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Saturday, November 1, 2014

रेरा चिरइ


रेरा चिरइ, रम चूं... चूं... चूं
मोर नरवा तीर बसेरा
रोवत होही गदेला, रम चूं... चूं... चूं
रम चूं... चूं... चूं

सब झन खाइन कांदली
मैं पर गेंव रे फांदली, रम चूं... चूं... चूं
मोला सिकारी उड़ान दे
मोर मुंह के चारा ल जान दे, रम चूं... चूं... चूं

मोर रद्‌दा ल जोहत होही
भुख-पियासे म रोवत होही, रम चूं... चूं... चूं
नई उघरे उंकर रे आंखी
नई जामे हे डेना अउ पांखी, रम चूं... चूं... चूं

बछरू ल गाय पियात हे
ओला देख के सुरता आत हे, रम चूं... चूं... चूं
सुरुज बुड़े बर जात हे
लइकोरहिन लइका खेलात हे, रम चूं... चूं... चूं

सिकारी कहिस रे चिरइया
तंय मोर भूख मिटइया, रम चूं... चूं... चूं
लइका संग हंड़िया उपास हे
तोर काया ले सबके आस हे, रम चूं... चूं... चूं

गरीबी महा दुखदाई
मै काला बतावंव चिराई, रम चूं... चूं... चूं
मैं तोला बेंचे बर जाहूं
बलदा म चाउंर बिसाहूं, रम चूं... चूं... चूं

तोर दुखड़ा ल लइका ल बताहूं
मैं होत बिहाने आहूं, रम चूं... चूं... चूं
फेर मोला बेंच के खा ले
तंय भूख के आगी बुझा ले, रम चूं... चूं... चूं

अंधियार म रेरा भटक गे
गर म कांटा खबस गे, रम चूं... चूं... चूं
भुंइया म गिरे गदेला
रोवत हे माटी के ढेला, रम चूं... चूं... चूं

खोजत सिकारी ह आइस
मरे देख पछताइस, रम चूं... चूं... चूं
गदेला ल छू छू देखय
रेरा ल देख के रोवय, रम चूं... चूं... चूं

नई मारे के खाइस किरिया
मै निच्चट पांपी कोढ़िया, रम चूं... चूं... चूं
अब नांगर बइला बिसाहुं
मै धान कोदो ल जगाहूं, रम चूं... चूं... चूं

अब चहकय रेरा के डेरा
उठावै नांगर के बेरा, रम चूं... चूं... चूं
लइका संग खेलय गदेला
अब नइये कउनो झमेला, रम चूं... चूं... चूं

श्री सनत तिवारी
कैफियत- खरौद के बड़े पुजेरी कहे जाने वाले पं. कपिलनाथ मिश्र का अनूठा काव्यात्‍मक पक्षीकोश ''खुसरा चिरई के ब्याह'' है। छत्तीसगढ़ में पक्षियों पर अन्य रचनाएं भी हैं, इन्हीं में एक लोरीनुमा यह गीत ''रेरा चिरइ'' है। रेरा या सुहेरा छत्तीसगढ़ में बया को कहा जाता है। इस पारंपरिक गीत के कुछ ही शब्द और टूटी-फूटी पंक्तियां मिलती थीं। कभी बातों में बिलासपुर के श्री सनत तिवारी जी ने ''रेरा अउ सिकारी के गोठ'' कविता, पूरे लय और मार्मिकता सहित गा कर सुना दी। मैं चकित रह गया, फिर पंक्तियों को दुहरा कर ध्यान दिया तो संदेह हुआ कि क्या पारंपरिक, पुराना स्वरूप ऐसा ही था। वन-पर्यावरण के प्रति सदैव सजग सनत जी ने सहजता से स्वीकार किया कि गीत कुछ-कुछ ही ध्यान में था, क्योंकि बचपन में दादी-नानी से ''रम चूं... चूं... चूं, रम चूं... चूं... चूं'' बार-बार सुनते नींद आ जाती थी, बाद में अपनी ओर से शब्द और पंक्तियां जोड़ कर यह गीत बनाया है, अब इसे छत्तीसगढ़ी का पारंपरिक गीत कहें या सनत जी की मौलिक रचना, बहरहाल मुझे अत्यंत प्रिय है और सनत जी से सस्वर सुनने का अवसर मिले फिर तो वाह, इसके क्या कहने, एकदम रम चूं... चूं... चूं ... ... ...

इस छत्‍तीसगढ़ी पद्य को पहली बार हिन्‍दी में अनुवाद का प्रयास किया है-

बया चिड़िया कहती है, नाले के पास मेरा बसेरा है, (वहां मेरा) चूजा रो रहा होगा.

सब ने चारा चुगा, (लेकिन) मैं फंदे में पड़ (फंस) गई, शिकारी मुझे उड़ जाने दो, मेरे मुंह के चारा को (ले) जाने दो.

(चूजा) मेरा रास्ता (जोह) देख रहा होगा, भूख-प्यास से रो रहा होगा, (अभी) उसकी आंखें नहीं खुली हैं, पंख-डैने नहीं (उगे) जमे हैं.

बछ्ड़े को गाय (दूध) पिला रही है, उसे देख कर मुझे (अपने बच्चों की) याद आ रही है, सूर्य डूबने जा रहा है, जच्चा बच्चे को बहला रही है.

शिकारी चिड़िया से कहता है, तुम मेरी भूख मिटाने वाली हो, मेरा लड़का हांडी सहित (बिना निवाले के) उपवास है, तुम्हारी काया से (पेट भरने की) सबकी आस है.

गरीबी महा दुखदाई है, मैं किसे बताऊं चिड़िया, मैं तुम्हें बेचने जाऊंगा, बदले में चावल खरीदूंगा.

(‍चिड़िया मोहलत मांगते हुए कहती है) मैं तुम्हारा कष्ट अपने चूजे को बताऊंगी, मैं सुबह होते ही आ जाऊंगी, फिर मुझे बेच कर (चावल) खा लेना, तुम (अपने) भूख की आग बुझा लेना.

(मोहलत पा कर अपने बसेरे के लिए वापस लौटते हुए) अंधेरे में चिड़िया भटक गई, (उसके) गले में कांटा चुभ गया, (उधर) चूजा जमीन पर गिर गया, (वहां अगर कोई रोने को है, तो बस) मिट्टी का धेला रो रहा है.

(चिड़िया के वापस न लौटने पर) शिकारी खोजते हुए आया, (चिड़िया को) मरा देख कर पछताया, चूजे को छू छू कर देखता है, ‍चिड़िया को देख कर रोता है.

(शि‍कारी) शिकार न करने की कसम खाता है, (सोचता है) मैं घोर पापी, आलसी हूं, अब हल-बैल खरीदूंगा, मैं धान-कोदो उपजाऊंगा.

अब बया के घोंसले में चहक (रौनक) है, (शिकारी के) हल उठाने का समय है, चूजा (शि‍कारी के) बच्चे के साथ खेल रहा है, अब कोई झमेला नहीं है.

प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ी में शिकारी और चिडि़या के अन्य कई मार्मिक प्रसंग सुनाए जाते हैं, जैसे- ''तीतुर फंसे घाघर फंसे, तैं का बर (या तूं कइसे) फंस बटेर, मया पिरित के फांस म आंखी ल देहें लड़ेर।'' आशय कि शिकारी ने जाल फैलाया, जाल के छेद इतने बड़े थे कि उसमें तीतर और घाघर फंसे, लेकिन छोटी चिडि़या बटेर को भी फंसी देख कर शिकारी पूछता है कि तुम कैसे फंस गई। बटेर जवाब देती है- तुम्हारे जाल में नहीं, बल्कि (जिनके साथ दाना चुग रही थी, उनका साथ निभाने) ममता-प्रीति के फंदे में फंसी आंखें बंद कर पड़ी हूं। 

छत्तीसगढ़ी लोक मन का  'मा निषाद प्रतिष्ठां...' कम मार्मिक नहीं।