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Monday, May 30, 2011

मगर

कहावत है- 'दोनों हाथों से ताली बजती है' या 'एक हाथ से ताली नहीं बजती', मगर ... मगर-अगर, किंतु-परंतु, लेकिन, बल्कि, जबकि, तो, इसलिए, गोयाकि, चुनांचे कुछ नहीं, सीधी-सादी बात, जिसका एक सिरा इसी कहावत में है। आमतौर पर यह 'द्वेष' के संदर्भ में कहा जाता है, आशय होता है कि लड़ाई-झगड़े के लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार होते हैं और इसी तरह यह 'राग' के लिए भी प्रयुक्‍त होता है। यानि कहावत बैर-प्रीत दोनों के मामलों में फिट और संबंध सिर्फ कर्ता-दृष्टा या मंच-कलाकार जैसा नहीं, बल्कि जहां दोनों पक्षों की सक्रिय भूमिका हो।

नागपुर-हावड़ा रेल लाइन पर सफर करते हुए बिलासपुर जंक्शन के बाद बमुश्किल पंद्रह मिनट बीतते बाईं ओर दलहा पहाड़, लीलागर नदी का पुल, मिट्टी के परकोटे वाला खाई (प्राकार-परिखा) युक्त गढ़-बस्ती-कोटमी सुनार स्टेशन, जयरामनगर के बाद और अकलतरा से पहले है। आपको भान नहीं होगा कि आप मगरमच्छ संरक्षण परियोजना के अनूठे केन्द्र से हो कर गुजर रहे हैं। लंबी दूरी की मेल-एक्सप्रेस गाड़ियां यहां रूकती भी नहीं, अभी आगे बढ़ जाइये। फिलहाल यह कुछ तस्‍वीरों में देख सकते हैं।
ताली बजने को थी कि मगर बीच में आ गया। छत्तीसगढ़ में कहा जाता है- 'चले मुंह ...' बातूनी और मुंहफट अपनी जबान पर काबू नहीं रख पाता, लेकिन जो फिसलती न चले वो जबान क्या, वह तो रिकार्डेड आवाज हुई। खैर! यहां मामला जरा अलग, बतरस का है-

कोई 45 साल पुरानी बात है। उत्तरप्रदेश, बस्ती जिले का निवासी 25 वर्षीय युवा, गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बजाय घर-बार छोड़कर, बरास्ते हनुमानगढ़ी, अयोध्या इस गांव कोटमी आया और तब से वह यानि सीतारामदास वैष्णव 'बाबाजी', जोगिया तालाब के किनारे रामजानकी मठ में सेवा कर रहे हैं। 'जात न पूछो साधु की', लेकिन मैं दुनियादार पूछ ही लेता हूं- 'कौन जमात, कौन अखाड़ा, कौन गुरू। सिलसिला आगे बढ़ता है। माया जगत है, बाल-ब्रह्मचारी बाबाजी ने एक अलग गृहस्थी बना ली, जिसमें अगर-मगर नहीं सचमुच के मगर(मच्छ) रहे हैं।
कोटमी में मगरमच्छ शाश्वत हैं, यानि कब से हैं, कहां से और क्यों-कैसे आ गए, इसका इतिहास क्या है, अब लोगों की स्मृति में कालक्रम अतिक्रमित करते हुए समष्टि चेतना का हिस्सा बनकर थे, हैं और रहेंगे हो गया है। अनुमान होता है कि मगरमच्छ, लीलागर नदी के रास्ते कभी आए होंगे और तालाब बहुल इस गांव को अनुकूल पाकर इसे पक्का डेरा बना लिया। यह भी माना जाता है कि यहां छत्‍तीसगढ़ के विशिष्‍ट, मिट्टी के परकोटे वाले प्राचीन किले (गढ़) के चारों ओर की खाइयों में कभी सुरक्षा के लिए जहरीले और खतरनाक जीव-जंतुओं के साथ मगरमच्छ भी छोड़े गए। किला-गढ़ का वैभव तो राजाओं की पीढि़यों की तरह चुक गया, लेकिन मगरमच्छ, पुश्‍त-दर-पुश्‍त, खइया के अलावा बंधवा तालाब, मुड़ा तालाब, जोगिया तालाब सहित अन्य तालाबों में बसर करते, फलते-फूलते रहे।

इस तरह न जाने कब आए मगरमच्छ और अब आए सीतारामदास वैष्णव 'बाबाजी'। रामजानकी मठ-मंदिर की सेवा के साथ के बाबाजी मगरमच्छों का ख्‍याल रखने लगे और मंदिर के सामने का जोगिया तालाब हैचरी बन गया। कोटमी के लोगों की बातों पर यकायक भरोसा नहीं होता। गांव वाले बताते हैं- गरमी में रात पहर रहते ही 'खातू पालने' के लिए गाड़ा फांदा जाता। पानी कम हो जाने के कारण यही समय होता जब मगरमच्छ एक तालाब से दूसरे तालाब जाते होते। गाड़ा के रास्ते में मगरमच्छ आ जाता तो दो गड़हा मिलकर उसे बगल में ले कर उठाते और गाड़ा में डाल कर तालाब तक पहुंचाते फिर किनारे पर घिसला देते। मगरमच्छ धीरे से सरक कर तालाब में उतर जाता।

गांव के आम लोग मगरमच्छ जानकार हैं ही लेकिन बाबाजी तो विशेषज्ञ के साथ-साथ मगरमच्छ सेवक, पालक, अभिभावक भी हैं। वे बताते हैं कि चैत-बैसाख अंडा देने का समय है। मगरमच्छ, तालाब के किनारे दो फुट या अधिक गड्ढा खोद कर उसमें अंडा देते हैं। अंडे सेते हुए दो-तीन हफ्ते वे कुछ नहीं खाते। दो माह बीतते-बीतते जेठ-आषाढ़ में बरसाती गर्जना से अंडे दरकते हैं और गिरगिट आकार के बच्चे निकल आते हैं। ये बच्चे मिट्‌टी खाकर रहते हैं। बाबाजी बताते हैं- एक मगरमच्छ दूसरे के बच्चों को भी खा जाता है। बाबाजी, लंबे समय तक स्वयं तय की जिम्मेदारी का पालन करते हुए जोगिया तालाब की अपनी हैचरी में मगरमच्छ के बच्चे पाल कर, बड़ा कर, तालाबों में छोड़ते रहे हैं। बाबाजी के अनुसार इनका मुख्‍य आहार मछली है, जिसे सीधे निगलकर, कछुए को उछालते-लपकते, अन्य भोज्य को नोच-नोच कर या कीचड़ में दबा कर, सड़ना शुरू होने पर खाते हैं।

आज परियोजना वाले मुड़ा तालाब में ज्यादातर, कर्रा नाला बांध में 5-7 और इक्का-दुक्का अन्य तालाबों में मिला कर 150 से अधिक मगरमच्छ हैं। उल्लेखनीय यह कि इनमें शायद एक भी ऐसा नहीं जिसे बाबाजी ने दुलराया-सहलाया न हो।

कोटमी में मानव-मगरमच्छ सहजीवन की अनूठी मिसाल है। पिछले चालीसेक साल में कुछ दुर्घटनाएं हुई हैं, जिनमें अब तक दो-तीन जानें गई और दो अपंग हुए हैं। एक घटना 1 अप्रैल 2006 को शाम चार बजे बाबाजी के साथ घटी। जोगिया तालाब के किनारे मगरमच्छ अंडे से रहा था, कुछ बच्चे वहां आए और उसे छेड़ने लगे। बच्चों को डांट कर भगाने के लिए बाबाजी बाहर निकले और बेख्‍याली में मगरमच्छ की जद में आ गए। मगरमच्छ, उनका बायां हाथ दबोच कर, खींचते हुए पानी में ले गया। बाबाजी मजे से बताते हैं- अंदर ले जा कर गोल-गोल घुमाते हुए खेलाने लगा और तली में ले जाकर गड्‌ढा खोदना शुरू कर दिया। लगा कि गड़ा देगा। उन्हें बस गज-ग्राह के नारायण याद आए। शायद तभी, बच्चे फिर अंडों की जगह की ओर बढ़े और मगरमच्छ, बाबाजी को छोड़कर बच्चों की ओर लपका। समरस बाबाजी हंसकर बताते हैं कि वे झिंझोड़ा-लटकता अपना हाथ, दाहिने हाथ में पकड़े, रामजी की कृपा से बाहर निकल आए। बच गया तो लगा कि अभी और सेवा करनी है, भगवान की, मगरमच्छों की।

बाबाजी कहते हैं- सरकारी मदद मिली, इलाज हुआ, मैंने डॉक्टर से कहा हाथ काम का नहीं रहा, जहर फैल जाएगा, काट दीजिए। शरीर तो नश्‍वर है। सरकार ने और दो-दो हाथ बनवा दिए, लेकिन नकली है, बोझा लगता है। मैंने कहा कि हाथ कटा के आप तो चतुर्भुजी बन गए, वे ठठाकर हंसते हैं और बात का मजा लेते, मेरा इरादा भांपते हुए कहते हैं, फोटो खींच लीजिए और जोगिया तालाब के किनारे ठीक वहीं चतुर्भुजी बन कर खड़े हो जाते हैं, जहां मगरमच्‍छ ने उन्‍हें दबोचा था। सोच रहा हूं, तस्‍वीर में अहिंसा के पुजारी का निष्‍काम कर्मयोग कैसे दिख पाए। बाबाजी निरपेक्ष, पूछते हैं अब हाथ टांग दूं वापस झोले में।
पिछले दो साल में छः-सात लोग सरकार की ओर से चेन्नई जा कर मगरमच्छ का प्रशिक्षण ले कर आए हैं। एक मगरमच्छ का इलाज कराना था। प्रशिक्षित, हिम्मत नहीं जुटा पाए तो बाबाजी की टीम काम आई।

बाबाजी के हांक लगाने पर मगरमच्छ तालाब से बाहर आ जाते हैं, लेकिन सुस्त-बीमार जीव को मुड़ा तालाब में पानी के अंदर जा कर निकालना पड़ा, जिसे इलाज के बाद फिर छोड़ा गया। बाबाजी कहते हैं कि मगरमच्छ समझदार जीव है और इसकी आंख ढंक दी जाए फिर उस पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। पूछने पर कि प्रशिक्षितों ने नया क्या सीखा, बाबाजी हंसकर कहते हैं वे लोग तो ठीक से बताते नहीं, लेकिन लगता है कि मगरमच्छ से डरना सीख कर आए हैं।

बाबाजी का मगरमच्‍छ प्रेम पूर्ववत बना हुआ है अब उनके लिए क्या कहें- 'ताली दोनों हाथों से बजती है' या 'एक हाथ से भी ताली बजती है', खूब बज रही है।

जांजगीर जिला के कोटमी सोनार में 86 एकड़ रकबा वाले मुड़ा तालाब को ही क्रोकोडायल पार्क (मगरमच्‍छ संरक्षण आरक्षिति) विकसित किया गया है।
यह अपने किस्म की देश की पहली परियोजना बताई जाती है। यहां लगातार पर्यटक आते रहते हैं। छुट्टी के दिनों में यह संख्‍या हजार तक पहुंच जाती है, जिनमें विदेशी भी होते हैं।
इस मगरमच्छ संरक्षण परियोजना का शिलान्यास 09 मई 2006 को छत्तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्रीजी और लोकार्पण 23 अगस्त 2008 को वनमंत्रीजी (के करकमलों) की गरिमामय उपस्थिति में हुआ, अंकित है। लेकिन इसमें शायद बाबाजी का हाथ भी है, जो नहीं है।

Wednesday, May 25, 2011

अस्मिता की राजनीति

गौरवशाली वैभव जब छीजने लगता है और मुट्ठी की रेत की तरह उसे रोक पाने का प्रयास सफल नहीं होता तब इतिहास-संस्कृति के अभिलेखन का आग्रह भी तीव्र होने लगता है और इसी तरह का भाव संभावित गौरवशाली भविष्य के लिए भी होता है। माना यह जाता है और देखा भी गया है कि ऐसे अवसरों पर तैयार किया गया सांस्कृतिक-इतिहास तटस्थ नहीं होता लेकिन मात्र इसी आधार पर किसी ऐसे काम के महत्व को कमतर नहीं आंका जा सकता।
प्रोफेसर हीरालाल शुक्‍ल की पुस्‍तक क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य पर हो रहे फुटकर लेखन के साथ, इस विषय पर पहली स्वतंत्र पुस्तक प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल की 'क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति' पिछले दिनों आई है। पृथक छत्तीसगढ़ की गतिविधियों में प्रो. शुक्ल की सक्रिय भागीदारी रही है। बघेलखण्डी प्रो. शुक्ल फिलहाल भोपाल निवासी हैं, किन्तु उनकी सर्वाधिक सक्रिय अवस्था छत्तीसगढ़, विशेषकर बस्तर में गुजरी है, इसलिए वे मन से छत्तीसगढ़िया ही हैं, यह न सिर्फ पुस्तक में बारम्बार झलकता है, बल्कि इस लेखन के पीछे भी उनका छत्तीसगढ़िया मन ही प्रेरक जान पड़ता है।

लेखक स्वयं के शोध-अध्ययन का क्षेत्र मूलतः भाषाविज्ञान के मार्फत सामाजिक मानवशास्त्र रहा है, तो उन्होंने छत्तीसगढ़ की क्षेत्रीय अस्मिता को भी मुख्‍यतः इसी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है। कुल 161 पृष्ठों की पुस्तक में 108 पृष्ठ, मौखिक इतिहास और क्षेत्रीय अस्मिता के हैं बाकी 35 पृष्ठों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता और क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति का विवेचन है। शेष पृष्ठों में उपसंहार- 'अलविदा मध्यप्रदेश' और परिशिष्ट- 'गोंडवाना के संघर्ष की आत्मकथा' है। पूरी पुस्तक, लेखक की छत्तीसगढ़ में गहरी पैठ और गंभीर अध्ययन का प्रमाण है।

पुस्तक की तैयारी संभवतः जल्दबाजी में की गयी है, इसलिए जानकारियों से ठसाठस इस पुस्तक का स्वरूप पाठ्‌य पुस्तक, वैचारिक निबंध और शोध-लेख में गड्ड-मड्‌ड होता रहता है। विशेषकर आरंभिक अध्यायों में शोध की गहराई है, किन्तु सहायक सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची अथवा स्पष्ट पाद टिप्पणियों का अभाव है। 'छवि छत्तीसगढ़', 'आदिवासी इतिहास के दस खंड', 'छत्तीसगढ़: आत्ममंथन का दौर' और 'कोसलानंद' महाकाव्य की चर्चा अधूरी जान पड़ती है, संभवतः लेखक ने पाठक को इन सभी से सुपरिचित मान लिया है, लेकिन आम पाठक इससे भ्रमित हो सकता है। यही भ्रम और जल्दबाजी प्रकाशक के साथ भी रही होगी, क्योंकि पुस्तक की भूमिका के अनुसार इसमें चार अध्याय हैं, विषय सूची के अनुसार पांच अध्याय और पृष्ठों पर मुद्रित अध्याय शीर्षकों के आधार पर मात्र तीन अध्याय हैं। इसके बावजूद भी लेखक की सूझ और समझ, अंचल के प्रति उसकी नीयत और निष्ठा संदेह से परे है।

छत्तीसगढ़ के गरमा-गरम मुद्दे के साथ लेखक ने भाषाविज्ञानी होने के नाते हाल के वर्षों में पूरी दुनिया में प्रचलित 'जनसामान्य का इतिहास' अथवा 'हाशिये का इतिहास' (उपाश्रयी, सब-आल्टर्न) की कड़ी जोड़ते हुए कहा है- ''इतिहासकार 'संरचना' और 'संप्रेषण' की तकनीकों से इतिहास की गहराई के साथ पहचानें। मौखिक इतिहास की यही संकल्पना है और इसी सांचे के आधार पर असाक्षर समाज का इतिहास भविष्य में प्रस्तुत हो सकेगा।'' लेकिन मौखिक इतिहास खंड में लेखक ने बस्तर की हल्बी-भतरी की कुछ पहेलियों की सूची देते हुए ढाई सौ पहेलियों का संकलन प्रकाशित कराया है, उपयुक्त होता यदि अंचल की सभी बोलियों और क्षेत्रों की चार-पांच पहेलियों के उदाहरण से लेखक ने विषय स्पष्ट किया होता।

आरंभिक अध्यायों में भाषाविज्ञान के सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में मौखिक इतिहास के पक्षधर लेखक बाद के अध्यायों में तथ्यों पर जोर देते हुए लिखते हैं- 'ज्ञान का क्षेत्र संशोधन आमंत्रित करता है और परिशुद्ध तथ्यों की परख चाहता है।' और फिर लिखित इतिहास के स्रोत और पुस्तकों-जानकारियों की विशद्‌ चर्चा, लेखक के निजी विचारों के चौखट में की गई है। संभवतः लेखक के निजी सर्वेक्षण के अभाव में छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण भू-भाग सरगुजा छूट गया है, इसलिए जन नेताओं की सूची में गहिरा गुरू और राजमोहिनी देवी जैसे नामों का कोई हवाला पुस्तक में नहीं है। गंभीर विश्लेषक लेखक द्वारा बिना तथ्यों के सुतनुका देवदासी और घोटुलों को रति-संस्कृति के विकास का माध्यम निश्चित कर देना, शोभाजनक नहीं है।

उपसंहार में 'अलविदा मध्यप्रदेश', राजेन्द्र माथुर के उद्धरणों से अत्यंत महत्वपूर्ण और रोचक है। परिशिष्ट 'गोंडवाना के संघर्ष की आत्मकथा' में भी बस्तर का दबदबा और सरगुजा का अभाव है। हीरासिंह मरकाम के उल्लेख में तथ्यों का अभाव खटकता है। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि मुसलमान इतिहासकारों द्वारा किये गये नामकरण 'गोंडवाना' पर लगभग 70 वर्ष पहले आंचलिक प्रथम मानवशास्त्री डॉ. इंद्रजीत सिंह ने विश्वसनीय और अधिकृत सर्वेक्षण-अध्ययन विस्तार से किया था, जो सन्‌ 1944 में 'द गोंडवाना एण्ड द गोंड्‌स' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ, वस्तुतः पूरे छत्तीसगढ़ के भौगोलिक परिवेश में जनजातीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को प्रकाशित करने का यही प्रथम गंभीर तथ्यात्मक प्रयास था, जो बाद में गोंडवाना और फिर छत्तीसगढ़ की अस्मिता तलाश के वर्तमान छटपटाहट की पृष्ठभूमि बना।

राजनीति पर लिखी गई यह पुस्तक, गनीमत है कि दलगत राजनीति से बिल्कुल प्रभावित नहीं है। वैचारिक राजनीति की दृष्टि से न सिर्फ पुस्तक का आवरण, बल्कि पूरी पुस्तक का तेवर भी लाल है। 'विरोध', 'विपर्यास', 'विद्रोह', और 'संघर्ष' पर पूरे विस्तार से विचार किया गया है, किन्तु प्रतीकात्मक विरोध के माध्यम से संस्कृति की सोपानिक संरचना को समझने का प्रबल आग्रही लेखक, 'मितानी' प्रथा में समरसता और समन्वय को भी माध्यम बनाने को मजबूर हुआ है। पुस्तक को दलगत राजनीति से बचाये रख सकने में लेखक की सफलता प्रशंसनीय इसलिए भी है, क्योंकि राजधानी- भोपाल के सत्ता के गलियारों में वे 'दाऊ के सर' (मंत्री डॉ. चरणदास महंत के शोध-निदेशक होने के नाते) के रूप में ख्‍यात हैं और उनकी विद्वता की गहराई से अनभिज्ञ जनसामान्य भी उन्हें, इसी परिचय से जान पाता है।

अनामिका प्रकाशन की छपाई अच्छी है, किंतु पुस्तक का मूल्य 250/- रखा गया है, जिससे लगता है कि पुस्तक का लक्ष्य-वर्ग आम पढ़ा-लिखा छत्तीसगढ़िया नहीं, बल्कि शासकीय विभाग, पुस्तकालय और पुस्तक को सजावट-उपकरण मानने वाला धनाढ्‌य है, कहीं पुस्तक वहीं तक न सिमट कर रह जाय। बहरहाल इन सबके बावजूद पृथक छत्तीसगढ़ पर तथ्यों और जानकारियों से लबालब यह पहली पुस्तक स्वागतेय है।

छत्‍तीसगढ़ राज्‍य गठन के पहले, इस पुस्‍तक के प्रकाशन के तुरंत बाद मेरे द्वारा तैयार की गई यह पुस्तक चर्चा, दैनिक भास्कर, रायपुर में 14 जुलाई 1998 को और इसी आसपास समाचार पत्र नवभारत में भी प्रकाशित हुई। छत्‍तीसगढ़ राज्‍य गठन का दशक बीत गया और लगा कि पुस्‍तक न पढ़ पाए हों, उनके लिए भी पठनीय हो सकता है, अतएव यहां।

Wednesday, May 18, 2011

अजायबघर

18 मई। सन 1977 से इस तिथि पर पूरी दुनिया में संग्रहालय दिवस मनाया जाता है। आज यह दिवस 100 से भी अधिक देशों और 30000 से भी अधिक संग्रहालयों में मनाया जा रहा है। इस वर्ष का विषय है 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी' (Theme - Museum and Memory : Object Tell Your Story)। कुछ स्मृति और पुराना लेखा-जोखा मिलाकर हमने संग्रहालय की ही कहानी बना ली है, जिसमें रायपुर, छत्तीसगढ़ के लिए गौरव-बोध का अवसर भी है।

सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। यह नक्शा आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र जी के संग्रह में है।

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है।


सन 1936 के प्रतिवेदन (The Museums of India by SF Markham and H Hargreaves) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से भी आश्चर्यजनक कम) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है।
अष्‍टकोणीय पुराना संग्रहालय भवन तथा महंत घासीदास
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है (आजाद भारत में पैदा मेरी पीढ़ी को सोच कर कोफ्त होने लगती है)।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
मंजुश्री, सिरपुर, लगभग 8वीं सदी ईसवी
कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, इस वर्ष संग्रहालय दिवस के लिए निर्धारित विषय दुहरा लें - 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी'।

यह पोस्‍ट, नई दिल्‍ली के जनसत्‍ता अखबार में 10 जून 2011 को समांतर स्‍तंभ में 'कहानी ही सही' शीर्षक से प्रकाशित।

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Monday, May 9, 2011

पंडुक

26 अप्रैल 2011, मेरे लिए अब खास तारीख है। अपने पंछी-प्रेम की घोषणा आसान हो सकती है, लेकिन पंछी भी बच्चों की तरह आप पर आसानी से भरोसा नहीं करते। बड़े होते बच्चों को बहला-फुसला सकते हैं, लेकिन चिड़ियों को नहीं। पालतू बन जाने वाले कुछ पक्षियों को छोड़ दें, लेकिन उनमें भी तोते के लिए कहावत है 'सुआ, सुई और ... एक जाति, जान-पहचान के चलते मुरव्वत नहीं करते, बस नजर चूकी और काम हुआ। ... सालिम अली और जिम कार्बेट के चित्र जरूर देखने को मिलते हैं, जिनमें कोई चिड़िया उनके कंधों पर, हाथ में या हैट पर बैठी हो।

आत्म-केन्द्रित इस पोस्ट की संक्षिप्त भूमिका के साथ पृष्ठभूमि कि हफ्ते भर कभी-कभार और दो-तीन दिन लगभग लगातार एक पंडुक (Dove या Streptopelia senegalensis) दिखाई पड़ने लगी। आती, एकदम सजग। अच्‍छी तरह निरखा-परखा। घर में कोई अबोध-उधमी तो नहीं। सांप, चूहे-बिल्‍ली की तो दखल नहीं। हवा-पानी, सरद-गरम, ओट सब मुआफिक, निरापद। पंडुक पर मेरी भी निगाह बनी रही। मैदानी छत्‍तीसगढ़ में यही चिडि़या पंड़की (बघेलखंड से लगे क्षेत्र में पोंड़की) कही जाती है और अपनी जाति की बुढ़ेल, बनइला, छितकुल, चोंहटी और ललपिठवा से अलग पहचानी जाती है।

दसेक दिन बीतते-बीतते, इस यादगार तारीख 26 अप्रैल को सुबह देखा कि पंडुक ने मेरी नियमित बैठकी से सिर्फ 10 फुट दूर रखे गमले में दो अंडे दिए हैं। 28 अप्रैल को शाम से मौसम खराब रहा, वह रात भर नहीं दिखी, 29 अप्रैल को कम दिखी, फिर अनुपस्थित रही, 3 मई को पुनः दिखाई पड़ी, लेकिन यह चिड़िया आकार में कुछ बड़ी जान पड़ती है, नर जोड़ा तो नहीं ? फिर उसने रात बासा किया और 4 मई को सुबह तीसरा अंडा दिखा। 5 मई को चौथा अंडा भी दिखा। 8 मई को उसने एक अंडा अलग हटा दिया, लेकिन मैंने मान लिया कि पंडुक ने मुझे पक्षी-प्रेमी होने का प्रमाण पत्र दे दिया है। नेचर सोसाइटी और बर्ड वाचिंग क्‍लब की सदस्‍यता लेने का दीर्घ लंबित इरादा फिर मुल्‍तवी।

पंडुक आते-जाते अंडे ''से'' रही है, पूरे धैर्य के साथ, लेकिन मेरा काम सिर्फ निगरानी से तो नहीं चलेगा, मुझे पोस्ट भी तो लगाते रहना होता है, फिर आत्मश्लाघा का ऐसा अवसर। खुद को बहलाने की कोशिश की, थोड़ी खोजबीन कर पंडुक पर एक कायदे की पोस्ट बने तब लगाना ठीक होगा। याद कर रहा हूं- ''वो भी क्या दिन थे, जब फाख्‍ते उड़ाया करते थे'' ज्यों ''वे भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब था।'' शायद पंडुक से आसान शिकार कोई नहीं- ''बाप न मारे पेंडुकी (कभी मेंढकी भी), बेटा तीरंदाज'' और ''होश फाख्‍ता हुए'' कह कर, इस पंछी का नाम उड़ने के पर्याय में तो इस्तेमाल होता ही है। ईसाईयों में पवित्र आत्‍मा का प्रतीक और चोंच में जैतून की डंठल लेकर उड़ती चिडि़या, पंडुक ही है। छत्‍तासगढ़ी गीत ''हाय रे मोर पंडकी मैना, तोर कजरेरी नैना, मिरगिन कस रेंगना'' में पंडकी, प्रेम-संबोधन है। पंडुक का मनियारी गोंटी चरना (छोटे, गोल और चिकने मणि-तुल्‍य कंकड़ चुगना), साहित्यिक मान्‍यता नहीं, देखी-जांची हकीकत है।

इस पंछी के कुछ और संदर्भ याद आ रहे हैं। डेनियल लेह्रमैन का कथन- ''हरेक अच्छे प्रयोग को उत्तरों से ज्यादा सवाल खड़े करना चाहिए।'' (Every good experiment has to raise more question than its answers.- Daniel S Lehrman) उद्धृत करता रहा हूं, लेकिन इसी दौरान जान पाया कि यह बात उन्होंने पंडुक के प्रजनन व्यवहार के संदर्भ में ही कही है।

रेणु की परती परिकथा के आरंभ में वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी पंडुकी व्यथा समझती है और वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है- तुर तुत्तू-उ-उ, तू-उ, तु-उ तूः। कुमाऊंनी लोककथा में घुघूती यानि पंडुक ''पुर पुतइ पुरै पुर'' बिसूरती फिरती है। इससे मिलती-जुलती बस्‍तर की भतरी लोककथा में पंडुक रो-रो कर अपने मृत बच्‍चे को जगाती है- 'उठ पुता, उरला-पुरला' और हल्‍बी छेरता गीत की पंक्ति है- 'झीर लिटी, झीर लिटी, पंडकी मारा लिटी।' शायद इन्‍हीं से प्रेरित हैं छत्तीसगढ़ के कवि एकांत श्रीवास्तव की 'पंडुक' कविता-

''जेठ-बैशाख की तपती दोपहरें
........................
पृथ्वी के इस सबसे दुर्गम समय में
वे भूलते नहीं हैं प्यार
और रचते हैं सपने
अंडों में सांस ले रहे पंडुकों के लिए''

परती परिकथा का समापन है- ''पंडुकी नाच-नाच कर पुकार रही है- तुतु-तुत्तु, तुरा तुत्त। ... ... ... आसन्नप्रसवा परती हंसकर करवट लेती है।'' मानों बिसूरती पंडुक अब लाफिंग डॉव है।

खुद को इससे अधिक बहला पाने में असफल, सोचते हुए कि ''अंडों में सांस ले रहे पंडुकों की करवट'' का हाल परिशिष्ट बनाकर बाद में जोड़ा जा सकता है। फिलहाल यही जारी कर रहा हूं, पंडुक के हवाले से, हस्ताक्षरित नहीं चित्राक्षरित, बिना पदमुद्रा के लेकिन प्राधिकारपूर्वक स्वयं से, स्वयं को, स्वयं के लिए टाइप।
  • यों, पंछी-प्रेम के इस प्रमाण-पत्र पर मुझसे अधिक घर के बाकी सदस्यों का अधिकार बनता है, क्योंकि वे ही पूरे समय घर में रहते हैं, लेकिन 'कलम' की ताकत है, सो यह खुद के नाम कर लिया है।
  • गलतफहमी न रहे, खासकर शाकाहारवादियों को स्पष्ट कर दूं कि मैं (घर के अन्‍य सदस्‍यों सहित) सर्वभक्षी नहीं तो 'हार्ड कोर' मांसाहारी अवश्‍य हूं।
  • यह भी कि रायपुर में घरों के इर्द-गिर्द गौरैया के बाद सबसे आम यही चिड़िया, पंडुक दिखाई देती है।
याद करता हूं, नृतत्‍व-मनोविज्ञान में आहार, निद्रा, भय, मैथुन के अलावे मूल प्रवृत्ति के रूप में 'मातृत्‍व' (वात्‍सल्‍य या mother instinct) हाल के वर्षों में मान्‍य-स्‍थापित हुआ है। कल 8 मई 2011 को इस पोस्‍ट (को सेते हुए) की उधेड़-बुन में लगा रह कर, मातृत्‍व-वंचित वर्ग के सदस्‍य के रूप में मातृत्‍व-संपन्‍न नृवंशियों को नमन करते हुए, मातृ-दिवस मनाया।