वैदिक निर्गुण यज्ञ, सगुण मंदिर उपासना केंद्र का रूप लेने लगे। अवतार, स्वरूप, विग्रह और देवकुल की अवधारणा के विकास ने धर्म-आचरण को अलग रूप दे दिया।
स्मरणीय कि वैदिक ब्रह्मोद्य यानि वाद-संवाद वाहक शास्त्रार्थ की ज्ञान परंपरा रही है। शंकराचार्य की तरह स्वामी दयानंद ने पूरे देश में शास्त्रार्थ किया था। वे शास्त्रार्थ के लिए चार वेद, चार उपवेद, छह वेदांग, छह उपांग और मनु स्मृति प्रामाणिक मानते थे, पुराणों के विरोधी थे, ‘पाखंड खंडन‘ जैसी पुस्तक उन्होंने प्रकाशित कराई थी। 16 नवंबर 1869 को आनंदबाग, काशी में मंदिर और मूर्ति-पूजा पर स्वामी दयानंद का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है, जिसमें प्रतिवादी स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती थे। इतिहास और परंपरा में इसे कालगत स्थितियों के विभिन्न पक्षों के रूप में देखा जाना समीचीन होता है।
इसके साथ वास्तु इतिहास पर नजर डालें तो हड़प्पायुगीन सभ्यता के बाद संरचनात्मक वास्तु प्रमाणों का लगभग अभाव रहा है। मौर्य काल और गुप्त काल के बीच की सदियां, इस्वी-पूर्व और पश्चात के लगभग 500 वर्षों में संरचनात्मक के बजाय शिलोत्खात वास्तु का प्रचलन रहा। गुप्त काल से संरचनात्मक मंदिर वास्तु का स्पष्ट और क्रमिक विकास देखा जा सकता है। यह भी अनुमान होता है कि शिलोत्खात चैत्य वास्तु और संरचनात्मक स्तूप वास्तु में धरन, चूल, कोष्ठक आदि काष्ठ-कारीगरी तकनीक के अनुकरण के कारण है। क्रमिक विकास में संरचनात्मक पाषाण वास्तु, जिसमें भार-संतुलन से और बाद में लोहे के क्लैम्प का प्रयोग होने लगा। 8 वीं से 12 सदी ईस्वी, मंदिर वास्तु का उच्चतम विकसित काल है।
छत्तीसगढ़ में मंदिर वास्तु के उदाहरणों में 11-12 वीं सदी ईस्वी में कलचुरि और नागवंशी शासकों के अधीन उत्कृष्ट उदाहरण ज्ञात हैं। रतनपुर कलचुरियों का क्षेत्र व्यापक रहा और त्रिपुरी कलचुरियों की शैली का स्पष्ट प्रभाव उत्तरी छत्तीसगढ़ के डीपाडीह और महेशपुर जैसे स्थलों में है। इसी प्रकार नागवंशियों में चक्रकोट के छि़दक नागों का बारसूर और नारायणपुर जैसे केन्द्र हैं। दक्षिण कोसल के इतिहास के इस कालखंड में पश्चिमी-मध्य छत्तीसगढ़ में फणिनागवंशी काल मेें वास्तु कला के प्रतिमान रचे गए, उनका उत्कृष्ट नमूना भोरमदेव है।
मालवा के परमारों की भूमिज शैली के अपवाद के रूप में भी आरंग के भांड देउल मंदिर के साथ भोरमदेव मंदिर का उल्लेख होता रहा है। भांड देउल, उंची जगती अर्थात चबूतरे पर निर्मित है, किंतु भोरमदेव का मंदिर पूरी तरह भूमिज शैली का उदाहरण है। आर्क्यालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, खंड 17, 1881-82 अलेक्जेंडर कनिंघम ने पर्याप्त विस्तार से इसका विवरण दिया है। यह भी एक अपवाद कहा जा सकता है कि कनिंघम रिपोर्ट में इसके पुरातात्विक और कलात्मक महत्व के बावजूद यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित नहीं हुआ था। संभवतः रियासत के अधीन क्षेत्र में होने अथवा अधिसूचना जारी होने के पूर्व आपत्ति किए जाने के कारण ऐसा हुआ। बाद के वर्षों में यह मंदिर राज्य शासन द्वारा संरक्षित किया गया। मिथुन मूर्तियों के कारण यह ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1984 में संचालनालय पुरातत्व एवं संग्रहालय, मध्यप्रदेश से विभागीय अधिकारी डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल की पुस्तक ‘भोरमदेव प्रदर्शिका‘ आई। 1989 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के डॉ. सीताराम शर्मा की पुस्तक ‘भोरमदेव‘ मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल से प्रकाशित हुई।
मंदिर वास्तु के अध्ययन में पारिभाषिक शब्दों, अंग-प्रत्यंग का नामकरण और निर्देश वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में मिलते हैं। मोटे तौर पर दक्षिण भारतीय मंदिरों और उड़ीसा के मंदिरों के लिए प्रयुक्त शब्द उत्तर भारत के लिए भिन्न हो जाते हैं, जिसका उदाहरण मंडप के लिए उड़ीसा में प्रयुक्त शब्द ‘जगमोहन‘ है। इसी प्रकार भूमि-थर, अंग-रथ, अधिष्ठान-पीठ, अंतराल-कपिली, विमान-प्रासाद जैसे शब्दों का अर्थ और उपयुक्त प्रयोग के लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। यह भी उल्लेखनीय है कि वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों की पांडुलिपियों की प्राप्ति और अध्ययन के पश्चात, भारतीय मंदिर स्थापत्य की शैली और पारिभाषिक शब्दों में परिवर्तन होता रहा है।
प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि भारतीय मंदिर वास्तु के अध्ययन में पर्सी ब्राउन और स्टेला क्रैमरिश के प्रयासों को मूल स्रोत-ग्रंथों के आधार पर कृष्णदेव और मधुसूदन ढाकी जैसे मूर्धन्य विद्वानों ने परिष्कार किया। औैर उत्तर भारत के मंदिर निर्माण परंपरा में सोमपुरा कुल, पांडुलिपियों के अध्ययन, संपादन, प्रकाशन के द्वारा शास्त्र के साथ-साथ तकनीक और प्रयोग में भी सक्रिय है।
प्राकृतिक परिवेश, उत्कृष्ट संरचना और धार्मिक आस्था का केंद्र होने के कारण भोरमदेव मंदिर पर्यटक आकर्षण के केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। किंतु इसका एक पक्ष यह भी है कि पर्यटक सुविधाओं, आवश्यकताओं की पूर्ति और आधुनिक साज-सज्जा का प्रयास किया जाता रहा है, जो मंदिर के संरक्षण, प्राचीन मूल स्वरूप और पूरे परिवेश पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे किसी भी प्राचीन स्थल-स्मारक का आकर्षण उसके मूल स्वरूप के कारण ही होता है अतः पर्यटक-सुविधाओं की दृकष्ट से किए जाने वाले कार्यों और कथित विकास के दबाव पर नियंत्रण आवश्यक है और इस दृष्टि से मंदिर और उसके परिवेश के मूल स्वरूप को संरक्षित-सुरक्षित रखते हुए, अनुशंसित सीमा की दूरी पर विकास कार्य किए जाएं।
अंगरेज अधिकारियों के बाद भोरमदेव मंदिर पर डॉ. सीताराम शर्मा और डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल जैसे विद्वानों ने विस्तार से अध्ययन किया है। इस क्रम में अजय चंद्रवंशी न सिर्फ क्षेत्रीय इतिहास, बल्कि फिल्म, साहित्य आदि के भी सजग अध्येता हैं और तथ्यों की प्रस्नुति में रोचकता और विश्वसनीयता का संतुलन बनाए रखते हैं। उनकी यह पुस्तक भोरमदेव से संबंधित अब तक प्रकाशित लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रकाशन, स्रोत-सामग्री का उपयोग कर तैयार की गई है, जिसमें उनकी सजग मीमांसा-दृष्टि के भी दर्शन होते हैं। इसलिए यह प्रकाशन भोरमदेव, क्षेत्रीय इतिहास और कला परंपरा के दस्तावेज के रूप में उपयोगी प्रतिमान साबित होगी, मेरा ऐसा विश्वास और शुभकामनाएं हैं।
पुनः हमारी सनातन परंपरा में उपासना ने वैदिक यज्ञ ने मंदिर-मूर्तियों का रूप ले लिया। समय के साथ बदलती स्थितियों और मान्यताओं का संदर्भ लेते हुए 'जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।' या मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती अंश में आया ‘आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ...‘ का यहां उल्लेख प्रासंगिक होगा, अर्थात् ‘मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन करना नहीं जानता तथा पूजा करने का ढंग भी नहीं जानता। क्षमा करो। मैंने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो।‘