एक कहानी पढ़ी मैंने, छोटी सी। बात बस इतनी कि कहानी का नायक सरकारी मुलाजिम, जो वस्तुतः बस केन्द्रीय पात्र है, के शादी की पचीसवीं वर्षगांठ है। कार्यालय में इस पर बात होती है, लेकिन वह चाय-पानी में बिना शामिल घर लौट आता है, घर में भी अनायास माहौल पाता है, यहां शामिल न रह कर भी शामिल है, बस। कहानी में लगभग कोई घटना नहीं है। घटनाहीन भी कोई कहानी होती है? बहरहाल, इतनी सी बात संक्षेप में ही कही गई है। अब ऐसी मजेदार, या कहें त्रासद-हास्य या हास्यास्पद-त्रास, कहानी को पढ़कर, स्वाभाविक ही लगा कि इसे औरों से भी बांट लिया जाए।
मैंने यही कहानी कईयों को सुनाने की कोशिश की। इसे सुनने में वे रुचि लें इसलिए पढ़ना शुरु करने के पहले बताता कि यह जो कहानी आप सुनने वाले हैं, उसमें कैसे बमुश्किल चार लाइन की बात को लेखक कहता गया है, एक दिन और वह भी शाम पांच पच्चीस से रात दसेक बजे तक कुछ घंटों का अहवाल, इसी तरह सपाट सी कहानी को 15 पृष्ठों में और पाठक कैसे उसमें रमा रह जाता है कि बस सफे-सतर।
किस तरह एक बुजुर्ग नौकरीपेशा, शाम को अपने आफिस से घर लौटने को है। छुट्टी का समय होने की बात, आफिस की दीवार घड़ी से उनकी कलाई घड़ी पर आ जाती है, जिसके पुरानेपन की बात पर से यह पता चल जाता है कि यह आज के ही दिन उन्हें मिली थी, और यह कि आज उनकी शादी की पचीसवीं वर्षगांठ है, वे आफिस के साथियों की चाय-पानी की फरमाइश तो पूरी कर देते हैं, लेकिन खुद साथ देने नहीं रुकते, नियम-अनुशासन के पक्के। परम्परा के संवाहक। अपने वरिष्ठ को मन ही मन याद करते, प्रेरणा लेते, उनका अनुकरण कर अपनी जीवन नैया के हिचकोलों को कम करते, भवसागर पार करने वाले।
आफिस से निकल कर बिड़ला मंदिर में थिर कदम, भटकते मन और कान में गीता प्रवचन। घर का रास्ता अभी तय होने के बीच सब्जी मंडी है, लेकिन आठ बजने को हैं, बस अब घर। दरवाजे पर चौंकाने वाली सजावट, झालर और रोशनी। घर में भी माहौल है। पार्टी, रिश्तेदार, बच्चे, बच्चों के दोस्त। केक, कोल्ड ड्रिंक्स से ले कर व्हिस्की तक। समहाउ, इम्प्रापर बट एनीहाउ। उन्हें शामिल होना पड़ा है, अनमने। सब लौट जाते हैं। बच्चों की जिद, पाजामा-कुर्ता पर गिफ्ट में आया गाउन पहनाया जाता है, बस। जिस जिंदगी में ऑफिस और घर ही हो, उसमें मंदिर और सब्जी मंडी से अधिक की गुंजाइश भी कहां।
लेकिन अपनी इस पसंदीदा कहानी को पढ़ कर सुनाने की बात कुछ बन नहीं पाई। तो आजमाने की सोची, और कोई न मिले तो घर-परिवार की साहित्यिक रुचि में अभिवृद्धि का फर्ज पूरा करना क्या बुरा। हाथ में पुस्तक और घरु श्रोता। थोड़ी भूमिका और कहानी शुरु। दो पेज, तीन पेज, चार, पांच..., अटकते-बढ़ते बात यहां तक आ गई कि... हामी के साथ वाहवाहियों की टिप्पणी आती रही, लेकिन साथ ही अब बारी-बारी से किसी को कोई बात, कोई काम याद आने लगा, बुलावा होने लगा। श्रोता, कोरम में अधूरे रह जाने से बुकमार्क लग गया, जो लगा रहा।
इस बीच बराबर अवसर की तलाश रही, लेकिन बात न बननी थी, तो नहीं बनी। तो कोरम की परवाह बगैर मैंने किताब हाथ में लेकर, बुकमार्क खिसकाते, बात का सिरा पकड़ा, जो कहानी उस दिन अधूरी रह गई, अब आगे बढ़ते हैं। सवाल आया, उस दिन वाली कहानी? वह कहानी तो उसी दिन पूरी हो गई थी। श्रोताओं के लिए पूरी हो गई इस अधूरी कहानी को साबित न कर सका कि कहानी पूरी क्या, तब तो आधी भी नहीं हुई थी।
सोने से पहले मन में सवाल अटक गया कि क्या कहानी मुझे पसंद है, औरों को नहीं, लोग सुनना नहीं चाहते या मेरी ओर से कहानी की बात ही बेसमय होती रही। लोगों ने जितना सुना, वह कहानी सुनने में लगे समय की सीमा थी या मेरे लिहाज की। विकल मन से रात गुजरी, ब्रह्म मुहूर्त में बात बनी कि कहानी घटनाहीन हो तो वह न कभी अधूरी होती है, न कभी पूरी या कहें वह हमेशा पूरी होती है और अधूरी भी। उर्फ ये जो है जिंदगी। अब कोई सुनने वाला नहीं और न ही सुना कर पूरा करने की चाह। फिर भी कहानी की कहानी, आधी-अधूरी, जैसे बन पड़े, सुनाना न हो सके तो यहां लिख कर ही सही।
हां! मनोहर श्याम जोशी की इस कहानी का शीर्षक है, ‘सिल्वर वेडिंग‘। और कहानी के नायक हैं सेक्शन ऑफिसर वाई.डी. (यशोधर) पंत। इन यशोधर बाबू को कहानी के आखिर में पाजामा-कुर्ता पर गिफ्ट में आया गाउन पहनाया गया है, सोचता हूं कि मैं उन्हें कभी विनोद कुमार शुक्ल वाले ‘नौकर- संतू बाबू की कमीज‘ पहना कर देखूं, कितनी फिट आती है।
मर्म की बात, कहानी हो घटनारहित, बस हिलोरे लेते, परतदार, न कहीं शुरू न कहीं खत्म। तो कहानी का एप्रीसिएशन भी क्यों न हो इसी जैसा, तरंगों की तरह। केन्द्र के चारों ओर का वृत्त, उससे बड़ा, फिर बड़ा, और बड़ा, वृहत्तर कि केन्द्र से मुक्त हो कर दूसरी तरंगों में घुल-मिल जाए। अनादि, अनंत ...