लिखना-पढ़ना तो सीख ही लिया था काम भर, लेकिन जिन गुरुओं से संदेह, सवाल और जिज्ञासा के स्वभाव को बल मिला, सिखाया, उनमें आप भी हैं। इस भूमिका पर कहना यह है कि ज्ञानपीठ से प्रकाशित परितोष चक्रवर्ती की ''हिन्दी'' पुस्तक 'प्रिंट लाइन' के फ्लैप पर नाम देखा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र। आपकी समझ पर कैसे संदेह कर सकता हूं, लेकिन आपके माध्यम से पढ़ने की जो थोड़ी समझ बनी थी, उस पर संदेह हुआ, बावजूद कि यह आपकी नसीहतों पर भी संदेह माना जा सकता है।
आजकल पढ़ना संभल कर और चुन कर ही करता हूं। आपका नाम देख कर किताब पढ़ना शुरू किया। पूरी पुस्तक पढ़ने में लगभग एक घंटे समय लगा, जबकि इतनी मोटी ठीक-ठाक किताब के लिए मुझे आम तौर पर छः-सात घंटे तो लगते ही और कोई अधिक गंभीर किस्म का काम हो तो इससे भी ज्यादा, खैर। किताब पढ़ कर मेरी जो राय बनी उसे जांचने के लिए दुबारा-तिबारा फ्लैप पढ़ा। ध्यान गया कि इसे आपने 'एकरैखिक', 'इकहरेपन' और 'काला सफेद के बीच के रंग' वाला कहा है। आपके इन शब्दों का प्रयोग, जैसा मैं समझ पा रहा हूं, वही है तो मेरे सारे संदेह दूर हो जाते हैं।
आत्म-साक्ष्य पर रचा गया यह उपन्यास, आत्मग्रस्तता के सेरेब्रल अटैक से कोमा में पड़े अमर का एकालाप बन गया है। नायक अमर व्यवस्था और परिस्थिति को दोष देते हुए आत्म-मुग्ध है, उसके नजरिए में तटस्थता का नितांत अभाव है। अमर उनमें से है जो चाहते हैं कि समाज उन पर भरोसा करे, लेकिन जिन्हें खुद के करम का भरोसा नहीं। जिसे खूंटे बदलते रहना हो, ठहर कर काम न करना हो, अपने संकल्पों को मुकाम तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता न हो, उसके लिए क्रांति के नारे बुलंद करते रहना आसान और उसका बखान और भी आसान होता है। नायक की पत्रकारिता ऐसी क्रांति है, जो अन्य करें तो शाम के अखबार की सनसनी या सत्यकथा, मनोहर कहानियां। यह भी हास्यास्पद है कि अमर की पत्रकारिता में जिन और जैसे रोमांच का बखान है, वह इन दिनों टेबुलायड पत्रकारिता में नये लड़के रोज कर रहे हैं।
पेन से लिखे और हाथों-हाथ सौंपे पत्र की प्रति |
यह चुके हुए ऐसे नायक की कहानी बन पड़ी है, जिसके जीवन का क्लाइमेक्स शराब और शबाब ही है। पत्रकार अमर की कलम औरों के सान पर घिस कर नुकीली होती है और यह लेखन किसी कलम के सिपाही का नहीं, वाणीवीर (जबान बहादुर) का लगता है, क्योंकि यहां जो सरसरी और उथलापन है, वह डिक्टेशन से आया लगा (अज्ञेय जी के लेखन में कसावट और नागर जी की किस्सागोई का वक्तव्य)। इस उपन्यास के साथ अगर सचमुच लेखक और अमर का कुछ 'आत्मगाथा या आत्मसाक्ष्य' जैसा रिश्ता है फिर तो परितोष जी के बारे में अब मुझे अपनी धारणा के बदले आम तौर पर उनके बारे में लोगों की राय विश्वसनीय लगने लगी है।
आपका नाम होने के कारण ही प्रतिक्रिया लिख रहा हूं। बाजार में लगभग महीने भर से बिकती पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण पा कर आश्चर्य हुआ था। विमोचन में छीछालेदर, परन्तु मुख्यमंत्रीजी का शालीन जवाब... क्या कहूं, सब आपके सामने घटित हुआ। आम आदमी भी आचरण के इस छद्म को देखता समझ लेता है। हां, किताब में अधिकतर निजी किस्म की चर्चाएं, पढ़ने-लिखने वालों का जिक्र है, सो किताब बिकेगी, इसलिए इसे बिकाऊ (बिकने योग्य/उपयुक्त) साहित्य कहा जा सकता है, बाजार में सफलता की कसौटी के अनुकूल। फ्लैप पर आपके नाम के बावजूद इस लेखन के साथ परितोष जी और ज्ञानपीठ के नाम पर जिज्ञासा, सवाल और संदेह बना हुआ है। निजी तौर पर मेरी शुभकामनाओं के अधिकारी परितोष जी रहे हैं, इस सब के बावजूद भी हैं।
राहुल सिंह
वैसे तो यह मेरी निजी प्रतिक्रिया है, राजेन्द्र मिश्र सर के प्रति, लगा कि पुस्तक पर एक पाठक की टिप्पणी भी है यह, इसलिए यहां सार्वजनिक किया है।