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Sunday, August 25, 2013

हरित-लाल


हरित फलदार पौधा,
पता नहीं लगता
परिवर्तन कि,
नीचे से लाल हुआ जा रहा.

बात कुछ और नहीं
बस मिर्ची 'लगी' है,
गमले में.
'लगती' है तो सुंदर ही.

जोता न बोया,
अपने-आप
फल तैयार,
हलषष्‍ठी सामने है.

Sunday, July 28, 2013

केदारनाथ

यह पिण्ड- धरती, कभी आग का धधकता गोला थी, धीरे-धीरे ठंडी हुई। पृथ्‍वी पर जीवन, मानव और आधुनिक मानव के अस्तित्व में आने तक कई हिम युग बीते, दो-ढाई अरब साल पहले, इसके बाद बार-बार, फिर 25 लाख साल पहले आरंभ हुआ यह दौर, जिसमें हिम युग आगमन की आहट सुनी जाती रही है। ... गंगावतरण की कथा में उसके ''वेग को रोकने के लिए शिव ने अपनी जटाओं में धारण कर, नियंत्रित किया, तब गंगा पृथ्वी पर उतरीं'' केदारनाथ आपदा-2013, कथा-स्मृति या घटना-पुनरावृत्ति तो नहीं ... एक बार फिर बांध के मुद्दे पर बहस है, अब मुख्‍यमंत्री बहुगुणा और पर्यावरणरक्षक बहुगुणा आमने-सामने हैं। निसंदेह पर्यावरण में पेड़, पहाड़, पानी पर आबादी और विकास का दबाव तेजी से बढ़ा है।

आपदा में मरने वालों में 15 मौत की पुष्टि से गिनती शुरू हुई। पखवाड़ा बीतते-बीतते मृतकों का आंकड़ा 1000 पार करने की आशंका व्यक्त की गई। खबरों के अनुसार विधानसभा अध्यक्ष ने मृतकों की संख्‍या 10000, केन्द्रीय गृहमंत्री ने 900, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने 580 और गंगा सेवा मिशन के संचालक स्वामी जी ने 20000 बताई। मुख्‍यमंत्री ने यह भी कहा है- कभी नहीं जान पाएंगे कि इस आपदा में कितने लोग मारे गए हैं। मृतकों का अनुमान कर बताई जाने वाली संख्‍या और उनकी पहचान-पुष्टि करते हुए संख्‍या की अधिकृत घोषणा में यह अंतर हमेशा की तरह और स्वाभाविक है।

देवदूत बने फौजी और मानवता की मिसाल कायम करते स्थानीय लोगों के बीच लाशों ही नहीं अधमरों के सामान, आभूषण और नगद की लूट मचने के खबर के साथ जिज्ञासा हुई कि मृतकों के शरीर पर, उनके साथ के आभूषण, सामग्री आदि के लिए सरकारी व्यवस्था किस तरह होगी? सामान राजसात होगा? यह जानकारी सार्वजनिक होगी? ... खबरों से पता लगा कि अधिकृत आंकड़ों के लिए मृतकों के अंतिम संस्कार के पहले उनके उंगलियों के निशान लिये जा रहे हैं। व्यवस्था बनाई गई है कि उत्तराखंड के लापता निवासी 30 दिनों के अंदर वापस नहीं आ जाते तो उन्हें मृत मान लिया जाएगा। इस आपदा में मारे गए लोगों के मृत्यु प्रमाण-पत्र घटना स्थल से जारी किए जाएंगे।

मुस्लिम संगठन 'जमीउतुल उलमा' ने सभी शवों का हिंदू रीति से अंतिम संस्कार करने पर आपत्ति जताई है और घाटी में जा कर शवों की पहचान करने के लिए इजाजत दी जाने की बात कही है ताकि मुस्लिम शवों को दफन किया जा सके। ... खबरें थीं कि आपदा बादल फटने से नहीं भारी बारिश के कारण हुई, से ले कर मंदिर में पूजा आरंभ किए जाने के मुद्दे पर हो रही बहसों के बीच न जाने कितनी लंबी-उलझी प्रक्रिया और जरूरी तथ्य नजरअंदाज हैं। ... इस घटना में अपने किसी करीबी-परिचित के प्रभावित होने की खबर नहीं मिली, शायद इसीलिए ऐसी बातों पर ध्यान गया।

Monday, July 1, 2013

भाषा-भास्कर

शीर्षक तो अनुप्रास-आकर्षण से बना, लेकिन बात सिर्फ दैनिक भास्कर और समाचार पत्र के भाषा की नहीं, लिपि और तथ्यों की भी है। समाचार पत्र में 'City भास्कर' होता है, इसमें एन. रघुरामन का 'मैनेजमेंट फंडा' नागरी लिपि में होता है। 'फनी गेम्‍स में मैंनेजमेंट के लेसन' भी नागरी शीर्षक के साथ पढ़ाए जाते हैं।
लेकिन नागरी में 'हकीकत कहतीं अमृता प्रीतम की कहानियां' पर रोमन लिपि में 'SAHITYA GOSHTHI' होती है।
हिन्दी-अंगरेजी और नागरी-रोमन का यह प्रयोग भाषा-लिपि का ताल-मेल है या घाल-मेल या सिर्फ प्रयोग या भविष्य का पथ-प्रदर्शन। ('भास्‍कर' 'चलती दुकान' तो है ही, इसलिए मानना पड़ेगा कि उसे लोगों की पसंद, ग्राहक की मांग और बाजार की समझ बेहतर है।)

बहरहाल, इस ''SAHITYA GOSHTHI'' की दैनिक भास्‍कर में छपी खबर के अनुसार अमृता प्रीतम का छत्‍तीसगढ़ के चांपा में आना-जाना था। इसके पहले दिन 23 जून को वास्‍तविक तथ्‍य और उनकी दो कहानियों में आए छत्‍तीसगढ़ के स्‍थान नामों, जिसमें चांपा का कोई जिक्र नहीं है, की ओर ध्‍यान दिलाने पर भी दूसरे दिन यही फिर दुहराया गया। इसके बाद नवभारत के 20 जून 2013 के अवकाश अंक में छपा- ''अमृत प्रीतम और छत्‍तीसगढ़'' (न कि अमृता प्रीतम) इस टिप्‍पणी के साथ कि ''एक बारगी यह शीर्षक चौंकाता है'' लेकिन स्‍पष्‍ट नहीं किया गया है कि यह अमृता के बजाय अमृत के लिए है या अमृता प्रीतम और छत्‍तीसगढ़ के रिश्‍ते के लिए।
पहले समाचार पत्रों में यदा-कदा भूल-सुधार छपता था, अब खबरों को ऐसी भूल की ओर ध्‍यान दिलाया जाना भी कठिन होता है, फोन पर संबंधित का मिलना मुश्किल और मिले तो नाम-परिचय पूछा जाता है, धमकी के अंदाज में। एक संपादक जी कहते थे, ''अखबारों की बात को इतनी गंभीरता से क्‍यों लेते हो, अखबार की जिंदगी 24 घंटे की और अब तो तुम तक पहुंचने के पहले ही आउटडेट भी'' क्‍या करें, बचपन से आदत है समाचार पत्रों को 'गजट' कहने की, और मानते जो हैं कि गजट हो गया, उसमें 'छापी हो गया' तो वही सही होगा, गलती कहीं हमारी ही न हो, लेकिन यह भी कैसे मान लें। पूर्व संपादक महोदय की बात में ही दम है शायद।

पुनश्‍चः 3 जुलाई 2013 के अखबार की कतरन
शीर्षक की भाषा और 'PREE' हिज्‍जे (स्‍पेलिंग) 
ध्‍यान देने योग्‍य है.

Friday, June 28, 2013

समलैंगिक बाल-विवाह!

जशपुर जिले का फरसाबहार विकासखंड नागलोक कहा जाता है। यह क्षेत्र विषैले सांपों, नदी-नालों में पाए जाने वाले स्वर्ण-कण और टमाटर की उपज के लिए जाना जाता है। पिछले दिनों इस इलाके से चर्चा में सुनिता रही। ग्राम बांसाझाल के सुरेन्द्र टोप्पो की संतान 15 वर्षीय सुनिता, तीन बेटियों और एक बेटे में सबसे छोटी, आठवीं कक्षा की छात्रा है।
सुनिता पिछले साल से मां दुर्गा की पूजा-अर्चना में लगी रहती और एक दिन उसने मां दुर्गा से विवाह करने की घोषणा कर दी। परिजनों ने उसका फैसला मान लिया और शादी के लिए 17 जून 2013, सोमवार तिथि तय हुई। बाकायदा निमंत्रण पत्र बांटे गए। शादी के कार्ड में 'सुनिता टोप्पो संग मां दुर्गा का शुभ विवाह' छपा है। साथ ही 'महिलाओं का निमंत्रण इसी पत्रिका द्वारा स्वीकार करें' भी मुद्रित है। घर की दीवार को पहले 'सुनिता' संग बाद में नीचे 'मां दुर्गा' लिख कर सजाया गया। निर्धारित तिथि पर दिन में 11 से 12 बजे के बीच विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें सुनिता (वधू?) की मांग में सिंदूर भराई हुई। विवाह में परिजनों सहित आसपास के ग्रामीण इकट्ठे हुए साथ ही सीमावर्ती राज्य झारखंड और उड़ीसा से भी लोग आये।
विवाह सम्पन्न कराने वाले पुरोहित सर्प विज्ञानी डॉ. अजय शर्मा ने कहा कि ''बालिका किसी मनोरोग से ग्रसित नहीं है, बल्कि यह उसकी मां दुर्गा के प्रति असीम श्रद्धा है। ... मां दुर्गा एवं सुनीता दोनों ही कन्या होने के नाते भारतवर्ष के लिए अटपटा लगता है। पर इसे पागलपन करार नहीं दिया जा सकता।''

इतिहास विभाग, जशपुर महाविद्यालय के प्रो. डॉ. विजय रक्षित ने कहा है कि ''वनवासी समाज में ऐसा मामला पहले भी सामने आया है। समाज में अंधविश्वास की जड़े काफी गहरी है। वनवासियों को आसपास का परिवेश भी प्रभावित करता है।''

मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. विवेक रंजन का कहना है कि ''यह मनोविकृति है। इसे डेल्युजनल डिसऑर्डर कहते हैं। सुनीता 'ग्रेडियोस टाइप' की डिसआर्डर की शिकार है। इसमें व्यक्ति को ऐसा विश्वास हो जाता है कि उसका किसी पौराणिक पात्र से रिश्ता है।''

एसडीएम, जशपुर ने कहा है कि ''ऐसे मामलों का संबंध आस्था से होता है। कानून ऐसे विवाह को मान्यता नहीं देता है। बाल विवाह की शिकायत पर प्रशासन द्वारा कार्रवाई की जाती है। इस प्रकरण में किसी भी ओर से शिकायत नहीं मिली है।''

सीधा हिसाब लगाएं तो मामला समलैंगिक बाल विवाह का माना जा सकता है, लेकिन सुनिता की सोच में शक्तिशाली का वरण, भक्त और भगवान के एकाकार हो जाने से दैवीय-शक्ति सम्पन्न होने की चाह (महिला सशक्तीकरण), संतानोत्पत्ति और वंश-वृद्धि से इतर विवाह-प्रयोजन, जीवन-साथी के रूप में स्थायी-निर्विघ्न साथ, इसके अलावा उसका परिवेश, उसके परिजन जैसे और क्या कारक निर्णायक हुए होंगे, विचारणीय है। बहरहाल, विवाह के लिए 'मंगल' और 'कल्‍याण' समानार्थी जैसे प्रयुक्‍त होते हैं...इस विवाह के सालगिरह पर खबर पाने का इंतजार तो रहेगा ही।

यह खबर दैनिक भास्कर, रायपुर में 15 जून को पृष्ठ 10 पर, नई दुनिया, बिलासपुर, 18 जून को मुखपृष्ठ पर तथा अन्य समाचार माध्यमों पर आई, इसके अलावा छायाचित्र व जानकारियां जशपुर के शशिकांत पांडेय जी से प्राप्त हुईं।

Thursday, May 9, 2013

लघु रामकाव्‍य

''रामकथा की ऐसी पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है जिसमें 32 पंक्तियों में रामायण के समस्त सर्गों को छंदबद्ध किया गया है। रामकथा पर उपलब्ध यह सबसे लघुकाय कृति है। यह रचना खैरागढ़, सिंगारपुर ग्राम में अगहन सुदी 07 संवत 1945 को जन्मे भक्त कवि गजराज बाबू विरचित है, जो पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शीजी के सहपाठी थे।'' यह जानकारी दैनिक नवभारत समाचार पत्र में 28 जनवरी 1981 को प्रकाशित हुई थी, जिसमें उल्लेख था कि डॉ. बृजभूषण सिंह आदर्श को यह कृति मिली है। मुझे इसकी प्रति राम पटवा जी के माध्‍यम से (वाया डॉ. जे.एस.बी. नायडू) मिली, जिसके दूसरे पेज पर लंका कांड की चौपाई व अन्‍य कुछ हिस्‍सा क्षत, इस प्रकार है-
श्री गणेशाय नमः
अथ रामायणाष्टक प्रारंभः
चौपया छंद
शंकर मन रंजन, दुष्ट निकंदन, सुन्दर श्याम शरीरा।
सुर गण सुखदायक, खल गण घाय(ल)क, गुण नायक रघुबीरा॥
मुनि चित रोचक, सब दुःख मोचक, सुखधामा रणधीरा।
बिनवै गजराजा, हे रघुराजा, राखहु निज पद तीरा॥१॥
जन्मे रघुनाथा, शक्तिन साथा, दशरथ नृप गृह आई।
करिमख रखवारी, खलगण मा(री) ताड़कादि दुखदाई॥
तारी रिषि नारी, भंजि धुन भारी, व्याह्यो सिय जग माई।
विनवै गजराजा, सिय रघुराजा, देहु परम पद साईं॥२॥ (इति बालकांड)
कुबरी मति मानी, दशरथ रानी, दियो राम बन राजा।
सीता रघुराई, सह अहिराई, गये बनहि सुर काजा॥
त्यागा नृप प्राना, भरत सुजाना, गये निकट रघुराजा।
समुझाय खरारी, अवध बिहारी, सह पांवरिं गजराजा॥३॥ (इति अयोध्या कांड)
तजि जयन्त नैना, सुखमा ऐना, पंचवटी पुनि धारी।
खर भगनी, आई, नाक कटाई, मारयो खर दनुजारी॥(मारे खर भुवि भारी)
कंचन मृगमारी, अवध बिहारी, खोयो जनक दुलारी।
भाखत गजराजा, पुनि रघुराजा, गीध अरु शबरी तारी॥४॥ (इति आरण्यकांड)
सुग्रीव मिताई, करि रघुराई, हते बालि कपि भारी।
हनुमत चित दीन्हा, लै प्रभु चीन्हा, खोजन जनक दुलारी॥
नारी तपधारी, सिय सुधि सारी, कही वास बन चारी।
खोजत गजराजा, तट नदराजा, आये वानर सारी॥५॥ (इति कृषकिंधा कांड)
सुरसा मद भाना, कपि हनुमाना, आयो सागर पारा।
लखि रमा दुखारी, गिरिवर धारी, धरि लघुरूप निहारा॥
सब बाग उजारी, अच्छहि मारी, कियो लंकपुर छारा।
तरि निधि बारी, सह कपि सारी, वन गजराज सिधारा॥६॥ (इति सुन्दरकांड)
.............................................
..........................................-धारी।
मुर्छित अहिराया, हनुमत लाया, द्रोणाचल ...
लखन मुरारी, रिपु हति अवध सिधारी ॥७॥ (इति लंका कांड)
सिय हरि अहिनाथा, सब कपि साथा, पहुंचे अवध मुरारी।
मिलि भरत सुजाना, राम सयाना, मिले सकल महतारी॥
राजे रघुराया, मंगल छाया, टारि सब दुख भारी।
विनवै गजराजा, वसु रघुराजा प्रियसः जनक दुलारी॥८॥ (इति उत्तर कांड)
 नृप दशरथ लाला, मख रखवाला, शिव धनुभंजन हारी।
पितु आज्ञा धारी, बनहि सिधारी, खरदूषण दनु जारी॥
शबरी गिध तारी, रावण मारि, पुर गजराज निहारी।
यह अष्टक गावे, प्रभु पद पावे, कटैं पाप कलि भारी॥

''इति गजराजकृत रामायणाष्टक सम्पूर्णम्‌॥

कुछ अन्‍य भी मिले, जिनमें श्री परमहंस स्वामी ब्रह्मानंद विरचित श्रीरामाष्टकम् का पहला श्लोक है-
कृतार्तदेववन्दनं दिनेशवंशनन्दनम्‌। सुशोभिभालचन्दनं नमामि राममीश्वरम्‌॥
और आठवां श्लोक है-
हृताखिलाचलाभरं स्वधामनीतनागरम्‌। जगत्तमोदिवाकरं नमामि राममीश्वरम्‌॥

इसी प्रकार श्रीव्यास रचित श्रीरामाष्टकम्‌ का पहला श्लोक है-
भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम्‌। स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव राममद्वयम्‌॥
और आठवां श्लोक है-
शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम्‌। विराजमानदेशिकं भजे ह राममद्वयम्‌॥

एक रामायणाष्टकम्‌, स्तुतिमंडलसंकलन से, जिसके कवि के रूप में अनिमेष नाम मिला, इस प्रकार आरंभ होता है-
रामं संसृतिधामं सर्वदनिष्कामं जगदारामं क्षीरे पंकजमालाशोभितश्रीधामं भुवनारामम्‌। मायाक्रीडनलोकालोकतमालोकस्वननारम्भं वन्देऽहं भुजगे तल्पं भुवनस्तम्भं जगदारम्भम्‌॥
और अंतिम पंक्ति है-
वन्देऽहं श्रुतिवेद्यं वेदितवेदान्तं हरिरामाख्‍यम्‌॥

अब आएं एकश्लोकि रामायणम्‌ पर-
आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं, वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम्‌।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं, पश्चाद्रावणकुम्भकर्णहननमेतद्धि रामायणम्‌॥

एक छत्‍तीसगढ़ी बुजुर्ग ने शायद किसी मालवी की पंक्तियां सुन कर, अपने ढंग से रामायण याद रखा था, सुनाया-
एक राम थो, एक रावन्नो।
बा ने बा को तिरिया हरी, बा ने बा को नास करो।
इतनी सी बात का बातन्नो, तुलसी ने कर दी पोथन्नो।

भदेस सी लगने वाली इन पंक्तियों का भाव राममय तो है ही।

Tuesday, April 23, 2013

गुलाबी मैना

तिलयार नाम सुनते ही रोहतक की झील (और ब्लागर मीट) याद आती है, लेकिन यह एक चिड़िया का भी नाम है। मैना परिवार की इस चिड़िया का नाम तिल्‍यर या तेलियर जैसा भी उच्‍चारित होता है। गुलाबी मैना कही जाने वाली इस चिडि़या का मधुर कन्नड़ नाम है, मधुसारिका। अंगरेजी नाम रोजी स्टारलिंग, रोजी पास्टर या रोजकलर्ड स्टारलिंग है।
नवा-नइया तालाब के आसमान पर शाम का नजारा
इनसेट में 24 मई 2000 को जारी डाक टिकट
संकरी-पेन्ड्रीडीह बाइपास मार्ग पर बिलासपुर से लगभग 15 किलोमीटर दूर बेलमुड़ी (बेलमुण्डी) गांव में नवा तालाब को घेरे, अर्द्धचंद्राकार लंबाई में फैला नइया तालाब सड़क से दिखता है। तालाब के 'पुंछा' वाले हिस्से में 'पटइता' घास है। नइया तालाब का यह भाग लाख संख्‍या में अनुमान की जाने वाली गुलाबी मैना का डेरा बना और इन तालाबों के ऊपर शाम करीब पांच बजे से साढ़े छः बजे तक आकाश में पक्षी-झुंडों की करतबी उड़ान का नजारा और उसकी चर्चा मार्च के अंतिम सप्ताह से अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक रही।

2 अप्रैल 2013 के दैनिक नवभारत, बिलासपुर में प्रकाशित सचित्र समाचार में इन पक्षियों का मूल एशिया, यूरोप, रसिया(!) और कनाडा बताया गया है। यहां डीएफओ हेमंत पाण्डे के हवाले से इन्हें ब्लैक हेडेड गुल(!?गल) कहा गया है। 6 अप्रैल 2013 के दैनिक भास्कर, बिलासपुर में सचित्र समाचार प्रकाशित हुआ, जिसमें पक्षियों को मध्य यूरोप, एशिया और कनाडा से आए तथा पक्षियों के जानकार केके सोमावार और पर्यावरण प्रेमी अनुराग शुक्ला का उल्लेख करते हुए उनके हवाले से इन्हें रोजी पेस्टर या ब्लैक हेडेड गुल प्रवासी पक्षी बताया गया।
पेड़ पर पत्तियां नहीं, चिडि़यों का झुंड है.
प्राण चड्‌ढा जी बताते हैं कि बसंत पंचमी (इस वर्ष 15 फरवरी) को आ जाती है, नवरात्रि में (इस वर्ष 18 अप्रैल तक) लौटती है। कमल दुबे जी ने अवधि फरवरी तीसरे हफ्ते से मार्च अंत तक बताई है। कुछ फोटो रमन किरण जी से मिले। गांव वालों ने बताया कि फरवरी में ही आने लगी थीं, लेकिन शिवरात्रि, 10 मार्च के आसपास बड़े झुंडों में दिखने लगीं और 10 अप्रैल तक वापसी हुई।

इस पक्षी की कुछ जानकारी पुस्तकों और नेट पर तो मिली, लेकिन इन विवरणों से उस दृश्य का अनुमान भी नहीं होता, जो यहां रहा-

यह रिकार्डिंग चि. यश, सौ. शुभदा और विवेक जोगलेकर जी ने की है।
दूसरी रिकार्डिंग कमल दुबे जी की है, लेकिन इसके पहले 35 सेकंड का हिस्सा बीत जाने दें।
एक अन्य रिकार्डिंग राजेश तिवारी जी ने लगाई है।
इन्‍हें देखकर Bezier Screensaver याद आता है।
पक्षियों से भरा तालाब अब रीता है.
बेलमुड़ी पहुंचा हूं, तालाब मौजूद है और गांव वालों में पिछले दिनों की यादें, किस्से, उसका रोमांच भी। चिड़ियों को जगह भा गई और लगता है पक्का रिश्ता बन गया है। मुझे पहुंचने में देर हो गई या शायद समय से दस-ग्यारह महीने पहले आ गया।

Wednesday, April 3, 2013

मिस काल

गीत बजता- 'प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की', एक समय था जब रेडियो पर यह गीत सुनते कोई लड़की पकड़ी जाए तो उसकी खैर नहीं, और लड़के सुनते पाए गए तो उनका चरित्र संदिग्ध हो जाता था। उदार अभिभावक, जो ऐसा नहीं सोचते थे वे भी किसी अनिष्ट, बच्चे के बिगड़ने की आशंका से अवश्य ग्रस्त हो जाते थे। समय के साथ बोल बदले- 'खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों, प्यार हम करते हैं चोरी नहीं...' गीत गुनगुनाया-गाया जाने लगा। अब गीत बजता है, फिल्म दबंग-2 का, जिसमें मिस काल की उपयोगिता प्रतिपादित करने जैसी कोई बात समझ में आती है। खोया-पाया यानि 'मिस से हासिल' तुक बना तो मिस काल और एसएमएस खंगालने लगा।

15 जून 2012 को 9827988889 नंबर से एसएमएस आया था कि कलाम साहब को फिर से राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं तो 08082891049 (टॉल फ्री) पर मिस काल करें और यह संदेश अपने मित्रों को अग्रेषित करें। (मैंने विश्‍वास भी नहीं किया या आलस कर गया और शायद मेरे जैसों के चलते कलाम साहब दुबारा राष्ट्रपति नहीं बन पाए।)
6 जून 2012 को 9907927255 से आया एसएमएस, 9402702752 नंबर से भेजा बताया गया, संदेश था 2 वर्ष की बच्ची श्रेया की किडनी खराब हो गई है, उसकी शल्य चिकित्सा के लिए 6 से 8 लाख रुपयों की आवश्यकता है। सभी नेटवर्क सहमत हैं कि वे इसके लिए 10 पैसे प्रति एसएमएस (अंशदान) देंगे। यह भी कहा गया था कि यदि आपको निःशुल्क संदेश सुविधा है तो यह संदेश कम से कम 10 लोगों को अग्रेषित करें।
इसी तरह 6 अगस्त 2011 को 9582567280 से एसएमएस आया बारंबर दुहरा कर लिखा ऊं... ... ..., यह 108 ओम है। इसे 11 लोगों को भेजिए और देखिए अगले मिनट से ही आपका अच्छा समय शुरू हो जाएगा।

कुछ और नमूने- एक मिस काल करने से 100 करोड़ लोगों के जीवन में खुशियाली आएगी, 02233081122 (टॉल फ्री) पर मिस काल करें, सत्याग्रह का समर्थन करें, यह एसएमएस कम से कम 10 को भेजें।
इसी तरह के एक एसएमएस में कहा गया था- भारत सरकार ने शर्त रखी है कि लोकपाल विधेयक को लागू करने के लिए 25 लाख लोगों का समर्थन चाहिए और इसके लिए हमें सिर्फ एक मिस काल 02281550789 पर देना है। मिस काल देने के बाद आपको धन्यवाद संदेश मिलेगा, भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए यह संदेश अधिक से अधिक लोगों को भेजें।
ऐसा ही एक अन्य एसएमएस, जिसमें 25 करोड़ जनता के समर्थन की आवश्यकता बताई गई और फोन नं. 02261550789 पर फ्री काल कर अपनी जागरूकता का परिचय देने का आह्‌वान किया गया था।

कुछ समय पहले शुभचिंतकों के एसएमएस से नासा की कथित चेतावनी की खबर मिली थी कि आज रात 12 से 2 बजे के बीच अपना मोबाइल फोन आफ कर लें, अन्यथा आपके मोबाइल में विस्फोट हो सकता है तथा यह भी कि इस संदेश को अपने परिचितों को अग्रेषित अवश्य करें। एक संदेश 11 जुलाई 2012 को 9406038000 से आया कि पैकेट वाले पानी से नया वायरस एचबीएफ (हाइ बोन फीवर) फैल रहा है, बचें, औरों को बचाएं। एक मेल यह भी था कि ''अगर आपको लगता है कि स्वचालित आधुनिक मशीनयुक्त गौ कत्लखाने नहीं खुलने चाहिए तो 05223095743 मिस काल करें।'' साथ ही जिस तरह आपने अन्ना हजारे के लोकपाल बिल को सफल बनाया उसी तरह (मिस काल से?) समर्थन दें।

शुक्रवारी संतोषी माता के दौर को याद करें। मैं तो आरती उतारूं रे ... गुड़-चना का प्रसाद, नीबू, इमली, दही, खटाई, खाना ही नहीं छूना भी, सिर्फ व्रत रखने वाले के लिए नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए वर्जित। उस दौर में शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे पोस्ट कार्ड न मिला हो, जिसमें संतोषी माता की कृपा और कोप सहित संदेश के मुताबिक दस लोगों को ऐसा ही कार्ड लिख कर भेजना होता था। पिछले वर्षों में एक अन्य शुक्रवारी व्रत 'वैभवलक्ष्मी' का प्रचार हुआ है। इस कथित प्राचीन व्रत की पुस्तिका पूजा विधि, व्रत कथा और महात्म्य एक साथ है, जिसमें मां जी शीला को बताती हैं कि उद्यापन में कम से कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक कर के साहित्य संगम की 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की एक-एक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए। पुस्तिका के आरंभ में 13 सूत्रीय नियमों में एक यह भी है कि व्रत पूरा होने पर वैभवलक्ष्मी व्रत पुस्तक भेंट में देनी चाहिए, जितनी ज्यादा पुस्तक आप देंगे उतनी मां लक्ष्मी की ज्यादा कृपा होगी (लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया है) और मां लक्ष्मी जी का यह अद्‌भुत व्रत का ज्यादा प्रचार होगा, लेकिन इसका एक फल यह कि इन पुस्तिकाओं की गड्‌डी को नदी प्रवाह करना पड़ता है।

देश की धर्मप्राण जनता (खासकर महिलाओं) के मनोविज्ञान और प्रचार-तंत्र के अध्ययन के लिए संतोषी माता, वैभव लक्ष्मी और गणेश प्रतिमाओं के दुग्धपान जैसी चीजें बड़े काम की हो सकती हैं। सूचना तंत्र के अभाव में 1857 के दौर में लाल कमल और रोटी भी इसी तरह काम में लिए जाने की बात पता लगती है और सूचना के इस दौर में भी विधि, बदले साधनों के साथ कमोबेश यही कारगर है। इसी विधि का प्रयोग नेटवर्क मारकेटिंग में होता है। आमतौर पर हम संख्‍याओं की समान्तर वृद्धि सोचते हैं गिनती 1, 2, 3, 4 या सरल गुणक 2, 4, 6, 8 में। थॉमस मालथस ने ध्यान कराया था, जबकि जनसंख्‍या में वृद्धि ज्यामितीय गुणोत्तर यानि 2, 4, 8, 16 आदि होती है।

शतरंज के अविष्कारक ने राजा के मुंहमांगे इनाम के अनुग्रह पर शतरंज के पहले खाने के लिए गेहूं का एक दाना, दूसरे के दो, तीसरे के लिए चार, चौथे के लिए आठ, बस इसी तरह चौंसठ खानों के लिए गेहूं के दानों का 'मामूली' सा इनाम मांगा, यह आपने भी सुना होगा, लेकिन इसका हिसाब शायद न सुना हो, वह है बीस अंको की संख्‍या- एक महाशंख चौरासी शंख छियालिस पद्‌म चौहत्तर नील चालीस खरब तिहत्तर अरब सत्तर करोड़ पंचानबे लाख इक्यानबे हजार छै सौ पंद्रह यानि 1,84,46,74,40,73,70,95,91,615 मात्र। इतनी संख्‍या में गेहूं के दाने रखने के लिए लगभग बारह हजार घन मीटर स्थान की जरूरत होगी। कहा जाता है कि संकट में पड़े नादान-उदार राजा के चतुर मंत्री ने तोड़ निकाला कि अविष्कारक का पूरा हिसाब होगा, वह गिन-गिन कर एक-एक दाना ले ले, बस काम बन गया। गणितज्ञों ने यह हिसाब भी लगा लिया है कि एक घन मीटर गेहूं गिनने में कम से कम छै महीने लगते।

रियलिटी शो एसएमएस के 'उद्यम' की आवश्यकता और सार्थकता साबित कर ही रहे हैं तब फिलहाल तो यही लगता है मिस काल और एसएमएस से ही सब कुछ हो जाने वाला है। आदर्श या बेहतर स्थितियां की आकांक्षा हो, विचार या प्रयास, स्वागतेय होना चाहिए, लेकिन यह सिर्फ मिस काल और एसएमएस से संभव हो जाने का भरोसा हो तो..., आगे क्या लिखूं, आप खुद समझदार हैं।
'मिस काल... समाचार पत्र नवभारत, नागपुर के
संपादकीय पृष्‍ठ-6 पर 19 अप्रैल 2013 को प्रकाशित,
तथा पूर्व में नवभारत, रायपुर के
संपादकीय पृष्‍ठ-4 पर 13 अप्रैल 2013 को प्रकाशित

Thursday, March 28, 2013

एक पत्र


आदरणीय सर,

लिखना-पढ़ना तो सीख ही लिया था काम भर, लेकिन जिन गुरुओं से संदेह, सवाल और जिज्ञासा के स्वभाव को बल मिला, सिखाया, उनमें आप भी हैं। इस भूमिका पर कहना यह है कि ज्ञानपीठ से प्रकाशित परितोष चक्रवर्ती की ''हिन्दी'' पुस्तक 'प्रिंट लाइन' के फ्लैप पर नाम देखा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र। आपकी समझ पर कैसे संदेह कर सकता हूं, लेकिन आपके माध्यम से पढ़ने की जो थोड़ी समझ बनी थी, उस पर संदेह हुआ, बावजूद कि यह आपकी नसीहतों पर भी संदेह माना जा सकता है। 

आजकल पढ़ना संभल कर और चुन कर ही करता हूं। आपका नाम देख कर किताब पढ़ना शुरू किया। पूरी पुस्तक पढ़ने में लगभग एक घंटे समय लगा, जबकि इतनी मोटी ठीक-ठाक किताब के लिए मुझे आम तौर पर छः-सात घंटे तो लगते ही और कोई अधिक गंभीर किस्म का काम हो तो इससे भी ज्यादा, खैर। किताब पढ़ कर मेरी जो राय बनी उसे जांचने के लिए दुबारा-तिबारा फ्लैप पढ़ा। ध्यान गया कि इसे आपने 'एकरैखिक', 'इकहरेपन' और 'काला सफेद के बीच के रंग' वाला कहा है। आपके इन शब्दों का प्रयोग, जैसा मैं समझ पा रहा हूं, वही है तो मेरे सारे संदेह दूर हो जाते हैं।

आत्म-साक्ष्य पर रचा गया यह उपन्यास, आत्मग्रस्तता के सेरेब्रल अटैक से कोमा में पड़े अमर का एकालाप बन गया है। नायक अमर व्यवस्था और परिस्थिति को दोष देते हुए आत्म-मुग्ध है, उसके नजरिए में तटस्थता का नितांत अभाव है। अमर उनमें से है जो चाहते हैं कि समाज उन पर भरोसा करे, लेकिन जिन्हें खुद के करम का भरोसा नहीं। जिसे खूंटे बदलते रहना हो, ठहर कर काम न करना हो, अपने संकल्पों को मुकाम तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता न हो, उसके लिए क्रांति के नारे बुलंद करते रहना आसान और उसका बखान और भी आसान होता है। नायक की पत्रकारिता ऐसी क्रांति है, जो अन्य करें तो शाम के अखबार की सनसनी या सत्यकथा, मनोहर कहानियां। यह भी हास्यास्पद है कि अमर की पत्रकारिता में जिन और जैसे रोमांच का बखान है, वह इन दिनों टेबुलायड पत्रकारिता में नये लड़के रोज कर रहे हैं।

पेन से लिखे और हाथों-हाथ सौंपे पत्र की प्रति

यह चुके हुए ऐसे नायक की कहानी बन पड़ी है, जिसके जीवन का क्लाइमेक्स शराब और शबाब ही है। पत्रकार अमर की कलम औरों के सान पर घिस कर नुकीली होती है और यह लेखन किसी कलम के सिपाही का नहीं, वाणीवीर (जबान बहादुर) का लगता है, क्योंकि यहां जो सरसरी और उथलापन है, वह डिक्टेशन से आया लगा (अज्ञेय जी के लेखन में कसावट और नागर जी की किस्सागोई का वक्तव्य)। इस उपन्यास के साथ अगर सचमुच लेखक और अमर का कुछ 'आत्मगाथा या आत्मसाक्ष्य' जैसा रिश्ता है फिर तो परितोष जी के बारे में अब मुझे अपनी धारणा के बदले आम तौर पर उनके बारे में लोगों की राय विश्वसनीय लगने लगी है।

आपका नाम होने के कारण ही प्रतिक्रिया लिख रहा हूं। बाजार में लगभग महीने भर से बिकती पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण पा कर आश्चर्य हुआ था। विमोचन में छीछालेदर, परन्तु मुख्‍यमंत्रीजी का शालीन जवाब... क्या कहूं, सब आपके सामने घटित हुआ। आम आदमी भी आचरण के इस छद्‌म को देखता समझ लेता है। हां, किताब में अधिकतर निजी किस्म की चर्चाएं, पढ़ने-लिखने वालों का जिक्र है, सो किताब बिकेगी, इसलिए इसे बिकाऊ (बिकने योग्य/उपयुक्त) साहित्य कहा जा सकता है, बाजार में सफलता की कसौटी के अनुकूल। फ्लैप पर आपके नाम के बावजूद इस लेखन के साथ परितोष जी और ज्ञानपीठ के नाम पर जिज्ञासा, सवाल और संदेह बना हुआ है। निजी तौर पर मेरी शुभकामनाओं के अधिकारी परितोष जी रहे हैं, इस सब के बावजूद भी हैं।

राहुल सिंह

वैसे तो यह मेरी निजी प्रतिक्रिया है, राजेन्‍द्र मिश्र सर के प्रति, लगा कि पुस्‍तक पर एक पाठक की टिप्‍पणी भी है यह, इसलिए यहां सार्वजनिक किया है।

Thursday, February 28, 2013

विजयश्री, वाग्‍देवी और वसंतोत्‍सव

शुक्र मनाया जाता, यदि वसंत पंचमी शुक्रवार को न होती, लेकिन हर साल तो ऐसा नहीं हो सकता, इस साल भी नहीं हुआ, यानि वसंत पंचमी हुई 15 फरवरी, ऐन शुक्रवार को। ऐसा हुआ नहीं कि मालवा और पूरे देश की निगाहें धार की ओर होती हैं। यहां सरस्‍वती-पूजन और नमाज पढ़ने की खींचतान में हमारी विरासत के रोचक पक्ष ओझल रह जाते हैं।

मालवा के परमार राजाओं की प्राचीन राजधानी धारानगरी यानि वर्तमान धार के कमालमौला मस्जिद को प्राचीन भोजशाला की मान्‍यता मिली है। उल्लेख मिलता है कि राजा भोज द्वारा संस्कृत शिक्षा के लिए स्थापित केन्द्र के साथ सरस्वती मंदिर भी था। धार के पुराने महल क्षेत्र के मलबे से प्राप्त तथा ब्रिटिश म्यूजियम में संग्रहित वाग्देवी सरस्वती की अभिलिखित प्रतिमा की पहचान भोज की सरस्वती के रूप में हुई। यहां से व्याकरण नियम, वर्णमाला के सर्पबंध शिलालेख प्राप्त हुए हैं और यह भोज का मदरसा भी कहा जाने लगा।

सन 1902-03 में यहां कमालमौला मस्जिद के मेहराब से खिसककर निकले, औंधे मुंह लगे 5 फुट 8 इंच गुणा 5 फुट का अभिलिखित काला पाषाण खंड मिला। 82 पंक्तियों के संस्कृत और प्राकृत भाषा वाले शिलालेख में 76 श्लोक तथा शेष भाग गद्य है। लेख, वस्तुतः चार अंकों वाली नाटिका 'पारिजात मंजरी' या 'विजयश्री', जो दो पत्‍थरों पर अभिलिखित थी, का पहला हिस्‍सा है। इसके साथ ऐसा ही एक और शिलालेख मिला लेकिन वह इसका जोड़ा नहीं बल्कि 'कूर्मशतक' प्राकृत काव्‍य उकेरा पत्‍थर है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उदार अफसोस जताया था- ''अनुमान किया गया है कि बाकी के दो अंक भी निश्चय ही उसी इमारत में कहीं होंगे, यद्यपि मस्जिद के हितचिंतकों के आग्रह से उनका पता नहीं चल सका।'' बहरहाल, नाटिका 13 वीं सदी ईस्‍वी के राजगुरु मदन उर्फ बाल सरस्वती की रचना है।
शिलालेख के आरंभ और अंत की चार-चार पंक्तियां
नाटिका के पात्र सूत्रधार, नटी, राजा अर्जुनवर्मन, विदूषक विदग्ध, रानी सर्वकला, उसकी सेविका कनकलेखा, राजमाली कुसुमाकर, उसकी पत्नी वसंतलीला तथा नायिका पारिजात मंजरी या विजयश्री है। नाटिका में राजा, सूत्रधार और कुसुमाकर संस्कृत बोलते हैं, अन्य पात्र गद्य में प्राकृत-शौरसेनी एवं पद्य में महाराष्ट्री इस्‍तेमाल करते हैं। नेपथ्य गायन की भाषा प्राकृत, लेकिन अंतिम अंश में संस्‍कृत है। उल्लेख है कि नाटिका, वसंतोत्सव (चैत्रोत्सव, मधूत्सव, चैत्रपर्व) के अवसर पर धारा नगरी में सरस्वती मंदिर (शारदा देवी सदन, भारती भवन) में खेली गई। नाटिका के पहले अंक का शीर्षक 'वसंतोत्‍सव' तथा दूसरे का 'ताडंकदर्पण' है।

परमार वंश के शासक भोजदेव के वंशज अर्जुन को लेख में भोज का अवतार कहा गया है और वही नाटिका के नायक और इस प्रशस्ति के राजा अर्जुनवर्मन हैं। अर्जुनवर्मन द्वारा जयसिंह को पराजित करने की ऐतिहासिक घटना नाटिका का कथानक है। पराजित राजा गुजरात के चालुक्‍य भीमदेव द्वितीय का उत्‍तराधिकारी ऐतिहासिक जयसिंह, अभिनव सिद्धराज है। बताया गया है कि युद्ध में विजय प्राप्त गजारूढ़ अर्जुनवर्मन पर पुष्प वर्षा होती है और पारिजात मंजरी उन्हें छूते ही एक सुन्दर युवती में परिणित हो जाती है, आकाशवाणी होती है कि भोजतुल्य ओ धार के स्वामी इस विजयश्री को स्वीकार करो। यह युवती, चालुक्य राजा की पुत्री है, जो देवी जयश्री की अवतार है। नाटिका में नटी से कहलाया जाता है- कैसी दिव्य मानुषी कथा है।

अर्जुनवर्मन, इस नायिका विजयश्री को माली कुसुमाकर व उसकी पत्नी वसंतलीला की निगरानी में धारागिरि के आमोद उद्यान में रखता है। रानी सर्वकला द्वारा आयोजित आम वृक्ष और माधवी लता का विवाह आयोजन देखने राजा, विदूषक के साथ आमोद उद्यान में जाता है। वसंतलीला और नायिका पेड़ की आड़ से आयोजन देखते रहते हैं। रानी के कर्णाभूषण में राजा नायिका की छवि देखता है। रानी को संदेह होता है। वह आयोजन छोड़कर अपनी सेविका के साथ चली जाती है। इधर जाऊं या उधर जाऊं, मनोदशा में अपराध-बोधग्रस्‍त किंकतर्व्‍यविमूढ़ राजा को विदूषक सुझाता है ''एक हो या अधिक, अपराध तो अपराध है'' यह सुनकर राजा विदूषक के साथ नायिका के पास जाता है। कनकलेखा रानी के कर्णाभूषण सहित व्यंगात्मक संदेश लाती है। राजा नायिका को छोड़कर रानी के पास वापस लौटता है। नायिका प्राण त्‍यागने की बात कहती है। मध्‍यांतर।

संस्‍कृत साहित्‍य में चित्रकाव्य की लाजवाब समृद्ध परम्‍परा रही है। यहां भी श्लेष, रूपक, शब्‍द साम्‍य और संयोग के चमत्‍कृत कर देने वाले प्रयोग हैं। इतिहास और दंतकथाओं दोनों में एक समान महान और लोकप्रिय शायद राजा भोज जैसा कोई और नहीं। राजा भोज के साथ प्रयुक्‍त गंगू, माना जाता है कि उससे युद्ध में पराजित राजा गांगेयदेव है और तेली को कल्‍याणी के चालुक्‍य राजा तैल (तैलप) के साथ समीकृत किया जाता है। इस शिलालेख में भोज को कृष्‍ण और अर्जुन भी कहा गया है और गांगेय में श्‍लेष है, त्रिपुरी के कलचुरि राजा गांगेयदेव और अर्जुन से पराजित गंगा पुत्र भीष्‍म का। अर्जुनवर्मन अपने जिस मंत्री पर पूरा भरोसा करते हैं, उसका नाम (नर-) नारायण है। कवि मदन उर्फ बाल सरस्‍वती की रचना यह नाटिका सरस्‍वती मंदिर में, सरस्‍वती पूजा वाले वसंतोत्‍सव या मदनोत्‍सव पर खेली जा रही है। नाटिका के पात्रों में विदूषक विदग्ध है। रानी सर्वकला, कुंतल की है और उसकी सेविका का नाम कनकलेखा है। राजमाली कुसुमाकर है तो उसकी पत्नी का नाम वसंतलीला है। नायिका 'पारिजात मंजरी' (स्‍मरणीय- 'पारिजात' समुद्र मंथन का रत्‍न, दिव्‍य पुष्‍प है) या विजय से उपलब्‍ध गुर्जर 'विजयश्री' है। होयसल राजकुमारी सर्वकला और चालुक्‍य राजकुमारी विजयश्री का द्वंद्व और इनसे परमारों के राग-द्वेष के कई कोण उभरते हैं। लगता है कि पूरी नाटिका वसंत ऋतु, फूल-फुलवारी और मदनोत्‍सव का रूपक है। नटी का कथन पुनः उद्धरणीय- ''कैसी दिव्‍य-मानुषी कथा है।''

नाटक के क्‍लाइमेक्‍स जैसा मध्‍यांतर। आगे दो अंकों में क्‍या होगा, दूसरे पत्‍थर के मिलने तक थोड़ा सिर खुजाएं, सोचें-सुझाएं। शायद मान-मनौवल के साथ विजयश्री की स्‍वीकार्यता हो और फिर वसंत उत्‍सव के साथ सुखांत समापन। नाटिका में स्त्री एवं पुरुष पात्रों के कामभाव से समृद्ध श्रृंगाररसात्मक व्यापार वाली ‘कैशिकी‘ वृत्ति होती है, जिसमें स्त्री-पात्रों की अधिकता और श्रृंगार प्रधान रस होता है। नायिका का नायक के अंतःपुर से सम्बद्ध होना तथा नवानुरागवती कन्या होना अपेक्षित होता है, इसमें नायक राजा का नायिका के प्रति रतिभाव देवी अथवा राजमहिषी के भय से अनुविद्ध रूप से प्रकाशित किया जाता है, यहां देवी से अभिप्राय राजकुल में उत्पन्न किंवा प्रगल्भा प्रकृति वाली राजरानी से है जो कि पग पग पर मान करती चित्रित की जाती है तथा जिसकी अनुकम्पा पर ही नायक और नायिका का प्रेम मिलन वर्णित हुआ करता है। यहां भी नाटिका और प्रशस्ति की परतों में श्लेष, रूपक, शब्द साम्य और संयोग के चमत्कृत कर देने वाले प्रयोग हैं। यह नाटिका है ही, प्रशस्ति भी, सूचना सहित कि यह 'नवरचित नाटिका की पहली प्रस्‍तुति है', इस तरह उसका प्रतिवेदन भी। शिलालेख के पहले भाग, इस पत्‍थर के अंतिम श्लोक 76 पर लेख है, जैसा आम तौर पर अभिलेखों के अंत में होता है, कि यह प्रशस्ति रूपकार सीहाक के पुत्र शिल्पी रामदेव द्वारा उत्कीर्ण की गई, मानों आशंका हो कि दूसरा पत्‍थर मिले न मिले।

दर्शक कौन रहे होंगे इस नाटिका के? इसका जवाब मिल जाता है नाट्यशास्‍त्र से, जिसमें बताया गया है कि द्रष्‍टा को उहापोह में पटु (क्रिटिकल?), होना चाहिए। अच्‍छा प्रेक्षक सद्गुणशील, शास्‍त्रों और नाटक के छः अंगों का जानकार, चार प्रकार के आतोद्य वाद्यों का मर्मज्ञ, वेशभूषा और भाषाओं का ज्ञाता, कला और शिल्‍प में विचक्षण, चतुर और अभिनय-मर्मज्ञ हो तो ठीक है (बात शास्‍त्रों की है जनाब! यह) हिसाब लगा रहा हूं आधे से दूने का, कि नाटक अब छपे तो कितने पेज की पुस्‍तक होगी और खेला जाए तो उसकी अवधि कितनी होगी। न मिले उसे बैठै-ठाले खोजने का भी अपना ही आनंद होता है। कभी लगता है कि शिलाखंड पर उत्‍कीर्ण इस साहित्‍य को वैसा सम्‍मान नहीं मिला, शायद इसका जोड़ा, दूसरा हिस्‍सा इसीलिए अभी तक रूठा, मुंह छिपाए है। शिलालेख का पत्‍थर मिला था यहां के शिक्षाधिकारी 'के.के. लेले' को, यह नाम भी कम अनूठा नहीं।

इस नाटिका के बारे में पहले-पहल हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध से जाना, फिर एपिग्राफिया इण्डिका में प्रो. हुल्‍त्‍श का विस्‍तृत लेख और त्रिवेदी जी वाला कार्पस इंस्क्रिप्‍शनम इंडिकेरम देखा। इसकी फिर से चर्चा पिछले दिनों भिलाई-कोलकाता वाली डॉ. सुस्मिता बोस मजूमदार ने की, बताया कि वे इस पर गहन अध्‍ययन कर रही हैं, उन्‍हें संस्‍कृत-प्राकृत का अभ्‍यास भी है। मैंने पुराने संदर्भ फिर से खंगाले, कुछ मिला, कुछ नहीं। इस मामले में मैं पक्‍का खोजी हूं, जिसे सच्‍चा सुख खोजने में मिलता है, कुछ मिल जाए तो वाह, न मिले तो वाह-वाह। इससे संबंधित कुछ महत्‍वपूर्ण अध्‍ययन और टीका सुस्मिता जी ने उपलब्‍ध करा दी। भोज विशेषज्ञ उज्‍जैन वाले डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित जी ने फोन पर बताया है कि पद्मश्री वि.श्री. वाकणकर के चाचा इतिहास अधिकारी श्री अनन्‍त वामन वाकणकर ने पारिजात मंजरी का हिन्‍दी अनुवाद किया था, जो वाकणकर शोध संस्‍थान से प्रकाशित है, इसकी प्रति अब तक मिली नहीं, प्रयास कर रहा हूं।

महीने में चार पोस्‍ट का अपना नियम टूटा, क्‍योंकि डेढ़ महीने से पारिजात मंजरी के साथ वसंत मना रहा हूं और फागुन तक जारी रखने का इरादा है। कुछ तो होंगे जो वसंत में मदन-दग्‍ध न हों, वे इस सूचना से ईर्ष्‍या-दग्‍ध हो कर वसंतोत्‍सव मना सकते हैं।
20 फरवरी 2013 को नवभारत के संपादकीय पृष्‍ठ 4 पर प्रकाशित

Friday, February 1, 2013

बिग बॉस

अच्छा! आप नहीं देखते बिग बॉस। तब तो हम साथी हुए, मैं भी नहीं देखता यह शो। मत कहिएगा कि नाम भी नहीं सुना, पता नहीं क्या है ये, यदि आपने ऐसा कहा तो हम साथी नहीं रहेंगे। मैंने नाम सुना है और थोड़ा अंदाजा भी है कि इसमें एक घर होता है 'बिग बॉस' का, जिसमें रहने वालों की हरकत पर निगाह होती है, कैमरे लगे होते हैं और बहुत कुछ होता रहता है इसमें। मुझे लगता है कि ताक-झांक पसंद लोग इस शो से आकर्षित होते हैं फिर धीरे-धीरे पात्रों और उनके आपसी संबंधों में रुचि लेने लगते हैं। भारतीय और फ्रांसीसी इस मामले में एक जैसे माने जाते हैं कि वे सड़क पर हो रहे झगड़े के, अपना जरूरी काम छोड़ कर भी, न सिर्फ दर्शक बन जाते हैं, बल्कि मन ही मन पक्ष लेने लगते हैं और कई बार झगड़े में खुद शामिल हो जाते हैं। यह शायद मूल मानवीय स्वभाव है, मनुष्य सामाजिक प्राणी जो है।

बात थोड़ी पुरानी है, इतिहास जितनी महत्वपूर्ण नहीं, लेकिन बासी हो कर फीकी-बेस्वाद भी नहीं, बस सादा संस्मरण। पुरातत्वीय खुदाई के सिलसिले में कैम्प करना था। बस्तर का धुर अंदरूनी जंगली इलाका। मुख्‍यालय, जो गाइड लाइन के लिए तत्पर रहता है, से यह भी बताया गया था कि हिंस्र पशुओं से अधिक वहां इंसानों से खतरा है। मौके पर पहुंच कर पता लगा कि एक सरकारी इमारत स्कूल है और इसी स्कूल के गुरुजी हैं यहां अकेले कर्ता-धर्ता, गांव के हाकिम-हुक्काम, सब कुछ। गुरुजी निकले बांसडीह, बलिया वाले। ये कहीं भी मिल सकते हैं, दूर-दराज देश के किसी कोने में। पूरा परिवार देस में, प्राइमरी के विद्यार्थी अपने एक पुत्र को साथ ले कर खुद यहां, क्या करें, नौकरी जो है। छत्तीसगढ़ का कोई मिले, कहीं, जम्मू, असम या लद्दाख में, दम्पति साथ होंगे, खैर...

गुरुजी ने सीख दी, आपलोग यहां पूरे समय दिखते रहें, किसी न किसी की नजर में रहें। कहीं जाएं तो गांव के एक-दो लोगों को, जो आपके साथ टीले पर काम करने वाले हैं, जरूर साथ रखें, अनावश्यक किसी से बात न करें। किसी की नजर आप पर हो न हो आप ओझल न रहें, एक मिनट को भी। रात बसर करनी थी खुले खिड़की दरवाजे वाले कमरे या बरामदे में, नहाना था कुएं पर, लेकिन हाजत-फरागत का क्या होगा, कुछ समय के लिए सही, यहां तो ओट चाहिए ही। गुरुजी को मानों मन पढ़ना भी आता था। कहा कि नित्यकर्म के लिए खेतों की ओर जाएं, किसी गांववासी को साथ ले कर और खेत के मेढ़ के पीछे इस तरह बैठें कि आपका सिर दिखता रहे। गुरुजी, फिर आश्रयदाता, उनकी बात तो माननी ही थी।

गुरुजी प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाते थे, उनके सामने हम भी प्राइमरी के छात्र बन गए, तब कोई सवाल नहीं किया, शब्दशः निर्देश अनुरूप आचरण करते रहे, लेकिन कैम्प से वापस लौटते हुए, गुरुजी को धन्यवाद देने, विदा लेने पहुंचे और जैसे ही कहा कि जाते-जाते एक बात पूछनी है आप से, उन्होंने फिर मन पढ़ लिया और सवाल सुने बिना जवाब दिया, आपलोग यहां आए थे जिस टीले की खुदाई के लिए, माना जाता था कि टीले पर जाते ही लोगों की तबियत बिगड़ने लगती है तो बस्ती में खबर फैल गई कि साहब लोग अपनी जान तो गवाएंगे नहीं, किसी की बलि चढाएंगे, काम शुरू करने में, नहीं तो बाद में। इसलिए ओझल रहना या ऐसी कोई हरकत, आपलोगों के प्रति संदेह को बल देता।

इस पूरे अहवाल का सार कि गुरुजी से हमने सीखा कि दिखना जरूरी वाला फार्मूला सिर्फ 'जो दिखता है, वो बिकता है' के लिए नहीं, बल्कि दिखना, दिखते रहना पारदर्शिता, विश्वसनीयता बढ़ाती है, नई जगह पर आपका संदिग्‍ध होना कम कर सकती है। यों आसान सी लगने वाली बात, लेकिन साधना है, हमने इसे निभाया 24×7, हफ्ते के सभी सातों दिन और दिन के पूरे 24 घंटों में यहां। फिर बाद में ऐसे प्रवासों के दौरान बार-बार। अवसर बने तो कभी आप भी आजमाएं और इस प्रयोग का रोमांच महसूसें।

दुनिया रंगमंच, जिंदगी नाटक और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हम पात्र। ऊपर वाले (बिग बॉस) के हाथों की कठपुतलियां। नेपथ्‍य कुछ भी नहीं, मंच भी नहीं, लेकिन नाटक निरंतर। बंद लिफाफे का मजमून नहीं बल्कि सब पर जाहिर पोस्‍टकार्ड की इबारत। ऐसा कभी हुआ कि आपने किसी की निजी डायरी पढ़ ली हो या कोई आपकी डायरी पढ़ ले, आप किसी की आत्‍मकथा के अंतरंग प्रसंगों को पढ़, उसमें डूबते-तिरते सोचें कि अगर आपके जीवन की कहानी लिखी जाए। रील, रियल, रियलिटी। मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु कुरु स्वाहा' याद कीजिए, उन्होंने जिक्र किया है कि ऋत्विक घटक कभी-कभी सिनेमा को बायस्कोप कहते थे। बहुविध प्रयोग वाले इस उपन्यास में लेखक ने 'जिंदगी के किस्से पर कैमरे की नजर' जैसी शैली का प्रभावी और अनूठा इस्तेमाल किया है। उपन्यास को दृश्य और संवाद प्रधान गप्प-बायस्कोप कहते आग्रह किया है कि इसे पढ़ते हुए देखा-सुना जाए। आत्‍मकथा सी लगने वाली इस रचना के लिए लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते हैं- ''सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''

क्लोज सर्किट टीवी-कैमरों का चलन शुरू ही हुआ था, बैंक के परिचित अधिकारी ने बताया था कि फिलहाल सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है, लेकिन हमने सूचना लगा दी है कि ''सावधान! आप पर कैमरे की नजर है'' और तब से छिनैती की एक भी घटना नहीं हुई। दीवारों के भी कान का जमाना गया अब तो लिफ्ट में भी कैमरे की आंख होती है। कैमरे की आंखें हमारे व्‍यवहार को प्रभावित कर अनजाने ही हमें प्रदर्शनकारी बना देती हैं। सम्‍मान/पुरस्‍कार देने-लेने वाले हों या वरमाला डालते वर-वधू, दौर था जब पात्र एक-दूसरे के सम्‍मुख होते थे, लेकिन अब उनकी निगाहें कैमरे पर होती हैं, जो उन पर निगाह रखता है। कैमरे ने क्रिकेट को तो प्रदर्शकारी बनाया ही है, संसद और विधानसभा में जन-प्रतिनिधियों के छोटे परदे पर सार्वजनिक होने का कुछ असर उनके व्‍यवहार पर भी जरूर आया होगा। मशीनी आंखों ने खेल, राजनीति और फिल्मी सितारों के साथ खेल किया है, उनके सितारे बदले हैं और ट्रायल रूम में फिट कैमरों के प्रति सावधान रहने के टिप्स संदेश भी मिलते हैं। कभी तस्‍वीर पर या पुतला बना कर जादू-टोना करने की बात कही जाती थी और अब एमएमएस का जमाना है और धमकी होती है फेसबुक पर तस्‍वीर लगाने की। बस जान लें कि आप न जाने कहां-कहां कैमरे की जद में हैं। बहरहाल, ताक-झांक की आदत कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन शायद है यह आम प्रवृत्ति। दूसरी ओर लगातार नजर में बने रहना, ऐसी सोच, इसका अभ्यास, आचरण की शुचिता के लिए मददगार हो सकता है।
कभी एक पंक्ति सूझी थी- ''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'' बस यह वाक्य कहां से, कैसे, क्‍यों आया होगा, की छानबीन में अब तक काम में न आए चुटके-पुर्जियों और यादों के फुटेज खंगाल कर उनकी एडिटिंग से यानी 'कबाड़ से जुगाड़' तकनीक वाली पोस्‍ट।

पुछल्‍ला - वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्‍सर 'संदेह' होता है फिर संदेह से बचना क्‍यों? ऐतराज क्‍या? स्‍थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या फिर संदेह और अपवाद से।
'जनसत्‍ता' 11 मार्च 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट

Wednesday, January 23, 2013

काल-प्रवाह

• क्रियमाण-वर्तमान की सत्ता क्षितिज की भांति है, आकाश जैसे प्रारब्‍ध-भविष्य और पृथ्वी जैसे संचित-भूत का आभासी संगम। जड़ भूत और अपरिभाषित भविष्य के बीच अभिव्यक्त (आभासी) वर्तमान। 'अर्थसत्‍ता' की जमीन पर धावमान 'राजसत्‍ता' के रथ पर 'धर्मसत्‍ता' का छत्र।

• इतिहास जो बीत गया, जो था और भविष्य जो आयेगा, जो होगा, इस दृष्टिकोण से देखने पर इतिहास के साथ जैसी तटस्थता और निरपेक्षता बरती जाती है वह कभी-कभार लावारिस लाश के पोस्‍टमार्टम जैसी निर्ममता तक पहुंच जाती है। इतिहास की जड़ता और संवेदना, वस्तुगत और विषयगत-व्यक्तिनिष्ठ के बीच का संतुलन कैसे हो? इतिहास को महसूस करने के लिए दृष्टिकोण यदि इतिहास, जो कल वर्तमान था और भविष्य जो कल वर्तमान होगा, इसे संवेदनशील बना देता है।

• इतिहास के लिए यदि एक पैमाना ईस्वी, विक्रम, शक, हिजरी या अन्य किसी संवत्सर जैसा कोई मध्य बिन्दु है, जिसके आगे और पीछे दोनों ओर काल गणना कर इतिहास का ढांचा बनता है। एक दूसरा तरीका भी प्रयुक्त होता है ईस्‍वी पूर्व-बी.सी. और ईस्वी-ए.डी. के अतिरिक्त बी.पी. before present, आज से पूर्व। अधिक प्राचीन तिथियों, जिसमें ± 2000 वर्षों का हिसाब जरूरी नहीं, उनकी गिनती बी.पी. में कर ली जाती है। तब सैद्धांतिक रूप से ही सही और इतिहास नहीं तो अन्य वस्तुस्थितियों के लिए क्या एक तरीका यह भी हो सकता है कि गणना शुरू ही वहां से हो जहां से काल शुरू होता हो या वहां से उलट गिनती करें जो अंतिम बिंदु हो-

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काल शुरू             ईसा           वर्तमान          अंतिम बिंदु 

• ऐसे बिन्दुओं की खोज सदैव मानव जाति ने की है, जॉर्ज कैन्‍टर के 'अनंतों के बीच के अनंत' की तलाश की तरह या हमारा भविष्य-पुराण (भविष्‍य भी पुराना भी), शायद इसी का परिणाम है, भारतीय चिन्तन पद्धति में वृत्तात्मक गति, मण्डल जैसी अवधारणाएं यहीं से विकसित जान पड़ती है।

• तो यदि उन आरंभिक/चरम बिन्दु को प्राप्त नहीं किया जा सकता फिर भी उसकी खोज आवश्यक है क्या? शायद यही खोज हमें नियति-बोध कराती है और अपने दृष्टिकोण को समग्र की सम्पन्नता प्रदान करती है, संवेदना प्रदान करती है, किन्तु संतुलन के बजाय इसकी अधिकता होने पर इतिहास बोध की हीनता से आरोपित होने के साथ नियतिवादी बन जाने का रास्ता अनचाहे खुलने लगता है।

• अस्तित्वमान को सिर्फ इसलिए प्रश्नातीत नहीं माना जा सकता कि वह 'घटित हो चुके का परिणाम' है, जिस तरह आगत को 'अभी तो कुछ हुआ नही' कह कर नहीं छोड़ा जाता। इतिहास क्यों? इतिहास के लिए पीछे देखना होता है तो आगे देखने की दृष्टि भी वहीं से मिलती है। इतिहास, समाज का ग्रंथागार जो है।

• इतिहास अभिलेखन का आग्रह भी तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीन जाने का आभास होने लगे, वह मुठ्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय या फिर तब भी ऐसा आग्रह भाव बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो यानि जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशास्ति रचना, लेकिन विसंगति यह है कि ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव ही सापेक्ष हो जाता है यह 'इतिहास' की एक विकट समस्या भी कही जा सकती है कि उसे साथ-साथ, आगे से या पीछे से किसी (समकोण, अधिककोण या न्यूनकोण) कोण से देखें वह मृगतृष्णा बनने लगता है। ''इतिहास से बड़ा कोई झूठ नही और कहानी से बड़ा कोई सच नही'' कथन संभवतः ऐसे ही विचारों की पृष्ठभूमि पर उपजा हो। छत्‍तीसगढ़ी कहावत है- 'कथा साहीं सिरतो नहीं, कथा साहीं लबारी', अर्थात् कथा जितना सच्‍चा कुछ नहीं, लेकिन है कथा जैसा झूठा।

• हमारी सोच और उसका विस्तार, हमारे राजमर्रा की बातचीत और उसकी व्यापकता में पात्र फिर देश और उसके बाद अंतिम क्रम पर काल है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि सोच की गहराई में सबसे नीचे अवधारणात्मक काल ही हो सकता है, उसके ऊपर भौतिक देश और सबसे सतही स्तर पर सजीव पात्र होना ही स्वाभाविक है, किन्तु इसके विपरीत और साथ-साथ पात्र में भौतिक स्वरूप और अवधारणा का अंश प्रकटतः सम्मिलित है, देश में उसके भौतिक विस्तार के साथ अवधारणात्मक विचार निहित हैं जबकि काल की सत्ता देश और पात्र संदर्भपूर्ण विचारों या बातचीत में आकार ग्रहण कर जीवन्त हो पाता है। काल की स्वत्रंत और निरपेक्ष सत्ता वैचारिक स्तर पर भी असंभव नही तो दुष्कर अवश्य है।

• इतिहास कालक्रम का पैमाना है, लेकिन किसी पैमाने पर माप लेना, किसी वस्तु को जान लेने की बुनियादी और अकेली शर्त जैसा तय मान लिया जाता है (जैसे व्यक्ति का नाम, कद, वजन या किसी स्थान की दूरी और स्मारक की प्राचीनता) जबकि किसी को जान लेने में, चाहे वह सजीव पात्र हो, भौतिक देश हो या अवधारणात्मक काल, यह एक शर्त और वह भी गैर जरूरी की हद तक अंतिम, उसे माप लेने की हो सकती है।

• परम्परा में नदी-सा सातत्य भाव है। परम्परा, रूढ़ि नहीं है, वह केवल प्राचीनता भी नहीं है, न ही वह इतिहास है, परम्परा की सार्थकता तो उसके पुनर्नवा होने में ही है। गति का रैखिक या विकासवादी दृष्टिकोण उसे अपने मूल से विलग होकर दूर होते देखता है लेकिन वृत्तायत दृष्टिकोण से परिवर्तनशील किन्तु मूल से निरन्तर सामीप्य और समभाव बनाये पाता है।

• परम्परा का अभिलेखन अन्जाने में, तो कभी षड़यंत्रपूर्वक उस पर आघात का हथियार बना लिया जाता है। परम्परा को अभिलिखित कर उसी परम्परा की अगली पीढ़ी को उसके पुराने अभिलिखित स्वरूप का आईना दिखाकर (कहना कि यह है तुम्हारा असली चेहरा) उसे झूठा साबित करना आसान उपाय है, शायद तभी कहा गया है कि ''शैतान भी अपने पक्ष में बाइबिल के उद्धरण ला सकता है।''

• आगे (?) बढ़ते समय के साथ विकास को अनिवार्यतः जोडकर देखा जाता है, और विकास का अर्थ लगाया जाता है वृद्धि, यानि 1 से 2 और 2 से 4 किन्तु यह स्वाभाविक नही है स्वाभाविक है परिवर्तन जिसे हम अपने बनाए दुनियावी पैमाने पर आगे पीछे माप-गिन लेते है, यह आंकडों के व्यावहारिक इस्तेमाल में तो संभव है किन्तु इसे तत्वतः कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

पिछली पोस्‍ट की तरह यह भी स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का दूसरा हिस्‍सा (पहला हिस्‍सा – पिछली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।

Tuesday, January 15, 2013

आगत-विगत

• इतिहास की पढ़ाई का हिस्सा है, इतिहास-लेख (Historiography)। जिसने इतिहास की पाठ्‌यपुस्तकीय पढ़ाई न की हो या की हो और यह पाठ्‌यक्रम में न रहा हो, तो भी इतिहास पर आड़े-तिरछे सवाल मंडराते जरूर हैं और इतिहास को समझने-पकड़ने के लिए, अपनी सोच को, अपने चिंतन को, चाहे वह अनगढ़ हो, शब्द दे कर उसका धरन-धारण बेहतर हो पाता है।

• प्रकृति का रहस्य अक्सर उसकी अभिव्यक्ति में गहराता है, उसी तरह इतिहास, कई बार पुरातात्विक प्राप्तियों (OOP, out-of-place) और उनकी व्याख्‍या में। इतिहास अपने को दुहराए न दुहराए, उसके पुनर्लेखन की आवश्यकता बार-बार होती है। जीवन-वर्तमान, मृत्‍यु-इतिहास। तथ्‍य, सत्‍य और कथ्‍य का फर्क। मौत, फकत मौत के तथ्‍य का सत्‍य हत्‍या, आत्‍महत्‍या, फांसी-मृत्‍युदंड, दुर्घटनाजन्‍य या स्‍वाभाविक मृत्‍यु, कुछ भी हो सकता है और कथ्‍य- 'नैनं छिन्‍दन्ति ...' या‍ 'हमारे बीच नहीं रहे' या 'अपूरणीय क्षति' या 'आत्‍मा का परमात्‍मा में मिलन' या 'चोला माटी का' या 'पंचतत्‍व में विलीन' या 'रोता-बिलखता छोड़ गए' या 'धरती का बोझ कम हुआ।

• पुराविद्‌, आधुनिक पंडित-वैज्ञानिक जैसे हैं, जिसकी बात पर कम लोग ही तर्क करते हैं, आसानी से मान लेते हैं, चकित होने की अपेक्षा सहित उसकी ओर देखते हैं। इस अपेक्षा की पूर्ति आवश्यक नहीं, बल्कि विश्वासजनित ऐसे अकारण मिलने वाले सम्मान के प्रति जवाबदेही तो बनती है।

• पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्‍कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्‍परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं। कई बार मुख्‍य धारा में आ कर वह आहत होने लगता है, तब लगता है कि हाशिये में रह कर उपेक्षित नहीं, बेहतर सुरक्षित है। वैसे अब हाशिये का इतिहास, अवर, उपाश्रयी, सबआल्टर्न शब्दों के साथ, अलग (प्रतिवादी) अवधारणा और दृष्टिकोण है।

• पुरातत्व का संस्कार- 'जो अब नहीं रहा' उसके लिए हाय-तौबा के बजाय 'जो है, जितना है', उसे बचाए रखने का उद्यम अधिक जरूरी है, क्योंकि बचाने के लिए भी इतनी सारी चीजें बची हैं कि प्राथमिकता तय करना जरूरी होता है। हर व्यक्ति के, अपने आसपास ही इतना कुछ जानने-बूझने को, सहेजने-संभालने को हैं कि क्षमता और संसाधन सीमित पड़ने लगता है। खंडहरों के साथ समय बिताते हुए पसंदीदा और जरूरी का टूटना, खोना, छूट जाना महसूस तो होता है, लेकिन इसको बर्दाश्‍त करने के लिए मन धीरे-धीरे तैयार भी होता जाता है। अवश्‍यंभावी नश्‍वर। जैसे डाक्‍टरों की तटस्‍थता कई बार निर्मम लगती है।

• इतिहास यदि आसानी से बनने लगे तो उसे समय की परतें आसानी से ढकने भी लगती हैं। ध्‍वंस भी सृजन की तरह, बिना शोर-शराबे के, समय के साथ स्‍वाभाविक होता है, बल्कि निर्माण कई बार रस्‍मी ढोल-ढमाके के साथ और उद्यम से संभव होता है। शाश्‍वत-नश्‍वर के बीच प्रलय-लय-विलय और प्रकृति-कृति-विकृति। ''प्रकृतिर्विकृतिस्‍तस्‍य रूपेण परमात्‍मनः।'' टाइम मशीन के दुर्लभ अनुभव की कल्‍पना, उत्खनन के दौरान काल में पर्त-दर-पर्त उतरने का वास्‍तविक अनुभव, सच्‍चा रोमांच। इतिहास जानना, भविष्य जानने के प्रयास से कम रोमांचक नहीं होता।

• सभ्यता का इतिहास, पहाड़ों की कोख-कन्दरा में पलता है। सभ्यता-शिशु, गिरि-गह्वर गर्भ से जन्‍मता है। ठिठकते-बढ़ते तलहटी तक आता है, युवा से वयस्क होते मैदान में कुलांचे भरने लगता है। (अगल-बगल वन-अरण्‍य में दर्शन, चिंतन, वैचारिक सृजन और शिक्षण होता रहता है।) वयस्क से प्रौढ़ होते हुए नदी तट-मुहाने पर आ कर, उद्गम से बहाव की दिशा में आगे बढ़ता जाता है, संगम पर तट भी बदल पाता है। अपने अलग-अलग संस्करणों में परिवर्तित होता कायम रहता है, कभी स्थान बदल कर, कभी रूप बदल कर। बहती नदी, समय का रूपक है?

• प्राकृत-पालि या लौकिक संस्‍कृत का दो हजार साल से भी अधिक पुराना साहित्‍य, जातक या पंचतंत्र पढ़ते हुए यह लगातार महसूस होता है कि संसार में यातायात, संचार साधनों, भौतिक स्‍वरूप में जो भी परिवर्तन आया हो, हमारी दृष्टि, हमारा मन वही है।

• हर कहानी की शुरुआत होती है- 'किसी समय की बात है, एक देश में राजा या राजकुमारी या किसान या व्यापारी या ब्राह्मण या सात भाई थे' या कि 'बहुत पुरानी बात है, फलां शहर में ...', ज्यों अंग्रेजी में 'लांग लांग अ गो / वन्स अपान अ टाइम, देअर वाज अ किंग ...' यानि हर कहानी बनती है देश, काल और पात्र से। 'देश', जड़ है, धरती की तरह, भूत-इतिहास। 'काल', अवधारणा है, हवा की तरह, संभावना-भविष्य। और 'पात्र', मनुष्य है, क्षितिज की तरह, आभासी-वर्तमान। जातक का जन्‍म फलां स्‍थान में, अमुक समय हुआ। तीन आयाम मिले, तस्‍वीर ने आकार ले लिया, बात की बात में रंग भरा और बन गई जन्‍म-कुंडली। बात ठहराने के लिए जरूरत होती है इन्हीं तीन, देश-काल-पात्र की। कहानी हो या इतिहास, होता इन्हीं तीन का समुच्चय है। जहां यह नहीं, वह शब्दातीत-शाश्वत।

• मानविकी - दर्शन, अध्यात्म, कला, भाषा, नैतिकता, मूल्य, मानवता - भविष्य।
  सामाजिक विज्ञान - अर्थ, राजनीति, समाज, पूर्वापर काल - वर्तमान।
  प्राकृतिक विज्ञान – भू-भौमिकी, गणना, भौतिकी - भूत।
Natural Science
Social Science
Bio-science
Psychology-Philosophy
Biology
Sociology
Chemistry
Economics-Political Science
Physics
History-Geography
Maths
Language

• पुरातत्‍व की सुरंग और इतिहास की पगडंडियों पर एकाकी चलते, राह दिखलाते तर्क-प्रमाणों की संकरी गलियों में सरकते, कभी आसपास गुजरते लोक-विश्‍वास के जनपथ पर साथ आ कर बहुमत बन जाना जरूरी होता है, क्‍योंकि जो लिख दिया गया वह शास्‍त्र बना, दर्ज हुआ वह इतिहास बन कर समय (और दूरी) को लांघ गया, लेकिन कई बार इस तरह तय किए सफर का मुसाफिर अपने परिवेश में बेगाना हो जाता है। शोध, अपने संदेहों पर भरोसा करना सिखलाता है, अनुसंधान का परिणाम अविश्‍वसनीय के प्रति आश्‍वस्‍त करता है, आत्‍म-विश्‍वास पैदा करने में मददगार होता है।

• इतिहास, विषय के रूप में एक अनुशासन है और प्रत्येक अनुशासन का विशिष्ट होते, उसका महत्व होता है तो उसकी अपनी सीमाएं भी होती हैं, जिस तरह किसी अपराधी को सबूतों के अभाव में सजा नहीं दी जा सकती, उसी तरह पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इतिहास में भी, विश्वास और मात्र निजी सूचना के आधार पर, स्थापनाएं मान्य नहीं होतीं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि अपने विश्वास को इतिहास की कसौटी पर अनावश्यक कसने का प्रयास न करें, यह उसी तरह अनावश्यक है, निरर्थक साबित होगा जैसे अपनी मां के हाथ बने व्यंजन के सुस्वादु होने, अपनी पसंद को प्रमाणित करने का तर्क और प्रमाण देना। आशय यह कि किसी विषय की सीमा उसकी दिशा निर्धारित करती है, मर्यादा उसे संकुचित कर उसमें सौंदर्य भरती है।

यह स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का पहला हिस्‍सा (दूसरा हिस्‍सा – अगली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।
'जनसत्‍ता' 23 दिसंबर 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट 

Thursday, January 10, 2013

अनूठा छत्तीसगढ़

प्राचीन दक्षिण कोसल, वर्तमान छत्तीसगढ़ एवं उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक सभ्यता के रोचक पाषाण-खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल में यानि तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास- कन्दरा की भित्ति पर रंग ड़ूबी कूंची फेर कर, अपने कला-रुझान का प्रमाण दर्ज किया। मानव-संस्कृति की निरंतर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर एवं प्रतिमा, सिक्के, अभिलेख आदि में व्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों की महत्वाकांक्षा व कलाप्रियता से इस क्षेत्र में सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ और छत्तीसगढ़ का धरोहर सम्पन्न क्षेत्र, पुरातात्विक महत्व के विशिष्ट केन्द्र के रूप में जाना गया।

खोज और अध्ययन के विभिन्न प्रयासों के फलस्वरूप यह क्षेत्र, पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। शैलाश्रयवासी आदि-मानव के प्रमाण, रायगढ़ के सिंघनपुर व कबरा पहाड़ और कोरिया के घोड़सार और कोहबउर में ज्ञात हैं। ऐसे ही प्रमाण राजनांदगांव, बस्तर और रायगढ़ अंचल के अन्य स्थलों में भी हैं। लौहयुग के अवशेषों की दृष्टि से धमतरी-बालोद मार्ग के विभिन्न स्थल यथा- धनोरा, सोरर, मुजगहन, करकाभाट, करहीभदर, चिरचारी और धमतरी जिले के ही लीलर, अरोद आदि में सैकड़ों की संख्‍या में महापाषाणीय स्मारक- शवाधान हैं।

इतिहास-पूर्व युग को इतिहास से सम्बद्ध करने वाली कड़ी के रूप में इस अंचल के परिखायुक्त मिट्‌टी के गढ़ों का विशेष महत्व है। ऐसी विलक्षण संरचना वाले विभिन्‍न आकार-प्रकार के गढ़ों को महाजनपदीय काल के पूर्व का माना गया है। जांजगीर-चांपा जिले में ही ऐसे गढ़ों की गिनती छत्तीस पार कर जाती है, इनमें मल्हार का गढ़ सर्वाधिक महत्व का है। इन गढ़ों के विस्तृत अध्ययन से इनका वास्तविक महत्व उजागर होगा, किन्तु प्रदेश की पुरातात्विक विशिष्टता में मिट्‌टी के गढ़ों का स्थान निसंदेह महत्वपूर्ण है।

प्रदेश की विशिष्ट पुरातात्विक उपलब्धियों में नन्द-मौर्य के पूर्व काल से संबंधित आहत-मुद्राएं बड़ी संख्‍या में तारापुर और ठठारी से प्राप्त हैं। मौर्य व उनके परवर्ती काल का महत्वपूर्ण स्थान सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी पर निर्मित शिलोत्खात, अभिलिखित गुफा है, जो सुतनुका देवदासी और उसके प्रेमी देवदीन नामक रूपदक्ष के अभिलेख सहित, प्राचीनतम रंगमंडप के रूप में प्रतिष्ठित है। सातवाहनकालीन इतिहास साक्ष्यों में जांजगीर-चांपा जिले का किरारी काष्ठ-स्तंभलेख इस अंचल की विशिष्ट उपलब्धि है, जो काष्ठ पर उत्कीर्ण प्राचीनतम अभिलेख माना गया है। लगभग इसी काल के दो अन्य महत्वपूर्ण अभिलेखों में मल्हार की प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, जिस पर प्रतिमा निर्माण हेतु दान का उल्लेख उत्कीर्ण है तथा अन्य अभिलेख, सक्ती के निकट ऋषभतीर्थ-गुंजी के चट्‌टान-लेख जिसमें सहस्र गौ दानों के विवरण सहित, कुमारवरदत्तश्री नामोल्लेख है। इसी काल के स्थानीय मघवंशी शासकों के सिक्के और रोमन सिक्कों की प्राप्ति उल्लेखनीय है।

गुप्त शासकों के समकालीन छत्तीसगढ़ में शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डु वंश की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें राजर्षितुल्य कुल का एकमात्र ताम्रपत्र आरंग से प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात्‌ का काल क्षेत्रीय राजवंश- शरभपुरीय अथवा अमरार्यकुल से सम्बद्ध है। इस काल- लगभग पांचवीं-छठी सदी ईस्वी के ताला के दो शिव मंदिर तथा रूद्र शिव की प्रतिमा तत्कालीन शिल्‍प के अनूठे उदाहरण हैं। इसी राजवंश के प्रसन्नमात्र व अन्‍य शासक के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्के तकनीक की दृष्टि से अद्वितीय हैं, नल शासकों के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्‍के बस्‍तर से मिले हैं। इस कालखंड में राजिम में उपलब्ध शिल्प तथा सिसदेवरी, गिधपुरी, रमईपाट के अवशेष भी उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार बस्तर के गढ़ धनोरा के मंदिर, मूर्तियां और भोंगापाल का बौद्ध चैत्य, भारतीय कला की महत्वपूर्ण कड़ियां हैं।

इसके पश्चात्‌ के सोम-पाण्डुवंशी शासकों के काल में तो मानों छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग घटित हुआ है। ईंटों के मंदिरों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, ईंटों के प्राचीन मंदिरों में भारतीय स्थापत्य का सर्वाधिक कलात्मक व सुरक्षित नमूना है। साथ ही पलारी, धोबनी, खरौद के ईंटों के मंदिर तारकानुकृति स्थापत्य योजना वाले, विशिष्ट कोसली शैली के हैं। इसी वंश के महाशिवगुप्त बालार्जुन के सिरपुर से प्राप्त ताम्रपत्रों के नौ सेट की निधि, एक ही शासक की अब तक प्राप्त विशालतम ताम्रलेख निधि है साथ ही तत्कालीन मूर्तिकला का शास्त्रीय और कलात्मक प्रतिमान दर्शनीय है। सरगुजा के डीपाडीह और महेशपुर तो जैसे प्राचीन मंदिरों के नगर हैं।

दसवीं से अठारहवीं सदी ईस्वी तक यह अंचल हैहयवंशी कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की विभिन्न गतिविधियों-प्रमाणों से सम्पन्न है। विश्व इतिहास में यह राजवंश सर्वाधिक अवधि तक अबाध शासन का एक उदाहरण है। कलचुरि राजाओं के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मंदिर व प्रतिमाएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। संभवतः देश का अन्य कोई क्षेत्र अभिलेख व सिक्कों की विविधता और संख्‍या की दृष्टि से प्राप्तियों में इस क्षेत्र की बराबरी नहीं कर सकता।

पुरातात्विक स्थलों की दृष्टि से प्रसिद्ध ग्राम सिरपुर प्राचीन राजधानी के वैभव प्रमाणयुक्त है ही, मल्हार का भी विशिष्ट स्थान है। इस स्थल के राजनैतिक-प्रशासनिक मुख्‍यालय होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता, किंतु मल्हार व संलग्न ग्रामों- बूढ़ीखार, जैतपुर, नेवारी, चकरबेढ़ा, बेटरी आदि विस्तृत क्षेत्र में लगभग सातवीं-आठवीं ईस्वी पूर्व से आरंभ होकर विविध पुरावशेष- आवासीय व स्थापत्य संरचना, अभिलेख, सिक्के, मनके, मृणमूर्तियां, मिट्‌टी के ठीकरे, मंदिर, मूर्तियां, मुद्रांक जैसी सामग्री निरंतर कालक्रम में प्राप्त हुए हैं।

इस प्रकार अभिलेख, सिक्कों का वैविध्यपूर्ण प्रचुर भण्डार, प्राचीनतम रंगशाला, प्राचीनतम काष्ठ स्तंभलेख, प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, उभारदार सिक्के, ताला आदि स्थलों के मंदिरों का अद्वितीय स्थापत्य, मूर्तिशिल्प और पुरातात्विक स्थलों की संख्‍या और विशिष्टता आदि के कारण देश के पुरातत्व में छत्तीसगढ़ का स्थान गौरवशाली और महत्वपूर्ण है।

Monday, January 7, 2013

कलचुरि स्थापत्य: पत्र

बात रतनपुर के तीन शिल्पखंडों से आरंभ करने में आसानी होगी, जो एक परवर्ती मंदिर (लगभग 15वीं सदी ई.) में लगा दिये गये थे। इस मंदिर 'कंठी देउल' का अस्तित्व वर्तमान में बदला हुआ है, क्योंकि यह एएसआइ द्वारा अन्य स्थान पर पुनर्संरचना की प्रक्रिया में है, इन शिल्पखंडों में से एक 'पार्वती परिणय' प्रतिमा है, जो अब रायपुर संग्रहालय में है। दो अन्य- 'शालभंजिका' एवं 'ज्योतिर्लिंग-ब्रह्‌मा, विष्णु प्रतिस्पर्धा' हैं। ये तीनों शिल्पखंड लगभग 9 वीं सदी ई. में रखे जा सकते हैं।
कंठी देउल, रतनपुर
रतनपुर शाखा के कलचुरियों की कला देखने के लिए इसकी पृष्ठभूमि में आठवीं सदी ई. तक के पाण्‍डु-सोमवंश की कला परम्परा है। नवीं सदी ई. की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध नहीं है, दसवीं सदी ई. के कुछ उदाहरण मिलते हैं, फिर ग्यारहवीं सदी के कलचुरि स्थापत्य-कला का भंडार इस क्षेत्र (छत्तीसगढ़ या दक्षिण कोसल) में है, वैसे इस शैली की अधिकांश सामग्री को बारहवीं सदी में रखना अधिक उपयुक्त है, कुछ उदाहरण तेरहवीं सदी के भी हैं, जो अवसान काल के माने जा सकते हैं। इस तरह कलचुरि कला शैली का आरंभ ग्यारहवीं सदी का है, विकास-समृद्धि बारहवीं सदी की और ह्रास तेरहवीं सदी में। इन काल खण्डों की अलग-अलग चर्चा उदाहरण सहित करने से यह स्पष्ट हो सकेगा।

चर्चा का पहला खंड ऐसी कलाकृतियां हैं, जिनमें पाण्‍डु-सोमवंशी शैली की स्पष्ट छाप देशी-पहचानी जा सकती है और जिनका काल नवीं सदी ई. निश्चित किया जा सकता है, इनमें रतनपुर के उपरिलिखित तीन शिल्पखंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश द्वार हैं।

दूसरा खंड दसवीं सदी (विशेषकर उत्तरार्द्ध) से संबंधित है, जिसमें पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर है तथा दूसरा उदाहरण घटियारी का शिव मंदिर की मलबा-सफाई से प्राप्त प्रतिमाएं है। घटियारी का मंदिर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में किसी राजवंश (फणिनाग?) से संबंधित नहीं किया जा सकता।

तीसरे खंड ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में कलचुरि शिल्प और मंदिरों की श्रृंखला है, जिनका आरंभ तुमान से होता है, तुमान मंदिर का काल ग्यारहवीं सदी है। बारहवीं सदी के ढेर सारे उदाहरण हैं, जिनमें जांजगीर और शिवरीनारायण के दो-दो मंदिर, नारायपुर का मंदिर युगल, आरंग का भांड देवल (जैन मंदिर, भूमिज शैली), गनियारी, किरारीगोढ़ी, मल्हार के दो मंदिर आदि तथा रायपुर संभाग सीमा के कुछ मंदिर हैं।

चौथे खंड में तेरहवीं सदी के मंदिर हैं, जिनमें सरगांव का धूमनाथ मंदिर, मदनपुर से प्राप्त मंदिर अवशेष, धरहर (राजेन्द्रग्राम, जिला शहडोल) का मंदिर है।

तीसरे खंड के मंदिरों की कुछ विशिष्टताओं की थोड़ी और चर्चा यहां होनी चाहिये। अनियमित ढंग से शुरू करने पर तुमान का मंदिर और मल्हार के केदारेश्वर (पातालेश्वर) मंदिरों में मंडप और गर्भगृह समतल पर नहीं है। गर्भगृह बिना जगती के सीधे भूमि से आरंभ होकर उपर उठता है, जबकि मंडप उन्नत जगती पर है, (दोनों में अब जगती ही शेष है, मंडप का अनुमान मात्र संभव है) अतः पूरी संरचना विशाल जगती पर निर्मित जान पड़ती है। इस विशिष्टता के फलस्वरूप मल्हार का गर्भगृह निम्नतलीय है, किन्तु तुमान में ऐसा नहीं है (यहां अमरकंटक के पातालेश्वर का उल्लेख हो सकता है।) तुमान के द्वार-प्रतिहारियों और नदी-देवियों में त्रिपुरी कलचुरियों की शैली की झलक है, इस शिव मंदिर के द्वार शाख में दोनों ओर क्रमशः 5-5 कर विष्णु के दसों अवतार अंकित है। समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी विद्यमान है। (पाली, नारायणपुर और नारायणपाल मंदिरों में मंडप है।)

द्वारशाखों का सम्मुख और पार्श्व की चर्चा भी करनी चाहिये, रतनपुर किला में अवशिष्ट (या अन्य किसी स्थान से लाये गये) मात्र प्रवेश द्वार के सम्मुख में लता-वल्ली व सरीसृप का अंकन पुरानी रीति की स्मृति के कारण हुआ जान पड़ता है, इसलिये इसका काल निश्चित तौर पर नवीं सदी का उत्तरार्द्ध माना जाना उपयुक्त नहीं है यह और परवर्ती हो सकता है। शाख सामान्यतः विकसित नवशाख हैं, जिनमें दोनों ओर समान आकार की तीन-तीन आकृतियां (दो-दो प्रतिहारी व एक-एक नदी-देवियां) हैं और जिनका आकार लगभग पूरी ऊंचाई से दो-तिहाई या अधिक है। यह इन मंदिरों की सामान्य विशेषता बताई जा सकती है। शाखों के वाह्य पार्श्व तथा अंतःपार्श्व (द्वार में प्रवेश करते हुए दोनों बगल) के कुछ उल्लेख आवश्यक हैं।

रतनपुर किला के अवशिष्ट प्रवेश द्वार के वाह्य पार्श्व में कथानकों ('रावण का शिरोच्छेदन व शिवलिंग को अर्पण', नंदी पूजा आदि) का अंकन है। रतनपुर महामाया मंदिर (14-15वीं सदी) के द्वारशाखों पर अपारंपरिक ढंग से कलचुरि नरेश बाहरसाय के अभिलेख दोनों ओर हैं। जांजगीर के मंदिरों में से विष्णु मंदिर में वाह्य पार्श्व युगल अर्द्धस्तंभों का है (नारायणपुर में भी), जिसमें धनद देवी-देवता तथा संगीत-समाज अंकित है, वहीं जांजगीर के दूसरे मंदिर, शिव मंदिर में इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर कथानक व शिवपूजा के दृश्य भी हैं।

गनियारी के मंदिर के इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर हीरक आकृतियां तथा पुष्प अलंकरण है। प्रवेश द्वार के अंतःपार्श्व अधिकांश सादे हैं, किन्तु गनियारी में सोमवंशी स्मृति है, अर्थात इस स्थान पर सोमवंशियों में एक पूर्ण व दो अर्द्ध उत्फुल्ल पद्य अंकन हुआ है, गनियारी में पांच-छः पूर्ण उत्फुल्ल पद्य आकृतियां इस स्थान पर अंकित हैं, अंतःपार्श्वों पर कथानक व देव प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा ताला, देवरानी मंदिर और मल्हार, देउर मंदिर में है, इनमें द्वारशाख का अंतःपार्श्व सम्मुख से अधिक महत्वपूर्ण है, इसीका अनुकरण मल्हार के केदारेश्वर तथा शिवरीनारायण के केशव नारायण मंदिर में है। यहां द्वारशाख सम्मुख तो परम्परागत हैं किन्तु अंतःपार्श्वों में देवप्रतिमाएं अंकित हैं, मल्हार में शिव-पार्वती का द्यूत प्रसंग, पार्वती-परिणय, वरेश्वर शिव, अंधकासुर वध, विनायक-वैनायिकी आदि हैं, जबकि शिवरीनारायण में इस स्थान पर विष्णु के चौबीस रूपों का संयोजन है। (अंतःपार्श्वों तथा द्वारशाख पर विष्णु स्वरूप नारायणपुर में भी है।)

अलग-अलग मंदिरों व स्थलों की चर्चा करें तो किरारीगोढ़ी का खंडित मंदिर स्थापत्य में रथ-योजना प्रक्षेपों की कलचुरि तकनीक देखने के लिये महत्वपूर्ण है, यहां मंडप के चबूतरे से मिले स्थापत्य खंड में 'व्याल, नायिका व देव प्रतिमा' ऐसे समूह वाले कई खंड हैं, जिनसे मंडप की प्रतिमा योजना व अलंकरण का अनुमान होता है, ऐसे ही खंड घुटकू में प्राप्त हुए हैं, बीरतराई के कुछ खंड भी मंडप के अंश जान पड़ते हैं, कनकी से कई द्वारशाख मिले हैं, जो स्थल पर ही नये निर्मित मंदिरों में लगाये गये हैं, भाटीकुड़ा के अवशेष-सिरदल आदि रोचक और महत्वपूर्ण हैं।

श्री मधुसूदन ए. ढाकी को  07.12.1989 को मेरे द्वारा (अन्‍तर्देशीय पर) प्रेषित पत्र का मजमून, इसी पत्र के आधार पर (अन्‍य कोई औपचारिक आवेदन के बिना) मुझे अमेरिकन इंस्‍टीट्यूट आफ इंडियन स्‍टडीज की फेलोशिप मिली थी। (पद्मभूषण) ढाकी जी से जुड़ी कुछ और बातें आगे कभी।