1967-68, उम्र 10 साल, कक्षा पांचवीं। तब तक स्कूली किताबों के अलावा पढ़े में याद रह गई दो किताबें हैं।
घर में बांस वाले भूरे कागज की जिल्द लगी, बड़े आकार वाली 167 पेज की पुस्तक थी- ‘ये भी मानव हैं‘। (हिन्दी विश्व-भारती, लखनऊ से प्रकाशित) किताब में दुनिया की अलग-अलग ‘विचित्र‘ जनजातियों के बारे में रेखाचित्र सहित जानकारी थी। अपनी स्कूली किताबों के अलावा जो पहली किताब मेरी याद में है, वह यही है। इसे पढ़ते हुए आत्मविश्वास भी आया कि मैं हिज्जे करते खुद से किताबें पढ़ सकता हूं। अब समझ पाता हूं कि वह बच्चों के लिए, या प्राथमिक समझ के लिए बनाई गई नृतत्वशास्त्र-मानव विज्ञान की किताब थी। मनुष्य को, चाहे वह किसी नस्ल, जाति, धर्म का हो, अधिकतर मायनों में अलग न मानना, उसे अपने जैसा मानव मानना, मेरे साथ यह संभवतः संस्कार में उसी किताब से आया। वैसे यह संयोग भी था कि घर के कुछ बड़े-बुजुर्गों ने इस विषय की पढ़ाई की थी, जिस कारण से यह किताब घर में आई। इसके साथ इंद्रजाल कामिक्स में 'रिप्ले का मानो न मानो' होता था, शायद इससे ‘दुनिया रंग-रंगीली बाबा‘ की आरंभिक समझ की राह खुली।
इसी दौरान हायर सेकेंडरी कक्षा के विद्यार्थी अग्रजों की डॉ. ईश्वरी प्रसाद की लाल रंग के कवर वाली (राय साहब राम दयाल अगरवाला, इलाहाबाद से प्रकाशित) पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति‘ दूसरी किताब, जो हमेशा याद आती है। अपने नाम के लिए यह जान चुका था कि राहुल, बुद्ध के पुत्र थे। इस किताब में पढ़ा कि बुद्ध का जन्म 563 में और मृत्यु 483 में हुई। बहुत दिनों तक यही मानता रहा कि जन्म-मृत्यु उल्टा छप गया है। बात होने लगी तो यह मां को बताया। करीब घंटे भर वे धैर्य से समझाती रहीं कि यह ईस्वी सन तो है, लेकिन ईस्वी पूर्व का हिसाब है, सही है। बड़ी मुश्किल से यह बात समझ में आई और पक्की बैठ गई। शायद प्राचीन इतिहास और संस्कृति में रुचि के बीज यहीं से पड़े।
पांचवीं से ग्यारहवीं कक्षा, सन 1968-74 तक के आरंभिक वर्षों में घर में बांग्ला पत्रिका ‘शुकतारा‘ आती थी। इसके साथ बांग्ला ककहरा-पहाड़ा पुस्तक मिल गई। मां सहपाठी होतीं। ‘शुकतारा‘ में एक चित्रकथा होती थी, नायक बांटुल दि ग्रेट की, बेडौल शरीर वाला। चौड़ा सीना, मानों उसकी सारी ताकत सीने की चौड़ाई में हो। इससे कुछ अभ्यास तब बांग्ला पढ़ने-समझने का रहा। शायद इसके कारण अन्य लिपियां पढ़ने में रुचि हुई। नवीं कक्षा में पीले रंग के कवर वाली बी एल कुलश्रेष्ठ की भौतिक शास्त्र, भाग एक की अपनी प्रति मिली, पढ़ने पर समझ में आए, न आए, पसंद बहुत थी, लगता है वह अब मिले तो भौतिकी और विज्ञान के सारे नियम समझ में आ जाएंगे। इस दौरान चन्दामामा, पराग, नंदन, दीवाना तेज होते धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, कादम्बिनी, दिनमान, सारिका, माधुरी, बहुत बाद में रविवार और सर्वोत्तम। कभी कभार सरिता, मुक्ता और इलस्ट्रेटेड वीकली पत्रिकाओं का साथ होता।
शुकतारा का 1968 का अंक और उसमें प्रकाशित बाटुल दि ग्रेट |
सोवियत संघ और लाइफ देखते आंखें खुलती कि दुनिया हमारी सोच से अधिक रंग-बिरंगी है। सलाह मिलती कि ज्ञानोदय के पुराने अंक मिले तो जरूर पढ़ना। बहुत बाद में बनारस में भेलूपुर से दुर्गाकुंड के रास्ते में दाहिने मुड़कट्टा बाबा और बाएं भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन का आफिस। वहां ज्ञानोदय का श्रेष्ठ संचयन अंक मिल गया। बनारस में चौक पर चित्रा सिनेमा के साथ मोतीलाल बनारसीदास, दूसरी ओर चौखम्बा, कुछ आगे थाने के साथ विश्वविद्यालय प्रकाशन और ढलान पर बढ़ कर नागरी प्रचारिणी सभा। आप ग्राहक नहीं, बस किताबों में रुचि है, इतने पर ही कितनी पूछ-परख हो जाती है, यहीं देखा।
बात कोई पचासेक साल पुरानी है, अकलतरा में स्कूल के दिनों की। घर में हिन्द पाकेट बुक्स की किताबें आती थीं, उनमें कर्नल रंजीत का खास इंतजार रहता था। इब्ने सफी बी.ए., ओमप्रकाश शर्मा और रानू, राजवंश, समीर से लेकर गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत तक किताबें सादुल्ला सर, जगदीश देवांगन जी और मोहसिन भाई से पढ़ने को मिल जाती थीं। मिस्टर ब्लैक की जासूसी और बहराम चोट्टा का नाम सुना और विश लिस्ट में रह गया। इस दौरान की पुस्तक पढ़ना, घटना की तरह याद है उनमें से एक है ‘द सेकंड सेक्स‘। घर में पूछा गया कि ये सब क्या पढ़ते रहते हो। मैंने सहज जवाब दिया, अच्छी किताब है। फिर आगे सवाल-जवाब नहीं हुआ। अंगरेजी में मेरी पढ़ी यह पहली पुस्तक थी। इसी क्रम में मास्टर्स-जॉनसन से भी परिचय हो गया। यह सब हुआ सन 1974 तक। लेकिन स्कूली किताबों से भी रिश्ता बना रहा। बाद में चेईज ने बहुतों को फीका कर दिया। सुरेन्द्र मोहन पाठक को पहले, चेईज-अनुवादक के रूप में ही जाना।
चस्का लगा दर्शन और मनोविज्ञान का। नारमन एल मन, मार्कि्वस वुडवर्थ की हिन्दी अनूदित पुस्तकें मिल गईं, साथ ही ग्रीक दर्शन और भारतीय दर्शन। इस तरह की बात लिखने-बताने वाले ने क्या-क्या पढ़ा होगा, थोड़ी ईर्ष्या, थोड़ी चुनौती, शायद कुछ होड़ सी भी होती और पढ़े हुओं के लिखे को पढ लेने से कुछ काम हलका होगा, भी लगता। ज्ञान की बातें करने वालों का भेद पाने के लिए, मन-बहलाव के लिए, इस तरह भी सोचा जा सकता है, या इस तरह भी कहा जा सकता है। अगल-बगल पढ़ने वालों से नये-नये नाम और पुस्तकों की जानकारी मिलती रहती। किसी किताब की तारीफ मुंह से निकली नहीं कि उस पर दूसरी किताब का नाम आ जाता, कि वो क्या, पढ़ना है तो यह पढ़ो, तब समझ में आएगा। इस बीच कई भागों वाली पुस्तक पहले-पहल हाथ आई चंद्रकांता, संतति, भूतनाथ, रोहतास मठ और प्रेमचंद की मानसरोवर, विविध प्रसंग। आजाद कथा को बहुत दिनों तक प्रेमचंद की कुछ अलग मिजाज की कृति मानता रहा।
यह 1974-75 और 1975-76 वह दौर रहा, जिसमें समझ में आया कि कोर्स की पढ़ाई में कोई दम नही, जो कुछ पढ़ना-जानना है वह तो सब का सब पाठ्यक्रम की पुस्तकों के बाहर है। कुछ समय के लिए कालेज वाली पढ़ाई से नाता टूटा रहा। पढ़ाई की ऐसी समझ और रुचि का स्वाभाविक परिणाम कि दो साल फेल हुआ, लेकिन इससे आत्मविश्वास पर कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि अपने पर पहली बार ऐसा भरोसा हुआ कि मामूली परीक्षाओं में फेल हो जाना असफलता कतई नहीं। दूसरा कोई हो कौन सकता है, जो हमारी परीक्षा ले और पास-फेल तय करे, जैसा। शिक्षा-पद्धति और परीक्षा-प्रणाली पर भी भोगे हुए यथार्थ वाले चिंतन की परिस्थितियां बनीं। यह अकलतरा-बिलासपुर का दौर था।
फिर रायपुर आ कर कोर्स की किताबों से भी लगाव होने लगा। धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि कला-मानविकी की पढ़ाई में समाज विज्ञान की समझ भी है। वरना स्कूल की पढ़ाई तक मानते थे कि गणित यानि इंजीनियर, विज्ञान तो डाक्टर, कला तो मास्टरी या पटवारी बनेंगे, कामर्स तो है ही वाणिज्य-व्यापार। रामनाथ-केदारनाथ और विमलचन्द्र पांडेय वाली पुस्तकें मिलीं। रायपुर में विवेकानंद आश्रम की लाइब्रेरी में हरि द्विवेदी जी और संस्कृत कालेज में छवि चटर्जी मैडम की उदारता रही। पुस्तक प्रतिष्ठान के ठाकुर साहब और काफी हाउस वाली बिल्डिंग में रायपुर बुक डिपो वाले दुबे जी, कड़क दुकानदार, लेकिन ग्राहक से अधिक ध्यान पुस्तक-प्रेमी पर देते थे। फिर पुराना बस स्टैंड पर रामचंद्र बुक स्टाल के हरीश और मुकुंद भाई। हम दुकान पर खड़े खड़े, पत्रिकाएं पढ़ जाते, कभी-कभी किश्तों में पूरी किताब, मुफ्त। वे जानते, लेकिन कभी मना नहीं किया उल्टे बाखबरी, कि किस पत्रिका में छत्तीसगढ़ के किस साहित्यकार की या रुचि की कोई रचना छपी है, पुस्तक आई है।
डिग्री के लिए डगमग, मगर पटरी पर आती पढ़ाई से साबित करने का मौका मिला कि जो मेरा नाम जोकर कर सकता है, उसके लिए बाॅबी में क्या रखा है। ऐसा मेरे साथ किस तरह, यह कुछ आगे। पढ़ाई की गति और अनुपात में खास फर्क नहीं आया लेकिन अब परीक्षा खेल के नियम कुछ-कुछ समझने लगा। स्नातकोत्तर की पढ़ाई के पहले साल परीक्षा में अंक अच्छे आए, कोर्स की पढ़ाई शायद वैसी नहीं की थी, लेकिन परीक्षा, लिखना, नंबर पाने का तरीका, कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। एम.ए. फाइनल की परीक्षा, परचों के बीच हफ्ते-हफ्ते का गैप होता। इन्हीं गैप में इस पार या उस पार वाला प्रयोग करने का मन बन गया। गैप में एक-एक किताबें पढ़ीं, चांद का मुंह टेढ़ा है, कुरु कुरु स्वाहा और प्लेग। प्लेग पढ़ते हुए अवसाद ऐसा गहराता कि किताब बंद कर, गहरी सांस लेना होता या उठ कर थोड़ी चहलकदमी, लेकिन मन किताब में ही अटका रहता और वापस पेज खोल लेता। परीक्षा का परिणाम आया प्रावीण्य सूवी में पहला स्थान, स्वर्ण पदक।
सन 1984 में शासकीय सेवा में आने के बाद अपने पद के अनुरूप जानकार होने का दबाव खुद ले लिया। इसलिए कालेज के छह वर्षों में जितना प्राचीन इतिहास, कला, पुरातत्व नहीं पढ़ा था, पहले-दूसरे साल में पढ़ा। मिराशी, बैनर्जिया, गोपीनाथ राव, बाशम, नेहरू, गुणाकर मुले, परमेश्वरी लाल गुप्त, सांकलिया, कुमारस्वामी, वासुदेव शरण अग्रवाल, ढाकी, कृष्णदेव, लोचन प्रसाद पांडेय, काणे, कीथ, मैक्डानल, मैक्समूलर, मानियर विलियम्स, कावेल, कनिंघम, क्रैमरिश, पर्सी ब्राउन, बालचंद जैन, आर सी मजूमदार, चाटुर्ज्या, श्यामाचरण दुबे, टैगोर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रकाशन, अपने विभाग के प्रकाशन और जर्नल्स आदि आदि और इसके साथ स्थानीय इतिहास, परंपरा से संबंधित, जो कुछ भी मिल जाए।
कुछ और यादें। अमेरिकन इंस्टीट्यूट, रामनगर, बनारस लाइब्रेरी के यादव जी। भोपाल, प्राच्य निकेतन की पंडित मैडम और बुक्स वर्ल्ड के जैन साहब। रविशंकर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी और वहां सेनगुप्ता जी से अब तक सहयोग मिल जाता है। संस्कृति विभाग के महंत सर्वेश्वरदास ग्रंथालय में सबसे यादगार मूलचंद यादव और अब तिग्गा जी, नीलिमा, टल्लू। बिलासपुर में पीयूष और नरेन्द्र भाई का श्री बुक डिपो और मॉल तो मेरे लिए लाइब्रेरी जैसा ही है।
शास्त्रों के साथ भारतेन्दु, गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, विद्यानिवास मिश्र, भगवान सिंह, राधावल्लभ त्रिपाठी, देथा, रेणु, मनोहर श्याम जोशी, मुक्तिबोध, विनोद कुमार शुक्ल, वैद, निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश जैसे नामों की छोटी सी सूची है, जो पढ़ूं न पढ़ूं, चाहता हूं कि आसपास साथ बने रहें। 'आप क्या पढ़ें', पर मेरा सुझाव कि कोई शास्त्र, संस्कृत क्लासिक, विदेशी भाषा, अन्य भारतीय भाषा, क्लासिक हिन्दी, समकालीन लेखन का संतुलन-समन्वय बनाए रखें।
मार्क ट्वेन और रस्किन बांड के आसपास रहने वाले मुझ पाठक को एक घोर पढ़ाक समाजवादी बुद्धिजीवी भाई साहब ने डेलरिम्पल की 'सिटी आफ जिन्'स पढ़ने को दे दी, उनका मन रखने, न कि पढ़ने, ले आया। ठीक से खोला भी नहीं। कुछ दिन बाद लगा कि पूछेंगे, जवाब देने लायक उलट-पलट लूं। शुरू करने के बाद जब तक किताब पूरी नहीं हुई, मन इसी में लगा रहा। पढ़ कर जो दिल्ली समझा, उससे अधिक यह समझ में आया कि डेलरिम्पल ने भारत और भारतीय सोच को जिस तरह आत्मसात किया है वह दुर्लभ है। यह भी कि सच्ची शोध-रुचि हो तो न तथ्यों-दस्तावेजों की कमी होती, न रोचक व्याख्या की। (दूसरी, सिटी आफ जाय ‘आनंद नगर‘, जिसके घबरा देने वाले लिजलिजेपन से उबर नहीं सकते और न ही पुस्तक को नापसंद कर सकते।)
भाई साहब से मुलाकात हुई, किताब का जिक्र आने पर उन्होंने कहा कि वह तुम्हें पसंद आई हो तो रख लो, तुम्हारे पास रहनी चाहिए। (इसी तरह कभी जिक्र हुआ कि मुझे नरोन्हा जी की A Tale Told By An Idiot बहुत पसंद है, अपने संग्रह में रखना चाहता हूं, मिल नहीं रही है। भाई शिवाकांत बाजपेयी तब भोपाल में थे, यह पता लगते ही पुस्तक खरीद कर उपहारस्वरूप भेज दी। बाद में इसका हिन्दी अनुवाद ‘एक अनाड़ी की कही कहानी भी मिल गई।) फिर वे गंभीरता से कहने लगे, कभी ऐसा नहीं लगता कि पढ़ने को बहुत महिमा-मंडित किया जाता है, थोड़ी कामचोरी और आरामतलबी के बावजूद सम्मान रहे ...? इस पर सोचते हुए बार-बार लगा कि लालसा ही तो है पढ़ना, पढ़ते रहना, पढ़ा हुआ बनना।
किताब की दुकानों पर, लाइब्रेरी में और इस बहाने न पढ़ रहे हों तो भी यादों में, किताबों के साथ बने रहने का सुख, बस। ‘माघे मेघे गतं वयः, अब कभी इसका मोह भी छूटता-सा जान पड़ता है तो अचानक आकर्षण की हिलोर भी। सूचना-जानकारी बनाम समझ-बूझ, अपरा-वैखरी-मध्यमा बनाम पश्यंती-परा। सब कुछ ढाई आखर में बदल जाए, अन्यथा निरर्थक। पुस्तकें, जो बहुत पसंद थी, याद रह गई, और जो इससे भी ज्यादा पसंद थी, शायद वह रच-पच गई।